हां भाई दिलीप, इसी महीने एसपी की मौत हुई थी और उसके एक हफ्ते बाद लखनऊ में एनेक्सी के प्रेस रूम में एक रस्मी शोक सभा हम लोगों ने की थी। हम लोगों के पास वह फोटो नहीं था जो उनसे नत्थी हर कार्यक्रम में लगता आया है। जैसा कि देश में अन्य शोकसभाओं में कहा गया था, उस शोकसभा में भी आश्चर्यजनक समानता से कहा गया- अच्छे थे, भले बहुत थे, पत्रकारिता के सबसे उज्जवल नक्षत्र थे और यह भी कहा कि उनके निधन से क्षति अपूरणीय हुई है।
लेकिन मुझे पक्का भरोसा है कि इले. मीडिया की इस गति यानि ओझा, सोखा, भूत, चुरइन, तंत्र-mant, बैंगन में भगवान, हत्या-बलातकार के मूल से भी वीभत्स रिप्ले, बिल्लो रानी, कैसा लग रहा है आपको, जनता गई तेल लेने-टीआरपी ला उर्फ छीन-झपट-झोली में धर टाइप फ्यूचर का अंदाजा था और वे बहुत चाहते हुए भी इसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर पाए.
कर भी क्या सकते थे वे? उनके बस में था ही क्या? शायद वे भी बस एक पुरजा बनकर रह गए थे। या नई छंलाग से पहले जरा गौर से तमासा देख रहे थे। जितना रविवार में या दैनंदिन जिंदगी में उनने किया वो क्या कम था, इससे ज्यादा की उम्मीद उनसे करना क्या ज्यादती नहीं है। अक्सर हम लोग पत्रकारों में नायकत्व की तलाश की रौ में उस शालीन, चुप्पे, नजर न आने वाले चतुर व्यापारी उर्फ मालिक को भूल जाते हैं जिसका पैसा लगा होता है। यानि जिसने हमारे नायक को नौकरी दी होती है और हर महीने तनख्वाह दे रहा (झेल रहा ) होता है।
अगर कोई बदलाव आना है इले, प्रिंट, इंटरनेट पत्रकारिता में तो पहले उस पूंजी के चरित्र, नीयत और अकीदे में आएगा (क्या वाकई)- जिसके बूते अभिव्यकक्ति की स्वतंत्रता का सुगंधित, पौष्टिक बिस्कुट खाने वाला या लोकतंत्र का रखवाला यह कुकुर (वॉचडाग) पलता है। बहरहाल इस कुकुर को पोसना मंहगा शौक बना डाला गया है और उसे बिजनेस कंपल्सन्स के कारण इतना स्पेस देना ही पड़ता है कि कभी-कभार गुर्रा सके। ...... और यह गुर्राना भी आवारा पूंजी के मालिकों के छलकते लहकट अरमानों के हूबहू अमल के दौर में कम बड़ी सहूलियत नहीं है।
उस शोक सभा के एक दिन पहले मेरी लिखी आबिचुअरी अमर उजाला के लखनऊ संस्करण के पेज ग्यारह पर छपी थी (अपने वीरेन डंगवाल की जगह रिपोर्टर की खबर अपने नाम से छापने वाला, जनेऊ का प्रतिभा की तरह इस्तेमाल करने वाला कोई और संपादक होता तो शायद वह भी नहीं छपती )। काश, वह क्लिपिंग मेंरे पास आज होती तो आधी रात इतना हारमोनियम बजाने की जरूरत नहीं पड़ती। शायद आपके किसी परिचित ने कोई किताब एसपी पर एडिट की है जिसमें शायद वह राइटअप है। अगर वह मिल सके तो उसे जरूर अपने ब्लाग पर डालिएगा।
मैं, उन दिनों मेरठ अमर उजाला में खबर एडिट करने वाला मजूर था और पार की पटकथा लिखने वाले, चुंधी आंखों और न फबने के बावजूद खफीफी दाढ़ी रखने वाले एसपी के लिए मेरे भीतर कोई सम्मोहन था। वह होना ही था वरना गिद्धों की बीट से गंधाती दिल्ली रोड से हर शाम गुजर कर अमर उजाला में पपीता फल ही नहीं औषधि भी टाइप के फीचर और मृतक साइकिल पर जा रहा था टाइप खबरें रात के तीन बजे तक एडिट करते हुए और सुभाष ढाबे वाले के मोबिल आयल में डूबे गुनगुनाते पराठे खाकर जीना संभव नहीं था।
(हां वे इतने मोटे और फूले होते थे फोड़ने पर सीटी बजाते और गुनगुनाते थे )
तो तिरानबे में दीवाली के आसपास अपने जिले के पत्रकार एसपी से मिलने एक दिन आजतक में पहुंच गया। दो दिन- कई घंटे बैठने के बाद मुलाकात हुई। बैठने के दौरान मैने पीपी, राकेश त्रिपाठी अनेकों परिचितों और खुद की थोड़ी दबी (लेकिन इसी दबाव के कारण ज्यादा फैले नथुनों से एफिशिएंट) नाक से सूंघ कर जाना कि आजतक में एक चारा मशीन इन्सटाल हो चुकी थी जिससे गुजर कर अच्छी खासी तंदरूस्त खबर लंगड़ाने लगती थी। एसपी टीवी के बाहर ्पनी गरदन निकाल कर उसे दर्शक तक ठेलने की जिद भरी कोशिश करते पर वह टांग टूटी मैना की तरह वहीं कुदकती रह जाती थी।
एसपी चौकन्ने बहुत थे वे बहुगुणा की तरह मुझे और मेरे मालिक अतुल माहेश्वरी दोनों को जानते थे।
स्वाभिक था कि उन्होंने मुझे नौकरी-आतुर गाजिपुरिया युवक समझा होगा। लेकिन थोड़ी बात-चीत के बाद कहा कि इस मीडियम में क्यों आना चाहते हो यह तो अब थूकने की भी जगह नहीं है। यहां क्या है, बस भोंपू लेजाकर किसी नेता-परेता या बाइटबाज के मुंह पर अड़ा देना होता है, बाकी काम वह खुद करता है। यहां सोचने समझने वाले के लिए कोई स्पेस नहीं है। तुम प्रिंट में हो फिर भी वहां बहुत स्पेस है और फिर अतुल माहेश्वरी जैसा समझदार लाला तुम्हारा मालिक है जिसने समय की नब्ज देखते हुए कारोबार जैसा अखबार निकाला है।
इसी बीच दीपक कमरे में आगया उसके हाथ में एक टेडी बियर था एसपी ने उसे लेकर उलट-पलट कर देखा, फिर मेरी तरफ देखा, देखा हमारा रिपोर्टर अभी भी भालू से खेलता है। इसमें व्यंग्य था या दीपक के ट्रेंडी होने का रिकगनिशन मैं नहीं समझ पाया। दीपक के तो खैर दोनों होंठ कानों को छू रहे थे समझ ही गया होगा।
स्वाभाविक यह भी था कि मुझे लगा कि मीठी गोली है, अब कट लो का इशारा है। इडियोलाजी और मीडिया को जनता के पक्ष में इस्तेमाल करने के लौंडप्पन भरे अरमानों की बातें काफी हो लीं अब काम का समय है चलो....मेरठ निकलो।
बराबरी के आंतरिक स्केल पर सबको नापने के कुटैव से और उनके आकर्षण से त्रस्त मैने पूछ लिया, तो आप फिर क्यों अब तक यानि इस मीडियम में क्यों बने हुए हैं। आपको नहीं लगता कि निकल लेना चाहिए?
----मैं तो बेहद बीमार था (बीमारी बाद में पता चली) अस्पताल का बिल (मैने मतलब निकाला कर्ज)बहुत हो गया था। एक दिन अरूण पुरी बोट क्लब पर मिल गए वहां से हम दोनों पैदल चलते हुए यहां तक आए और हाथ पकड़ कर उन्होंने इस कुर्सी पर बिठा दिया। तब से बैठा हुआ हूं। क्या कर सकता हूं पैसा चाहिए तो यहीं बैठना होगा।
होगा (होबो) सुनकर लगा बंगाल वाले एसपी हैं क्योंकि उनकी आंखों की कोर भीग गई थी। एक पछतावा था जो मैने महसूस किया।
उस रात राकेश के कमरे पर नोएडा में रूकना था हम लोग आज तक की रात की पाली के स्टाफ को घर छोडने वाली कार से वापस से लौटे। कार में एक ढलती सी, सेक्सी, बस जरा बीच-२ में मजबूर लगती गाय सी कातर आंखों वाली लड़की थी जो किसी जूनियर को बता रही थी कि उसका सपना किसी दिन दो वारशिपस् की आमने-सामने टक्कर को कवर करना है। मुझे रोमांचित होना चाहिए था लगा कि इससे कल रात ही कोई थ्रिलर पढ़ा है या फिर जो इसके रोल माडल सर होंगे उनकी बकचोदी को सत्य मानकर उवाच रही है।
बहरहाल फिर वह ढलती लड़की फिर कभी अफगान, इराक या किसी और वार के दौरान नजर नहीं आई।
फिर लड़की की नकली उन्माद में खत्म तेल की भभकती ढिबरी लगती आंखों में झांकते हुए, उस रात मुझे लगा कि एसपी गोली नहीं दे रहे थे। उन्हें आभास है कि कल दफ्तर के भीतर एमएमएस और बाहर डाइन के प्रकोप में खेलती गरीब औरतों का दयनीय उन्माद और उनके फटे ब्लाउज बिकने वाले हैं।
आज ही भाई दिलीप को बजरिए ई-मेल बताया कि ब्लाग बन गया। शाम को पोस्ट से ख्याल आया कि एसपी आज ही गए थे। सोचा था रात बारह से पहले लिख देना है क्या, पता किसी को इस का इंतजार हो. लेकिन देर हो ही गई।
बच्चा नींद में उन्मत्त रो रहा है, भूख भयानक लगी है, सुबह जल्दी उठ कर डाक्टर को आंख दिखानी है नहीं तो ससुरा इस हफ्ते फिर लटका देगा। एसपी पर संशोधित, सुचिंतित पोस्ट फिर कभी। खैर जाते समय क्या एसपी मुझ जैसी ही हड़बड़ी में नहीं गए होंगे।
देखिए तो कितने काम छूट गए जो शायद वह या वही कर सकते थे।
अनिल जी, आपने कई महत्वपूर्ण सवाल उठाए हैं। आपका ये लेख कुछ और जगहों के लिए उठा रहा हूं।
जवाब देंहटाएंसवालों से ओतप्रोत एसपी का चित्रांकन उनसे मिलनेवाला और उन्हें समझनेवाला ही कोई कर सकता है. यहां प्रभात खबर में कुछ दिन एसपी के भतीजे और फिर उनके छोटे भाई सत्येंद्र सिंह के साथ काम करने को मिला. सबसे खोद-खोद कर पूछा, एसपी के बारे में कोई कुछ हां, इस पोस्ट के बाद यही कहूंगा कि कुछ नहीं बता पाया. आजकल उनकी भतीजी हमारे साथ काम कर रही है, पर एसपी कहीं नहीं दिखते. उम्मीद है आगे और भी बहुत कुछ एसपी के बारे में जानने को मिलेगा. उन पर लिखी, संपादिन पुस्तक भी कलकत्ता में बहुत खोजी, नहीं मिली. एक-आध लोगों के पास पता चला है, तो उन्होंने दिया ही नहीं, शायद नहीं चाहते कि जिनके साथ कलकत्ता में वे गलबहियां करके घूमा करते थे, उसके बारे में कोई जाने. कोई डर है शायद, जिसके मारे वे एसपी को कुरेदना नहीं चाहते. चलिए एसपी के घर में नहीं (इसलिए कि आज भी यहां के लोग एसपी को अपना कहने से नहीं चूकते भले ही बेमन से) कम से अपने घर में तो एसपी के बारे में जानने को मिला.
जवाब देंहटाएंअनिल भाई,
जवाब देंहटाएंहारमोनियम की धुन सुनी. स्वर बहुत सधे और 'नुकीले' लगे.
जिंदगी और समाज व्यक्ति को अपनी जिद बचाए रखने की मोहलत नही देता. पर आपने अपने भीतर असहमति के ज़ज्बे को बचाए रखा, यह जानकर खुशी जैसी कुछ हुई.
दरअसल जिस ज़माने में आप अमर उजाला, मेरठ में काम कर रहे थे. मैं मेरठ वि.वि. परिसर में पढ़ाई कर रहा था. अपने क्षेत्र के सडियल और बकौल उदयप्रकाश ( पाल गोमरा का स्कूटर) नेताओं ki जेब में बैठकर बादाम खाने वाले पत्रकारों से कुढ़ता रहता था. इसी दौरान आपसे कैम्पस में एक दो मुलाकाते हुई और मैं आपका एक तरह से सायलेंट प्रशंषक बन गया. मुझे याद आता है शहर के कुछ गिने चुने प्रगतिशील लोगों की मार्फ़त भी आपसे साबका हुआ था.
यह वह दौर था जब मुझे लगता था कि लेख लिख देने से दुनिया बदली जा सकती है. इसी हल्ले में मैं भी विनय श्रीकर के सौजन्य से अमर उजाला में प्रशिक्षु जा बना था. पर तीन महीने बीतते बीतते मुझे लगा कि मैं ग़लत जगह आ गया हूँ. मैं लोगों में बौध्धिक तेज़ ढूंढता था पर वहां ज्यादातर लोग बीमार, खिन्न और उदास लगे. लगा कि ज्यादातर लोगों ने इस पेशे को विकल्पहीनता के कारण पकड़ा है. विनय जी की अराजकता , फादरणीय उपस्थिति और स्थानीय सम्पादक प्रेमपूर्ण दखलंदाजी ने मिलकर कुछ ऐसा माहौल बनाया कि चार महीने के भीतर ही संस्थान को अलविदा कह देना पड़ा. कहीं न खप पाने कि वह आदत मेरे साथ आज भी बनी है.
खैर इन दिनों मैं सी एस डी एस, दिल्ली में एक फेलोशिप लेकर कांवड़ की तीर्थयात्रा पर शोध कर रहा हूँ. बाकी बचे समय में 'सामयिक वार्ता' के सम्पादन में सहयोग करता हूँ. इसके अलावा, दो महीने पहले अपने दो मित्रों के साथ 'बज्म' नाम से एक ब्लॉग भी शुरू किया है जिसे तमाम तय्यारियों के बावजूद अभी पब्लिक नहीं कर पायें हैं.
उम्मीद है अब नेट पर मिलते रहेंगे.
नरेश गोस्वामी
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जवाब देंहटाएंधन्यवाद विशाल।
जवाब देंहटाएंनरेश, कांवड़ यात्रा मुझे हमेशा से ए जर्नी इन टू द माइंड आव रूरल यूथ लगती रही है। तुम्हारे काम के नतीजे का इंतजार रहेगा। कोई विनय श्रीकर क्यों बनकर कहने लगता है कि मेरे बीबी-बच्चे हैदराबाद में मकान मालिक यहां के किराया न देने के कारण बंधक हैं या मूंछे इस लिए साफ करा दी कि आज अखबार वाले यंग मांगते हैं।
संभव है तो इस पर हारमोनियम के लिए कुछ लिख कर मेल कर दो।
lajvab anil. aour kya khon.
जवाब देंहटाएंshashi bhooshan dwivedi
रिपोर्टर की खबर अपने नाम से छापने वाले और जनेऊ को प्रतिभा की तरह बरतने वाले संपादक के रूप में चित्रित किए जाने पर शंभुनाथ शुक्ल जी ने फोन पर आपत्ति की है और कहा है कि वे ऐसे कतई नहीं है। उनके विस्तृत पक्ष की प्रतीक्षा है, उसे पोस्ट के रूप में उस अंश के पीठियाठोंक प्रकाशित किया जाएगा।
जवाब देंहटाएंएस.पी. सिंह के बारे में यह लेख पढ़कर उनके बारे में नये सिरे से जाना। आराम से लिखे लेख का इंतजार रहेगा। विशाल शुक्ल की टिप्पणी से मैं सहमत हूं-एसपी का चित्रांकन उनसे मिलनेवाला और उन्हें समझनेवाला ही कोई कर सकता है.
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