सफरनामा

16 मार्च, 2010

जलसमाधि वाया चिन्मय चिलगोजा

केएनवीएएनपी-10

मड़ुवाडीह में नहीं गंगा की मंझधार में एक नया संकट उठ खड़ा हुआ। एक बलिदानी हिन्दू युवक ने संकल्प कर लिया कि अगर मकर संक्रांति तक काशी को वेश्यावृत्ति के कलंक से मुक्त नहीं किया जाता, तो वह सूर्य के उत्तरायण होते ही जलसमाधि ले लेगा। मुंडित सिर, जनेऊधारी यह युवक गले में पत्थर की एक भारी पटिया बांधकर गंगा में ही एक नाव पर रहने लगा। पहले भी एक बार वह ऐसा प्रयास कर चुका था। इसलिए प्रशासन विशेष सतर्क था। उसकी नाव के आगे और पीछे प्रशिक्षित गोताखोरों से लैस जल पुलिस की दो नावें लगा दी गईं।

जल पुलिस के पीछे महाबीरी झंडों से सजी नाव पर शंख, घंटा, घड़ियाल बजाते और बीच-बीच में हर-हर महादेव का उद्घोष करते गर्व से तने समर्थक चलते थे। पीछे नावों में सवार इलेक्ट्रानिक चैनलों के क्रू रहते थे। हर क्रू को अपने इंटरव्यू की बारी के लिए समर्थकों की अगली नाव से टोकन लेना पड़ता था। जल्दबाज मीडिया की अराजकता को रोकने और युवक को पर्याप्त विश्राम देने के लिए यह व्यवस्था की गई थी। क्योंकि बोलते-बोलते उसका गला बैठ चुका था। दिल्ली और मुंबई के बड़े चैनलों ने बजरे किराए पर लेकर उन्हें ओबी वैन में बदल दिया था। वे निरंतर ‘सदाचार की गंगा से गणिका विरोध,’ ‘जल में आंदोलन,’ ‘जल समाधि’ का सजीव प्रसारण कर रहे थे।

दाएं, बाएं और बीच में कैमरे लिए विदेशी पर्यटकों की कश्तियां घुसी रहती थीं, वे उस युवक की नैतिकता, संकल्प और अभियान के विलक्षण तरीके से चमत्कृत थे। स्वीडन की ओरिएंटल फिलासफी की छात्रा माग्दालीना इन्केन इतनी प्रभावित थी कि उसने युवक से प्रेम की सार्वजनिक घोषणा कर दी थी। प्रकट तौर पर वे यही कहते थे कि उन्हें इस युवक में ईसा मसीह की छवि दिख रही है लेकिन आपसी बातचीत में गोद में रखी बिसलेरी की बोतलों को दुलराते हुए वे पुलक उठते थे कि किताबों में पढ़े मदारियों, संपेरों, साधुओं और जादूगरों के जिन करतबों को देखने के लिए वे यहां आए थे, अनायास दिख रहे हैं। इस दुर्लभ क्षण की झांकियों अपने देश ले जाकर बेचने का अवसर वे चूकना नहीं चाहते थे।

यह अंतर्राष्ट्रीय धज का अजीबो-गरीब बेड़ा भोर से लेकर रात के ग्यारह बजे तक राजघाट के पुल से रामनगर के किले के बीच गंगा में तैरता था। घाटों पर तमाशबीनों की भीड़ लगी रहती थी। जब बेड़ा उनकी नजरों से ओझल होने लगता था तो वे खीझकर हर-हर महादेव का नारा लगाते हुए गालियां बकने लगते थे और पास आने पर फिर वे प्रसन्नता से अभिवादन करते हुए हर-हर महादेव का नारा लगाते थे। यह उदघोष ऐसा संपुट था जिसका इस्तेमाल वे प्रसन्नता, क्रोध, गौरव, हताशा, उन्माद सभी भावों को व्यक्त करने के लिए सैकड़ों सालों से करते आए थे।

वेश्याओं को धंधे के लाइसेंस दिए जाएं न दिए जाएं इस पर टीवी चैनलों पर टॉक शो हो रहे थे जिनमें वेश्यावृत्ति के विशेषज्ञ, ट्रैफिकिंग के जानकार, नैतिक प्रश्नों के शोधकर्ता, इतिहासकार, कालगर्लों के रैकेट पकड़ने वाले पुलिस अधिकारी, समाज कल्याण से जुड़े अफसर, महिला संगठनों की नेता और आम लोग धारावाहिक बोल रहे थे। गंगा में नावों पर सवार रिपोर्टर असहाय मंदबुद्धि बच्चों की तरह चीख रहे थे, ‘समूची काशी नगरी नदी और घाटों पर निकल आई है। वेश्यावृत्ति से नाराज लोग हर-हर महादेव के नारे लगा रहे हैं। पानी और पत्थर के बीच एक युवक की जान खतरे में है, उधर वेश्याओं ने अब तक रोजगार के उपायों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है और वे मड़ुंवाडीह में ही बनी हुई है। अब देखना है प्रशासन इस चुनौती से कैसे निपटता है... मै चिन्मय चिलगोजा... वाराणसी से हवा-हवाई टीवी के लिए।’

उधर घाट किनारे, अस्सी मोहल्ले में बुद्धिजीवियों का अड्डा कही जाने वाली एक चाय की दुकान में विश्वविद्यालयों के निठल्ले प्रोफेसर, विफल वकील, राजनीतिक दलों के हताश कार्यकर्ता, बेरोजगार, ठलुए, अधपगले भंगेड़ी, कवि, पत्रकार, लेखक और बतरसी आपस में इस मुद्दे पर जूझ रहे थे। मठों में कोठारिनों, मंदिरों में देवदासियों और सेविकाओं को लेकर औझैती के कर्मकांड में पिछड़ी, दलित औरतों के साथ व्यभिचार के उद्धरण दिए जा रहे थे तो जवाब में हर घर में चलते व्याभिचार और छिनालपन के सच्चे किस्से सुनाए जा रहे थे। कोई विवाह को खाना, कपड़ा, छत और सुरक्षा के एवज में होने वाली सामाजिक मान्यता प्राप्त वेश्यावृत्ति का सबसे बड़ा कर्मकांड बता रहा था तो जवाब में ऐसे विचार का उत्स उसके रखैल की औलाद होने में तलाशा जा रहा था। इन सबके ऊपर एक आयुर्वेदिक नुस्खा था, जिसे सभी अपनी स्मृति में सहेज लेना चाहते थे इसे एक भंगेड़ी ने वेश्यावृत्ति उन्मूलन के उपाय के रूप में सुझाया था-

सोंठ, सतावर, गोरख गुंडी
कामराज, विजया, नरमुंडी।।
गिरै न बीज, झड़े न डंडी
पलंग छोड़ के भागै रंडी।।

उसका कहना था कि अगर कस्टमर इस नुस्खे का इस्तेमाल शुरू कर दें तो नगर वधुएं भाग जाएंगी और मड़ुंवाडीह देखते ही देखते खाली हो जाएगा। पतली गर्दन, झुकी पीठ और सूख चली जांघों वाले बुद्धिजीवी इसे याद कर लेना चाहते थे। शायद उनके अवचेतन में था कि वेश्याओं पर न सही अपनी पत्नियों, प्रेमिकाओं पर तो वे इसका इस्तेमाल कर ही सकते हैं।

4 टिप्‍पणियां:

  1. प्रकट तौर पर वे यही कहते थे कि उन्हें इस युवक में ईसा मसीह की छवि दिख रही है लेकिन आपसी बातचीत में गोद में रखी बिसलेरी की बोतलों को दुलराते हुए वे पुलक उठते थे कि किताबों में पढ़े मदारियों, संपेरों, साधुओं और जादूगरों के जिन करतबों को देखने के लिए वे यहां आए थे, अनायास दिख रहे हैं।

    कमाल का ओब्जर्वेशन है और इंसानी फितरत पर बड़ा सटीक व्यंग्य है

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  2. इसे रपट कहें या रचना ..लेकिन अद्भुत है यह । आपके द्वारा दिये गये विशेषण तो पूरे चरित्र को उजागर करते हैं । कुछ और विशेषण जोड़ लीजिये मसलन ऊबे हुए कवि , झोला छाप पत्रकार , क्रांति के फटे गुब्बारे से लेखक । मन्दबुद्धि बच्चों की तरह चीखते रिपोर्टर तो अद्भुत प्रयोग है । आपकी कलम को सलाम ।
    अब इस समस्या पर चुप रहना ही बेहतर वरना आप जोड़ देंगे फटी बनियान पहन कर खुद को अंतर्राष्ट्रीय समझने वाले ब्लॉगर ......।

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  3. हाहाहा...। आपका सेन्स आफ ह्यूमर गजब है शरद जी। अपनी बनियान भी वही है, बस किस्से का आनंद लीजिए।

    धन्यवाद किशोर चौधरी जी।

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  4. सर्वेश्वर सिंह्29 मई 2010 को 11:13 am बजे

    अद्भुत, सटीक विश्लेशण- परिवार संस्था परिश्कृत रूप है वेश्यावृत्ति का,किंतु निदान क्या है? कैसे समाप्त होगा यह व्यव्साय? मानवों की परिवार संस्था किस रूप में बचेगी?

    सर्वेश्वर, देहरादून्

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