सफरनामा

31 अक्तूबर, 2010

जो अपराध नहीं कर सकते, क्या वे निर्दोष हैं?

यूपी में हर सरकार कानून का राज चलाने का दावा करते हुए आती है लेकिन जल्दी ही न्याय-देवी की ऐसी मूर्ति में बदल जाती है जिसकी आंखे पारदर्शी पट्टी के पीछे से विरोधियों को घूर रही हैं और जिसने न्याय के तराजू को अपने स्वार्थों की तरफ झुका रखा है। इस “टेनीमारी” का नतीजा यह होता है कि समूचा परिदृश्य अपराधियों के अनुकूल हो उठता है, लोग त्राहिमाम करने लगते हैं। लेकिन यह जो त्राहिमाम सुनाई पड़ता है क्या वह सचमुच की पीड़ा और आम नागरिक की सुरक्षा की चिन्ता से पैदा हुआ है, इसकी पड़ताल किए जाने की जरूरत है।

जैसे ही कोई बड़ी आपराधिक वारदात (आमतौर पर हत्या) होती है जिसमें सरकार को घेरने के लायक सारे रस और तत्व मौजूद हों कई नाटकीय परिवर्तन घटित होते हैं। सबसे पहले गले में सदाचार का ताबीज डाले विपक्षी राजनीतिक दल आते हैं। बयान, भर्त्सना फिर प्रायोजित आंदोलनों का सिलसिला शुरू होता है जिसमें यदा-कदा जनता भी दिखाई पड़ती है। फिर रिटायर्ड पूर्व पुलिस महानिदेशकों, कुछ वानप्रस्थी नौकरशाह और सक्रिय बुद्धिजीवियों के जत्थे प्रकट होते हैं जो प्रवचन शैली में बताते हैं कि कानून-व्यवस्था को सुधारने के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए। तभी उचित अवसर की प्रतीक्षा करती सरकार विपक्षी दलों डपट देती है कि जब आपकी सरकार थी तब आपने क्या किया था। आरोप-प्रत्यारोप में कानून बेचारा विधानसभा के पिछवाड़े कहीं जाकर दुबक जाता है। रिटायर्ड पुलिस महानिदेशकों से कोई नहीं पूछता कि आप जब कुर्सी पर थे, तब आपका यह ज्ञान कहां था। लिहाजा वे बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर झुनझुने की तरह बजते रहते हैं। अपराधी कबड्डी खेलते रहते हैं, लोकतंत्र की लीला चलती रहती है।

जो अपराधी सरकारी दल में होते हैं उन्हें वहां एक खास उद्देश्य से भर्ती किया गया होता है। बड़े नेताओं द्वारा उन्हें सुधार कर, जिम्मेदार नागरिक के रूप में समाज को वापस कर देने का यह पवित्र उद्देश्य न्याय के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित है और जनता उन्हे अपने वोट से चुनकर यह इच्छा पहले ही सार्वजनिक कर चुकी होती है। उन्हें सुधारने की नीयत से ही बड़े नेता उन्हें कभी “गरीबों का मसीहा” तो कभी “राबिनहुड बताते” रहते हैं। लेकिन अन्य दलों के जो अपराधी होते हैं वे अनिवार्य तौर पर समाजविरोधी और लोकतंत्र के नाम पर कलंक होते हैं। वे हमेशा इस अवसर की तलाश में रहते हैं कि वे सरकार में घुस कर सुधरने का अवसर पा सकें। अवसरों की संभावना के इस दौर असल कारनामा यह हुआ है कि विधानसभा में आपराधिक पृष्ठभूमि के इतने माननीय पहुंच चुके हैं कि वे चाहें तो मिलकर अपनी सरकार बना सकते हैं और राजनेताओं को सुधारने की परियोजना चला सकते हैं। खैर उन्होंने उन्होंने अपने बाहुबल से राजनीति का चरित्र तो बदल ही डाला है। यही कारण है कि कोई भी सरकार अब कानून का राज नहीं स्थापित कर पाती।

सुखी-संपन्न भविष्य के अचूक फार्मूले के रूप में अपराध को समाज में जबर्दस्त लोकप्रियता मिल रही है। अपराध अब नैतिक मुद्दा नहीं रहा, वह एक तकनीक है। मूल रूझान अब कानून को मानने का नहीं उसे धता बताकर किसी भी कीमत पर कामयाब होने का है। रिश्वत लेने वालों से लेकर दूध में यूरिया मिलाने वाले, नकली दवाएं बेचने वाले, लौकी में आक्सीटोसिन का इंजेक्शन ठोंकने वालों तक, सभी किस्मों के अपराधियों को विश्वास है कि वे महान लोकतंत्र के गुप्त रास्तों से बच निकलेंगे। क्या अब उन्हीं लोगों निर्दोष कहा जाता हैं जिनमें अपराध करने की हिम्मत नहीं है? यह एक ऐसा सवाल है जिसपर सोचा जाना चाहिए।

24 अक्तूबर, 2010

मच्छर-संगीत की स्वरलिपि

एक आदमी के मन में कितनी इच्छाएं होती हैं, शायद इसे कभी जान लिया जाएगा लेकिन इस रहस्य से कभी पर्दा नहीं उठ सकेगा कि दिल्ली, लखनऊ समेत देश में डेंगू से अब तक कितने मनुष्य मर चुके हैं। सरकारी, गैरसरकारी विशेषज्ञों से अब तक इतना पता चल पाया है कि डेंगू एक खास तरह के मच्छर के काटने से होने वाली बीमारी है जिससे बच कर रहना चाहिए। हम सब अपने अनुभव से जानते हैं कि मच्छर काटने से पहले गाना गाते हैं। इस गाने की महीन धुन में एक महान चुनौती है, एक हुंकार है। वे पूछते हैं कि आपने कई परमाणु परीक्षण कर दुनिया को बता दिया कि एटम बम बना सकते हैं, आपके डाक्टरों की दुनिया भर में साख है और अब दुनिया के नक्शे पर आर्थिक सुपर पॉवर बनने जा रहे हैं लेकिन आप हमारा बाल-बांका क्यों नहीं कर पाए? यह गाना और गंभीर इसलिए हो जाता है क्योंकि इसे ऐसा कीट गा रहा है जिसने दुनिया में किसी भी जानवर की तुलना में सबसे ज्यादा मनुष्यों को मौत की नींद सुलाया है।

मच्छरों पर दुनिया भर में घूम कर शोध करने में जिन्दगी लगा देने वाले हावर्ड विश्विद्यालय के प्रोफेसर एन्ड्रयू स्पीलमैन और पुलित्जर विजेता पत्रकार माइकेल डी. एन्तोनियो ने एक अद्भुत किताब लिखी है। इस किताब, “मस्कीटोः ए नेचुरल हिस्ट्री आफ अवर मोस्ट परसिस्टेन्ट एंड डेडली फो” में स्पीलमैन तथ्यात्मक ढंग से बताते हैं कि ये मच्छर ही थे जिन्होंने सिकन्दर और चंगेज खां की सेनाओं को हरा दिया था और उनके विश्वविजेता बनने के सपने धरे रह गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय डीडीटी (डाइक्लोरो डाइफिनाइल ट्राइक्लोरो ईथेन) आने के बाद वैज्ञानिकों ने मान लिया था कि मच्छर खत्म हो गए लेकिन यह भ्रम था। वे ज्यादा ढीठ होकर नए क्षेत्रों में फैलते गए और आज भी सारी दुनिया में नरसंहार का गाना गाते मंडरा रहे हैं।

लेकिन ये वैज्ञानिक हमारी हिन्दी पट्टी के मच्छरों को नहीं जानते। पौन इंच से भी छोटे आकार के इन मच्छरों ने सरकारों, दवाओं और आदमियों का स्वभाव बदल डाला और उनसे अभयदान पा लिया है। ढाई-तीन दशक पहले जब न तकनीक थी न इतने संसाधन गांवों की दीवारों पर स्वास्थ्य विभाग के कारिन्दे सफाई रखने और कुनैन की गोली खाने की सलाहें लिख रहे थे, बच्चों की जांच के लिए स्कूलों में खून की स्लाइडें बन रही थीं और छोटे कस्बों में दवाओं का छिड़काव हो रहा था। आम लोगों को लगता था कि सरकार को उनकी जान की फिक्र है और मलेरिया बस थोड़े दिनों का मेहमान है। जब से
शेयर बाजार के रास्ते देश को सुपर पावर बनाने का रायता फैलना शुरू हुआ, सबकुछ बदल गया। मच्छर तो वही रहे लेकिन वह आदमी बदल गया जो मलेरिया, डेंगू और कालाजार से लड़ने चला था। वह खुद मच्छर हो गया और सरकारी परियोजनाओं से रकम चूसने लगा। उम्मीद की जगह हताशा ने ली और आम आदमी ने खुद को रामभरोसे छोड़ दिया।

मच्छरों ने यह कारनामा कैसे किया। इसका रहस्य संगीत की उस स्वरलिपि में है जिसमें उनके गाने की ताल, मात्राएं और राग दर्ज हैं। वह भ्रष्टाचार के संगीत की स्वरलिपि है जिसे हम सब अच्छी तरह जानते हैं। मच्छर गा रहे हैं और उनके विनाश की परियोजनाएं चलाने वाले नेताओं, प्रशासकों, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका उस महीन धुन पर थिरक रहा है। विचित्र सांस्कृतिक समारोह जारी है।

19 अक्तूबर, 2010

जोगी काहे ध्यान लगाए!

ध्यान की रहस्य गली में लारेन्स लीशान(http://en.wikipedia.org/wiki/Lawrence_LeShan)की मशहूर किताब 'हाऊ टू मेडिटेट' का पहला सफा कुछ यूं खुलता है:

यह वाकया कुछ बरस पहले वैज्ञानिकों की काफ्रेंन्स के दौरान हुआ। वे सभी वैज्ञानिक रोजाना ध्यान (मेडिटेशन) करने वाले थे। कांफ्रेन्स के चौथे दिन तक वे सभी किसी न किसी रूप में बता चुके थे कि वे कैसे ध्यान लगाते हैं, तब मैने जोर डालना शुरू किया कि वे बताएं कि क्यों ध्यान करते हैं। इसकी जरूरत क्या है। कई जवाब आए लेकिन हम सभी जानते थे कि वे संतोषजनक नहीं हैं। जो कहा जा रहा था वह इस सवाल का जवाब था ही नहीं। आखिरकार एक आदमी खड़ा हुआ और उसने कहा, "यह अपने घर लौटने जैसा है।" इसके बाद चुप्पी छा गई। देर तक सहमति में एक एक कर सिर हिलते रहे। जाहिर है कि अब किसी और जवाब की जरूरत नहीं रह गई थी।

मेडिटेशन क्यों? इस सवाल का उत्तर उस साहित्य में अनवरत गतिमान है जो इस अनुशासन का अभ्यास करने वालों ने लिखा है। हम कुछ पाने के लिए, फिर से स्वस्थ्य होने के लिए और सबसे बढ़कर अपनी उस किसी चीज (something) के पास लौटने के लिए ध्यान करते हैं जो कभी हमारे भीतर थी, जिससे हम अनजान थे या बस मद्धिम सा आभास था। फिर इसके पहले कि हम जान पाते कि वह चीज क्या थी, पता नहीं कहां और कब हमसे खो गई।

इसे हम अपनी भरपूर मानवीय क्षमता को पाने, या खुद के और यथार्थ के निकट होने, या जिजिविषा-उत्साह-प्यार करने के नैसर्गिक भाव को पाने, या हम ब्रह्मांड का भाग हैं और इससे कभी जुदा नहीं हो सकते के ज्ञान से रूबरू होने, या सचमुच प्रभावशाली ढंग से देखने और सक्रिय होने की अपनी क्षमता को हासिल करने का उपक्रम कह सकते हैं। जब हम ध्यान की दिशा में जुटते हैं तो पाते हैं कि मकसद के बारे में कही गई इन सारी बातों का मतलब एक ही है। उस क्षति के कारण ही, जिसकी भरपाई की तलाश ध्यान है, मनोवैज्ञानिक मैक्स वेरदाइमर ने वयस्क को "क्षतिग्रस्त बच्चे" के रूप में परिभाषित किया था।

ध्यान की झेन पद्धति का लंबे समय तक अध्ययन करने वाले यूजीन हेरीगेल ने लिखा है," कोआन (झेन स्कूल की एक ध्यान तकनीक) ऐसे बिन्दु पर ले जाती है जहां आप किसी भूली चीज को याद करते आदमी बन जाते हैं।" लुईस क्लाड डी सेन्ट मार्तिन ने ध्यान में अपने बहुतेरे साल खपाने के कारणों का सार कुछ इस अंदाज में पेश किया था, "हम सब विधवा जैसी हालत में हैं और हमारा काम फिर से विवाह करना है।"

अपनी सम्पूर्ण मानवता और मानव होने का जो भी अर्थ है उसका संपूर्ण उपयोग ध्यान का लक्ष्य है। ध्यान एक दृढ़ मन की जरूरत वाला कठोर अनुशासन है जो इस लक्ष्य की ओर जाने में सहायता करता है।

अंत में यह क्षेपक मेरी तरफ से जो युवा वेदांती शंकर ने कहा था-
प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्वं
सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम।
यत् स्वप्नजागरसुषुप्तमवेति नित्यं
तद्ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसंघः।।

(प्रातः मैं उस आत्मतत्व का ध्यान करता हूं जिसका स्फुरण हृदय में होता है। जो सत्-चित-आनंद स्वरूप है। जो परमलक्ष्य है, तुरीय अवस्था है। जो स्वप्न, जागृति और सुषु्प्ति तीनों अवस्थाओं का नित्य प्रकाशक है। मैं भूतों का समूह मात्र नहीं मैं वही निष्कल ब्रह्म हूं। )

12 अक्तूबर, 2010

पेड़ लोग औऱ गिरिबाला

पेड़ सम्मोहक क्यों लगते हैं। बस इसलिए कि हरे होते हैं, आक्सीजन देते हैं और जंगलात महकमें के सरकारी कर्मचारियों ने एक "वृक्ष दस पुत्र समान" जो तुकबंदियां रची हैं उन सबके समर्थन में हवा चलने पर सिर हिला कर हांजी! हांजी!! करते हैं? लालची आदमी कितने भी उत्पात क्यों न करे अपने अवचेतन में जानता है कि उसकी जिन्दगी बापनुमा पेड़ों पर निर्भर है, इस डर के कारण। या उनके भीतर से गुजरता आसमान अपना एकरस अनंत विस्तार भूल, झिलमिल वैविध्य दिखाने लगता है इसलिए? पेड़ों का अपना व्यक्तित्व होता है। बरगद संरक्षण देता लगता है और देवदार आत्मकेंद्रित रूक्ष हठयोगी और हरसिंगार जैसे "फूलबाबू" जिसकी अंतर को छू लेने वाली उदारता देख कर कभी-कभार यारा-दिलदारा टाइप कोई गाना गाने का मन होता है। भारतीय फिल्मों के इतिहास में सर्वाधिक गाने हीरो हिरोइनों से पेड़ों के इर्द गिर्द इसी मानसिक कुलेल पर नियंत्रण न कर पाने के कारण ही तो नहीं गवाए गए।

पेड़ों की जिंदगी होती है, क्या उन्हे पता है कि उनका हरा रंग आदमी को अच्छा लगता है और वे उसे प्राणों की सप्लाई करते हैं। आदमी को क्या शुरू से ही यह हरा रंग भा गया कि हरियाला बन्ना या बन्नी होना चाहने लगा। या बहुत दिनों वह चारो ओर के संघन, अंधियारे हरे विस्तार से डरता रहा फिर धीरे-धीरे पेड़ो से होने वाले कुल जमा नफा नुकसान का मिलान किया और उसका सौंदर्य बोध हरा हो गया। सौंदर्य बोध व्याकरण जैसी प्रशिक्षण की चीज है जिसमें अन्य अनुशासनों की तरह भय घुला होता है। इसीलिए अप्रशिक्षित लोग लोग बड़े कलाकारों की बड़ी पेन्टिंग्स को समझ नहीं पाते बस थोड़े से कला-ग्रामर जानने वाले लोग समझते, खरीदते और सराहते हैं और उनमें से भी कई ऐसे होते हैं जो इसलिए बढ़चढ़ कर सराहते हैं कि कहीं उनकी न समझने वाली असलियत का सचमुच के ज्ञानियों को पता न चल जाए।

अगर आदमी बुद्धिमान है तो उसने खुद को पेड़ों की तरह अपने भीतर क्लोरोफिल और फोटोसिन्थेसिस का फंडा क्यों नहीं विकसित किया। पापी के पेट के सवाल को सदा के लिए सूरज और बारिश पर छोड़ देता और मनचाहे काम करता। आदमी की जात को समर्पण पसंद नहीं हैं। कैसे सूरज पर छोड़ देता। उसे ईगो प्यारा है जिसे पौरूष कहा, जिसपर पत्थर के भाले बनाते, शिकार करते धार चढ़ती गई। (पता नहीं नारीवादियों ने पाषाणकाल की महिला शिकारियों के गौरव के लिए कौन सा शब्द ईजाद किया होगा) अब भी वही है क्योंकि दो वक्त की रोटी के आसपास जरा और सरंअजाम जुटाना ही मुख्यधारा का पौरूष है। वैसे गिरि बाला और थेरेस न्यूमान जैसे लोग भी हुए हैं जिनके भीतर फोटोसिन्थेसिस जैसा एक केमिकल लोचा सायास विकसित हो गया और बिना कुछ खाए उन्होंने मौज से अपनी जिन्दगी जी। 1868 में बंगाल में पैदा हुई गिरिबाला को सास ने हमेशा खाते रहने के लिए इतने ताने मारे कि उनने 1881 में एक दिन खाना बंद कर दिया और योगिनी हो गईं। बाद के छप्पन सालों में वैज्ञानिकों ने अंदाजा लगाया कि उनका मेडुला आबलांगेटा सूरज की रोशनी से सीधे उर्जा बनाने लगा था। रिकार्ड बताते हैं कि बर्दवान के महाराजा ने परीक्षण के लिए दो महीने उन्हें एक कोठरी में बंद रखा जिसमें वह सफल साबित हुईं। न्यूमान के बारे मे नेट जानकारियों से लदा हुआ है क्योंकि उन्हें देखने के लिए 1923 तक दुनिया भर के लोग पहुंचते थे और उनपर "स्टिगमाटा" नाम की एक फिलम भी बनी है।

जानवर, आदमी से ज्यादा जानते हैं कि उनकी जिन्दगी पेड़ों पर निर्भर है तो वे कभी उनके प्रति किसी आभार का संकेत क्यों नहीं देते। जहां जंगल कटते हैं जानवर, पक्षी भी खत्म हो जाते हैं। यह आभार प्रकट करने का तरीका नहीं है क्या? सेव टाईगर कैम्पेन किसका आभारी है।

08 अक्तूबर, 2010

उनकी सांसों के आगे सहम जाती है बंदूक-2

नवस्वामी ज्योतिष और नवसाध्वी देवी
चेतना का पूरी तरह आतंरीकरण सीखने (शरीर से समेट कर मेरूदंड में लाने की प्रक्रिया) में कई साल लग सकते हैं, कई जन्म भी लग सकते हैं लेकिन सांस पर नियंत्रण में मामूली प्रगति भी बड़े परिणामों तक ले जाती है। इसके जरिए मिला मानसिक संतुलन हमें निर्मम परीक्षाओं के दौरान शांत रहने, शांति और करूणा के साथ दूसरों की तकलीफ दूर करने और अपने काम में सफलता पूर्वक एकाग्र रहने में मदद करता है।

देवी एक बार नाजुक चाइना कप और क्राकरी का एक भारी बक्सा लेकर अपने घर से ऊपर पहाड़ी पर गई। उसकी बांहें थक गईं और वह डरने लगी कि बक्सा अब गिरा कि तब गिरा। एक क्षण के लिए वह थमीं तो उसका ध्यान अपनी सांस पर गया जो तनावग्रस्त और उथली थी। कुछ गहरी सांसे लेने के बाद उसने तुरंत महसूस किया कि तनाव जा रहा है और उर्जा शरीर में ज्यादा शक्ति से बह रही है।

गहरी और खुली सांस आपको एक खुली और स्वीकार से भरी जिन्दगी की तरफ ले जाती है। इसके उलट तनावग्रस्त, सिकुड़ती सांस को डर और क्रोध की सोहबत मिलती है।

भावना और चेतना में बदलाव
सांस के औजार के इस्तेमाल से भावनाओं को नियंत्रित करना आसान है। सबसे पहले तो यह जानें कि सांस की तीन अवस्थाएं हैं और हर एक का खास मनोवैज्ञानिक मतलब है। खींचना (इनहेलेशन) उर्जा की उर्ध्व, उद्दीप्त गति और मेरूदंड में चेतना के परिणामी भाव से जुडा है। रोकने (रीटेनशन) से उर्जा और ध्यान को एकाग्र करने में मदद मिलती है और बाहर छोड़ना (एक्सहेलेशन) राहत, आश्वस्ति, ग्रहणशीलता औऱ समर्पण की मानसिक अवस्थाओं को प्रोत्साहित करता है।

सांस की इन अवस्थाओं के जरिए अपनी चेतना को कारगर ढंग से बदला जा सकता है। जब आप हताश, नकारात्मक मनःस्थिति में हों, बाहर जाती सांस की तुलना में प्रबल और लंबी सांस खींचे। मतलब सांस लें ज्यादा और छोडें कम। अक्सर सीधा शारीरिक रास्ता आपकी मनःस्थिति को जल्दी बदलता है, विचारों में परिवर्तन का तरीका धीमे काम करता है। खुद को कमजोर महसूस करने वाले मेरूदंड में ऊपर की ओर उर्जा के शक्तिशाली बहाव को देखने की कल्पना करते हुए गहरी सांस लें। इस तरह के सांस-मनोविज्ञान का सफल इस्तेमाल अस्पतालों में हताश मानसिक रोगियों के इस्तेमाल में किया जा चुका है।
मामूली लगते सांस के अभ्यास गहरा असर पैदा करते हैं क्योंकि हमारे ज्यादातर विचारों की प्रकृति मेरूदंड में उर्जा की गति पर निर्भर करती है। आज मैं जमीन से छह इंच ऊपर हूं...मैं सातवें आसमान पर हूं...मैं अपना सर ऊंचा करके चल रहा हूं...मैं हवा में उड़ रहा हूं....ये अभिव्यक्तियां एक ही अनुभूत सत्य की है कि चेतना की ऊर्ध्वगति शरीर में उर्जा के ऊपर की ओर चलने के साथ संभव होती है। जब हम अपने सांस के प्रयोग से ऊर्जा के प्रवाह को उर्ध्वगामी बनाते हैं तो पाते हैं कि हमारे विचार अपने आप बदलने लगे हैं।

विशेष श्वसन तकनीकशरीर को ऊर्जा पूरित करने के लिए परमहंस योगानन्द "दोहरी सांस" (डबल ब्रीदिंग) का अभ्यास कराते थे। इसमें एक छोटी फिर एक लंबी सांस नाक से अंदर खींचते हैं फिर एक छोटी और एक लंबी सांस मुंह से बाहर छोड़ते हैं। शोधों से भी साबित हुआ है कि दोहरी सांस सामान्य की तुलना ज्यादा संपूर्ण तरीके फेफड़ों को भरती और खाली करती है। मेडिटेशन के लिए मन को शांत करने के लिए योगानन्द सभी तीन अवस्थाओं खींचने, रोकने, छोड़ने का अभ्यास समान गिनती के साथ, समान अवधि तक कराते थे।

योगानंद यह भी कह गए हैं कि नथुनों में सांस का प्रवाह जहां महसूस होता है, वह मष्तिष्क को प्रभावित करता है। औपचारिक और अपनी ही धारणाओं में जीने वाले (जजमेन्टल) लोग सिकुड़े हुए नथुनों के बीच संकीर्ण ढंग से सांस लेते हैं जैसे वे दुनियावी झंझटों को अपने भीतर बहुत ज्यादा नहीं जाने देना चाहते। कई लोग मुंह से सांस लेते हैं जो मेरूदंड में ऊर्जा को नीचे की ओर ले जाता है और दिमाग को भरपूर आक्सीजन नहीं मिल पाती। योगानन्द कहते थे कि सांस के बहाव को नाक में ऊपरी हिस्से में महसूस करना चाहिए जहां से आक्सीजन आसानी से दिमाग के फ्रंटल लोब में समा जाती है।

सांस ही रूक जाए तोसांस न ली जाए तो क्या होगा। जब गहरे ध्यान में मन बेहद शांत हो जाता है तो सांस रूक जाती है। एक साधारण सी ध्यान तकनीक है जिसमें सांस की आवाजाही पर सतत निगरानी रखी जाती है, इससे एकाग्रता बढ़ती है जो दिमाग को शांत कर देती है। दिमागी शांति सांस को धीमा कर देती है जो फिर दिमाग को शांत करती है। यह एक चक्र है जिसके जरिए मेडिटेशन कर रहा व्यक्ति सबल एकाग्रता के साथ ध्यान में गहरे और गहरे उतरता जाता है।

जब सांस धीमी हो जाती है तो हृदय को कम काम करना पड़ता है और धड़कने की गति मंद पड़ने लगती है। योगानन्द कहते थे कि हृदय चक्र "मेन स्विच" है जो मेरूदंड से शरीर में बाहर की तरफ जाती ऊर्जा को नियंत्रित करता है। जब हृदय मंद होता है तो अपने आप प्राण मेरूदंड में सिमट आते हैं और शरीर निलंबित हालत में पहुंच जाता है जहां सांस लेने की जरूरत नहीं रह जाती।

ब्रह्मांड चेतना का दरवाजा मशहूर किताब "लाइफ आफ्टर लाइफ" में जिन लोगों के अनुभव रिपोर्ट किए गए हैं, वे कहते हैं कि आपरेशन के दौरान जब उनका दिल ठप हो गया तो उन्होंने खुद को एक अंधेरी सुरंग से गुजरते पाया जो प्रेम और आनंद की अनुभूति कराने वाले चमकीले सफेद प्रकाश की ओर जा रही थी। स्वामी क्रियानन्द का मानना है कि यह सुरंग आतंरिक मेरूदंड है, जहां गहरे ध्यान में प्रवेश किया जा सकता है और चमकीला सफेद प्रकाश आध्यात्मिक आंख का प्रकाश है।

भौंहों के बीच के बिन्दु को योगानंद ने आध्यात्मिक आंख या ब्रह्मांड चेतना का दरवाजा कहा। आध्यात्मिक आंख पर ध्यान लगाकर हम अपनी चेतना को मष्तिष्क के मेडुला आब्लान्गेटा से फ्रंटल लोब्स की ओर ले आते हैं जो उच्चतर चेतना का केंद्र है। गहरे ध्यान में जब हम पांच कोनो वाले सितारे से आगे बढ़ते हैं तो ब्रह्मांड चेतना या समाधि की अनुभूति होती है। इसी आंतरिक समाधि के बारे में संत पॉल ने लिखा था कि मैं "रोज मरता हूं।" इस अवस्था में सांस बंद हो जाती है, जीवन ऊर्जा शरीर से मेरूदंड में सिमट आती है और साधक अपने शरीर को इच्छानुसार छोड़ सकता है।

हम सभी को कभी न कभी मरना ही है। लेकिन गहरे ध्यान में मेरूदंड की सुंरग से आध्यात्मिक आंख के प्रकाश की ओर जाते हुए हम मृत्यु को भय के बजाय आनंदमय तरीके से महसूस कर सकते हैं।

कितनी अच्छी बात है कि सांस जो हमारे अस्तित्व की बुनियाद है वही हमें आत्मसाक्षात्कार की ऊंचाईयों तक भी ले जाती है। जिन्दगी पर नियंत्रण का सारा रहस्य सांसों में है क्योंकि उनके बिना जिन्दगी नहीं चलती।

सांसों के आगे सहम जाती है बंदूक

नवस्वामी ज्योतिष और नवसाध्वी देवी


सान फ्रांसिस्को पुलिस की नारको सेल का अफसर स्तान टाउन्सले हाइत ऐशबरी जिले की एक इमारत की अंधेरी सीढ़ियों पर एक ड्रग डीलर का पीछा करते भागा जा रहा है। ड्रग डीलर के पास असलहा है अद्धी (नाल कटी बंदूक)। सीढ़िया खत्म हुईं, अपराधी गलियारे के अंतिम छोर तक गया। वह फंस चुका है, बौखलाया हुआ है और अब बीस साल की जेल से बचने के लिए अद्धी का इस्तेमाल ही आखिरी विकल्प है। तो यही सही, वह अद्धी टाउन्सले के सीने पर तान देता है।

इस ख्याल से सहम कर कि क्षण भर में किस्सा तमाम हो सकता है, स्तान ने डीलर की आंखों में देखा। मैं बस इतना सोच पाया कि मुझे उसकी आंखों से आंखे नहीं हटानी हैं, स्तान ने उस लमहे को याद करते हुए बाद में बताया, "तो उसकी आंखों में देखते हुए मैने जता दिया कि मेरा इरादा उसे नुकसान पहुंचाने का नहीं है।" पुलिस ट्रेनिंग के दौरान मैने सीखा था कि शांत, गहरी सांस से दिमाग नियंत्रित होने लगता है सो मैने सायास कुछ गहरी सांसे भरी। काफी राहत मिली। शांति और समझदारी उस तक संप्रेषित करते हुए फिर मैने धीरे से अपना हाथ उठाया, हथेलियों को ऊपर किया।

उसने अपनी बंदूक झुका दी और फर्श पर ढह गया।

स्तान (बदला हुआ नाम) परमहंस योगानंद का शिष्य है। हममे से कुछ ने बंदूकों की नालों के सामने भी अपने योग के संतुलन की परीक्षा की है। पेशे अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन हममें से हर एक ने किसी कदर सांस, दिमाग और भावनाओं के बीच के संबंध को महसूस किया है।

आतंरिक उर्जा का पता देती है सांस
हम गुस्से में होते हैं तो सांस लेने में प्रयास करना पड़ता है और यह उखड़ने लगती है। डर में हम उथली और तेज सांस लेते हैं, कभी रूक भी जाती है। दोनों परिस्थितियों में सांसों से हमारी उर्जा या प्राण की आंतरिक हालत का पता चलता है।

योगियों के लिए प्राण शब्द एक ही मूल उर्जा की तीन अलग-अलग अभिव्यक्तियां हैं। सबसे बाहरी रूप में यह सांस है। जरा भीतर यह हमारे शरीर की जीवन उर्जा बन जाती है। ...और सबसे भीतर यह सूक्ष्म, बुद्धिमत्तापूर्ण उर्जा है जो सारी सृष्टि में व्याप्त है। योग के प्राचीन ग्रंथों के अनुसार इनमें से किसी एक को नियंत्रित करने से हम दूसरी को भी नियंत्रित करने लगते हैं।

योग के मुताबिक अध्यात्मिकता के विकास के केंद्र में उर्जा का नियंत्रण है। परमहंस योगानन्द ने प्राणों के प्रवाह को शरीर में महसूस करना, उन पर नियंत्रण और इच्छानुसार शरीर को उर्जा से भरना सिखाने के लिए "एनर्जाइजेशन कसरत" की ईजाद की थी। स्वामी क्रियानंद ने योगमुद्राओं के बारे में लिखा है कि वे कैसे प्राण को तीन बुनियादी रूपों में- उसके मुक्त प्रवाह के रास्ते खोल कर, उसे गतिमान करके और उसे मेरूदंड में ऊपर उठाकर प्रभावित करती हैं। प्राण उर्जा के नियमन के जरिए योगमुद्राएं दिमाग और भावनाओं पर बेहतर नियंत्रण का जरिया बन जाती हैं।

जो महज जीवन उर्जा को नियंत्रित कर ले जाते हैं उन्हें भावनात्मक स्थिरता, गहरी शांति और शारीरिक शक्ति प्राप्त होती है। लेकिन कुछ जो सूक्ष्म उर्जा की हलचल अपने शरीर में महसूस कर पाते हैं, वे ब्रह्मांड की सूक्ष्मतर उर्जाओं की थाह भी पाने लगते हैं। तो योग का अभ्यास सांसों पर नियंत्रण से प्रारंभ होता है। अगर हम प्राणों को अपने शरीर में हर तरफ चला सकते हैं तो हम उन्हें नियंत्रित भी कर सकते हैं। योग में सांस लेने की तकनीकों के जरिए यही तो किया जाता है।
(यह राइट अप पचीस साल पहले इन दोनों योगियों ने संयुक्त रूप से योगा जर्नल में लिखा था जो संभवतः आगे भी हारमोनियम पर जारी रहेगा)

06 अक्तूबर, 2010

लखेन्दर का एन्सर है आपके पास

संझा को सूरूज डुबान लखेन्दर जवान जब लुंगी पर कुर्ता झार के तेल से चिकनाई पटकन लेके और कान पर एक ठो पनामा खोंसे घर से निकलता है तो उसकी माई साइंस को सरापने लगती है। बुढ़िया सूरूज नरायन संझा माई से कहती है, हर चीज में मिलावट है उसको धराने का जंत्र आ गया है लेकिन नकली सराफ पकड़ने का काहे नहीं आया। ऐह भगवान, ई मुंहफुंकवना तो मानेगा नहीं, भगौती माई रच्छा करें अगर कुछ हो गया तो पतोह को लेकर यह बूढ़ी किस कुइंया ईनार में जाएगी।

चट्टी पर बसंतू के चाह के दोकान में कलवारी खुली है जो वोट पड़ने तक अलाहोल पियाती रहेगी लखेन्दर बंऊड़ियाता रहेगा। एक पहर रात गए रतउन्ही के मारल के तरे थथम थथम के जब लौटता है तो दुलहिन अइसे देखती है जमराज चले आ रहे हैं। भुनभुनाती है किसमते खराब था अगल महिला सीट रहा होता तो प्रधान हो जाती, रोज संझा के हाथ पर तीस-बत्तीस रुपैया धर देती। अपना दरवाजे पर बइठ के खांटी देसावर माल पीते। ई डर तो नही लगा रहता।

पहिल बूढ़ पुरनिया को मान लेते थे लेकिन सब नौछिटुआ प्रधानी में उठ रहा है। एतना दौड़ धूप का काम हो गया है बूढ़-ठेल सपर नहीं सकेगा। बिलौक, थानेदार से लेकर कलेक्टर तक का कनेक्शन लगाना पड़ता है। ललका रासन काट है, वृद्धा, विकलांग पेन्सन, नरेगा का जाफ काट है, केतना किसिम का लोनिंग है सबमें प्रधान का दस्खत चाहिए। हर तरह का कच्चा काम में साठ और पक्का में तीस-पैंतीस परसेन्ट कमीसन है। बड़का चुनाव में हर पाटी का लोग घेरे रहता है परधान जी, परधान जी कहते मुंह झुराता है। माने की जिसके नीचे बोलेरो आ ऊपर एगो ढकनी वाला चश्मा नहीं उसको कोई परधान नहीं समझता। एसडीएम उतना टंच का कमाएगा जी जेतना परधान का महीना में सबका काटकूट के हिसाब हो जाता है। एही ला एतना मारा मारी है। जहां महिला सीट है गोबर काछना बंद हो गया है। एक बार जीत लिया तो कऊवाहकनी घर की लछमी हो जाती है।

जनम के लाखैरा लखेन्दर एगो टूटहा कट्टा दिखाय के कब्बो बसंतू के लरिका से एक बन्डल बीड़ी त कभी दस बीस नकद फुसीट लेता था। डेढ़ हजार भाव लगा तो तुरते बेच दिया। अब कहता है कि ममहर से पांच-पांच सौ में तीन गो ले आ के बिजनेस करेगा। सुरक्षित सीट हो गया है न। कतवारू का चानस ज्यादा है। कतवारू के पढ़वईया लरिका ने लखेन्दर को डांटा, बुरबके हो बिजनेस का मतलब जानते हो। पुलिस के बान्ह के ले जाएगी तो तुमरा कट्टा कारपोरेशन के आपिस पर ताला लग जाएगा। सरकार का योजना आया है कि हर गांव में कंपूटर का खोखा लगेगा जिसमें बीस रूपया देके हर तरह का साटिक फिटिक आ जानकारी किसान भाइयों को मिलेगा। कतवारू काका बोले हैं कि लखेन्दर को कंपूटर का खोखा लगवा देंगे। साल दू साल में ग्रामीण भारत में संचार किरान्ती लाने वाला ईनाम भी मिल जाएगा। उसको लेने के लिए फिलीपीन देस जाना पड़ता है। नीके तो सांयसांय जैसा नाम है ऊ ईनाम का, कई लाख ऱूपिया मिलता है।

बलिया में बिहार बोडर के रामपुर छेरियहवा गांव का लखेन्दर अबहिएं सबके कंप्यूटर में झांकने लगा है। पूछता है काहो ई बिलोग वाला सब कहां का फुटानी झारता रहता है। यूपी का त्रिस्तरी पंचायती चुनाव हो रहा है आ ऊहां कौनो चरचा ही नहीं। ई सब कौन इन्डिया का बात करता है जी।

03 अक्तूबर, 2010

क्यूं मारा पिटरूल

टनटनटन घंटा बोला,
अपने बच्चे के मुंह से कल एक अजीब सी कविता सुनी। पता नहीं कहां से सीख कर आया होगा। मेरी नजर में आई यह पहली बाल कविता है जिसमें स्कूल बच्चों के साथ है। वह अपना अस्तित्व बच्चों के पिटने और भाग जाने से नाराज हो कर विसर्जित कर देता है। अपने देश में उजाड़, ढहते, भांय-भाय करते भुतहे प्राइमरी स्कूलों की कमीं नहीं है और यह कविता उन सबके ऊपर शाम के सूने धुंधलके में मंडराती जान पड़ती है। क्या पता किसी ड्राप आउट बच्चे ने जोड़ी हो, अपने इस्कूल इतनी आशा....शायद किसी और के बस की बात नहीं है। आप खुद देखिए।

टन-टन-टन-टन घंटा बोला
बच्चे गए स्कूल
मास्टरजी ने सवाल पूछा
बच्चे गए भूल
मास्टरजी को गुस्सा आया
मार दिया पिटरूल
बच्चों को भी गुस्सा आया
छोड़ दिया स्कूल
स्कूल को भी गुस्सा आया
टूट गया स्कूल।

02 अक्तूबर, 2010

गांधी जी, आंप लिखिए


मैने बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा। लिखा, उतना ही बस जितना रिपोर्टर की नौकरी चलते रहने के लिए जरूरी था। लिखने के बारे में सालों से लगातार सोच रहा हूं। जैसे दिमाग की स्निग्ध, गतिमान, अखरोट के आकार की आलमारी में एक खाली खाना है जिस पर चिप्पी लगी है "लिखने का खाना"। लेकिन हर बार देखने पर चिप्पी दिखती है और उतरते झूले की हौंक सा खालीपन महसूस होता है। काश यह बिम्ब रसोई का होता और चिप्पी चीनी या मसूर की दाल की लगी होती और डिब्बा इतने लंबे समय से खाली होता तो भी इतना खालीपन महसूस नहीं होता।

यह दूसरे तरह का दुख है, लिखकर ऊपर वाले पैरे को मसालेदार तीव्र देसी शराब की तरह असरकारक बनाया जा सकता था। जरा काव्यात्मक भी। लेकिन यह किसी दूसरे, तीसरे टाईप का दुख नहीं है। एक बार मैने और एक दोस्त ने जो बाद में साधू हो गया एक स्वांग बनाया था। हम दोनों अलग-अलग आवाजों में जरा नाक का रचनात्मक प्रयोग करते हुए दिन में पचासों बार एक दूसरे से कहते थे- आंप लिखिए। और खूब हंसते थे। कैसे हर बार वह एक छोटे से वाक्य का कहना, पता नहीं कितने संबंधो (लेखक-प्रशंसक, पोंगा गुरूजी-चापलोस छात्र, रिपोर्टर-संपादक, दो लेखकों की मदमाती पहली मुलाकात आदि ) को उनका वास्तविक पुनर्जीवन दे देता था।

लिखना मन लगाकर बतियाने जैसा काम है। अभी तो टोटका मिटाने की हड़बड़ी है।

साधारण लोग जिन चीजों के बारे में अक्सर बात करते हैं, उनमे से कई जरूरी चीजों के बारे में बहुत कम या प्राय: कोई नहीं लिखता। अखबार में भी नहीं जहां दैनंदिन जीवन के होने का दावा होता है। उदाहरण के लिए इन दिनों लोग एक जज साहबान की बात कर रहे हैं जो लकड़ी धुल कर अपना खाना खुद बनाते हैं। उन्होंने अपने बंगले में एक गाय पाल रखी है। उसे खिलाने के बाद खुद खाते हैं और उसे प्रणाम किए बिना हाईकोर्ट नहीं जाते।

माना कि इस जमाने में भी लकड़ी....। लेकिन जिस लकड़ी को सूखा रखने के लिए इतने जतन किए जाते हैं उसे धुलने का क्या मतलब और भीग गई तो उस पर खाना कैसे बनेगा। यह लकड़ी को पवित्र करने या शायद भोजन-मंत्र से जुड़ा कोई अनुष्ठान होगा जिसे धुलना कहा जा रहा है। पर बेहद मामूली लोगों तक जज साहब के निजी जीवन से जुड़ी अजीब सी लगती यह जानकारी किनके जरिए पहुंची और वे इसके बारे में क्यों इतनी बात कर रहे हैं- यह अखबार समेत मीडिया को बताना चाहिए था। क्या इस आचार का किसी न्यायिक निर्णय से कोई संबंध हो सकता है और यह आदत क्या देश की राजनीति को प्रभावित कर सकती है? हिन्दी साहित्य से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है। उसका हाजमा इन दिनों खराब हो चुका है। वह कालिया-विभूति को ही नहीं पचा पा रहा है। इस साल का उसका एजेन्डा तय हो चुका है।

जैसे बच्चों को जू-जू से डराया जाता है, लोकतंत्र को अदालत से डरना सिखाया जाता है। किस्से चलते रहते हैं- एक जज था उसने रामपुर के रेलवे स्टेशन से थोड़ा पहले चलती गाड़ी में ही अदालत लगा ली और एक यात्री को नौ महीने जेल की सजा सुना दी क्योंकि उसने मी लार्ड कहे बिना उनसे नमस्कार कर लिया था। वे चाहे तो भरे ट्रैफिक में अपनी कार को ही अदालत मान कर आपको सजा सुना सकते हैं। वे बहुत ज्यादा समय अकेले रहते हैं। फैसलों पर मिलने वालों का असर न पड़े इसलिए। फिर अकेलापन आदमी को ऐसा ही बना डालता है। इसका परिणाम यह होता है कि कचहरी जाने या न जाने वाले बहुत साधारण लोग जज साहब से कुछ फीट की दूरी पर बैठने वाले पेशकार के आसपास की तुच्छ किन्तु सतत प्रच्छाय हरीतिमा और उसकी छाया से लाभान्वित होने वाले विशाल वृक्षों की बात करते तो रहते हैं लेकिन वह दृश्य किसी भी रूप में किसी अखबार में नहीं देखने को मिलता। हिन्दी साहित्य में भी जज पात्र और लोकेल के रूप में अदालत बहुत कम आए हैं।

आम जीवन के छोटे-छोटे सत्यों की लगातार उपेक्षा का नतीजा यह होता है कि जब कोई पुराना कानून मंत्री चिल्ला कर कहता है अब तक देश के जितने मुख्य न्यायाधीश हुए उसके करीब आधे भ्रष्ट थे तो टीवी देखते कुछ लोग ऊंघती आवाज में कहते हैं-ऐं ऐसा है क्या? तब भी वे सहज लगते हैं।

ठीक इसी वक्त जब लिखने का टोटका मिटा चाहता है, सबसे आखिर में फिल्म के परदे से उधार लेकर यहां जता देने की इच्छा हो रही है कि इस गल्पागल्प के पात्र, घटनाएं क्या कहिए एक-एक शब्द काल्पनिक है और उसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है, किसी वर्तमान या सेवानिवृत्त न्यायाधीश से तो कतई नहीं। यह किसका प्रभाव है। जब तक यह प्रभाव रहेगा, हमारे समाज में असल लिखे का अभाव नहीं रहेगा क्या?

अपने इस टोटके को नैतिक धज देने के लिए मैं इसे गांधी जयंती पर गांधी की आत्मा को लिखा गया पत्र भी कह सकता हूं। गांधी जी बैरिस्टर रहे थे और सत्य के लिए उनका आग्रह भी था। लोगों को उनकी बैरिस्टरी का कोई पराक्रम नहीं पता लेकिन वे जानते हैं कि उन्होंने किस जरूरत के लिए के लिए छुटपन में अपने कड़े का टुकड़ा बेचा था और जिस समय उनके पिता की मृत्यु हो रही थी वे कहां और क्यों थे। गांधी जयन्ती पर किसी न किसी को यह जरूर लिखना चाहिए कि यह सब कौन नहीं करता लेकिन प्यारे बुढऊ को यह सब स्वीकार करने की क्या पड़ी थी?