सफरनामा

09 फ़रवरी, 2012

ओ घरघुसनेः उन्हीं दिनों की चीन्हाखचाई

ओ घरघुसने बाहर निकल
पान की दुकान तक बेमकसद यूं ही चल।
कबाड़ी की साइकिल की तीलियों पर टूटते
सूर्य को देख
ओ चिन्ताग्रस्त एक्जीक्यूटिव इंडिया के पूत
कूड़े को घूर गरदन झमकाते कौवे की तरह
कितनी ही बार धरती की परिक्रमा करने के बाद वहां
पर्वत शिखर से टकरा कर टूटी कार पड़ी है
और एक गुड़िया है जो
रोज सजने-सिसकने से उकता कर भाग निकली है घर से
जो सिगरेट की डिब्बी का तकिया लगाए नंगी
मुस्करा रही है।
देख ओ अकेलेपन और अवसाद के मारे
उन गुलाबी छल्लों की गांठों में प्रेम है
जिन्हें स्मारक के जतन से बांधा गया।
किसी दाई या बाई के
खपरैल जैसे पैर देख
फूली नसों पर मैल की धारियों में
उन द्वीपों की धूल
जहां तू कभी गया नहीं।
और कुछ नहीं तो सुन
छत के ऊपर बादलों तक चढता
तानसेन तरकारी वाले का अलाप
खरीद ले अठन्नी की ईमली
अबे ओ घरघुसने बाहर निकल
एक्जीक्यूटिव इन्डिया के पूत।

1 टिप्पणी:

  1. अबे ओ घरघुसने बाहर निकल
    एक्जीक्यूटिव इन्डिया के पूत।
    kabhi tamba se bahar moot.
    anil bhayya bhi dekhein teri kartoot'
    .....vibhu yadav

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