सफरनामा

31 जनवरी, 2010

लघु लोहिया से लघु वार्ता


पहलू के चंदू ने प्रेरित किया कि बात ऐसे भी कही जा सकती है।

यह भाऊ यानि राघवेन्द्र दुबे के मरने से पहले की बात है। हम दोनों एक रात कोई डेढ़ बजे के गिर्द खबर पाकर कि जनेश्वर मिसिर मीरा बाई मार्ग के स्टेट गेस्ट हाउस में ठहरे हुए हैं मिलने पहुंचे। उन दिनों हम लोगों के भीतर सेन्स ऑफ अकेजन यानि मौके की नजाकत तरल रूप में रहती थी और अक्सर रातों को ही उछल कर बाहर आना चाहती थी। जिस वक्त भाऊ दरवाजा खटखटा रहे थे, मैं खिड़की से सोते छोटे लोहिया को विस्मित देखता रहा। बिस्तर पर उनकी तोंद का घेरा उनके शरीर के काफी आगे तक, नाभि बिंदु पर किंचित खंडित "सी" के आकार में रेखाचित्र सा फैला हुआ था। वह उनकी स्वाद यात्रा का निद्रा-कंपित परवलयाकार (भौतिकी का पैराबोलिक) पथ होगा जिस पर मेरा जिज्ञासा नीम की सींक पर ब्याकुल चींटे की तरह भाग रही थी।

खैर उन्होंने दरवाजा खोला और निशाचरों आओ के साथ स्वागत किया। इस संबोधन से भाऊ के तंत्रिका तंत्र पर ऐसा असर हुआ कि शरारती पिल्ले की तरह किकिया पड़े और दो तीन बार उन्होंने सयूस (समाजवादी युवजन सभा) कहा। यह उनके गुजरने के पहले की बात है, तब सयूस कहने में सूंस (गंगा की डाल्फिन) को देख लेने की ऐंद्रिक अनुभूति हो जाने का काम किया करती थी।

हालचाल के बाद जनेश्वर मिसिर से मैने वह सवाल किया जो मेरे मन में सदा से था।

आप मुलायम के पिछलग्गू क्यों बने हुए हैं? खुद अपना कुछ क्यों नहीं करते।
पिछलग्गू मतलब।
मतलब अनुचर या पूंछ भी कह सकते हैं।
तुम लोग बेहद अशिष्ट हो। यह भी नहीं जानते की कैसे संवाद किया जाए। तुम लोग कैसे पत्रकार हो, सामने वाले को उद्वि्ग्न कर बातचीत की हत्या भी करा सकते हो।
खैर थोड़ा सहज होने के बाद उन्होंने कहा, मुलायम कम से कम लोहिया का नाम तो लेता है। उसने समाजवाद शब्द को जिंदा तो रखा है। उसके मंच से मैं लोहिया ने जो कहा था और जो मैं सोचता हूं कह तो सकता हूं। और कोई इस तरह का मंच हो तो बताओ, वहीं चला जाता हूं। तुम बताओ मेरा तख्त कहां लगेगा।

एक बात यह बताओ तुम्हारे जैसे लोग जो यह सवाल मुझसे पूछते हैं, खुद अपना कोई मंच क्यों नहीं बताते। तुम लोग शायद बुद्धिजीवी कहलाना पसंद करो। लेकिन यह भी कहो कि हर सभा में वही चेहरे और वही बातें क्यों। वहां निचली जमात का कोई आदमी क्यों नहीं जाता।

मिसिर में खैर सच पर उंगली रखने का साहस तो था। यह क्या इस फर्जी जमाने में कम बड़ी बात है। उन्हें देर से ही सही सलाम भेजता हूं।

मिसिर की सदा निद्रालु लगती आंखों में कोई दोस्ताना सी बात थी। आतंकित करने वाली बुजुर्गियत नहीं।

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