सफरनामा

30 अक्टूबर, 2008

हिचकी, एक सपना ऑनलाइन


कहते हैं कि कोई याद करता है, तब वे आती हैं। बचपन में कई टोटके सिखाए थे नानी ने। उनमें से एक यह था कि अपने पैर की धूल गले पर लगा लो, ठीक हो जाएंगी। क्या पता इसके पीछे यह सोच हो... हिचकी को सबूत के तौर पर पैरों की धूल पेश कर दी गई है। जा कह दे उससे जो याद कर रहा-रही है मैं निकल पड़ा हूं सफर में और हिचकी इस दिलासे से सो जाती हो।

लेकिन अब पैरों में धूल ही कहां लगती है जो उसे गले पर लगाएं। स्लीपर के नीले रबड़ की अरूचिकर गंध से क्या किसी को किसी भी तरह की दिलासा दी जा सकती है। चाहे वह हिचकी ही क्यों न हो।

जी में आया एक ई-मेल लिखकर सेन्ड आल कर दूं। दोस्तों, दुश्मनों कहा सुना माफ करो, सोने दो अब। झटका खाते-खाते पसलियां दर्द करने लगी हैं।

तीन घंटे हो चुके। मैं सारी इच्छाशक्ति बटोर कर सोचता हूं अब नहीं आएगी। काफी देर तक नहीं कोई सुराग नहीं। जरा सा ध्यान बंटता है कि कॉलर बोन के नीचे चुप्पा निर्वात बनता है और हुच्च...।

नींद, मुझे हिचकी समेत अपने भंवर में खींचे लिए जा रही है। मैने हिचकी और नींद दोनों के आगे समर्पण कर दिया है। अब जो करना है तुम्हीं दोनों करो, दुनिया के सिखाए सारे तरीके विफल हो चुके हैं। दुनिया खुद नींद न आने से परेशान है और अंधी लालसाओं के पीछे हुच्च..हुच्च करती भागी जा रही है।

...................जाडों का धवल हिमालय है और एक रिज पर बंगी-जंपिंग का प्लेटफार्म है।

काले रबड़ की विशाल कुंडली मारे रस्सियां तेज सनसनाती हवा में हिलती हुई बुला रही हैं....आओ अपने अस्तित्व अनिश्चतता में, अपने अनजाने भय, अपनी सारी दुश्चिंताओं में बिना कुछ सोचे-समझे कूद पड़ो। जिंदगी में तुम्हारी सारी कारीगरी (प्लानिंग) इस अनिश्चय से बचने के लिए ही है तो है। एडवेंचर नब्बे फीट.. अमेच्योर तीस फीट दो प्लेटफार्म हैं।

नब्बे फीट वाले प्लेटफार्म की तरफ बढ़ते हुए सोच रहा हूं दफ्तर की मेज से वाया बाइक की गुदगुदी सीट घर के आरामदेह बिस्तर की आदी निस्तेज, मुलायम पड़ती देह क्या यह झटका झेल पाएगी। अब तक के भीषणतम एडवेंचर, पलंग के सिरहाने तीन तकियों की टेक लगाकर किसी किताब के मटमैले पन्ने पर ही तो किए गए हैं। कहीं ऐसा न हो कि घुटनों से जरा आगे तक सिर्फ दोनों टांगे ही ऊपर आएं.....................।
जरा सा अल्कोहल भी है कहीं ऐसा तो नहीं गुरूत्वाकर्षण खून के दबाव को उकसा कर आंख, कान और मुंह से उसे बाहर ही बुला ले। लेकिन जिन कबीलों में अब भी किसी पेड़ की इलास्टिक जटा को पैर में बांध कर आदिवासी बंगीपना करते है वे तो त्यौहार में टन्नावस्था में ही होते हैं। ऐसी एक फोटो मैने मटमैले पन्ने वाली किसी विदेशी किताब में देखी थी। पर कहां जंगल के अधियारे में अपने पुरखों की आत्माओं को देख लेने वाला आदिवासी का मन और हैलोजन के लैंप पोस्ट के नीचे अपनी बीवी को फोन न कर पाने के लिए बीएसएनएल के नेटवर्क को कोसते तुम। वह प्रकृति में है और तुम बाहर उसमें प्रवेश के लिए किसी तकनीक के मोहताज।

...............सारा डर, सारी उत्तेजना को आदतन भींच कर, मैं खुद को बस गिर जाने देता हूं। मैं चीखता नहीं क्योंकि हर दिन ढेरों अचरजों पर तटस्थ रहने का आदती हो चला हूं। बस एक आंधी जैसी सीटी गले और कान के पास बज रही है जिसे सिर्फ मैं सुन सकता हूं। एक खामोश लंबी यात्रा शुरू होती है...हरा, काई में लिपटा अंधेरा भागा जा रहा है....नीले आसमान की कौंध....पंख फैलाए निश्चिंत गोल चक्कर घूमती एक चील की झलक....भागता अंधेरा। प्रतीक्षा....प्रतीक्षा....प्रतीक्षा.....वह झटका और मैं वापस उछाल दिया जाऊंगा फिर निश्चित ही जमीन की तरफ लौटने की यात्रा शुरू होगी।

झटका...फिर झटका मैं आज जरूर दो टुकड़े हो जाऊंगा। एक तेज पतली, पानी की धार है जिसके हाथ भर ऊपर मैं झूल रहा हूं। यह क्या...............।

रबड़ की दोनों रस्सियां टूट चुकी हैं। अब सेफ्टी बेल्ट में बंधी नायलॉन की एक रस्सी है जिसने मुझे गिरकर तरबूज की तरह फट जाने से बचा लिया है। आय स्पाई। आय स्पाई।। एक शरारती सा विचार....अब मैं उस दुनिया से चुपचाप गायब हो सकता हूं। पुलिस, एम्बुलेंस, हेलीकाप्टर, रिमोट सेंन्सिंग वगैरा के खिलौनों पर चढ़कर ढ़ूढने दो लपुझन्नों को। .....तेली कछम कबूतर पाले, आधे गोले-आधे काले........।



मैं सेफ्टी बेल्ट को खोल कर खड़ा हो जाता हूं। पैरों में पानी की चीर देने वाली ठंडक लगते ही सामने घराट पर बैठी एक बुढिया दिखाई देती है जो बकरियां चरा रही है। वह बड़ी देर तक मेरी तरफ हाथ चमका-चमका कर बड़बड़ करती रहती है। मैं हंसने के सिवा कुछ नहीं समझ पाता।

दो साल हुए एक गांव में हूं। इस घाटी में एक छोटी सी सुरंग से ही घुसा जा सकता है। वहां का आदमी तो छोड़ो को जंगली जानवर भी अगर बच्चा नहीं है तो इस छेद से अंदर नहीं आ पाएगा। खेती करने, जानवर चराने और एक किलोमीटर दूर से हर दिन बारह-पंद्रह डोल पानी भर कर लाने से पुट्ठे फिर से मजबूत हो गए हैं। बच्चों के साथ कपड़ों की थिगलियों से बनी फुटबाल खेलता हूं। रात में एक ढिबरी की रोशनी में अपनी पिछली जिंदगी और इस दुनिया का मीजान कागज पर मिलाता हूं। इस सपने के कई रंग और भी हैं लेकिन वह मैं नहीं बताने वाला।

...............बस मैं वापस नहीं लौटना चाहता।

19 अक्टूबर, 2008

करवा-चौथ का चांद


घड़ी से बेहतर गर्मियों के बारे में बताता है एक कीड़ा,
दिनों का जिन्दा कैलेंडर है स्लग (शराब का प्याला और कवचहीन घोंघा दोनों अर्थों में प्रयुक्त)
यह क्या बोलेगा मुझसे, जब एक कालातीत कीट
कह रहा है कि ये दुनिया छीज रही है?


ये लाइनें हैं डायलान थॉमस (1914-1953) की जो अपनी कीर्ति में स्नान करते हुए, अतीव शराबखोरी के कारण बस ३९ साल की उम्र में न्यूयार्क में मरे। बस और क्या।

वैसे स्वैन सी वेल्स में जन्मे, लंदन में पढ़े. बीस साल में पहला कलेक्शन आया जो सर्रियलिज्म और अथाह कल्पनाशीलता के कारण बेहद मकबूल हुआ. अगले पंद्रह सालों में चार-पांच कलेक्शन और आए जो भाषा की ताजगी और बदहवास आदमी के भीतर झांकती कवि-आंख के कारण जाने गए. डाक्यूमेंटरी मोशन पिक्चर्स के लिए पटकथाएं लिखीं, उपन्यास भी लिखा. दूसरी बड़ी लड़ाई के बाद बीबीसी में साहित्यिक टिप्पणीकार रहे. असली ख्याति मिली एक रेडियो ड्रामे अंडर मिल्क वुड से जो उनके गुजरने के बाद १९५४ में छपा. अभी यह ड्रामा अधूरा था कि डायलान ने इसका अपने ही अंदाज में कैम्ब्रिज मैसाचुएटस में पाठ किया. पाठ के अंदाज के कारण थॉमस अमेरिका में लीजेंड बन गए. पता नहीं, उनकी
विलक्षण कविताओं से ज्यादा उनके पढ़ने के अंदाज की बात क्यों होती है.

चांद में बैठा मसखरा

मेरे आंसू हैं, खामोश मद्धिम धारा
बहती जैसे पंखुड़ियां किसी जादुई गुलाब से
रिसता है मेरा दुख सारा
विस्मृत आकाश और बर्फ के मनमुटाव से.

मैं सोचता हूं, जो छुआ धरती को मैने
कहीं छितर न जाए भुरभुरी
यह इतनी दुखी है और सुंदर
थरथराती हुई एक स्वप्न की तरह.

18 अक्टूबर, 2008

करवा चौथ पर श्री टेलीविजन को पत्र



श्री टेलीविजन जी,

कल करवा चौथ है. सो आज भीषण शापिंग के चलते मेरे शहर की सड़कें जाम थीं. बिल्कुल नई दुल्हन सा सजना होता है इसलिए सबकुछ नया चाहिए होता है. कांच की चूडियों को टूटने से बचाने के लिए सेफ्टी पिन और टूथब्रश भी.

जाम में फंसी दयनीय ढंग से सजी औरतें देखीं, ब्यूटीपार्लर श्रमिकों के घनघोर परिश्रम के बावजूद लटकते लोथड़ों, जीवन की सोहबत छोड़ चुकी त्वचा, झुर्रियों समेत वे ध्यान खींच पाने में विफलता के क्षोभ से चमकती आंखों से वे मेंहदी रचे, कुचीपुडी नृत्य की मुद्राएं बनाते हाथों को कारों की खिड़कियों से बाहर झुलाते निहार रहीं थी। सौंदर्य-विज्ञान की विफलता पर बेहद क्रोध आया कि वह इन अरमानों से उफनाती औरतों की सहायता क्यों नहीं कर सकता, इराक पर बम गिराने वालों की तो लाल-भभूका दृश्यावलियां रच कर करता है. क्रोध उन सुंदर लड़कियों पर भी आया जो सूरत का सत्यानाश कराकर गांवों की रामलीला में मुर्दाशंख पोते सेत्ता जी से मुकाबला कर रहीं थीं.

उनके भीतर आप थे. आप के भीतर वे थीं और सामने सोफों पर बैठे लाखों पुरूषों से संबोधित थीं. एक भी औरत किसी सोफे पर क्या मूढे या बोरे पर भी नहीं बैठी थी. वे मादा दर्शक नहीं चाहतीं थीं. क्योंकि वह रीझती नहीं, सराहती नहीं, ईष्याग्रस्त हो जाती है और विवाहेतर संबधों वाले सीरियलों के बारे मे बात करने लगती है.

निर्जला व्रत होगा. चलनी से चांद देखा जाएगा और उसी से पति को देखा जाएगा. तब भी वे आप ही के भीतर होंगी और उनके भीतर आप होंगे.

एक लड़की ने मेंहदी लगवा ली लेकिन कहा कि वह व्रत नहीं रहेगी. पड़ोसनें उसे कोसने लगीं. घर लौटते उसने अपनी दोस्त से कहा कि इनमें से कई की अपने पति से शाम ढलने के बाद बातचीत बंद हो जाती है. वे इस उम्मीद में सज रहीं हैं कि शायद, शादी की स्मृति ताजा हो जाए और रातों का जानलेवा सूनापन टूट जाए. मैं चाहता हूं कि ऐसा ही हो. लेकिन उस क्षण भी वे आप ही के भीतर रहना चाहती है.

मैने शहर आने के बाद या कहिए डीडीएलजे देखने के बस जरा पहले ही इस राष्ट्रीय से लगते पर्व का नाम सुना था. आज मेरी बूढ़ी मां ने अपनी बहू को धमकाया उस लफंडर के चक्कर में न आना वह तो मुझे जीऊतिया (इसका तत्सम वे भरें जिन्हें हिंदी से प्यार है) का व्रत भी नहीं रहने देना चाहता था. तू अपने सुहाग की फिक्र कर बेटी. आपने अपनी छवि-लीला से मनोरंजन-प्रिय उस किसान बुढ़िया का दिमाग भी धो डाला है जिसके कबीर-पंथी पिता यानि मेरे नाना ने उसे आत्मनिर्भर बनाने के लिए चरखा कातना सिखाया था और एक एक दम नया ब्लेड लाकर दिया था कि दाईयों का हंसिया छीन लिया करो और उनके साथ जाकर बच्चों की नाल काटो। बहुत सारी नन्हीं जाने टिटनेस से बचाई बाप-बेटी ने, चाचा नेहरू के जमाने में.

आपकी ताकत से आक्रांत पुलकित हूं कि काश आपने बस पढ़ना-लिखना और चांद, तारे, नक्षत्र, भाग्य, देवता, अपशकुन वगैरा को बस एक कदम पीछे हट कर गौर से देखना सिखा दिया होता. तो क्या होता? जरा सोचिए. भारत माता, गाय और ईश्वर के बीच में आपकी भी जगह होती.

इस चिट्ठी को शायद वे भी पढ़े जो अपनी पूंजी से उपग्रह और प्रसारण के अधिकार किराए पर लेकर आपको चलाते हैं। लेकिन आपके आगे अब उनकी भी खास औकात नहीं. आपकी टीआरपी पर रोकड़ा कदमताल करता है.

आपकी ताकत की बलिहारी हे चकमक चौकोर भस्मासुर। विध्वंसक लालसाओं के लहकावन.

जै हिन्द।

मगन

मगन

15 अक्टूबर, 2008

आपका दिल हमारे पास है


इ. इ. कुमिन्ग (1864-1962)
नेट पर सबसे अधिक कौन कवि इधर पढ़ा गया. इस मटरगश्ती में ये सज्जन मिले. नाम है इ. इ. कुमिंग, अमेरिका के रहने वाले. ज्यादा परिचय का कोई खास मतलब नही है. सूरत कितनी जानी-पहचानी जैसे मेरे गांव के किसी आदमी को अंगरखे की जगह शर्ट पहना दी गई हो. खैर यह झूठ है वहां अब कोई टेलर मास्टर अंगरखा सिलता भी नहीं. असल चीज तो इनकी कविता है जो जीवन को वैसे पकड़ने की कोशिश करती है जैसा कि वह होता है. बिना चेतावनी दिए, बिना भाषा की मदद लिए या बिना अपने होने का पता दिए. अपने ही फार्म की निराली यह कविता पढ़िए। शीर्षक और अनुवाद मेरा। बाकी कुमिंग साहब का।

आपका दिल हमारे पास है
तुम्हारा दिल साथ लिए फिरता हूं ( मैं इसे अपने दिल में लिए रहता हूं ) बिना इसके कभी नहीं होता हूं
( कहीं जाऊं तुम जाते हो, और मुझसे जो भी हुआ तुम्हारा किया हुआ है, मेरी जान ) मुझे डर नहीं किस्मत का ( मेरी किस्मत तुम जो हो, प्रिये ) नहीं चाहिए मुझे दुनिया ( क्योंकि सुंदरी तुम दुनिया हो मेरी, असल मेरी ) और यह तुम हो जो भी हमेशा एक चांद होने का मतलब होता है और जो भी एक सूरज सदा गाएगा, तुम हो यहां है गहनतम रहस्य जिसे कोई नहीं जानता ( यह उस पेड़ के जड़ की जड़ है और कली की कली और आसमानों का आसमान जिसे जीवन कहा जाता है, जो बढ़ता जाता है आत्मा की संभवतम आशा या मन के रहस्यों से भी ऊंचा ) और यही वो अचरज है जो सितारों को अलग-अलग किए हुए है मैं तुम्हारा दिल साथ लिए फिरता हू ( अपने दिल में ही तो लिए रहता हूं )

14 अक्टूबर, 2008

जो शिकस्तः हो तो अज़ीज़तर

न बचा-बचा के तू चल इसे, तिरा आईना है वो आईना
जो शिकस्तः हो तो अज़ीज़तर, है निगाह-ए-आईनासाज़ में

... यह त्वरित प्रक्रिया मेरी पहली पोस्ट समझी जाय इस ब्लॉग पर. यहां पिछली दो पोस्टों का लिखा पढ़ने के बाद से ये शेर बस घुमड़ रहा था.

बाक़ी यूं है के:


आगे आते नहीं किसू की आंखों में
हो के आशिक़ बहुत हकीर हुए

अब जो मन में आएगा, यहीं आएगा!

दुर्गा दादा का गढ़वाल क़िस्सा आगे न चला पाने की जादों साब की हर अपील को ख़ारिज किया जाता है. सो अलग. इसी माह इसकी असल वाली सर्रीयल और असल किस्तें न आने पर सज़ा-ए-मौत का फ़रमान भी इस बिलाग को.

13 अक्टूबर, 2008

डालफिन की डूब


सोचा था जब तक दुर्गा दादा के साथ गढ़वाल में अकेलेपन की यात्रा होगी ब्लाग पर कुछ नहीं लिखूंगा। और कुछ लिखा तो शायद यात्रा न पूरी हो क्योंकि वैसे ही आलस्य का लालची मन कहीं और फंस गया तो लटक जाएगा। अशोक ने हुसका कर यह सिलसिला तुड़वा दिया तो अब यही सही। इन दिनों यह भी लग रहा है कि जो कुछ, जैसा हम संप्रेषित करना चाहते करना चाहते हैं चाहे जितनी कीमियागरी कर लिखें वह नहीं होना होगा तो नहीं होगा। क्योंकि पढ़ने वाले के भीतर एक केमिकल लोचा है, उसके साथ लिखे का केमिकल रिएक्शन होता है और एक नयी चीज उसके सामने आ जाती है। किसी भी टेक्सट का यह पाठक का अपना एकांतिक, एक्कदम्म....से अपना वाला अर्थ है जो उसके लिए बेहद कीमती है। लिखने का खेल, जैसे जीवन के विकास की दिशा अनिश्चत होती है वैसा ही है। लिखे जा चुके की पढ़ने और लिखने दोनों वालों से स्वतंत्र सत्ता है वह हर नए पढ़ने वाले के साथ नया अर्थ लेती जाती है यह बेहद दिलफरेब खेल है। इस लिए समझदार लोग कहते पाए जाते हैं कि लिखो, इसकी परवाह मत करो कि वह कैसा लिखा गया है। लिखने के पीछे अगर जिंदगी की कोई लय है, बात है, कुछ असल है तो वह अपनी फ्रीक्वेंसी वाले पाठक के भीतर रिजोनेट करेगी। पुल पैदल जाती पलटन अपनी कदमताल तोड़ देती है, कहीं रिजोनेन्स से पुल ही न टूट जाए। तानसेन वगैरा अपने गले से खिड़की, गिलास वगैरा अक्सर तोड़ा करते थे- ऐसा नतीजा मैने विज्ञान आओ करके सीखें- का एक पाठ पढ़कर मैने निकाला था।





सूनी शामों को सकल भुवन में झनझन
तमाशे से निराश डॉलफिन सा गोता लेकर
रक्त-दाब पाताल-मुखी होता जाता, होता जाता
डूब-डूब-डूब।
नहीं कोई सिर सहलाने वाला
नहीं प्रतीक्षा किसी की, चिर संगी अल्कोहल की भी
मटमैली रोशनी से रंगी आकृतियां जानी-पहचानी
पुतली की लय में भटकती हैं आंखों के आगे
थकन न जाने कितने जनमों की
स्पांडिलाइटिस फुसफुसाती गरदन, ऐंठती पिंडलिया
खुल गई है टोटी कोई पास ऐड़ी के
वजन है जिससे बहता जाता
जीवन में जो भी वजनी लगता था।
चालीस का तू छोकरे वहां
यूरो वाले जब लाइफ बिगिन किया करते हैं
वे तेरे नेट-भाई (यथा-गुरूभाई) ग्लोबल-गांव के रहने वाले
नाभि-नाल एक केबिल से बंधे हम दोनों
कॉफी, अंडा या पानी संग नमक की दांडी-यात्रा खून में
जैसे कोयला बीत चुके भाप के इंजन में
कुछ नहीं, कुछ नहीं, कुछ नहीं।
कुछ और, कुछ और, कुछ और।।
मसलन यही कि
कोई स्फुरण, कौंध कोई, कोई तो हो विचार
जिंदगी को कोई मकसद मिल जाए।
फौरन, अभी तुरंत
अरे। बिन मकसद, अब तक जीते आए?
हां बडा मजा था, बड़ा....
धरती पर पैर रखने को महसूसना ही सबसे बड़ा काम लगता था
और अकेले में तरह-तरह से मुंह बनाना कि
क्या सोचते होंगे ऐसी मुख-मुद्राओं वाले
फिर पता नहीं क्या हुआ?
क्या हुऊआ----?
विलाप से दहाड़ तक फटता एक सवाल
जिसकी लय पर डालफिन डूबती जाती है।

12 अक्टूबर, 2008

आशा से उन्मत्त


आज एक दोस्त से बात की. हमेशा करता था लेकिन आज जरा सी बात की. करनी ही थी. उससे न करता तो किसी पेड़ से करता, दीवार से करता, खुद से करते-करते थक चुका. उसने कहा कि देखता हूं, सोचता हूं, कुछ करते हैं। करते हैं, करना पड़ेगा, यह जरूरी है. अब मैं उन्मत्त हूं. मेरे पास फिर से आशा है. ठहर कर सोचता हूं कि यह कहने का साहस भी उसमें आखिर कैसे बचा हुआ है. विघ्नसंतोषी नहीं हूं. बस हैरत है जो बचपन से अब तक आंखों सी फैलती जाती है.

रचने की तड़पः उनकी और हमारी

अशोक पांन्डेः विन्सेन्ट वान गॉग को एब्सिन्थ पसन्द थी. और पॉल गोगां को भी. हल्के आसमानी रंग की यह दारू मैंने पहली बार प्राग के एक रेलवे स्टेशन पर ख़रीदी थी और अगले रोज़ प्राग में ही काफ़्का संग्रहालय जाने के पहले उस अतीव प्रभावकारी दारू के दो गिलास चढ़ा लिए थे.
काफ़्का शराब नहीं पीता था. मांस भी नहीं खाता था.
वान गॉग बाद के दिनों में खू़ब शराब पीता था. वैश्यागामी भी था.
उसके बाद एक बार विएना के लियोपॉल्ड म्यूज़ियम में हैनरी दे तुलूस लौत्रेक की प्रदर्शनी देखने के बाद मैं लौत्रेक नामी इस महान वैश्यागामी, शराबी और 'मूलां रूज़' को अमर बना देने वाले चित्रकार का मुरीद हो गया.
शराब और सिगरेट की अति से अपने स्वास्थ्य को तबाह कर चुका फ़र्नान्दो पेसोआ जब अपने पीछे सत्ताइस हज़ार से ज़्यादा पांडुलिपियां छोड़कर जाने वाला था, वह अपनी मौत से एक दिन पहले अपनी डायरी में लिख रहा था: " मेरे भीतर गहरे कहीं हिस्टीरिया के लक्षण हैं ... जो भी हो मेरी कविता का बौद्धिक अस्तित्व मेरे शारीरिक रोग से उपजा है. अगर मैं एक स्त्री होता तो मेरी हर कविता पड़ोस में कोहराम मचा देती, क्योंकि स्त्रियों में हिस्टीरिया उन्माद और पागलपन के रूप में प्रदर्शित होता है. लेकिन मैं एक पुरुष हूं और पुरुषों में हिस्टीरिया दिमाग़ी मसला होता है. इसलिए मेरे लिए हर चीज़ ख़ामोशी और कविता में जाकर ख़त्म होती है."
हिन्दी के सारे महान कवि भीषण दर्ज़े के शराबख़ोर पाए जाते हैं और बड़ी सीमा तक यौनकुंठित भी. उनका ज़्यादातर ख़ाली समय शराब पीने के बाद दिए गए उनके प्रवचनों की सद्यःवाचाल पवित्रता और प्रत्युतपन्नमति पर रीझे अकवि और आमतौर पर कहीं युवतर श्रोता समुदाय द्वारा इतने बड़े 'नामों' की संगत में उभरी "अहा! अहो!" पर मुदित होने में बीतता है.
विन्सेन्ट ने क़रीब आठ साल पेटिंग की. सत्रह सौ से ज़्यादा अमर कैनवस तैयार किये.
काफ़्का साहित्य का सर्वज्ञाता ईश्वर है.
तुलूस लौत्रेक के नाम क़रीब पांच हज़ार कैनवस-स्केचेज़ हैं.
फ़र्नान्दो पेसोआ के पूरे काम को अभी छपना बाकी है. छपा हुआ काम तीस हज़ार पृष्ठों से ज़्यादा है.
विन्सेन्ट अड़तीस साल जिया.
काफ़्का इकतालीस.
लौत्रेक सैंतीस.
पेसोआ सैंतालीस.
हमारी हिन्दी में पचास पार के कवि को युवा कहे जाने की परम्परा है. जब वह अस्सी का होता है उसके पास चार से ले कर आठ पतले-दुबले संग्रह होते हैं. उसके साथ शराबख़ोरी कर चुके लोगों की संख्या लाख पार चुकी होती है और वह "मैं मैं" कर मिमियाता-अपनी घेराबन्द साहित्य-जमात का मुखिया हो कर टें बोल जाता है.


फोटोः रीडिंग द मैप्स से साभार।
अनिल यादवः मैं कई ऐसे कथाकारों को देख रहा हू् जो मारखेज की आत्मकथा लिविंग टू टेल द टेल आने और हिंदी में उसके अंश कई जगहों पर छपने के बाद धुआंधार सिगरेट सूत रहे हैं, एकाध तो बीड़ी भी। .....हां जी बीरी। इस जमाने जबकि उसे सिर्फ गाने में ही लालसा से ताका जाता है क्योंकि वह बिप्स के जिगर से जलती है।.........इसलिए कि आत्मकथा के पहले खंड पर घटिया तंबाकू वाली सस्ती सिगरेट का धुंआ रहस्यमय तरीके से फैला हुआ है गोया उसी ने मारखेज को लेखक बनाया हो। लिखा तो यह भी है कि बला की गरमी में जब उसके दोस्त अपने कपड़े उतार कर सिर्फ अंडरवीयर में अखबार के दफ्तर में बैठा करते थे वह छह से आठ घंटे तक अखबारी कागज पर लिखता रहता था। अपनी मां के साथ घर बेचने के बहाने हुई अर्काताका की यात्रा के बाद, जब वह वन हंड्रेड इयर्स....का पहला ड्राफ्ट लिख रहा था तो इसे अखबार के पेस्टिंग स्केल से फीट में नापा करता था।...इसकी नकल नहीं हुई।
ऐसी जानकारियों का असर जादुई होता है। मैने सुन लिया था कि पिताजी गणित में कमजोर थे मैने फिर गणित नहीं पढ़ी तो नहीं पढ़ी। जवाहर कट वास्कट, साधना कट बाल और बुल्गागिन कट दाढ़ी....पर्सनालिटी स्टेटमेंट ऐसे ही बन गए। (आवारा लड़कों में सिगरेट का एक बार नीलू फुले स्टाइल भी चला था। नीलू फुले एक फिल्म में इस अंदाज में सिगरेट मांगता था जैसे उसे अपनी, कान पर रखी सिगरेट जलानी हो। जलाने के बजाय वह अपनी सिगरेट, जलती सिगरेट के पीछे पाइप की तरह फिट कर दो-तीन कश लगाकर वापस कर देता था। )
बड़े व्यक्तित्वों में का जो कुछ आसानी से ग्राह्य हो झट से अपना लिया जाता है। बुरा तो और भी तेजी से। क्योंकि वह प्रचारित सनसनीखेज तरीके से होता है और अंदर के पोलेपन को छिपाकर, छद्म छवि के निर्माण के काम में फटाक लग जाता है। शराबखोरी के साथ भी यही है। उसे इस तरह से प्रस्तुत भी तो किया जाता है जैसे लेखक, कवि, पेन्टरादि होने की जरूरी शर्त हो। जैसे, पुराने जमाने के गंजेड़ियों का नारा...जिसने न पी गांजे की कली, उससे तो लौंडिया भली...हर फिक्र को धुंए में उड़ा देने वाला कड़ियल मर्द होने का घोषणापत्र था।...दम मारो दम या हिप्पी दौर के कई पॉप नंबर्स इसी के तत्सम, मेट्रो वर्जन हैं।
अपने यहां क्रिएटिव-शराबखोरी के चोंचले का एक और कारण है जो मुझे बड़ा महत्वपूर्ण लगता है। सड़क किनारे बैठने वाली एक स्वयंभू, रचनात्मक, युवा मद्यप-मंडली के कुछ महीनों के संचालन के दौरान इसे मैने महसूस किया था। वाचाल, किंचित उन्मत्त होने के बाद वाकई कहन में एक नया रंग और रवानी तो आ ही जाती है। उसका असर सामने वाले की आंखों पर चेहरे पर तुरंत दिखाई देता है। इन्स्टैन्ट। यह सुख अपनी किताब का पहला संस्करण देखने से जरा भी पतला नहीं होता। जिसे इसका चस्का लग गया उसका लिखना फिर मुश्किल होता है।
यौन-कुंठा का मसला जरा हटकर है। वैसे पश्चिम में भी लफंडरों और पिसान (आटा) पोत कर मुख्य रसोईये की तरह जुल्फें झटकने वालो की कमीं नहीं है। लेकिन पियक्कड़ ओ, हेनरी, पैसोआ वगैरह का अपने काम के प्रति समर्पण गहरा, प्रमुख और एकाग्र है। अपने यहां जो भी खास तौर पर हिंदी का साहित्य रचने लगता है साथ एक सत्ता भी रचता है। वह साहित्य के जरिए तुरंत सत्ताधारी होना चाहता है। जरा सा नाम हुआ नहीं कि चेलों, चिलगोजों और चकरबंधों की फौज खड़ा करना शुरू कर देता है। हमारे समाज में प्रतिभाविहीन चिलगोजों की अछोर संख्या है जो किसी नामचीन की रोशनी में थो़ड़ी देर के लिए ही बस चमक लेना चाहते हैं।
..........जब रचने की बेचैनी और न रच पाने से उपजे असंतोष की जगह, कुछ नाम और पुरस्कारों से निर्मित सत्ता का निंदालस होगा और चंपुओं की फौज उसकी अवधि अपनी विनम्र, लसलसी जीभ से खींच कर चौबीस घंटे की कर देगी....तब साहित्य की तरह, यौन के क्षेत्र में भी पराक्रम दिखाने की कामना होगी जो पचासा पार युवा साहित्यकार को हाथ पकड़कर यौन-कुंठा की आवेशित गली में ले ही जाएगी।