30 अक्तूबर, 2008
हिचकी, एक सपना ऑनलाइन
कहते हैं कि कोई याद करता है, तब वे आती हैं। बचपन में कई टोटके सिखाए थे नानी ने। उनमें से एक यह था कि अपने पैर की धूल गले पर लगा लो, ठीक हो जाएंगी। क्या पता इसके पीछे यह सोच हो... हिचकी को सबूत के तौर पर पैरों की धूल पेश कर दी गई है। जा कह दे उससे जो याद कर रहा-रही है मैं निकल पड़ा हूं सफर में और हिचकी इस दिलासे से सो जाती हो।
लेकिन अब पैरों में धूल ही कहां लगती है जो उसे गले पर लगाएं। स्लीपर के नीले रबड़ की अरूचिकर गंध से क्या किसी को किसी भी तरह की दिलासा दी जा सकती है। चाहे वह हिचकी ही क्यों न हो।
जी में आया एक ई-मेल लिखकर सेन्ड आल कर दूं। दोस्तों, दुश्मनों कहा सुना माफ करो, सोने दो अब। झटका खाते-खाते पसलियां दर्द करने लगी हैं।
तीन घंटे हो चुके। मैं सारी इच्छाशक्ति बटोर कर सोचता हूं अब नहीं आएगी। काफी देर तक नहीं कोई सुराग नहीं। जरा सा ध्यान बंटता है कि कॉलर बोन के नीचे चुप्पा निर्वात बनता है और हुच्च...।
नींद, मुझे हिचकी समेत अपने भंवर में खींचे लिए जा रही है। मैने हिचकी और नींद दोनों के आगे समर्पण कर दिया है। अब जो करना है तुम्हीं दोनों करो, दुनिया के सिखाए सारे तरीके विफल हो चुके हैं। दुनिया खुद नींद न आने से परेशान है और अंधी लालसाओं के पीछे हुच्च..हुच्च करती भागी जा रही है।
...................जाडों का धवल हिमालय है और एक रिज पर बंगी-जंपिंग का प्लेटफार्म है।
काले रबड़ की विशाल कुंडली मारे रस्सियां तेज सनसनाती हवा में हिलती हुई बुला रही हैं....आओ अपने अस्तित्व अनिश्चतता में, अपने अनजाने भय, अपनी सारी दुश्चिंताओं में बिना कुछ सोचे-समझे कूद पड़ो। जिंदगी में तुम्हारी सारी कारीगरी (प्लानिंग) इस अनिश्चय से बचने के लिए ही है तो है। एडवेंचर नब्बे फीट.. अमेच्योर तीस फीट दो प्लेटफार्म हैं।
नब्बे फीट वाले प्लेटफार्म की तरफ बढ़ते हुए सोच रहा हूं दफ्तर की मेज से वाया बाइक की गुदगुदी सीट घर के आरामदेह बिस्तर की आदी निस्तेज, मुलायम पड़ती देह क्या यह झटका झेल पाएगी। अब तक के भीषणतम एडवेंचर, पलंग के सिरहाने तीन तकियों की टेक लगाकर किसी किताब के मटमैले पन्ने पर ही तो किए गए हैं। कहीं ऐसा न हो कि घुटनों से जरा आगे तक सिर्फ दोनों टांगे ही ऊपर आएं.....................।
जरा सा अल्कोहल भी है कहीं ऐसा तो नहीं गुरूत्वाकर्षण खून के दबाव को उकसा कर आंख, कान और मुंह से उसे बाहर ही बुला ले। लेकिन जिन कबीलों में अब भी किसी पेड़ की इलास्टिक जटा को पैर में बांध कर आदिवासी बंगीपना करते है वे तो त्यौहार में टन्नावस्था में ही होते हैं। ऐसी एक फोटो मैने मटमैले पन्ने वाली किसी विदेशी किताब में देखी थी। पर कहां जंगल के अधियारे में अपने पुरखों की आत्माओं को देख लेने वाला आदिवासी का मन और हैलोजन के लैंप पोस्ट के नीचे अपनी बीवी को फोन न कर पाने के लिए बीएसएनएल के नेटवर्क को कोसते तुम। वह प्रकृति में है और तुम बाहर उसमें प्रवेश के लिए किसी तकनीक के मोहताज।
...............सारा डर, सारी उत्तेजना को आदतन भींच कर, मैं खुद को बस गिर जाने देता हूं। मैं चीखता नहीं क्योंकि हर दिन ढेरों अचरजों पर तटस्थ रहने का आदती हो चला हूं। बस एक आंधी जैसी सीटी गले और कान के पास बज रही है जिसे सिर्फ मैं सुन सकता हूं। एक खामोश लंबी यात्रा शुरू होती है...हरा, काई में लिपटा अंधेरा भागा जा रहा है....नीले आसमान की कौंध....पंख फैलाए निश्चिंत गोल चक्कर घूमती एक चील की झलक....भागता अंधेरा। प्रतीक्षा....प्रतीक्षा....प्रतीक्षा.....वह झटका और मैं वापस उछाल दिया जाऊंगा फिर निश्चित ही जमीन की तरफ लौटने की यात्रा शुरू होगी।
झटका...फिर झटका मैं आज जरूर दो टुकड़े हो जाऊंगा। एक तेज पतली, पानी की धार है जिसके हाथ भर ऊपर मैं झूल रहा हूं। यह क्या...............।
रबड़ की दोनों रस्सियां टूट चुकी हैं। अब सेफ्टी बेल्ट में बंधी नायलॉन की एक रस्सी है जिसने मुझे गिरकर तरबूज की तरह फट जाने से बचा लिया है। आय स्पाई। आय स्पाई।। एक शरारती सा विचार....अब मैं उस दुनिया से चुपचाप गायब हो सकता हूं। पुलिस, एम्बुलेंस, हेलीकाप्टर, रिमोट सेंन्सिंग वगैरा के खिलौनों पर चढ़कर ढ़ूढने दो लपुझन्नों को। .....तेली कछम कबूतर पाले, आधे गोले-आधे काले........।
मैं सेफ्टी बेल्ट को खोल कर खड़ा हो जाता हूं। पैरों में पानी की चीर देने वाली ठंडक लगते ही सामने घराट पर बैठी एक बुढिया दिखाई देती है जो बकरियां चरा रही है। वह बड़ी देर तक मेरी तरफ हाथ चमका-चमका कर बड़बड़ करती रहती है। मैं हंसने के सिवा कुछ नहीं समझ पाता।
दो साल हुए एक गांव में हूं। इस घाटी में एक छोटी सी सुरंग से ही घुसा जा सकता है। वहां का आदमी तो छोड़ो को जंगली जानवर भी अगर बच्चा नहीं है तो इस छेद से अंदर नहीं आ पाएगा। खेती करने, जानवर चराने और एक किलोमीटर दूर से हर दिन बारह-पंद्रह डोल पानी भर कर लाने से पुट्ठे फिर से मजबूत हो गए हैं। बच्चों के साथ कपड़ों की थिगलियों से बनी फुटबाल खेलता हूं। रात में एक ढिबरी की रोशनी में अपनी पिछली जिंदगी और इस दुनिया का मीजान कागज पर मिलाता हूं। इस सपने के कई रंग और भी हैं लेकिन वह मैं नहीं बताने वाला।
...............बस मैं वापस नहीं लौटना चाहता।
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ये तो जंगी जम्प है।
जवाब देंहटाएंachcha likha hai
जवाब देंहटाएंbadhaaee
अद्भुत लेखनी है-बस पढ़्ते चले गये..
जवाब देंहटाएंमैं चीखता नहीं क्योंकि हर दिन ढेरों अचरजों पर तटस्थ रहने का आदती हो चला हूं।
-सही!!!
भाई मैं भी ऐसी ही जगह जाने और न लौटने के सपने देख रहा हूँ। कहाँ जाकर छलांग मारनी पड़ेगी?
जवाब देंहटाएंturant kuchh bhi kah pana mumkin nahi
जवाब देंहटाएंPhir-phir padhoonga
विलक्षण और तरोताजा... । हम भी वहाँ पहुँच गये इसे पढ़कर।
जवाब देंहटाएंBahut achche.
जवाब देंहटाएंबहुत रोमांचक सपना अनिल भाई। क्या हिचकी आने से इसका कोई सम्बन्ध है?
जवाब देंहटाएंअरे कुछ खास नहीं एसबी जी, वो बुढिया और उस गांव वाले मुझे एक जमाने से बुला रहे हैं और यदा कदा हिचकियां आती हैं।
जवाब देंहटाएंjaanlewa or suchintit, padhane par aap bahte or hichkiya lete jate hain...kahi dur tak...
जवाब देंहटाएंjaanlewa or suchintit, padhane par aap bahte or hichkiya lete jate hain...kahi dur tak...
जवाब देंहटाएंsapano ki duniya ka sair kara diya apne badhai ho sir...
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