सफरनामा

21 दिसंबर, 2008

इस चाभी से खुलेगा क्या यह जंग लगा ताला


ये भारत रहे जी जो पिछले पांच साल में घटी आतंकवादी घटनाओं से दहल गए हैं। अब वे एक नए घर में शिफ्ट कर रहे हैं जिसका नाम रा.इच्छाशक्ति रखने की सोच रहे हैं। उनके हाथ में ताजा किताब है जिसमें वह नया कानून लिखा है जो उन्होंने आतंकवाद को ठिकाने लगाने के लिए हाल में ही बनाया है।
(इलस्ट्रेशन किसका है यह राइट क्लिक करके जाना जा सकता है।)

20 दिसंबर, 2008

कुहरे में दुविधा बाबू


जिंदगी जिस रफ्तार से भागी जा रही है,(हालांकि भाग कर वह कहीं पहुंच नहीं पा रही है) उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि जमाने बाद....तो जमाने बाद दुविधा बाबू, कुहरे में सड़क पर जाते दिखे। यह जाना भी कोई जाना था। एक पैर उठ कर हौले से धुंध में लुप्त हो जाता था, कुछ देर बाद दूसरा अकेला पैर नजर आता था। उनके दोनों पैर, जन्म से एक दूसरे के लिए अजनबी हैं। इसी कारण अपनी जिंदगी में वे कहीं पहुंच नहीं पाए हैं।

वे एक पान की दुकान पर रूके। जेब से लाइटर निकाल कर गुमटी के एक कोने को घूरते रहे। उन्होंने एक च्यूंइगम मांगा। उनकी आवाज में खुरदुरी और अकंप कोई चीज हमेशा से थी जो जमाने बाद उन्हें फिर अच्छी लगी। बहुत दिनों बाद शायद उन्होंने अपनी आवाज सुनी होगी। उन्होंने चार च्यूंइगम और ले लिए। पनवाड़ी उन्हें देखकर कुछ इस अंदाज में मुस्कराया जैसे वे रात में गॉगल लगाए टहल रहे हों। उसने उनके हाथ में लौंग से तीन फूल रख दिए।

कुछ दूर जाकर मेडिकल स्टोर से उन्होंने दो रूपए की सुआलीन की चार गोलियां खरीदीं। खांसी उन्हें महीने भर से आ रही थी लेकिन वे सुन ही नहीं पा रहे थे। आज अपनी आवाज सुनी तो खांसी का भी ख्याल आया होगा। एक चीनी कहावत भी याद आई कि सबसे ऊंचे पहाड़ पर चढ़ने की शुरूआत एक छोटे से कदम से होती है। (अपने यहां भी होगी लेकिन दुविधा बाबू चीन के चेयरमैन को अपना बाप कहने वालों की सोहबत में काफी रहे हैं)

कोई डेढ़ किलोमीटर तन कर सधी चाल से चले होंगे कि एक भारतीय कहावत ने उन पर हमला कर दिया जिसके अनुसार केश लुंचन से मुर्दे का वजन हल्का नहीं हो जाता। फिर दूसरी कहावत आई कि गोबर सुंघाने से चुहिया जिंदा नहीं हो जाती फिर तीसरी कि पाव भर जीरे से ब्रह्मभोज के मंसूबे बांधने का अभी वक्त नहीं आया है। और उनकी चाल शिथिल पड़ गई।

उनके पास चीनी कहावत अदद एक थी और देसी की कोई गिनती नहीं। यानि वे देशी हैं चीनी उनको सूट नहीं करती। टहलते-टहलते आधी रात हो गई और उन्होंने पाया कि सारी दुकानें बंद हो चुकी हैं और उन्हें बहुत तेज प्यास लगी है। प्यास का कोई तर्क नहीं था उसमें बस शक्ति थी, वह दुविधा बाबू को उद्देश्यपूर्ण ढंग से चलाते हुए वहीं ले गई जहां से वे चले थे।