सफरनामा

14 सितंबर, 2009

हिंदी दिवस पर 'कितने प्रतिशत भारतीय'...

सलमान खान को 'दस का दम' में जब पहली बार 'कितने प्रतिशत भारतीय' कहते देखा, तो जरा चौंका था। आजकल जिस तरह तत्सम् शब्दों के प्रति हिकारत का भाव है, उसे देखते हुए 'फीसदी' और 'हिंदुस्तानी' कहना कहीं बेहतर होता। लेकिन फिर विचार करने पर लगा कि कार्यक्रम निर्देशक का ये सुचिंतित फैसला होगा। वो चाहता है कि 'दस का दम' गैर हिंदी क्षेत्र में भी सराहा जाए। और इसमें क्या शक कि तत्सम् शब्दों की पहुंच तद्भव की तुलना में ज्यादा है, क्योंकि तमिल जैसे अपवाद को छोड़ दें तो ज्यादातर क्षेत्रीय भाषाएं संस्कृत से उपजी हैं।

तमाम दूसरे लोगों की तरह मैं भी उर्दू-हिंदी के मेल से बनी हिंदुस्तानी जुबान का शैदाई हूं। ये जुबान कानों में मिठास घोलती है। लेकिन अगर ये 'कान' मेरा न होकर लखनऊ, अलीगढ़, इलाहाबाद के घेरे से बाहर रहने वाले किसी शख्स का हो तब? क्या उसमें भी ऐसी ही मिठास घुलेगी?..जाहिर है, पूरे देश से संवाद के लिए ऐसी हिंदी बनानी होगी जिसकी अखिल भारतीय व्याप्ति हो। और ऐसा करते हुए हमें तत्सम् शब्दों की मदद लेनी ही पड़ेगी। यही नहीं, क्षेत्रीय भाषाओं से भी शब्द लेकर हिंदी का भंडार बढ़ाना पड़ेगा। ऐसा करना अखबारों के लिए जरूरी नहीं, क्योंकि वे किसी क्षेत्र विशेष को ध्यान में रखकर निकाले जाते हैं। उनकी भाषा में क्षेत्रीय बोली की छौंक भी चाहिए, लेकिन टेलीविजन जैसे माध्यम के लिए ये बात ठीक नहीं, जो एक साथ पूरे देश में देखा जाता है। फिर चाहे वे मनोरंजन चैनल हों या न्यूज चैनल।

वैसे, भाषा के संबंध में कोई हठी नजरिया ठीक नहीं है। शुद्दतावाद के आग्रह का वही नतीजा होगा जो संस्कृत के साथ हुआ (संसकीरत है कूपजल, भाखा बहता नीर)। किसी भी भाषा का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें दूसरी भाषाओं के शब्दों को पचाने की क्षमता किस हद तक है। ऐसा करने से उसका शब्द भंडार बढ़ता है। लेकिन अफसोस कि बात ये है कि उर्दू से लेकर अंग्रेजी शब्दों को हिंदी में समो लेने के आग्रही लोग संस्कृतनिष्ठ या तत्सम् शब्दों के आने से मुंह बिचकाने लगते हैं। शायद उन्हें ये जानकारी नहीं कि संविधान में नए हिंदी शब्दों के लिए संस्कृत की ओर देखने का स्पष्ट निर्देश है। उसके पीछे भी हिंदी को अखिल भारतीय स्तर पर स्वीकार्य बनाने की समझ थी।

अखबारो और न्यूज चैनलों में इन दिनों अंग्रेजी शब्दों पर बड़ा जोर है। सामान्य प्रवाह में ऐसे शब्दों का आना कतई गलत नहीं। लेकिन आजकल ऐसे कठिन अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल का आग्रह बढ़ रहा है जिनके बेहद आसान पर्याय उपलब्ध हैं। वे अगर तत्सम हैं तो भी अंग्रेजी शब्दों से आसान हैं। जरा ध्यान दीजिए..आजकल इन्फ्रास्ट्रक्चर शब्द का बड़ा चलन है जबकि 'बुनियादी ढांचा' जैसा शब्द उपलब्ध है। आखिर साइकोलाजी (मनोविज्ञान), ग्लोबलाइजेशन (भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण),सिक्योरिटी (सुरक्षा),फाइटर प्लेन (लड़ाकू विमान), बार्डर लाइन (सीमा रेखा), लाइन आफ कंट्रोल (नियंत्रण रेखा), गल्फ कंट्रीज (खाड़ी देश) युनाइटेड नेशन्स (संयुक्त राष्ट्र), कोआपरेटिव (सहकारी), कारपोरेशन (निगम) का इस्तेमाल क्यों किया जाए। होना तो ये चाहिए कि अगर अंग्रेजी और हिंदी के दो कठिन शब्दों में चुनना हो तो तरजीह हिंदी शब्द को दी जानी चाहिए। कठिन और सरल का संबंध व्यवहार से है। एक जमाने में 'आकाशवाणी' शब्द भी कठिन रहा होगा लेकिन धीरे-धीरे ये गांव-गांव आल इंडिया रेडियो का पर्याय हो गया। बीस साल पहले 'अभियंता' शब्द बेहद कठिन था, आज नहीं है।

पिछले दिनों वाय.एस राजशेखर रेड्डी के हेलीकाप्टर का सुराग लग जाने के बाद एक न्यूज चैनल ने ब्रेकिंग खबर चलाई---'रेड्डी का हेलीकाप्टर ट्रेस कर लिया गया।' यहां 'ट्रेस' शब्द का बेहद आसान पर्याय 'खोज' हो सकता था। क्या 'खोज' कोई कठिन शब्द है। जाहिर है, ये भाषा के प्रति लापरवाही का मसला है जबकि पत्रकार के लिए भाषा वैसा ही औजार है जैसा बढ़ई के लिए बसूला या किसान के लिए हंसिया। लेकिन हिंदी तो गरीब की जोरू है, जो चाहे मजाक करे या जितनी चाहे छूट ले। कहीं कोई सुनवाई नहीं। इस लापरवाही (अपराध) का चरम 'आरोपी' और 'आरोपित' शब्द के इस्तेमाल में दिखता है। 'आरोपी' उसे कहते हैं जो आरोप लगाए और 'आरोपित' वो होता है जिस पर आरोप लगे। लेकिन न्यूज चैनलों में इनका बिल्कुल उल्टे अर्थ में इस्तेमाल होता है। हद तो ये है कि कुछ अखबार भी यही गलती करते हैं।


देखते-देखते हिंदी ऐसी ताकत अख्तियार करती जा रही है जिसकी कुछ साल पहले कल्पना भी नहीं थी। कुछ दिन पहले तक जो लोग हिंदी के अंत की घोषणा कर रहे थे, आज वे कमाई के लिए हिंदी पर निर्भर हैं। टेलिविजन चैनलों के 75 फीसदी हिस्से पर हिंदी का कब्जा है और हिंदी अखबारो के सामने अंग्रेजी अखबारों की कोई हैसियत नहीं है। हिंदी में बनने वाले फिल्में दुनिया में किसी भी भाषा में बनने वाली फिल्मों से ज्यादा व्यापार करती हैं। पश्चिम के कुशल व्यापारी इस संकेत को समझ रहे हैं और अमेरिका जैसे देश करोड़ो डालर हिंदी सीखने में खर्च कर रहे हैं।

यानी, वक्त आ गया है कि हिंदी वाले हीनभावना से उबरें। इस आतंक से उबरें कि मुक्ति की भाषा अंग्रेजी है। अंग्रेजी केवल साढ़े चार देशों (अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और आधा कनाडा)की भाषा है। भारत मे सत्ता के गलियारों से अंग्रेजी का अंत हो चुका है। वहां हिंदी या क्षेत्रीय भाषाएं ही राज कर रही हैं। फिर तकनीक तेजी से अपना काम कर रही है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में कंप्यूटर पर एक क्लिक करने से सटीक अनुवाद हासिल हो जाए। तब अंग्रेजी जानने या न जानने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। ऐसे में अखिल भारतीय स्तर पर एक मानक हिंदी की आवश्यकता होगी, जो तत्सम शब्दों से कटकर नहीं, उन्हें अपना कर बनेगी।

मत भूलिए कि मूलरूप से गुजराती भाषी और अंग्रेजी में निष्णात महात्मा गांधी ने सौ साल पहले 'हिंद स्वराज' में अंग्रेजों को ललकारते हुए साफ लिखा था कि भारत की भाषा हिंदी है, आपको उसे सीखना पड़ेगा। अंग्रेज (पश्चिम) तो इस बात को समझने लगा है। सवाल है कि हम कब समझेंगे।

5 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सारगर्भित आलेख है .. हिन्‍दी को अधिक हठी होना भी अच्‍छा नहीं .. जरूरत से अधिक नकल भी ठीक नहीं .. .. ब्‍लाग जगत में आज हिन्‍दी के प्रति सबो की जागरूकता को देखकर अच्‍छा लग रहा है .. हिन्‍दी दिवस की बधाई और शुभकामनाएं !!

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  2. बेहतरीन आलेख.

    हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ.

    कृप्या अपने किसी मित्र या परिवार के सदस्य का एक नया हिन्दी चिट्ठा शुरू करवा कर इस दिवस विशेष पर हिन्दी के प्रचार एवं प्रसार का संकल्प लिजिये.

    जय हिन्दी!

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  3. बहुत खुब सुन्दर रचना के लिए बधाई। हिन्दी दिवस की हार्दिक बधाई.........

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  4. Pankajji! Hindi ki takat or asmita ko lekar yeh ek achchha lekh hai.
    hindi ki takat ko bazar ne bhi pahchan liya hai.tabhi to tandha matlab coco kola bolna padat hai aamir ko.
    hindi-sanskrit or bhartiya bhashayaon itni dhani hain ki apko
    kisi angrazi se koi shabd udhar lene ki jarurat nahi hai.bhojpuri-awadhi-rajasthani8 adi me aise shabd hain jo hindi ko takat dete hain.hindi bolane,hindi padhane,likhane me lajane ki granthi se mukti jaruri hai---jise globlisation ne jakad liya hai.

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  5. http://www.petitiononline.com/Gkp2009/
    http://www.petitiononline.com/Gkp2009/
    इसे पढें और ठीक लगे तो हस्‍ताक्षर दें
    गोरखपुर के मजदूरों से जुडा मसला

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