सफरनामा

13 अक्तूबर, 2008

डालफिन की डूब


सोचा था जब तक दुर्गा दादा के साथ गढ़वाल में अकेलेपन की यात्रा होगी ब्लाग पर कुछ नहीं लिखूंगा। और कुछ लिखा तो शायद यात्रा न पूरी हो क्योंकि वैसे ही आलस्य का लालची मन कहीं और फंस गया तो लटक जाएगा। अशोक ने हुसका कर यह सिलसिला तुड़वा दिया तो अब यही सही। इन दिनों यह भी लग रहा है कि जो कुछ, जैसा हम संप्रेषित करना चाहते करना चाहते हैं चाहे जितनी कीमियागरी कर लिखें वह नहीं होना होगा तो नहीं होगा। क्योंकि पढ़ने वाले के भीतर एक केमिकल लोचा है, उसके साथ लिखे का केमिकल रिएक्शन होता है और एक नयी चीज उसके सामने आ जाती है। किसी भी टेक्सट का यह पाठक का अपना एकांतिक, एक्कदम्म....से अपना वाला अर्थ है जो उसके लिए बेहद कीमती है। लिखने का खेल, जैसे जीवन के विकास की दिशा अनिश्चत होती है वैसा ही है। लिखे जा चुके की पढ़ने और लिखने दोनों वालों से स्वतंत्र सत्ता है वह हर नए पढ़ने वाले के साथ नया अर्थ लेती जाती है यह बेहद दिलफरेब खेल है। इस लिए समझदार लोग कहते पाए जाते हैं कि लिखो, इसकी परवाह मत करो कि वह कैसा लिखा गया है। लिखने के पीछे अगर जिंदगी की कोई लय है, बात है, कुछ असल है तो वह अपनी फ्रीक्वेंसी वाले पाठक के भीतर रिजोनेट करेगी। पुल पैदल जाती पलटन अपनी कदमताल तोड़ देती है, कहीं रिजोनेन्स से पुल ही न टूट जाए। तानसेन वगैरा अपने गले से खिड़की, गिलास वगैरा अक्सर तोड़ा करते थे- ऐसा नतीजा मैने विज्ञान आओ करके सीखें- का एक पाठ पढ़कर मैने निकाला था।





सूनी शामों को सकल भुवन में झनझन
तमाशे से निराश डॉलफिन सा गोता लेकर
रक्त-दाब पाताल-मुखी होता जाता, होता जाता
डूब-डूब-डूब।
नहीं कोई सिर सहलाने वाला
नहीं प्रतीक्षा किसी की, चिर संगी अल्कोहल की भी
मटमैली रोशनी से रंगी आकृतियां जानी-पहचानी
पुतली की लय में भटकती हैं आंखों के आगे
थकन न जाने कितने जनमों की
स्पांडिलाइटिस फुसफुसाती गरदन, ऐंठती पिंडलिया
खुल गई है टोटी कोई पास ऐड़ी के
वजन है जिससे बहता जाता
जीवन में जो भी वजनी लगता था।
चालीस का तू छोकरे वहां
यूरो वाले जब लाइफ बिगिन किया करते हैं
वे तेरे नेट-भाई (यथा-गुरूभाई) ग्लोबल-गांव के रहने वाले
नाभि-नाल एक केबिल से बंधे हम दोनों
कॉफी, अंडा या पानी संग नमक की दांडी-यात्रा खून में
जैसे कोयला बीत चुके भाप के इंजन में
कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं।
कुछ और, कुछ और, कुछ और।।
मसलन यही कि
कोई स्फुरण, कौंध कोई, कोई तो हो विचार
जिंदगी को कोई मकसद मिल जाए।
फौरन, अभी तुरंत
अरे। बिन मकसद, अब तक जीते आए?
हां बडा मजा था, बड़ा....
धरती पर पैर रखने को महसूसना ही सबसे बड़ा काम लगता था
और अकेले में तरह-तरह से मुंह बनाना कि
क्या सोचते होंगे ऐसी मुख-मुद्राओं वाले
फिर पता नहीं क्या हुआ?
क्या हुऊआ----?
विलाप से दहाड़ तक फटता एक सवाल
जिसकी लय पर डालफिन डूबती जाती है।

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