पेड़ सम्मोहक क्यों लगते हैं। बस इसलिए कि हरे होते हैं, आक्सीजन देते हैं और जंगलात महकमें के सरकारी कर्मचारियों ने एक "वृक्ष दस पुत्र समान" जो तुकबंदियां रची हैं उन सबके समर्थन में हवा चलने पर सिर हिला कर हांजी! हांजी!! करते हैं? लालची आदमी कितने भी उत्पात क्यों न करे अपने अवचेतन में जानता है कि उसकी जिन्दगी बापनुमा पेड़ों पर निर्भर है, इस डर के कारण। या उनके भीतर से गुजरता आसमान अपना एकरस अनंत विस्तार भूल, झिलमिल वैविध्य दिखाने लगता है इसलिए? पेड़ों का अपना व्यक्तित्व होता है। बरगद संरक्षण देता लगता है और देवदार आत्मकेंद्रित रूक्ष हठयोगी और हरसिंगार जैसे "फूलबाबू" जिसकी अंतर को छू लेने वाली उदारता देख कर कभी-कभार यारा-दिलदारा टाइप कोई गाना गाने का मन होता है। भारतीय फिल्मों के इतिहास में सर्वाधिक गाने हीरो हिरोइनों से पेड़ों के इर्द गिर्द इसी मानसिक कुलेल पर नियंत्रण न कर पाने के कारण ही तो नहीं गवाए गए।
पेड़ों की जिंदगी होती है, क्या उन्हे पता है कि उनका हरा रंग आदमी को अच्छा लगता है और वे उसे प्राणों की सप्लाई करते हैं। आदमी को क्या शुरू से ही यह हरा रंग भा गया कि हरियाला बन्ना या बन्नी होना चाहने लगा। या बहुत दिनों वह चारो ओर के संघन, अंधियारे हरे विस्तार से डरता रहा फिर धीरे-धीरे पेड़ो से होने वाले कुल जमा नफा नुकसान का मिलान किया और उसका सौंदर्य बोध हरा हो गया। सौंदर्य बोध व्याकरण जैसी प्रशिक्षण की चीज है जिसमें अन्य अनुशासनों की तरह भय घुला होता है। इसीलिए अप्रशिक्षित लोग लोग बड़े कलाकारों की बड़ी पेन्टिंग्स को समझ नहीं पाते बस थोड़े से कला-ग्रामर जानने वाले लोग समझते, खरीदते और सराहते हैं और उनमें से भी कई ऐसे होते हैं जो इसलिए बढ़चढ़ कर सराहते हैं कि कहीं उनकी न समझने वाली असलियत का सचमुच के ज्ञानियों को पता न चल जाए।
अगर आदमी बुद्धिमान है तो उसने खुद को पेड़ों की तरह अपने भीतर क्लोरोफिल और फोटोसिन्थेसिस का फंडा क्यों नहीं विकसित किया। पापी के पेट के सवाल को सदा के लिए सूरज और बारिश पर छोड़ देता और मनचाहे काम करता। आदमी की जात को समर्पण पसंद नहीं हैं। कैसे सूरज पर छोड़ देता। उसे ईगो प्यारा है जिसे पौरूष कहा, जिसपर पत्थर के भाले बनाते, शिकार करते धार चढ़ती गई। (पता नहीं नारीवादियों ने पाषाणकाल की महिला शिकारियों के गौरव के लिए कौन सा शब्द ईजाद किया होगा) अब भी वही है क्योंकि दो वक्त की रोटी के आसपास जरा और सरंअजाम जुटाना ही मुख्यधारा का पौरूष है। वैसे गिरि बाला और थेरेस न्यूमान जैसे लोग भी हुए हैं जिनके भीतर फोटोसिन्थेसिस जैसा एक केमिकल लोचा सायास विकसित हो गया और बिना कुछ खाए उन्होंने मौज से अपनी जिन्दगी जी। 1868 में बंगाल में पैदा हुई गिरिबाला को सास ने हमेशा खाते रहने के लिए इतने ताने मारे कि उनने 1881 में एक दिन खाना बंद कर दिया और योगिनी हो गईं। बाद के छप्पन सालों में वैज्ञानिकों ने अंदाजा लगाया कि उनका मेडुला आबलांगेटा सूरज की रोशनी से सीधे उर्जा बनाने लगा था। रिकार्ड बताते हैं कि बर्दवान के महाराजा ने परीक्षण के लिए दो महीने उन्हें एक कोठरी में बंद रखा जिसमें वह सफल साबित हुईं। न्यूमान के बारे मे नेट जानकारियों से लदा हुआ है क्योंकि उन्हें देखने के लिए 1923 तक दुनिया भर के लोग पहुंचते थे और उनपर "स्टिगमाटा" नाम की एक फिलम भी बनी है।
जानवर, आदमी से ज्यादा जानते हैं कि उनकी जिन्दगी पेड़ों पर निर्भर है तो वे कभी उनके प्रति किसी आभार का संकेत क्यों नहीं देते। जहां जंगल कटते हैं जानवर, पक्षी भी खत्म हो जाते हैं। यह आभार प्रकट करने का तरीका नहीं है क्या? सेव टाईगर कैम्पेन किसका आभारी है।
आप ठीक तो हैं।
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