यह एक कहानी है। लंबी कहानी,उपन्यास की हद से जरा पहले खत्म होती हुई। चार साल पहले लिखी गई इस कहानी ने काफी धक्के खाए। वैसे ही जैसे कुछ जरा लंबे या नाटे, ज्यादा हंसने या चुप रहने वाले, मतिमंद या तेज लोग अपने घर में अपैथी और उपेक्षा के शिकार हो जाते हैं। कारण कुछ और होते हैं नजर कुछ और आते हैं। किसी ने कहा बेहद लंबी है, किसी ने कहा कि इसका कोई नायक नहीं है, ज्यादातर ने कुछ नहीं कहा।
दोस्त अशोक पांडे और मेरे महबूब कथाकार योगेन्द्र आहूजा ने पढ़ा। कुछ सुझाव दिए। मैने कुछ हिस्से फिर से लिखे। अब इसे आप सबके सामने धारावाहिक प्रस्तुत किया जा रहा हैं। पढ़िए...। इसे होली का एक रंग माना जाए।
क्योंकि नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़तीं
छवि जिसे फोटो समझती थी, दरअसल एक दुःस्वप्न था। रास्ते में चलते-चलते अक्सर उसे प्रकाश के हाथों में एक चेहरा दिखता था और उसके पीछे अपने दोनों हाथ सीने पर रखे, कुछ कहने की कोशिश करती एक बिना सिर की लड़की....।
प्रकाश जिसे सपना जानता था, एक फोटो थी जो कभी भी नींद की घुमेर में झिलमिला कर लुप्त हो जाती थी- रात की झपकी के बाद जागते, अलसाए घाट, लाल दिखती नदी और सुबह का साफ आसमान है। एक बहुत ऊंचे झरोखेदार बुर्ज के नीचे सैकड़ों नंगी, मरियल, उभरी पसलियों वाली कुलबुलाती औरतों के ऊपर काठ की एक विशाल चौकी रखी है। उस डोलती, कंपकंपाती चौकी पर पीला उत्तरीय पहने उर्ध्वबाहु एक कद्दावर आदमी बैठा है जिसके सिर पर एक पुजारी तांबे के विशाल लोटे से दूध डाल रहा है। चौकी के एक कोने पर मुस्तैद खडे़ एक मुच्छड़ सिपाही के हाथों में हैंगर से लटकी एक कलफ लगी वर्दी है जो हवा में फड़फड़ा रही है। थोड़ी दूर समूहबद्ध, प्रसन्न बटुक मंत्र बुदबुदाते हुए चौकी की ओर अक्षत फेंक रहे हैं।
इस फोटो और सपने को एक दिन, पूरी शक्ति के साथ टकराना ही था और शायद सबकुछ नष्ट हो जाना था। मृत्यु हमेशा जीवन के बिल्कुल पास घात लगाए दुबकी रहती है लेकिन जीवन के ताप से सुदूर लगती है। यह दिन भी उन दोनों से बहुत दूर - बहुत पास था।
फोटोजर्नलिस्ट प्रकाश जानता था कि यह सपनों की फोटो है जो कभी नहीं मिलेगी लेकिन इसी अंतर्वस्तु की हजारों तस्वीरें उन दिनों गलियों, घाटों, सड़कों और मंदिरों के आसपास बिखरी हुई थी, जिनमें से एक को भी वह कायदे से नहीं खींच पाया। सब कुछ इतनी तेजी से बदल रहा था कि कैमरा फोकस करते-करते दृश्य कुछ और हो चुका होता था और अदृश्य सामने आ जाता था। लगता था पूरा शहर किसी तरल भंवर में डूबता-उतराता चक्कर खा रहा है।
लवली त्रिपाठी की आत्महत्या
धर्म, संस्कृति और ठगी के पुरातन शहर बनारस में सहस्त्राब्दि का पहला जाड़ा वाकई अजब था। हाड़ कंपाती, शीतलहर में लोग ठिठुर रहे थे लेकिन घुमावदार, संकरी, अंधेरी गलियों में और भीड़ से धंसती सड़कों पर नैतिकता की लू चल रही थी। लू के थपेड़ों से समय का पहिया उल्टी दिशा में दनदना रहा था।
नैतिकता की इस लू के चलने की शुरुआत यूं हुई कि सबसे पहले एक कुम्हलाती पत्ती टूट कर चकराती हुई जमीन पर गिरी।
उस दिन के अखबार के ग्यारहवें पन्ने पर सी. अंतरात्मा के मोहल्ले के एक घर की ब्लैक एंड व्हाइट, डबल कालम फोटो छपी। आधा ईंट-आधा खपरैल वाले घर के दरवाजे के बगल में अलकतरे से एक लंबा तीर खींचा गया था, जिसके नीचे लिखा था, ‘यह कोठा नहीं, शरिफों का घर है।’ तीर की बनावट में कुछ ऐसा था जैसे खुले दरवाजे की ओर बढ़ने में वह हिचकिचा रहा हो और शरीफों में छोटी इ की मात्रा लगी थी। घर के आगे एक भैंस बंधी थी जो आतुर भाव से इस लिखावट को ताक रही थी। फोटो के नीचे इटैलिक, बोल्ड अक्षरों में कैप्शन था- ‘ताकि इज्ज्त बची रहेः बदनाम बस्ती में आने वाले मनचले अब पड़ोस के मुहल्लों के घरों में घुसने लगे हैं। लोगों ने अपनी बहू बेटियों के बचाव का यह तरीका निकाला है। महुवाडीह में इन दिनों करीब साढ़े तीन सौ नगर-वधुएं हैं।’
सी. अंतरात्मा ही प्रकाश को लेकर वहां गए थे। दोनों को अफसोस था कि अंदर के पेज पर काले-सफेद में छापकर इतने अच्छे फोटों की हत्या कर दी गई है।
काशी की संस्कृति के गलेबाज कहा करते थे कि यहां के अखबार आज भी बहन-बेटी का संबंध बनाए बिना वेश्याओं तक की चर्चा नहीं करते। यह आचार्य चतुरसेन के जमाने की भाषा की जूठन बची हुई थी। वे अपहरण को बलान्नयन, बलात्कार को शीलभंग, पुलिस की गश्त को चक्रमण और काकटेल पार्टी को पान- गोष्ठी लिखते थे। धोती वाले संपादक ही नहीं प्रूफ रीडर, पेस्टर, टाइपराइटर और टेलीप्रिंटर भी विदा हो चुके थे लेकिन सूट के नीचे जनेऊ की तरह अखबरों के व्यक्तित्व में ये शब्द छिपे हुए थे, और कई लक्षणों के साथ इस भाषा से भी अखबारों की आत्मा की थाह मिलती थी।
रोज की तरह उस दिन भी बयालीस साल के संवाददाता सी. अंतरात्मा अपनी खटारा स्कूटर से जिसके आगे पीछे की नंबर प्लेटों के अलावा स्टेपनी पर भी लाल रंग से प्रेस लिखा था, शाम को चीरघर गए। लाशों का लेखा-जोखा उनका रूटीन असाइमेंट था। उन्होंने चौकीदार को चाय पिलाई, एक बीड़ा पान खिलाया, खुद भी जमाया और कागज कलम निकालकर इमला घसीटने लगे। मर्चुरी में उस दिन आई लाशों के नाम, पते, मृत्यु का कारण और कुछ किस्से नोट कर दफ्तर लौट आए। उन्होंने रिपोर्टिंग-डेस्क से पुलिस के भेजे क्राइम बुलेटिन का पुलिंदा, निंदा, बधाई, चुनाव, मनोनयन, की विज्ञप्तियां बटोरीं और अखबार के सबसे उपेक्षित कोने में जाकर बैठ गए। रात साढ़े दस तक वह मारपीट, चेन छिनैती, स्मैक बरामदगी, आलानकब और प्रथम सूचना रपट दर्ज की सिंगल कॉलम खबरें बनाते रहे। ग्यारह बजे क्राइम रिपोर्टर को ये खबरें सौंपकर वे सीनियरों को पालागन के दैनिक राउंड पर निकलने ही वाले थे कि उसने पूछा, ‘यह लवली त्रिपाठी कौन हैं जानते हैं?’
‘सल्फास खाकर आई थी, किसी अफसर की बीबी है, पोस्टमार्टम तुरंत हो गया अब तो दाह संस्कार भी हो चुका होगा।’ उन्होंने बताया।
‘और यह रमाशंकर त्रिपाठी, आईपीएस कौन है?
उन्होंने सिर खुजलाया। मतलब था, आप ही बताइए कौन हो सकते हैं।
क्राइम रिपोर्टर बमक गया, अरे बुढ़ऊ रात ग्यारह के ग्यारह बज रहे हैं। चार घंटे से चूतड़ के नीचे डीआईजी की बीबी की आत्महत्या की खबर दबाए बैठे हो और अब सिंगल कालम दे रहे हो। कब सुधरोगे। कब डेवलप होगी, कब जाएगी, यह कब छपेगी। सी. अंतरात्मा की घुन्नी आंखें चमकीं, जरा जोर से बोले हम क्या जानें, हम तो समझे थे कि आपको पहले से पता होगा। प्रकाश ने भी जानकारी दी कि अंतिम संस्कार की फोटो भी है, तीन बजे मणिकर्णिका घाट पर हुआ था।
कोई जवाब देने के बजाय रिपोर्टर ने लपककर खाली पड़े एक टेलीफोन को गोद में उठा लिया। पौन घंटे तक सिपाही, दरोगा, ड्राइवर, नर्सिंग होम की रिसेप्शनिस्ट की मनुहार करने के बाद उसने पूरा ब्यौरा जुटा लिया। खबर का इंट्रो कम्प्यूटर में फीड करने के बाद उसने सी. अंतरात्मा को बुलवाया जो दफ्तर के बाहर पान की दुकान पर अपनी मुस्तैदी और क्राइम रिपोर्टर की चूक की शेखी बघार रहे थे। उसने उनकी ड्यूटी रात डेढ़ बजे तक के लिए डीआईजी के बंगले के बाहर लगा दी। अंतरात्मा जानते थे कि बंगले बाहर अब कुछ नहीं मिलना है, इसलिए उन्होंने जी भईया जी कहा और अपने घर चले गए।
डीआईजी की बीबी सुंदर थी, सोशियोलाइट थी, शहर की एक हस्ती थी। उसने भरी जवानी में आत्महत्या क्यों की। इसके बारे में सिर्फ कयास थे। एक कयास यह था कि डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी के अवैध संबंध किसी महिला पुलिस अफसर से थे, जिसके कारण उसने जान दे दी। लेकिन इस कयास को किसी ने गॉसिप के कालम में भी लिखने की हिम्मत नहीं की, डर था कि तूफान से भी तेज रफ्तार उन जीपों की शामत आ जाएगी जो रात में अखबार लेकर दूसरे जिलों में जाती थीं। तब पुलिस अवैध ढंग से सवारी लादने के आरोप में उनका चालान करती, थाने में खड़ा कराती। एक घंटे की भी देर होती तो सेंटर तक पहुंचते-पहुंचते अखबार रद्दी कागज हो जाता। प्रतिद्वंद्वी अखबारों की बन आती। ऐसे समय क्राइम रिपोर्टर को ही पुलिस के बड़े अफसरों से चिरौरी कर जीपें छुड़ानी पड़ती थीं। मोटी तनख्वाह पाने वाले किसी कॉरपोरेटिया मैनेजर के पास इस देसी हथकंडे से निपटने का कोई ऊपाय नहीं था।
लवली त्रिपाठी, छवि की क्लाइंट थी जिसे वह अपनी दोस्त कहना पसंद करती थी। छवि यूनिवर्सिटी से ब्यूटीशियन का कोर्स करने के बाद अपने बूढ़े, बीमार पिता के असहाय विरोध के बावजूद घर के एक कमरे में व्यूटी पार्लर चलाती थी। डीआईजी की पत्नी से उसकी मुलाकात यूनिवर्सिटी की एक मेंहदी एंड फेशियल कंपटीशन में हुई थी जिसकी वह चीफ गेस्ट थी। अक्सर लवली त्रिपाठी के घर जाने के कारण वह जानती थी कि उसका सोशियोलाइट होना पति की उपेक्षा से त्रस्त आकर, दिन काटने की मजबूरी थी क्योंकि डीआईजी ने कह रखा था कि वह जहां चाहे मुंह मार सकती है या जब चाहे मर सकती है। लवली की दोस्त बनने की प्रक्रिया में छवि को एक नए तरह के फेशियल का आविष्कार करना पड़ा जिससे घूंसों से बने नील और तमाचों के निशान खूबसूरती से छिपाए जा सकते थे। वह लगातार प्रकाश से कह रही थी कि अपराध की फर्जी कहानियां रचने के माहिर डीआईजी ने ही लवली की हत्या की है और उसे फांसी मिलनी चाहिए।
प्रकाश और छवि के तीन साल पुराने प्यार में लवली त्रिपाठी अक्सर तनाव लेकर आती थी जिसके झटके से वह आगे बढ़ता था। प्रकाश को लगता था कि लवली जैसी संपन्न, निठल्ली औरतों के प्रभाव में आकर ही वह कहा करती है कि वह प्रेस फोटोग्राफी छोड़कर मॉडलों के फोटो खींचे और फैशन-फोटोग्राफर बन जाए तभी उसकी कला की कद्र होगी और पैसे भी कमा पाएगा। छवि जानती थी कि यह सुनकर उसके भीतर के जर्नलिस्ट उर्फ वाच डॉग को किलनियां लगती हैं, तब यह सलाह आती है कि अगर वह तमाचों के निशान छिपाने की मेकअप कला का पेटेंट करा ले तो करोड़ों महिलाएं उसकी क्लाइंट हो जाएंगी और टूटते परिवारों को सुंदर और सुखी दिखाने के अपने हुनर के कारण वह इतिहास में अमर हो जाएगी। समझौता यहां होता था कि कृपा करके अपनी-अपनी सलाहें उन बच्चों के लिए बचा कर रखीं जाएं जो भविष्य में पैदा होने हैं और अभी इस तरह से प्यार किया जाए कि वे पैदा न होने पाएं।.........क्योंकि शादी होने में अभी देर है।
प्रकाश के पास एक लवली त्रिपाठी की एक सहेली थी जो डीआईजी और उसके झगड़ों की प्रत्यक्षदर्शी थी और खुलेआम डीआईजी की फांसी की मांग भी कर सकती थी। लेकिन प्रकाश उसे किसी जोखिम में नहीं डालना चाहता था। उसने भी और पत्रकारों की तरह अपने प्रोफेशन और निजी जीवन को अलग-अलग जीना सीख लिया था क्योंकि दोनों का घालमेल इस नाजुक से रिश्ते को तबाह कर सकता था। फिर भी छवि को दुखी, परेशान देखकर उसने वादा किया कि इस मामले में सच सामने लाने के लिए उससे जो बन पड़ेगा जरूर करेगा।
बिना पुख्ता सबूत के हाथ डालना खतरनाक था। लेकिन इस सनसनीखेज मुद्दे को छोड़ा भी तो नहीं जा सकता था। इसलिए रिपोर्टरों को लवली त्रिपाठी के मायके दौड़ाया गया, उसकी सहेलियों को कुछ याद करने के लिए उकसाया गया, समाजसेवियों को उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर रोशनी डालने के लिए कहा गया। प्रकाश ने एक स्टूडियो से डीआईजी की फैमिली अलबम की कुछ पुरानी तस्वीरों का जुगाड़ किया। कुछ चर्चित आत्महत्याओं का ब्यौरा जुटाया गया और लच्छेदार शब्दों में ह्यूमन एंगिल समाचार कथाओं का सोता पन्नों से फूट निकला। समाचार चैनलों पर भी यही कुछ, जरा ज्यादा मसालेदार ढंग से आ रहा था।(...जारी)
ए भाई उ डीआईजिया इहां गोरखपुर में आई जी हो गइल बा। जब से आइल बा बड़ा नरक फैलवले बा
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