सफरनामा

12 अक्तूबर, 2008

आशा से उन्मत्त


आज एक दोस्त से बात की. हमेशा करता था लेकिन आज जरा सी बात की. करनी ही थी. उससे न करता तो किसी पेड़ से करता, दीवार से करता, खुद से करते-करते थक चुका. उसने कहा कि देखता हूं, सोचता हूं, कुछ करते हैं। करते हैं, करना पड़ेगा, यह जरूरी है. अब मैं उन्मत्त हूं. मेरे पास फिर से आशा है. ठहर कर सोचता हूं कि यह कहने का साहस भी उसमें आखिर कैसे बचा हुआ है. विघ्नसंतोषी नहीं हूं. बस हैरत है जो बचपन से अब तक आंखों सी फैलती जाती है.

3 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सौभाग्‍य की बात है आशा में उन्‍मत्‍त हो सकना भी...।

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  2. धूप सर पर है तो फिर बेसायबां ज़िन्दा रहो,
    अय मेरे अतहर नफ़ीस, अय जाने-जां ज़िन्दा रहो.

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  3. उम्मीद
    गरीब की रोटी है
    खाए जा मेहमत खाए जा
    खाए जा मेहमत खाए जा
    खाए जा मेहमत खाए जा
    (एक तुर्की कविता (असद जैदी का अनुवाद )

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