सफरनामा
सरकार लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
सरकार लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

10 मार्च, 2010

हुसैन की भारत माता पर न्यायमूर्ति कौल का फैसला

मकबूल फिदा हुसैन के खिलाफ़ अश्लीलता और अपमान के आरोपों वाली तीन याचिकाओं ( ११४/२००७, २८०/२००७ और २८२/२००७) जिनमें कि बहुउल्लेखित और चर्चित भारतमाता वाले चित्र वाली याचिका भी शामिल है, पर दिल्ली हाईकोर्ट ने ८ मई २००८ को फ़ैसला सुनाते हुए, खारिज कर दिया था। इस फ़ैसले में न सिर्फ़ कला पर वरन और भी कई मानसिकताओं पर पुरजोर टिप्पणियां की गई हैं।

दिल्ली हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति संजय किशन कौल द्वारा, कला की गहराइयों, कलाकार के नज़रिये, अन्य देशों के कानूनों और न्यायिक मतों, भारत में ही पूर्व मामलों, कलात्मक स्वतंत्रता और अश्लीलता, सामयिक मापदंडों, सौन्दर्यबोध अथवा कलात्मक प्रवृति, साहित्यकारों/कलाविदों की राय, अभिव्यक्ति की आज़ादी, आम आदमी की कसौटी, सामाजिक उद्देश्य या मुनाफ़ा, और दायित्वों की कड़ी कसौटी के मापदंड़ों पर इस मामले को कसते हुए, दिये इस फ़ैसले के कुछ उद्धरणों और चित्र की व्याख्याओं को यहां प्रस्तुत किया जा रहा है। (भारत माता का चित्र नीचे दिया गया है)



अपने फैसले में न्यायमूर्ति कौल ने कहा है--

. अश्लीलता पर भारत और विदेशों में बने कानूनों की कसौटियों पर ऊपर विचार विमर्श किया जा चुका है और वे स्पष्ट हैं। इन कसौटियों के मुताबिक मेरे विचार में यह पेंटिंग भादंवि की धारा २९२ के तहत अश्लील नहीं है। न तो यह पेंटिग कामोत्तेजक है और न ही कामवासना को बढावा देती है। न ही उसे देखने वाला कोई व्यक्ति भ्रष्ट अथवा पतित हो सकता है। दूसरे शब्दों में यह पेंटिंग किसी भी व्यक्ति में कामवासना नहीं भड़काती और न ही उसे भ्रष्ट करती है। इसके बावज़ूद कि कुछ लोग बुरा महसूस करेंगे कि तथाकथित भारतमाता को नग्न दिखाया गया है, पर मेरी राय में इसे अश्लीलता की कसौटी पर ठीक ठहराने के लिए कोई तर्क नहीं है। यह पेंटिंग जिसमें भारत को एक मानवाकृति में दिखाया गया है, किसी अवधारणा का नग्न चित्र होने के नाते किसी तरह से आम आदमी को शर्मिंदा नहीं करती। क्योंकि वह उसका कलात्मक मूल्य भी नहीं खोती।

. कलाकार/याचिकाकर्ता के नज़रिए से इस पेंटिंग को समझने के प्रयास से पता चलता है कि कैसे चित्रकार ने एक अमूर्त अभिव्यक्ति के जरिए एक राष्ट्र की अवधारणा को व्यथित स्त्री के रूप में दिखाया है। कोई संदेह नहीं कि राष्ट्र की अवधारणा लंबे समय से मातृत्व के विचार से जुड़ी हुई है। लेकिन सिर्फ़ इसलिए कि चित्रकार ने इसे नग्न रूप में अभिव्यक्त किया है, अश्लीलता की कसौटी पर सही नहीं उतरती है, क्योंकि इस कसौटी में कहा गया है कि सेक्स अथवा नग्नता अकेले को ही अश्लील नहीं ठहराया जा सकता। यदि पेंटिंग को संपूर्णता में देखा जाए तो यह साफ़ होता है कि प्रतिवादियों के वकील की जो दलील कि यह नग्न है, उसके विपरीत किसी भी देशभक्त भारतीय के मन में इसे देखकर घृणा का भाव नहीं उठेगा और न ही इसमें आंखों को चुभने वाली कोई चीज़ है। तथ्य यह है कि जिसे नग्नता के रूप में अश्लीलता कहा जा रहा है, उसकी वज़ह से पेंटिंग में भौंचक्काकर देने वाला कलाबोध आ गया है, जबकि नग्नता इतनी गैरमहत्वपूर्ण हो गई है कि उसे आसानी से नज़रअंदाज़ किया जा सकता है।

. कभी हैंस हॉफमैन ने कहा था और मैं जिसका उल्लेख कर रहा हूं : “कोई भी कलाकृति अपने आपमें एक दुनिया होती है, जो कलाकार की दुनिया की संवेदनाएं और भावनाएं प्रतिबिंबित करती है”। इसे ही दूसरे शब्दों में एड़वर्ड़ हॉपर ने कहा है : “महान कला किसी भी कलाकार की अंदरूनी ज़िंदगी की बाहरी अभिव्यक्ति होती है”। यदि ये बातें ठीक हैं तो यह कहना अनुचित नहीं होगा कि याचिकाकर्ता हमारे राष्ट्र की बढ़ती हुई अव्यक्त पीड़ा से व्यथित है और उसने उसे कैनवास पर उतारने का प्रयास किया है। इस पेंटिंग में कलाकार की सृजनशीलता का साक्ष्य है। उसमे एक महिला के आंसुओं या अस्तव्यस्त, उलझे हुए खुले बालों के जरिए एक चित्रकार हमारे देश के दुःखी और हताश चहरे की तस्वीर खींचना चाहता है, जो कि घोर वेदना और व्यथा के दौर से गुजर रहा है। इसमें एक महिला के दुःख को उसके लेटने के तरीके जिसमें उसने अपने चहरे को हाथ से ढ़ंका हुआ है, आंखें बंद की हुई हैं और उनमें एक आंसूं छलक रहा है, से व्यक्त किया गया है। महिला को नग्न दिखाना भी उसी अभिव्यक्ति का हिस्सा है और उसका मकसद किसी दर्शक की कामवासना को भड़काना नहीं है, बल्कि उसके दिमाग़ को झकझोरकर रखना है ताकि वह भारत की वेदना से जुड़ सके तथा इसके लिए दोषी व्यक्तियों से घृणा करने पर मजबूर हो। जो भी व्यक्ति पेंटिंग को देखेगा, उसकी प्रतिक्रिया आंसुओं में, मौन या इससे मिलती-जुलती होगी, परंतु कामवासना के रूप में तो कतई नहीं हो सकती। इस पेंटिंग की कई व्याख्याएं हो सकती हैं। एक व्याख्या यह भी हो सकती है कि वह पेंटिंग एक हताशा से भरे हुए भारत को दिखाती है जो कई समस्याओं से घिरा है, मसलन भ्रष्टाचार, अपराधीकरण, नेतृत्व का अभाव, बेरोजगारी, गरीबी, अधिक आबादी, निम्न जीवनस्तर, सिद्धांतों एवं मूल्यों का क्षरण आदि। एक व्याख्या यह भी हो सकती है कि भारतमाता को वंचना से जूझ रहे एक रूपक के तौर पर चित्रकार ने प्रयुक्त किया हो, क्योंकि जिस समय पेंटिंग बनाई गई, उस वक्त देश में भूकंप से काफ़ी बरवादी हुई थी। एक व्याख्या यह भी हो सकती है कि हिमालय की श्रेणियों को एक महिला के खुले बालों और रंगों के उदात्त उपयोग द्वारा दर्शाया गया है। यह कलाकृति को कलाबोध प्रदान करता है।
. इस संदर्भित पेंटिंग में नग्न महिला ऐसी मुद्रा या भंगिमा, में नहीं है और न ही उसके आसपास के वातावरण को इस तरह चित्रित किया गया है कि वह बददिमाग़ लोगों में सेक्सी भावनाएं जगाए, जिसे असम्मानजनक कहा जा सके, जैसी कि प्रतिवादियों की दलील थी।……….यदि भिन्न विचार लिया जाए कि अगर चित्रकार भारत को मानवीय रूप में दिखाना चाहता था तो यह अधिक उपयुक्त होता कि उसे साड़ी या किसी लंबे कपड़े इत्यादि से लपेट देता, परंतु केवल इतना ही उसे दोषी ठहराने में पर्याप्त नहीं है। यह अलग बात है कि कुछ लोग भारतमाता को न्यूड पेंट करने पर कुछ कट्टरपंथी तथा दकियानूसी विचार रखते हों। लेकिन याचिकाकर्ता जैसे व्यक्ति पर इसके लिए अपराधिक मुकदमा नहीं चलाया जा सकता, जो संभवतः भारतमाता को चित्रित करने में और आज़ादख्याल हो। हमारे संविधान में दी गई आज़ादी, समानता और बंधु्त्व की संकल्पना दूसरे विचारों के प्रति असहिष्णुता से नफ़रत करती है।………..

. जिस चीज़ ने कुछ लोगों के दिमाग़ बंद कर दिये हैं, उन्हें स्वामी विवेकानंद का एक कथन अवश्य पढना चाहिए--
” हम हर किसी को अपने मानसिक विश्व की सीमा से बांधना चाहते हैं और उसे
हमारे सिद्धांत, नैतिकता, कर्तव्यबोध और यहां तक कि उपयोगिता का बोध भी
सिखाना शुरू कर देते हैं। सारे धार्मिक संघर्ष दूसरों के ऐसे मूल्यांकन की देन हैं।
यदि हम सचमुच मूल्यांकन करना चाहते हैं तो यह ‘उस व्यक्ति के ख़ुद के आदर्श
के मुताबिक करना चाहिए, न कि किसी दूसरे के’। यह महत्वपूर्ण है कि दूसरों के
दायित्वों को उनकी नज़रों से देखा जाए और दूसरों के रीतिरिवाज़ों तथा प्रथाओं
को हमारे मापदंड़ों से नहीं देखा जाए“।

. हम एक ऐसे चौराहे पर खड़े हैं, जहां हमें आत्मावलोकन करने की जरूरत है, ताकि भीतर और बाहर दोनों देख सकें। ……आधुनिक भारत में समाज के मानदंड़ तेजी से बदल रहे हैं और इसलिए अब आधुनिकता के जमाने में हमें विभिन्न सोच-विचारॊं को खुले दिल से अपनाना चाहिए। लेकिन जहां कलाकार को अपनी कलात्मक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, वहीं वह वो सब करने के लिए स्वतंत्र नहीं है, जो सब वह चाहता है। एक वह कला है जो सुंदरता की अभिव्यक्ति है और दूसरी वह कला है जो अप-संस्कृति की फ़ूहड़ अभिव्यक्ति से भरे दिमाग़ की उपज है। इन दोनों कलाओं में फ़र्क करना होगा। अशिष्ट चीज़ो को बढ़ावा देने वाली कला को सभ्य दुनिया से हटाने की जरूरत है।

. मानवीय व्यक्तित्व तभी भरपूर फलेगा-फूलेगा और इंसानीयत उसी वातावरण में गहरी जड़ें जमा सकेगी और सुगंध दे सकेगी, जहां सभी मिलकर सहिष्णुता औए आज़ाद ख्याली का परिचय दें।

. हमारी सबसे बड़ी समस्या फिलहाल कट्टरपंथ है, जिसने लोकतंत्र की आत्मा का हरण कर लिया है। एक आज़ाद समाज में सहिष्णुता मुख्य विशेषता होती है। ख़ासतौर पर तब जब वह एक बड़ा और जटिल किस्म का समाज हो, जिसमें अलग-अलग मतों और हितों वाले लोग रहते हों। ……………यह समझा जाना चाहिए कि असहिष्णुता विचार-विमर्श और विचार की आज़ादी पर प्रतिबंध लगाती है। इसका प्रतिफल यह होता है कि असहमतियां सूख जाती हैं। और तब लोकतंत्र अपना अर्थ खो देता है।

. कला की आलोचना हो सकती है, बल्कि एक नागरिक समाज में विभिन्न मत व्यक्त करने के कई मंच व तरीके हो सकते हैं। लेकिन अपराध न्याय प्रणाली को किसी कला के खिलाफ़ आपत्ति दर्ज़ करने के लिए उपयोग नहीं करना चाहिए। इसे किसी अविवेकी के हाथ में औज़ार नहीं बनने देना चाहिए, जो इसका दुरुपयोग लोगों के अधिकारों के गंभीर उल्लंघन में करे। खास तौर पर सृजन क्षेत्र के लोगों के।………….

” दुर्भाग्य से इस दिनों कुछ लोग हमेशा पलीता लगाते रहते हैं। और प्रदर्शन करने
जो अक्सर हिंसक हो जाता है, के लिए उत्सुक रहते हैं। मुद्दा दुनिया की कोई भी
चीज़ हो सकती है, कोई किताब, पेंटिंग अथवा फिल्म आदि हो सकती है, जिसने
उनके समुदाय की ‘भावना को ठेस’ पहुंचा दी हो। ऐसी खतरनाक प्रवृतियों पर
लगाम कसनी चाहिए। हम एक राष्ट्र हैं और हमें अनिवार्य रूप से एक दूसरे का
सम्मान करना चाहिए और सहनशीलता रखनी चाहिए“। …………..

. उपरोक्त नज़रिए से याचिकाकर्ता के खिलाफ़ आदेश दिया जाना और गिरफ़्तारी वारंट निकाला जाना रद्द किया जाता है और उनके खिलाफ़ दायर पुनरीक्षण याचिकाओं को मंजूरी दी जाती है……..

उपसंहार

. विभिन्न नज़रियों के प्रति सहिष्णुता किसी का नुकसान नहीं करती। इसका मतलब सिर्फ़ आत्मनियंत्रण से है। लेखन, पेंटिंग अथवा दृश्य मीडिया के जरिए अभिव्यक्ति की विविधता बहस को बढावा देती है। किसी बहस को कभी बंद नहीं किया जाना चाहिए। ‘मैं सही हूं’ का अर्थ यह नहीं होता कि ‘तुम गलत हो’। हमारी संस्कृति विचार और कार्यों में सहिष्णुता को बढ़ावा देने वाली है। इस फ़ैसले को लिखते वक्त उम्मीद है कि यह कला क्षेत्र के लिए खुली सोच और व्यापक सहिष्णुता की भूमिका बनेगा। ९० साल की उम्र के एक चित्रकार को उसके घर पर होना चाहिए–कैनवास पर चित्र उकेरते हुए।


हस्ताक्षर


८ मई, २००८ न्यायमूर्ति संजय किशन कौल


(हुसैन को लेकर सारी बहस ये मान कर हो रही है कि उन्होंने देवी देवताओं की नंगी तस्वीरें बनाईं। मुझे शुरू से इस बात पर आपत्ति है। इस लिहाज से न्यायमूर्ति कौल का ये फैसला बेहद अहम है। मुझे ये रवि कुमार के ब्लाग सृजन और सरोकार में मिला। मूल फैसले का सुनील सोनी ने अनुवाद किया था जिसे उद्भावना के अंक 85 में छापा गया। मैं दोनों महानुभावों के प्रति आभार व्यक्त करते हूं कि उन्होंने एक बेहद जरूरी काम को अंजाम दिया।)

04 मार्च, 2010

अश्लीलता हुसैन में नहीं, आपकी आंख में है पार्टनर!

बेहतर होता कि एम.एफ.हुसैन भारत में रहते हुए अपने साथ हो रहे अन्याय का प्रतिकार करते। लेकिन 95 साल की उम्र में जब पेंशन के लिए डाकखाने जाना भी दुश्वार हो जाता है, तब हुसैन अदालतों का चक्कर काटें, ये उम्मीद भी ज्यादती ही है। कोई भी समझ सकता है कि हुसैन के पास वक्त कितना कम है। उन्हें इस उम्र में सुकून से रहने का पूरा हक है, ताकि कला के शिखर पर पहुंच चुके अपने घोड़ों का रंग थोड़ा और गाढ़ा कर सकें। इसलिए बिना आवेदन किए कतर की सरकार से मिल रहे नागरिकता के सम्मान स्वीकार कर वे कोई अपराध नहीं कर रहे हैं। रही बात भारत और भारतीयता की, तो इसे हुसैन भी हुसैन से जुदा नहीं कर सकते।

दरअसल, ये पूरा किस्सा सभ्यता की गाड़ी को उलटी दिशा में हांकने की कोशिश से जुड़ा है। हुसैन पर आरोप है कि उन्होंने कथित रूप से सरस्वती का नग्न चित्र बनाया। अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में उन्होंने बहुसंख्यकों की भावनाओं का मजाक उड़ाया। लेकिन सवाल ये है कि सरस्वती का नग्न चित्र बनाने की बात आई कहां से ? क्या ये बात हुसैन ने कही है। क्या उन्होंने अपने चित्र का नाम 'नग्न सरस्वती' दिया है ? या फिर किसी चित्रकार या कला-आलोचक ने ये बात कही है ? या फिर चित्र के सामने आते ही दर्शकों ने ऐसा शोर मचाया ? तथ्य ये है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

हुसैन ने सरस्वती का चित्र 1970 में बनाया गया था, लेकिन इस पर विवाद शुरू हुआ 1996 के आस पास। ऐसा भी नहीं हुसैन तब कोई गुमनाम कलाकार थे। उन्हें 1955 में ही पद्मश्री से नवाजा जा चुका था। 1967 के बर्लिन फिल्म समारोह में उनकी फिल्म "फ्राम द आइज आफ ए पेंटर" को "गोल्डन बियर' पुरस्कार मिल चुका था। लेकिन 26 साल तक शांति बनी रही। हंगामा तब मचा जब एक पत्रिका में लेख छापकर हुसैन को चित्रकार की जगह कसाई बताया गया। आरएसएस और बीजेपी से जुड़े संगठनों ने सरस्वती के 'नग्न चित्र' का शोर मचाना शुरू किया। हुसैन की प्रदर्शनियों पर हमले हुए। उनके खिलाफ देश भर में सैकड़ों मुकदमे दायर कर दिए गए। उन्हें मारने की धमकी दी गई। करीब 10 साल की जद्दोजहद के बाद आखिरकार 2006 में हुसैन ने देश छोड़ दिया। तब से वे लगातार स्व-निर्वासित अवस्था में दरबदर घूम रहे थे।

हुसैन के चित्रों की थोड़ी समझ भी रखने वाले जानते हैं कि वे रंगों और रेखाओं के चित्रकार हैं। उनके यहां 'नख-शिख' चित्रण नहीं होता है। आमतौर पर वे चेहरा भी नहीं बनाते हैं। जिस चित्र को लेकर विवाद है वो भी कमोबेश एक रेखाचित्र ही है। जाहिर है, ये नग्नता बनाने वाले की नहीं, हुसैन विरोधियों की आंख में है। ये उनकी तंगनजरी और राजनीतिक इरादों की उपज है जिसमें एक मुस्लिम कलाकार को निशाना बनाने का खास मकसद होता है।

अजीब बात तो ये है कि ये सब भारतीय संस्कृति के नाम पर हो रहा है। जबकि भारतीय संस्कृति में देवी-देवताओं से 'खेलने' की पूरी परंपरा है। यही वजह है कि यहां मंदिरों की दीवारों पर मिथुन मूर्तियां मिलती हैं। कालिदास 'कुमार संभव' में शिव और पार्वती के रति-प्रसंगों का विशद वर्णन करते हैं। पुराणों में देवताओं के राजा इंद्र को ऋषि पत्नी के साथ छल से संबंध बनाने वाला बताया जाता है। भागवतकार बताता है कि कृष्ण स्नान करती गोपियों का वस्त्र लेकर भाग जाते हैं। अपनी बहन सुभद्रा का अपहरण करने में अर्जुन का साथ देते हैं।

लेखकों और रचनाकारों की आजादी का ये ' रंग' भारतीय संस्कृति में तब से घुला हुआ है, जब'संस्कृति रक्षकों' में चिढ़ पैदा करने वाला 'प्रगतिवाद' जैसा शब्द बना भी न था। साफ है कि हुसैन के खिलाफ बवाल मचाने वाले भारतीय संस्कृति को उतना भी आधुनिक नहीं रहने देना चाहते जितना वो कालिदास के जमाने में थी। समझा जा सकता है कि आज कालिदास होते तो उनकी गर्दन पर किसकी तलवार होती।

हुसैन की गलती यही है कि वे हिंदू या मुसलमान नहीं भारतीय चित्रकार हैं। वे अकेले चित्रकार हैं जिन्होंने रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों पर चित्रों की पूरी श्रृंखला बनाई है। किसी हिंदू चित्रकार ने आज तक ऐसा नहीं किया। ऐसे में ये सवाल बचकाना लगता है कि हुसैन में हिम्मत है तो पैगंबर या उनसे जुड़े लोगों के चित्र बनाएं। न भारतीय समाज किसी कट्टर समाज की प्रतिक्रिया में बना है और न हुसैन की चित्रकला किसी बाहरी परंपरा से प्रभावित है। हुसैन तो भारतीय कलाओं की हजारों साल पुरानी परंपरा से उपजे चित्रकार हैं जो उनके ब्रश के एक-एक स्ट्रोक में नजर आती है।

वैसे भी, चित्रकला और फोटोग्राफी में फर्क है। वहां सीधे-सीधे यथार्थ का चित्रण तब होता था जब कैमरे नहीं बने थे। जाहिर है, आधुनिक कला में प्रतीकों और बिंबों का इस्तेमाल स्वाभाविक और जरूरी है। लेकिन इसे समझने की कोशिश करने के बजाय भावनाओं के चोटिल होने की दुहाई दी जा रही है। ये सवाल बार-बार पूछा जाना चाहिए कि भावनाएं भड़कीं या भड़काई गईं। हुसैन अपने चित्र को लेकर गली-गली घूमते तो नहीं हैं। उनके चित्र जिन कलादीर्घाओं में लगे, वहां भी किसी दर्शक की भावना भड़कने का इतिहास नहीं है।

फिर, भावनाओं के भड़कने और न भड़कने की सीमा रेखा कौन तय करेगा। जिन्हें पुराणों की इस बात पर भरोसा है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर है, उनकी भावना तो कक्षा छह की विज्ञान की किताब से ही भड़क जाएगी, जो सौरमंडल और उसमें पृथ्वी की मौजूदगी के बारे में बिलकुल उलट बात बताती है। बमुश्किल डेढ़ सौ साल पहले स्वामी दयानंद सरस्वती ने 'सत्यार्थ प्रकाश' लिखकर मूर्तिपूजा के खिलाफ जबरदस्त मुहिम शुरू की थी। लेकिन किसी मूर्तिपूजक ने भावना के आहत होने का सवाल उठाकर उनपर हमला नहीं किया। यही नहीं, 1867 के हरिद्वार कुंभ में उन्होंने 'पाखंड खंडिनी पताका' फहराई थी। लेकिन कोई हंगामा नहीं हुआ।

दरअसल, भावनावादियों को अपनी संस्कृति और इतिहास का उदार पक्ष जहर जैसा लगता है। ये उसी वैश्विक बिरादरी के भारतीय संस्करण हैं, जिनकी वजह से कभी ब्रूनो को जिंदा जलाया गया था। ब्रूनो ने ताल ठोंककर कहा था कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। तब पृथ्वी को ब्रह्मांड का केंद्र माना जाता था। भावनाएं भड़क गईं और ब्रूनो को जिंदा जलाकर ही शांत हुईं। गैलीलियो को भी ऐसे ही लोगों ने अपने तमाम खगोलीय सिद्धांत वापस लेने को मजबूर किया था क्योंकि धार्मिक भावनाएं आहत हो रही थीं।

साफ है कि हुसैन के बहाने समाज को कट्टर और मतिमंध बनाने की कोशिश हो रही है। ये एक राजनीतिक अभियान है जो समाज का सांप्रदायिक ध्रवीकरण करके सत्ता तक पहुंचने की कोशिश में अरसे से जुटा है। ये लोकतंत्र में अपना वोटतंत्र विकसति करने के लिए भीड़तंत्र का सहारा लेता है। विडंबना ये है कि भीड़तंत्र के इस राह पर सिर्फ दक्षिणपंथी नहीं हैं। वे वामपंथी भी हैं जिन्होंने एक बेहतर समाज रचने का वादा किया था। जो अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर सबसे ज्यादा शोर मचाते रहे हैं।

पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने तस्लीमा नसरीन के साथ ऐसा ही किया। हालांकि बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा खुद को हुसैन की परंपरा में नहीं रखतीं। वे अपनी नास्तिक आस्थाओं को लेकर किसी भी धर्म से भिड़ने का साहस रखती हैं लेकिन नास्तिकता से जुड़े सबसे आधुनिक दर्शन यानी मार्क्सवाद पर भरोसा रखने वाले वामपंथी उन्हें कोलकाता में रहने देने को तैयार नहीं हुए। ये वही लोग हैं जो हुसैन पर हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज उठाते हैं, लेकिन तस्लीमा का नाम आने पर बगले झांकने लगते हैं। क्योंकि उन्हें डर है कि तस्लीमा का साथ देने से मुसलमान नाराज हो जाएंगे जो पश्चिम बंगाल में 26 फीसदी हैं। वैसे भी सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद किसी को ये भ्रम नहीं रह गया है वहां के मुस्लिम समाज में किस कदर पिछड़ापन है। 33 साल के शासन के बावजूद वामपंथी इस समाज के बड़े हिस्से में आधुनिकता का प्रसार करने में बुरी तरह नाकाम रहे हैं।

हुसैन और तस्लीमा प्रकरण ने भारतीय लोकतंत्र के खोखलेपन को एकबार फिर उजागर कर दिया है। क्योंकि आजादी या तो होती है या नहीं होती। कलाकारों या लेखकों को सीमित आजादी देने का मतलब उन्हें गुलाम बनाना है। इस मोर्चे पर केंद्र की यूपीए सरकार भी बुरी तरह असफल साबित हुई है। वो चाहती तो हुसैन को सुरक्षा दे सकती थी और तस्लीमा को नागरिकता। लेकिन भीड़तंत्र के आगे वो भी नतमस्तक है।

लोकतंत्र की सबसे बड़ी कसौटी अभिव्यक्ति की आजादी है। और अगर इससे किसी की भावनाएं आहत होती हैं तो उसके प्रतिकार के लिए कानूनी मंच होते हैं। इसलिए ये पूरी लड़ाई सिर्फ हुसैन या तस्लीमा की नहीं है। लोकतंत्र पर आस्था रखने वाले हर शख्स की है। फ्रांसीसी क्रांति की बुनियाद रखने वालों में से एक, महान विचारक वाल्तेयर ने लोकतंत्र के मूल्यों पर बात करते हुए कभी कहा था- 'मैं जानता हूं कि तुम्हारी बात गलत है, फिर भी उसे कहने के तुम्हारे अधिकार के लिए मैं अपनी जान तक दे सकता हूं।'