सफरनामा

17 जून, 2008

साभार विजय- देह की भाषा में बतियाता खबरची

भाई दिलीप मंडल की पोस्ट एसपी की गैरहाजिरी का मतलब में अनिल यादव ने लिखा है, ‘काश, वह क्लिपिंग मेंरे पास आज होती तो आधी रात इतना हारमोनियम बजाने की जरूरत नहीं पड़ती। शायद आपके किसी परिचित ने कोई किताब एसपी पर एडिट की है, जिसमें शायद वह राइटअप है। अगर वह मिल सके तो उसे जरूर अपने ब्लाग पर डालिएगा। ’

एसपी सिंह के निधन के बाद निर्मलेंदु जी ने एक पुस्तक संपादित की थी, ‘शिला पर आख़िरी अभिलेख ’। पुस्तक में विशेष सहयोग देने वालों में दिलीप मंडल भी थे। यह पुस्तक मेरे पास है। रिजेक्ट माल पर मैंने जो टिप्पणी की थी, उसमें जिस किताब का ज़िक्र हुआ है, वह यही है। अनिल यादव का वह लेख पृष्ठ क्रमांक 192 पर है। शीर्षक है, ‘देह की भाषा में बतियाता खबरची ’। अनिल जी का वह लेख प्रस्तुत कर रहा हूं : विजयशंकर चतुर्वेदी

‘एंकरपर्सन’ एसपी सिंह को परदे पर ख़बर बांचते देखना अजीब था। एक तटस्थ और शातिर सांवादिक (कम्यूनिकेटर) की तरह ख़बर को हवा में तैरा कर वह चुप नहीं हो जाते थे - भौंहें सिकोड़ कर, बहुत ज़ोर लगा कर, गर्दन मटकाते हुए पढ़ते थे। मानो ख़बर में छिपी ख़बर को धकियाते हुए परदे के पार जितना अधिक हो सके, उतनी दूर भेज देना चाहते हों। उन्हें शायद यक़ीन नहीं आता था कि दूरदर्शन के सेंसर की चारा मशीन में फंस कर लंगड़ी हो चुकी ख़बर ख़ुद अपना सफ़र तय कर पाएगी।उनका यह ढंग थोड़ा खीझ ज़रूर पैदा करता था, लेकिन साथ ही साथ दर्शकों को ज़्यादा हो कर टीवी के सामने बैठने को बाध्य भी करता था। आख़िर कुछ तो है, जिसकी तरफ आंखों से, गर्दन को पूरा ज़ोर लगा कर वह इशारा कर रहे हैं।

वह सरकार और बाज़ार की बंदिशों को धकेल कर देह की भाषा में सबसे बतियाते खबरची थे। खबरें उन्हें फड़फड़ाने को मजबूर करती थीं। यह बहुत बड़ी बात थी। शिखर पर बैठा हुआ प्रोफेशनल होने के बावजूद एसपी ठंडे और तटस्थ नहीं रह पाते थे।

जनवरी 1997 की एक शाम। ‘आज तक’ के दिल्ली दफ्तर में एसपी से हुई लंबी मुलाक़ात जेहन में आज भी फंसी हुई है - जस की तस। वह पत्रकारिता में बहुतों के आग्रह थे। कुछ के गुरूर (दिलीप जैसे लोगों के) थे और कुछ के लिए कुशल ख़बर मुनीम। यहां दूसरे एसपी थे। आत्मरति में नहायी आग और पत्रकारीय किलाफतह लनतरानियों से एकदम अछूते। थोड़े हताश, बहुत आक्रामक, करीब-करीब मुंहफट और बेधड़क। बिना इंट्रो के नंगी ख़बर की तरह अनौपचारिक और बेलौस।

उस शाम इस एसपी के सामने मैं भी नौकरी मांगने की गरज से पहुंचा औरों की तरह।

एक रिपोर्टर के हाथ से पैकेट ले कर खोलते हुए वह मुस्कुराए - ‘देखा? हमारा रिपोर्टर अब भी भालू से खेलता है।’ रिपोर्टर झेंप गया। वह बोले, ‘अरे भाई, ख़बर पकड़ने के लिए बच्चों जैसा कौतुक ज़रूरी है।’रिपोर्टर के जाते ही वह दोबारा पुरानी पटरी पर आ गये, ‘हां, तो आप इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को बूझना-समझना-जानना चाहते हैं। सच कहूं तो यह बहुत छिछोरा माध्यम है। भदेस ढंग से कहें तो थूकने की भी जगह नहीं है यहां। ख़बरनवीस को कुछ नहीं करना है, केवल माइक सामने वाले के मुंह पर अड़ा देना है। बाकी काम कैमरामैन करता रहेगा। समय इतना कम है और बंदिशें इतनी ज़्यादा कि किसी के लिए बहुत कुछ करने की गुंजाइश ही नहीं है। पांच साल कोई यही करता रहे तो तकनालोजी का तो बड़ा जानकार हो जाएगा, लेकिन दिमाग़ एकदम ख़ाली हो जाएगा। अगर आप कुछ ख़ास करके ले भी आएं, तो दूरदर्शन का सेंसर कैंची चला देगा, वहां एक से एक ठस दिमाग़ वाले बैठे हैं। आम बोलचाल की भाषा, दरअसल, उन्हें समझ में नहीं आती, आपत्तिजनक लगती है। हां, यहां पैसा और चकाचौंध बहुत है।’


एसपी की आंखें सिकुड़ कर और छोटी हो गयीं। फिर वह झटके से बोले, ‘मुझे कोई मुगालता नहीं है कि लोग मेरे लिखे को पढ़ने के लिए बेताबी से इंतज़ार कर रहे होंगे। और यह भी नहीं कि मेरे लिखे से कोई उलट-पुलट हो जाएगी। अब मेरा अख़बार में लिखने का मन नहीं करता। हिन्दी के अख़बारों में कोई चीज़ों की तह में उतर कर पड़ताल करता और लिखता नहीं है। वहां साहस और पहल का बहुत-बहुत अभाव है।’


‘मेरा मानना है कि पढ़े-लिखे विचार वाले लोगों को प्रिंट मीडिया में ही जाना चाहिए। अब भी वहां बहुत गुंजाइश है।’नौकरी गयी एक तरफ। एसपी को और अधिक खोलने के लिए सीधी मुठभेड़ का मन बना चुका था। पूछ ही लिया, ‘फिर आप सब जानते-बूझते हुए क्यों इस माध्यम में आ गए?

’कुर्सी पर निढाल होते हुए एसपी खुले, ‘हां यार, आ तो गया। मैं ‘इंडिया टुडे’ में एक कॉलम लिख रहा था। पैसे भी ठीक मिल रहे थे। काम चल रहा था। इसी बीच बीमार पड़ा और अस्पताल पहुंच गया। लिखना रुक जाने से पैसे मिलने का सिलसिला टूट गया। अरुण पुरी (लिविंग मीडिया के मालिक) से पहले भी बातचीत हुई थी। इस बार फिर बात हुई। उन्होंने कहा कि काम शुरू कर दीजिए। मैं मना नहीं कर पाया और ज्वाइन कर लिया।’‘लेकिन यहां आने के बाद आपने पत्रिका और अख़बारों में लिखना क्यों छोड़ दिया?’एसपी की आंखें सिकुड़ कर और छोटी हो गयीं। फिर वह झटके से बोले, ‘मुझे कोई मुगालता नहीं है कि लोग मेरे लिखे को पढ़ने के लिए बेताबी से इंतज़ार कर रहे होंगे। और यह भी नहीं कि मेरे लिखे से कोई उलट-पुलट हो जाएगी। अब मेरा अख़बार में लिखने का मन नहीं करता। हिन्दी के अख़बारों में कोई चीज़ों की तह में उतर कर पड़ताल करता और लिखता नहीं है। वहां साहस और पहल का बहुत-बहुत अभाव है।’

मुझे झटका लगा। क्या एसपी इसी तरह हताशा और मोहभंग की हालत में बीते कई सालों से यंत्रवत लिखते आये हैं। मैंने उन्हें दूसरी तरफ मोड़ा, ‘ऐसा नहीं है। हिंदी अख़बारों में भी नये प्रयोग हो रहे हैं। अभी ‘अमर उजाला’ ने अपने एक संवाददाता को उत्तरप्रदेश में मंडल और मंदिर आन्दोलन के बाद बदली सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों के अध्ययन के लिए लगाया है।

’अनमने-से दीख रहे एसपी चौकन्ना हो गये, ‘क्या सचमुच ऐसा है! क्योंकि आम तौर पर हिंदी में दूसरों (ख़ास कर अंग्रेज़ी) का कहा सच मान लिया जाता है। लोग ख़ुद खोजने की ज़हमत नहीं मोल लेते। जिसने भी यह काम किया है, उस सम्पादक से मैं मिलना चाहूंगा। यह मामूली बात नहीं है!’इस बातचीत के बीच वह लगातार सहकर्मियों को निर्देश देते हुए, टेलीप्रिंटर से ख़बरें छांटते हुए, मज़ाक करते हुए रिकॉर्डिंग के लिए तैयार हो रहे थे।

ख़बरों पर बहस करते-करते अचानक किसी को डपट देना और तुंरत गढे गये किसी लतीफे से खिंच आये सन्नाटे को तोड़ डालना उनके स्वभाव का अविरल बहता हिस्सा था।मैं ख़बरनवीस एसपी में अब कुछ और खोज रहा था। वह क्या चीज़ है, जो गाज़ीपुर के उस छोटे-से अंधियारे गांव से यहां कनाट प्लेस में बसे मायावी मीडिया लोक के शीर्ष तक उन्हें ले आयी है।ख़फीफी दाढ़ी और पैनी आंखों की कौंध के बीच उसे तुंरत खोजना असंभव था।

आत्मविश्वास से भरे एसपी को वहां शीर्ष पर देखना सचमुच एक गुरूर जगाता था कि मीडिया का सिंहासन सिर्फ विदेशपलट या वसीयतनामे जेब में ले कर आये लोगों के लिए ही नहीं है। अपनी ज़मीन की समझदारी में पगी जिजीविषा भी वहां छलांग मार कर बैठ सकती है। मुझे वहां खोया हुआ छोड़ एसपी ने कुर्सी पर टंगा कोट उठाया और झटके से रिकॉर्डिंग के लिए चले गये......यही उन्होंने 27 जून को दिल्ली के अपोलो अस्पताल में भी किया। इससे उस गुरूर को धक्का जरूर लगा है।