
मायावती मुख्यमंत्री हों और उनका जन्म दिन आए तो विपक्ष की बांछे खिलने लगती हैं। विपक्ष अपनी सारी कल्पनाशीलता इस बिंदु पर लगा देता है कि धनलिप्सा, चंदा वसूली के लिए किए जाने वाले भयादोहन और इस अपकर्म की अनैतिकता को प्रचारित करने के लिए कौन से हथकंडे अपनाए जाएं। ऐसा करते हुए विपक्षी राजनीतिक पार्टियों की मुद्रा ऐसी रहती है जैसे वे चंदा जैसी किसी चीज से अपरिचित हैं और उनका कारोबार सिर्फ सिद्धांतों के लेन-देन से चलता रहा है। मायावती ने विपक्ष की इन थोथी भंगिमाओं की परवाह कभी नहीं की क्योंकि आईना दिखाना उनकी राजनीति का बुनियादी स्वभाव है। लेकिन दो साल पहले औरैया में एक इंजीनियर की हत्या और पार्टी के एक विधायक के जेल जाने की घटना ने ऐसा मोड़ ले लिया जैसे सरकार ने चंदे के लिए नरबलि का रिवाज शुरू कर दिया है। इसके बाद मायावती सतर्क हो गईं। पिछले कई सालों की तरह इस बार भी उन्होंने पार्टी के नेताओं को सख्ती से कहा है कि उनके जन्मदिन पर चंदा वसूली न की जाए। नया तत्व यह है कि चंदा वसूली की शिकायत एसएमएस भेज कर करने के लिए कहा गया है। इससे इतना पता चलता है कि मायावती अपनी छवि को लेकर बेहद गंभीर हो गई हैं, विपक्ष को कोई मौका नहीं देना चाहतीं क्योंकि विधानसभा चुनाव बिल्कुल सिर पर आ गए हैं।
यहां बसपा के चंदाशास्त्र पर बात करने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि स्व. कांशीराम और मायावती जिस पृष्ठभूमि से आए नेता हैं, वे पानी की तरह कालाधन बहाने वाली चुनावी राजनीति में एक दिन भी बिना चंदे के नहीं टिक सकते थे। इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण चंदे को लेकर राजनीतिक पार्टियों का बदलता नजरिया है जो पाखंड की हास्यास्पद ऊंचाईयां छूने लगा है। अपने देश की राजनीति में चंदे को लेकर एक बड़ा पवित्र भाव रहा है क्योंकि वह किसी विचार के लिए जनता के असाधारण समर्थन और त्याग के रूप में देखा जाता था। देश की आजादी के आंदोलन की सबसे गर्वीली और आंखों में आंसू ला देने वाली छवियां वे हैं जिनमें महात्मा गांधी मंच से अपील करते है, कांग्रेस के वालंटियर चादर फैलाए भीड़ में जाते हैं और महिलाएं अपने गहने (जिनमें नाक की इकलौती कील से लेकर रानियों के हीरे के हार तक शामिल हैं) चादर पर फेंकती जाती हैं। इस चंदे की क्या कद्र थी इसे जानना हो तो फणीश्वरनाथ रेणु के महान उपन्यास मैला आंचल के वे पन्ने पढ़िए जिनपर कांग्रेस के वालंटियर कुबड़े वामनदास का रोजनामचा लिखा है। भूख से लड़कर हार जाने के बाद वामनदास जनता से चंदे में मिले एक पैसे की जलेबी खा लेता है। उसे आधा तन ढकने वाले गांधी याद आते हैं वह हलक में ऊंगली डालकर जलेबी की उल्टी करता है, कांग्रेस दफ्तर के कुत्ते के आगे रोकर अपना अपराध स्वीकार करता है और इसी जज्बे के कारण कांग्रेस नेताओं की मिलीभगत से कालाबाजारी करने वालों के हाथों बेमौत मारा जाता है। यह जज्बा इस देश की राजनीति में काफी दिन रहा फिर लुप्त हो गया।
अब कोई राजनीतिक दल सार्वजनिक तौर पर चंदा नहीं मांगता, यह काम अब बंद कमरे में किसी धतकरम की तरह होने लगा है। अब नेता किसी भी पार्टी का हो, दाता के अहंकार से यही कहता है कि जब उसकी सरकार बनेगी तो जनता को इतनी खैरात मिलेगी कि झोली फट जाएगी। लेकिन जब सरकार बनती है तो उसकी पार्टी अगले कई चुनाव लड़ने के लिए खर्च की चिंता मुक्त हो जाती है। जिस पैसे से चुनाव लड़े जाते हैं, वह जनता का ही होता है लेकिन अब उसे सीधे मांगने में नेताओं को शर्म आती है। उनका यह शर्माना राजनीति के पतन के नए रास्ते खोल रहा है।