दो दिन से झमाझम है। आज बादलों से घटाटोप आसमान को देखते एक कविता याद आई। कहीं पढ़ी या किसी से सुनी होगी।
नीली बिजली मेघों वाली
झींगुर, सांवर, सूनापन
हवा लहरियोंदार
घन घुमड़न भुजबंधन के उन्माद सी
बढ़ती आती रात तुम्हारी याद सी।
(बादल और बांहों का चमत्कृत कर देने वाला फ्यूजन है। जरा सोचिए बादल आपकी बांहों के भीतर अनियंत्रित लय में घुमड़ रहे हैं, आतुर हैं, उन्मत्त हैं। उसकी याद का आना जुगुनुओं की टिमटिम, झींगुरों के कोरस के बीच उमस भरी, आपके अस्तित्व को विलीन कर देने वाली अंधियारी रात का आना है। और यह सांवर क्या है, शायद बदली के मद्धिम प्रकाश का खांटी रंग है।)
पता नहीं किसकी कविता है। शायद छायावादी कवि होगा कोई। कवि का नाम गुम गया है, कविता कितनी बरसातों के बाद अब भी बादलों में घुमड़ रही है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें