सफरनामा

26 सितंबर, 2008

यात्रा की यात्रा-५

अब थोड़ी देर के लिए रूद्रप्रयाग देखने की बारी मेरी थी। अनायास कस्बे के इकलौते सिनेमा के सामने पहुंच गया जहां कोई बीस साल पुरानी कुली चल रही थी और सामने जाली के भीतर ठेका था। हाल में ही शराब की बढ़ा दी गई कीमतों की लाचारी पियक्कड़ों की आंखों में दिखती थी। मेरा ध्यान गया कि उस ठेके में अंग्रेजी की बोतलों की चहारदीवारी में कहीं खांटी देस दिखाई दे रहा था। एक बल्ब के होल्डर पर लाल लंगोट टंगा हुआ था, जिसके नीचे एक लड़का बैठा किताब पढ़ रहा था। शायद पहलवान के सपनों का यह सबसे शुरूआती सीन हुआ करता होगा। दीवार में काली की मूर्ति थी जो शराब के ठेकेदार पर सदा सहाय रहा करती होंगी। मूर्ति के बगल में एक चटका शीशा और एक मैल भरी कंघी थी जो दिन में कई बार लड़के के बाल संवारा करती होगी। एक पहलवान टाइप आदमी काउंटर पर बैठा था और उसका एक साथी वहीं बैठा बिना बेंट के एक अनगढ़ चाकू से आलू-टिंडे काट रहा था। चाकू की बेंट पर सुतली बड़े जतन से लपेटी लगती थी। यह माइनस जनाना गृहस्थी के बीच चलता सुख का कारोबार था और जाली के इस पार इत्मीनान से खड़ी भीड़ थी। क्या पता कोई जनाना या लड़के की मां भी हो जो ठेके का शटर गिरने के बाद दृश्य में प्रवेश पाती हो। पता नहीं क्यों मुझे लगने लगा कि ज्यादातर लोग अंदर रखी बोतलों को देखने दूर-दूर के गांवों से चलकर आए हैं। देख रहे हैं, देखे जा रहे हैं। अचानक एक हिलती है जो बाहर आकर मिलना चाहती है। फिर झुरझुरी होती है-बेवकूफ याद कर नत्थू लाल की मूंछों को ग्लैमराइज करने के बाद वाले उस गाने में अमिताभ बच्चन क्या कहता था-नशा शराब में होता तो नाचती बोतल। कहा था कि नहीं।

रम का एक क्वार्टर, उस शाम हम लोगों के लिए काफी था।

दुर्गा दादा के कान गरम हों और कोई जरा इसरार, फिर इसरार करे तो अपनी भयानक आवाज में कोई पुरानी बंदिश काहे को मोरा जिया लै ले, काहे को मोरा जिया दै दे गा दिया करते थे। मैं कहा करता था रोमांटिक मूड में भेड़िया- फिर भी कोई बात थी। वे गाते तो लगता था कि कोई काठ पर लिखा प्रेम-पत्र पढ़ रहे हैं जिसका सार यह है कि जियरा के लेन-देन के गदेलेपन में क्यों पड़ते हो। अब तक जितने पड़े उन्होंने तकिए भिगोने, सुखाने, भिगोने के अलावा क्या किया। अपनी पर आ जाएं तो वे एक अवधी का बड़ा मारू गीत गाते थे जिसे सुनते हुए सीपिया टोन की एक फोटो भीतर बनने लगती थी- कोई जालिम जमींदार है जिसकी मूंछे झुकी हुई हैं, जिसे रस्सी से बांध कर गरीब-गुर्बा लोग काली माई के चौरे पर बकरे की तरह बलि देने के लिए लाए हैं। वे नाच-गा रहे हैं। यह मनौती जिस लाल रंग के झंडे के नीचे मानी गई थी वह नए जमींदार की तलाश में नए गांव की तरफ निकल गया है। मिर्च काटने के बाद उन्होंने सिसकी ली, होंठ से नाक के बीच एस के आकार की एक झुर्री फड़कने लगी यानि आज काहे को मोरा जिया....कहीं भीतर से चल चुका था। बस आने वाला था। सिसकी कई खतरों की एक साथ पूर्व सूचना थी। मैने बाकी माल एक बोतल में पानी लबालब भर कर जेब के हवाले किया और उनका हाथ पकड़ कर लॉज से बाहर निकल आया चलिए दादा, आज जरा पहाड़ की रात देखते हैं।

रात के साढ़े दस बजे, सोनप्रयाग के रास्ते पर अलकनन्दा के पुल के आगे हाहाकार करता एक कैलेंडर टंगा हुआ था। ऊपर एक अकेला चीड़ का पेड़ था, चांद का विशाल गोला उठा, जल गया। एक-एक पत्ती हीटर के एलीमेंट के घुमाव पर टंगी दहकने लगी। नीचे हहराती नदी थी, लहरों का फेन था और पुल के खंभों की थिरकती परछाई। एक दम हूबहू कैलेंडर। किसी फोटोग्राफर के हुनर का सबूत। कहीं आसपास एक रातरानी का झाड़ था जिसकी महक उड़-उड़ कर शोर के साथ चली आती थी। नदी के कगार पर जैसे-तैसे टिके दुकानों के पिछवाड़े चांदनी में चमक रहे थे। प्लास्टिक, चिथडों से ढके गलते पटरे जिनसे पानी टपक रहा था। लगा ये दुकानें अब गिरी कि तब गिरीं।

-आपने देखा है इन दुकानों में काम करने वाले छोकरों को किसी बात पर अचरज नहीं होता। आंख तक नहीं झपकती?

-अरे, सालों के पेट में दाढ़ी है। हमको-तुमको बाजार में बेच खांएं।

पुल से ऊपर सीढ़िया थी जो अंधेरे में बुग्यालों के बीच से किसी गांव की तरफ जाती थी। इतनी रात भी कोई सायकिल कंधे पर लादे चढा आ रहा था। हम वहीं बैठ गए। उस पार पीली रोशनी वाली खिड़कियों में लोग सिनेमा के लोगों की तरह नजर आ रहे थे। पार्श्व में उनकी गृहस्थी थी। अलकनंदा का संगीत था और संवाद हमारे। हम अंधेरे में बैठकर घुटकी लेते उन्हें देख रहे थे।

-देखना वह बुड्ढा जो कुर्सी से उठकर खड़ा हुआ है अभी दो-तीन बार ऊपर-नीचे हाथ हिलाएगा और फिर वहीं जाकर बैठ जाएगा। वो लड़की जो किताब लिए इतराती घूम रही है देखना तब तक घूमती रहेगी जब तक सामने वाली खिड़की में बत्ती जलती रहेगी। लड़के-लड़कियों के कुल पंद्रह-बीस टाइप के सपने होते हैं वहीं सभी बारी-बारी से देखते हैं और इसी तरह इतराते हैं। वह औरत अभी कुल नौ बार अलग-अलग जगहों पर टंगे कपड़े छुएगी और थोड़ी देर बाद फिर छूने आएगी। मेरी बात गलत निकल जाए तो बताना। तुम्हें पता है वो आदमी जो अपनी बीबी के साथ बैठा चाय या कुछ पी रहा है, वह इस समय सोच रहा होगा कि यह जो कटिया मार कर बिजली जला रखी है, कहीं छापा तो नहीं पड़ जाएगा। हम लोगों के सारे निष्कर्ष सच निकले और खिड़कियों की एक-एक कर बत्तियां बुझने लगीं। शो खत्म होने पर कई घुटकियों और अंधेरे में कुछ ज्यादा विकसित संतोषप्रद अपनी-अपनी मुस्कानों के बाद तय पाया गया कि दुनिया फिलहाल कई हजार सालों से बेहद तुच्छ कामों में तल्लीन जा रही है और सोने से पहले पुल तक जाकर एक बार और रातरानी की महक ली जाएगी। जो नहीं मिली। पता नहीं कहां उड़ चुकी थी।

अजीब बात थी, हम लोगों की एक जोड़ा नाकें जाम हो चुकी थीं. रातरानी के पौधे ने अपनी जगह बदल दी थी या हवा ने अपना खेल कर दिया था। रातरानी की महक नहीं मिली। पुल के चारों कोनों पर पेशाब की आंखों में आंसू ला देने वाली तीखी झार थी। बस एक क्वार्टर के आधे में इतना नशा कि मैने सैंडिल उतार कर अपना पुराने करतब का यांत्रिक अभ्यास शुरू कर दिया यानि पुल की रेलिंग पर नंगे पैर चलने लगा। गोल रेलिंग पर चलना कठिन था। मेरा मानना था कि मैं ऐसा अक्खड़ शराबियों की तरह, यह जांचने के लिए ऐसा करता हूं कि कहीं नशे में तो नहीं हूं। दादा का पुराना विश्लेषण था कि मुझमें आत्महत्या करने के लिए जरूरी साहस का अभाव है जो शराब से थोड़ी मात्रा में मिलता है और मैं ऊची जगहों की तरफ इसीलिए खिंचता हूं और वहां इस तरह चलते हुए मरने के लिए किसी अनायास गलती की प्रतीक्षा करता हूं। वे तटस्थ भाव से देखते रहे। बस एक बार कहा, चूतियाराम जो आप कर रहे हैं, सर्कस में उसके लिए चवन्नी तक नहीं मिलती। वे रेजीडेंसी की मीनार, ओसीआर की छत अन्य तमाम जगहों पर नशे के क्षेत्र में प्रगति के दौरान इसे देखने के अभ्यस्त हो चुके थे।

17 सितंबर, 2008

यात्रा की यात्रा का विज्ञापन


सैर कर दुनिया की गाफिल जिन्दगानी फिर कहां।
जिन्दगानी गर रही तो यो नौजवानी फिर कहां।।

05 सितंबर, 2008

यात्रा की यात्रा-४


रूद्रप्रयाग जा रही रोडवेज की खटारा बस की सीट के नीचे बैग रख रहा था कि कातर भाव से आकाश ताकते दादा पर नजर पड़ी. कई दिन बाद अचानक याद आया कि उन्हें हार्निया है, डाक्टरों के कहने के बावजूद जिसका आपरेशन वे कई साल से कभी खर्चा, कभी काटा-पीटी का डर, कभी अब कितने दिन बचे हैं के बहानों से टालते आ रहे थे. वह बस के दरवाजे की पहली सीढ़ी से झटका खाकर उतरने के बाद अपने साबुत हाथ से जोर देकर, धीरे- धीरे अपने पेट के निचले हिस्से को सहलाते हुए खांस रहे थे. पहली बार मुझमें अपराध का भाव भरने लगा यह मैं उन्हें कहां लिए जा रहा हूं। मैने कहा- रहने दीजिए, लौट चलिए वहां हर दस कदम पर आयरन करना पड़ेगा. खांसी पर काबू पाकर, सायास खिलायी मुस्कान के साथ उन्होंने अपना दूसरा हाथ मुंह के सामने उठाकर हिलाया जिसका मतलब था पंजा लड़ाओगे। उनका एक हाथ जन्म से कमजोर था और उस पर एक आंदोलन, जिसका नारा था- यूपी के तीन चोर, मुंशी, गुप्ता, जुगुलकिशोर, के दौरान लाठी भी पड़ चुकी थी. गुप्ता, पूर्व मुख्यमंत्री बनारसी दास गुप्ता यानि टप्पू उर्फ बसपा के बनिया नेता और उद्योगपति अखिलेश दास गुप्त के पिता के किस्सों का उनके पास खजाना था.
बस चलने के आधे घंटे तक बच्चा भाव से अच्छा-अच्छा चला। सामने क्या देवदार के पेड़ दिख रहे हैं। नहीं-अच्छा। क्या वहां ठंड बहुत तो नहीं होगी। नहीं-अच्छा। पहाड़ के रास्ते पर हैं कहीं ड्राइवर खाई में तो नहीं गिरा देगा। नहीं-अच्छा।
उन्हें खिड़की के पास बिठाकर मैं पीछे जाकर बस के खलासी से गपियाने लगा। अब उनका पजेसिव भाव जगा और खड़े होकर पूरी बस को सुनाते हुए बोले- सुनिए मिस्टर आप हमारे टूर आपरेटर नहीं है, हम लोग साथ घूमने जा रहे हैं इसलिए यहां आकर मेरे पास बैठिए। मेरे सामने वैसा करने के अलावा और कोई चारा नहीं था। श्रीनगर से थोड़ा पहले एक ढाबे पर मैने खलासी के भी खाने के पैसे दे दिए तो फिर वे उखड़े और सीधे उससे बोले- इनके पास खुद भूंजी भांग नहीं है और कांग्रेसियों की तरह कांस्टीच्युएंसी बना रहे हैं. आप अपने पैसे खुद दीजिए। खलासी आत्मसम्मान बचाने के लिए ड्राइवर होने के रास्ते पर था उसने सहज हंसते कहा दादाजी हमने कब कहा कि हम गंगू तेली नहीं हैं। रास्ते में श्रीनगर यूनिवर्सिटी के सामने बस थोड़ी देर को हमने देश की शिक्षा व्यवस्था कस-कस कर कई लातें लगाईं, मास्टरों को चोर वगैरा बताया, पहाड़ के कई छात्र नेताओं के नाम याद करते हुए लड़के-लड़कियों के कैरियरिस्ट, नापोलिटिकल और जूजू हो जाने पर थोड़ा अफसोस जाहिर किया बाकी घुमावदार, हरी ठंडक थी जिसने शांति व्यवस्था कायम रखने में भरपूर योगदान दिया।

जब रूद्रप्रयाग पहुंचे तो दिन तकरीबन ढल चुका था और गुप्तकाशी से आगे हमारी मंजिल की तरफ जाने वाली आखिरी बस आंखों के सामने निकल गई। हम लपके लेकिन दिन भर बैठे रहने के कारण जोड़ जाम हो चुके थे और बस, बस सरक ही गई।

पहाड़ मे पहला दिन मैं सेलीब्रेट करना चाहता था लेकिन दादा किसी और गुनताड़े में थे. अभी आया कह कर निकल लिए। बस अड्डे पर मैने तीन चाय पी, घुन लगी मठरियां अखबार में लपेट कर दादा के बैग में रखने के बाद उसे दुकानदार के हवाले करने के बाद कस्बे की इकलौती दारू की दुकान लोकेट की, पुल पर जाकर नदी देखी तब कहीं जाकर वह प्रकट हुए इस खबर के साथ कि चलो एक आलीशान होटल मिल गया है। सामान रख कर फिर घूमा जाएगा। यह एक घर के ऊपर अधबना लॉज था जिसकी दीवारों पर उसका मालिक टोपी लगाए तराई कर रहा था। जो कमरा हमें मिला शायद उसका फर्श एक हफ्ता पहले ही बना था। किराया तीस रूपए।
मैने कहा दादा आपने तो कमाल कर दिया इसलिए सौ रूपए ढीले कीजिए ताकि दारू का बंदोबस्त किया जा सके। आपने दो सौ रूपए का शुद्ध मुनाफा कमाया है। दादा हल्के गरूर के साथ बोले कि कम्युनिस्ट राजनीति जो व्यावहारिकता सिखाती है उसमें से एक यह भी हैं. और यह मुनाफाखोरी नहीं सिर्फ सीमित संसाधनों का अधिकतम इस्तेमाल करते हुए शोक को शक्ति में बदलने की कला है। मिडिल क्लास बोरजुआजी की तरह हद से हद इसे बचत कह सकते हो। लंबी झिकझिक के बाद पचास रूपये मिले।

02 सितंबर, 2008

यात्रा की यात्रा-३


कामरेड दुर्गा
ईटिंग मुर्गा
ड्रिकिंग ब्हिस्की
टेकिंग सिस्की
वेरी रिस्की
लाल सलाम।।।

घबराइए मत, डीजल भराया जा रहा है। सफर अब शुरू होने वाला है।