बेहतर होता कि एम.एफ.हुसैन भारत में रहते हुए अपने साथ हो रहे अन्याय का प्रतिकार करते। लेकिन 95 साल की उम्र में जब पेंशन के लिए डाकखाने जाना भी दुश्वार हो जाता है, तब हुसैन अदालतों का चक्कर काटें, ये उम्मीद भी ज्यादती ही है। कोई भी समझ सकता है कि हुसैन के पास वक्त कितना कम है। उन्हें इस उम्र में सुकून से रहने का पूरा हक है, ताकि कला के शिखर पर पहुंच चुके अपने घोड़ों का रंग थोड़ा और गाढ़ा कर सकें। इसलिए बिना आवेदन किए कतर की सरकार से मिल रहे नागरिकता के सम्मान स्वीकार कर वे कोई अपराध नहीं कर रहे हैं। रही बात भारत और भारतीयता की, तो इसे हुसैन भी हुसैन से जुदा नहीं कर सकते।
दरअसल, ये पूरा किस्सा सभ्यता की गाड़ी को उलटी दिशा में हांकने की कोशिश से जुड़ा है। हुसैन पर आरोप है कि उन्होंने कथित रूप से सरस्वती का नग्न चित्र बनाया। अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में उन्होंने बहुसंख्यकों की भावनाओं का मजाक उड़ाया। लेकिन सवाल ये है कि सरस्वती का नग्न चित्र बनाने की बात आई कहां से ? क्या ये बात हुसैन ने कही है। क्या उन्होंने अपने चित्र का नाम 'नग्न सरस्वती' दिया है ? या फिर किसी चित्रकार या कला-आलोचक ने ये बात कही है ? या फिर चित्र के सामने आते ही दर्शकों ने ऐसा शोर मचाया ? तथ्य ये है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।
हुसैन ने सरस्वती का चित्र 1970 में बनाया गया था, लेकिन इस पर विवाद शुरू हुआ 1996 के आस पास। ऐसा भी नहीं हुसैन तब कोई गुमनाम कलाकार थे। उन्हें 1955 में ही पद्मश्री से नवाजा जा चुका था। 1967 के बर्लिन फिल्म समारोह में उनकी फिल्म "फ्राम द आइज आफ ए पेंटर" को "गोल्डन बियर' पुरस्कार मिल चुका था। लेकिन 26 साल तक शांति बनी रही। हंगामा तब मचा जब एक पत्रिका में लेख छापकर हुसैन को चित्रकार की जगह कसाई बताया गया। आरएसएस और बीजेपी से जुड़े संगठनों ने सरस्वती के 'नग्न चित्र' का शोर मचाना शुरू किया। हुसैन की प्रदर्शनियों पर हमले हुए। उनके खिलाफ देश भर में सैकड़ों मुकदमे दायर कर दिए गए। उन्हें मारने की धमकी दी गई। करीब 10 साल की जद्दोजहद के बाद आखिरकार 2006 में हुसैन ने देश छोड़ दिया। तब से वे लगातार स्व-निर्वासित अवस्था में दरबदर घूम रहे थे।
हुसैन के चित्रों की थोड़ी समझ भी रखने वाले जानते हैं कि वे रंगों और रेखाओं के चित्रकार हैं। उनके यहां 'नख-शिख' चित्रण नहीं होता है। आमतौर पर वे चेहरा भी नहीं बनाते हैं। जिस चित्र को लेकर विवाद है वो भी कमोबेश एक रेखाचित्र ही है। जाहिर है, ये नग्नता बनाने वाले की नहीं, हुसैन विरोधियों की आंख में है। ये उनकी तंगनजरी और राजनीतिक इरादों की उपज है जिसमें एक मुस्लिम कलाकार को निशाना बनाने का खास मकसद होता है।
अजीब बात तो ये है कि ये सब भारतीय संस्कृति के नाम पर हो रहा है। जबकि भारतीय संस्कृति में देवी-देवताओं से 'खेलने' की पूरी परंपरा है। यही वजह है कि यहां मंदिरों की दीवारों पर मिथुन मूर्तियां मिलती हैं। कालिदास 'कुमार संभव' में शिव और पार्वती के रति-प्रसंगों का विशद वर्णन करते हैं। पुराणों में देवताओं के राजा इंद्र को ऋषि पत्नी के साथ छल से संबंध बनाने वाला बताया जाता है। भागवतकार बताता है कि कृष्ण स्नान करती गोपियों का वस्त्र लेकर भाग जाते हैं। अपनी बहन सुभद्रा का अपहरण करने में अर्जुन का साथ देते हैं।
लेखकों और रचनाकारों की आजादी का ये ' रंग' भारतीय संस्कृति में तब से घुला हुआ है, जब'संस्कृति रक्षकों' में चिढ़ पैदा करने वाला 'प्रगतिवाद' जैसा शब्द बना भी न था। साफ है कि हुसैन के खिलाफ बवाल मचाने वाले भारतीय संस्कृति को उतना भी आधुनिक नहीं रहने देना चाहते जितना वो कालिदास के जमाने में थी। समझा जा सकता है कि आज कालिदास होते तो उनकी गर्दन पर किसकी तलवार होती।
हुसैन की गलती यही है कि वे हिंदू या मुसलमान नहीं भारतीय चित्रकार हैं। वे अकेले चित्रकार हैं जिन्होंने रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों पर चित्रों की पूरी श्रृंखला बनाई है। किसी हिंदू चित्रकार ने आज तक ऐसा नहीं किया। ऐसे में ये सवाल बचकाना लगता है कि हुसैन में हिम्मत है तो पैगंबर या उनसे जुड़े लोगों के चित्र बनाएं। न भारतीय समाज किसी कट्टर समाज की प्रतिक्रिया में बना है और न हुसैन की चित्रकला किसी बाहरी परंपरा से प्रभावित है। हुसैन तो भारतीय कलाओं की हजारों साल पुरानी परंपरा से उपजे चित्रकार हैं जो उनके ब्रश के एक-एक स्ट्रोक में नजर आती है।
वैसे भी, चित्रकला और फोटोग्राफी में फर्क है। वहां सीधे-सीधे यथार्थ का चित्रण तब होता था जब कैमरे नहीं बने थे। जाहिर है, आधुनिक कला में प्रतीकों और बिंबों का इस्तेमाल स्वाभाविक और जरूरी है। लेकिन इसे समझने की कोशिश करने के बजाय भावनाओं के चोटिल होने की दुहाई दी जा रही है। ये सवाल बार-बार पूछा जाना चाहिए कि भावनाएं भड़कीं या भड़काई गईं। हुसैन अपने चित्र को लेकर गली-गली घूमते तो नहीं हैं। उनके चित्र जिन कलादीर्घाओं में लगे, वहां भी किसी दर्शक की भावना भड़कने का इतिहास नहीं है।
फिर, भावनाओं के भड़कने और न भड़कने की सीमा रेखा कौन तय करेगा। जिन्हें पुराणों की इस बात पर भरोसा है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर है, उनकी भावना तो कक्षा छह की विज्ञान की किताब से ही भड़क जाएगी, जो सौरमंडल और उसमें पृथ्वी की मौजूदगी के बारे में बिलकुल उलट बात बताती है। बमुश्किल डेढ़ सौ साल पहले स्वामी दयानंद सरस्वती ने 'सत्यार्थ प्रकाश' लिखकर मूर्तिपूजा के खिलाफ जबरदस्त मुहिम शुरू की थी। लेकिन किसी मूर्तिपूजक ने भावना के आहत होने का सवाल उठाकर उनपर हमला नहीं किया। यही नहीं, 1867 के हरिद्वार कुंभ में उन्होंने 'पाखंड खंडिनी पताका' फहराई थी। लेकिन कोई हंगामा नहीं हुआ।
दरअसल, भावनावादियों को अपनी संस्कृति और इतिहास का उदार पक्ष जहर जैसा लगता है। ये उसी वैश्विक बिरादरी के भारतीय संस्करण हैं, जिनकी वजह से कभी ब्रूनो को जिंदा जलाया गया था। ब्रूनो ने ताल ठोंककर कहा था कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। तब पृथ्वी को ब्रह्मांड का केंद्र माना जाता था। भावनाएं भड़क गईं और ब्रूनो को जिंदा जलाकर ही शांत हुईं। गैलीलियो को भी ऐसे ही लोगों ने अपने तमाम खगोलीय सिद्धांत वापस लेने को मजबूर किया था क्योंकि धार्मिक भावनाएं आहत हो रही थीं।
साफ है कि हुसैन के बहाने समाज को कट्टर और मतिमंध बनाने की कोशिश हो रही है। ये एक राजनीतिक अभियान है जो समाज का सांप्रदायिक ध्रवीकरण करके सत्ता तक पहुंचने की कोशिश में अरसे से जुटा है। ये लोकतंत्र में अपना वोटतंत्र विकसति करने के लिए भीड़तंत्र का सहारा लेता है। विडंबना ये है कि भीड़तंत्र के इस राह पर सिर्फ दक्षिणपंथी नहीं हैं। वे वामपंथी भी हैं जिन्होंने एक बेहतर समाज रचने का वादा किया था। जो अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर सबसे ज्यादा शोर मचाते रहे हैं।
पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने तस्लीमा नसरीन के साथ ऐसा ही किया। हालांकि बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा खुद को हुसैन की परंपरा में नहीं रखतीं। वे अपनी नास्तिक आस्थाओं को लेकर किसी भी धर्म से भिड़ने का साहस रखती हैं लेकिन नास्तिकता से जुड़े सबसे आधुनिक दर्शन यानी मार्क्सवाद पर भरोसा रखने वाले वामपंथी उन्हें कोलकाता में रहने देने को तैयार नहीं हुए। ये वही लोग हैं जो हुसैन पर हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज उठाते हैं, लेकिन तस्लीमा का नाम आने पर बगले झांकने लगते हैं। क्योंकि उन्हें डर है कि तस्लीमा का साथ देने से मुसलमान नाराज हो जाएंगे जो पश्चिम बंगाल में 26 फीसदी हैं। वैसे भी सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद किसी को ये भ्रम नहीं रह गया है वहां के मुस्लिम समाज में किस कदर पिछड़ापन है। 33 साल के शासन के बावजूद वामपंथी इस समाज के बड़े हिस्से में आधुनिकता का प्रसार करने में बुरी तरह नाकाम रहे हैं।
हुसैन और तस्लीमा प्रकरण ने भारतीय लोकतंत्र के खोखलेपन को एकबार फिर उजागर कर दिया है। क्योंकि आजादी या तो होती है या नहीं होती। कलाकारों या लेखकों को सीमित आजादी देने का मतलब उन्हें गुलाम बनाना है। इस मोर्चे पर केंद्र की यूपीए सरकार भी बुरी तरह असफल साबित हुई है। वो चाहती तो हुसैन को सुरक्षा दे सकती थी और तस्लीमा को नागरिकता। लेकिन भीड़तंत्र के आगे वो भी नतमस्तक है।
लोकतंत्र की सबसे बड़ी कसौटी अभिव्यक्ति की आजादी है। और अगर इससे किसी की भावनाएं आहत होती हैं तो उसके प्रतिकार के लिए कानूनी मंच होते हैं। इसलिए ये पूरी लड़ाई सिर्फ हुसैन या तस्लीमा की नहीं है। लोकतंत्र पर आस्था रखने वाले हर शख्स की है। फ्रांसीसी क्रांति की बुनियाद रखने वालों में से एक, महान विचारक वाल्तेयर ने लोकतंत्र के मूल्यों पर बात करते हुए कभी कहा था- 'मैं जानता हूं कि तुम्हारी बात गलत है, फिर भी उसे कहने के तुम्हारे अधिकार के लिए मैं अपनी जान तक दे सकता हूं।'