काफ़्का शराब नहीं पीता था. मांस भी नहीं खाता था.
वान गॉग बाद के दिनों में खू़ब शराब पीता था. वैश्यागामी भी था.
उसके बाद एक बार विएना के लियोपॉल्ड म्यूज़ियम में हैनरी दे तुलूस लौत्रेक की प्रदर्शनी देखने के बाद मैं लौत्रेक नामी इस महान वैश्यागामी, शराबी और 'मूलां रूज़' को अमर बना देने वाले चित्रकार का मुरीद हो गया.
शराब और सिगरेट की अति से अपने स्वास्थ्य को तबाह कर चुका फ़र्नान्दो पेसोआ जब अपने पीछे सत्ताइस हज़ार से ज़्यादा पांडुलिपियां छोड़कर जाने वाला था, वह अपनी मौत से एक दिन पहले अपनी डायरी में लिख रहा था: " मेरे भीतर गहरे कहीं हिस्टीरिया के लक्षण हैं ... जो भी हो मेरी कविता का बौद्धिक अस्तित्व मेरे शारीरिक रोग से उपजा है. अगर मैं एक स्त्री होता तो मेरी हर कविता पड़ोस में कोहराम मचा देती, क्योंकि स्त्रियों में हिस्टीरिया उन्माद और पागलपन के रूप में प्रदर्शित होता है. लेकिन मैं एक पुरुष हूं और पुरुषों में हिस्टीरिया दिमाग़ी मसला होता है. इसलिए मेरे लिए हर चीज़ ख़ामोशी और कविता में जाकर ख़त्म होती है."
हिन्दी के सारे महान कवि भीषण दर्ज़े के शराबख़ोर पाए जाते हैं और बड़ी सीमा तक यौनकुंठित भी. उनका ज़्यादातर ख़ाली समय शराब पीने के बाद दिए गए उनके प्रवचनों की सद्यःवाचाल पवित्रता और प्रत्युतपन्नमति पर रीझे अकवि और आमतौर पर कहीं युवतर श्रोता समुदाय द्वारा इतने बड़े 'नामों' की संगत में उभरी "अहा! अहो!" पर मुदित होने में बीतता है.
विन्सेन्ट ने क़रीब आठ साल पेटिंग की. सत्रह सौ से ज़्यादा अमर कैनवस तैयार किये.
काफ़्का साहित्य का सर्वज्ञाता ईश्वर है.
तुलूस लौत्रेक के नाम क़रीब पांच हज़ार कैनवस-स्केचेज़ हैं.
फ़र्नान्दो पेसोआ के पूरे काम को अभी छपना बाकी है. छपा हुआ काम तीस हज़ार पृष्ठों से ज़्यादा है.
विन्सेन्ट अड़तीस साल जिया.
काफ़्का इकतालीस.
लौत्रेक सैंतीस.
पेसोआ सैंतालीस.
हमारी हिन्दी में पचास पार के कवि को युवा कहे जाने की परम्परा है. जब वह अस्सी का होता है उसके पास चार से ले कर आठ पतले-दुबले संग्रह होते हैं. उसके साथ शराबख़ोरी कर चुके लोगों की संख्या लाख पार चुकी होती है और वह "मैं मैं" कर मिमियाता-अपनी घेराबन्द साहित्य-जमात का मुखिया हो कर टें बोल जाता है.
फोटोः रीडिंग द मैप्स से साभार।
अनिल यादवः मैं कई ऐसे कथाकारों को देख रहा हू् जो मारखेज की आत्मकथा लिविंग टू टेल द टेल आने और हिंदी में उसके अंश कई जगहों पर छपने के बाद धुआंधार सिगरेट सूत रहे हैं, एकाध तो बीड़ी भी। .....हां जी बीरी। इस जमाने जबकि उसे सिर्फ गाने में ही लालसा से ताका जाता है क्योंकि वह बिप्स के जिगर से जलती है।.........इसलिए कि आत्मकथा के पहले खंड पर घटिया तंबाकू वाली सस्ती सिगरेट का धुंआ रहस्यमय तरीके से फैला हुआ है गोया उसी ने मारखेज को लेखक बनाया हो। लिखा तो यह भी है कि बला की गरमी में जब उसके दोस्त अपने कपड़े उतार कर सिर्फ अंडरवीयर में अखबार के दफ्तर में बैठा करते थे वह छह से आठ घंटे तक अखबारी कागज पर लिखता रहता था। अपनी मां के साथ घर बेचने के बहाने हुई अर्काताका की यात्रा के बाद, जब वह वन हंड्रेड इयर्स....का पहला ड्राफ्ट लिख रहा था तो इसे अखबार के पेस्टिंग स्केल से फीट में नापा करता था।...इसकी नकल नहीं हुई।
ऐसी जानकारियों का असर जादुई होता है। मैने सुन लिया था कि पिताजी गणित में कमजोर थे मैने फिर गणित नहीं पढ़ी तो नहीं पढ़ी। जवाहर कट वास्कट, साधना कट बाल और बुल्गागिन कट दाढ़ी....पर्सनालिटी स्टेटमेंट ऐसे ही बन गए। (आवारा लड़कों में सिगरेट का एक बार नीलू फुले स्टाइल भी चला था। नीलू फुले एक फिल्म में इस अंदाज में सिगरेट मांगता था जैसे उसे अपनी, कान पर रखी सिगरेट जलानी हो। जलाने के बजाय वह अपनी सिगरेट, जलती सिगरेट के पीछे पाइप की तरह फिट कर दो-तीन कश लगाकर वापस कर देता था। )
बड़े व्यक्तित्वों में का जो कुछ आसानी से ग्राह्य हो झट से अपना लिया जाता है। बुरा तो और भी तेजी से। क्योंकि वह प्रचारित सनसनीखेज तरीके से होता है और अंदर के पोलेपन को छिपाकर, छद्म छवि के निर्माण के काम में फटाक लग जाता है। शराबखोरी के साथ भी यही है। उसे इस तरह से प्रस्तुत भी तो किया जाता है जैसे लेखक, कवि, पेन्टरादि होने की जरूरी शर्त हो। जैसे, पुराने जमाने के गंजेड़ियों का नारा...जिसने न पी गांजे की कली, उससे तो लौंडिया भली...हर फिक्र को धुंए में उड़ा देने वाला कड़ियल मर्द होने का घोषणापत्र था।...दम मारो दम या हिप्पी दौर के कई पॉप नंबर्स इसी के तत्सम, मेट्रो वर्जन हैं।
अपने यहां क्रिएटिव-शराबखोरी के चोंचले का एक और कारण है जो मुझे बड़ा महत्वपूर्ण लगता है। सड़क किनारे बैठने वाली एक स्वयंभू, रचनात्मक, युवा मद्यप-मंडली के कुछ महीनों के संचालन के दौरान इसे मैने महसूस किया था। वाचाल, किंचित उन्मत्त होने के बाद वाकई कहन में एक नया रंग और रवानी तो आ ही जाती है। उसका असर सामने वाले की आंखों पर चेहरे पर तुरंत दिखाई देता है। इन्स्टैन्ट। यह सुख अपनी किताब का पहला संस्करण देखने से जरा भी पतला नहीं होता। जिसे इसका चस्का लग गया उसका लिखना फिर मुश्किल होता है।
यौन-कुंठा का मसला जरा हटकर है। वैसे पश्चिम में भी लफंडरों और पिसान (आटा) पोत कर मुख्य रसोईये की तरह जुल्फें झटकने वालो की कमीं नहीं है। लेकिन पियक्कड़ ओ, हेनरी, पैसोआ वगैरह का अपने काम के प्रति समर्पण गहरा, प्रमुख और एकाग्र है। अपने यहां जो भी खास तौर पर हिंदी का साहित्य रचने लगता है साथ एक सत्ता भी रचता है। वह साहित्य के जरिए तुरंत सत्ताधारी होना चाहता है। जरा सा नाम हुआ नहीं कि चेलों, चिलगोजों और चकरबंधों की फौज खड़ा करना शुरू कर देता है। हमारे समाज में प्रतिभाविहीन चिलगोजों की अछोर संख्या है जो किसी नामचीन की रोशनी में थो़ड़ी देर के लिए ही बस चमक लेना चाहते हैं।
..........जब रचने की बेचैनी और न रच पाने से उपजे असंतोष की जगह, कुछ नाम और पुरस्कारों से निर्मित सत्ता का निंदालस होगा और चंपुओं की फौज उसकी अवधि अपनी विनम्र, लसलसी जीभ से खींच कर चौबीस घंटे की कर देगी....तब साहित्य की तरह, यौन के क्षेत्र में भी पराक्रम दिखाने की कामना होगी जो पचासा पार युवा साहित्यकार को हाथ पकड़कर यौन-कुंठा की आवेशित गली में ले ही जाएगी।
सही जा रहे हो, बेटा। दस्तक में जैसा फोटू है वैसे ही दिखते हो या फोटोशॉप में सीपिया टोन कराया है, बुजुर्ग दिखने के लिए। बाल तो बेटा बिल्कुल के एल सहगल मार्का देवदास वाले हैं। बहुत बढ़िया लिख्यौ, लल्ला।
जवाब देंहटाएं-पंकज
anil jee u r best blogger
जवाब देंहटाएंवाह अनिल जी बहुत ही बढ़िया। लेकिन बहुत ही लंबा लेख।
जवाब देंहटाएंयहां भी पढ़ लिया...बढि़या।
जवाब देंहटाएंदोनों का लिखा पढ़ा। यह सच्चा है। पढ़कर मजा लिया। बधाई।
जवाब देंहटाएंaur sahitykaar kisi vishvidyalya mein master bhi ho to uska kam asaan ho jaata hai, DU ke ek lekhak ka maamla taja hai. rachna unke liye aisee bhadkeeli kameej hai, jise pahankar koi shohda ladkiyon ko aakarshit karne nikal padta hai
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