सफरनामा

26 फ़रवरी, 2012

18 फ़रवरी, 2012

अच्छा बच्चाः उन दिनों की चीन्हाखचाई

तोतेः शरारती लड़के खदेड़े गए
कौएः कामकाजी और दुनियादार
मैनाः अंधेरा देख घर की तरफ भागती देहातिन
गौरेयाः भेली खाते कुदकती कोई लड़की

वे ट्रैफिक में रेंगते, तनावग्रस्त
बेडरूमों में पसरे तुंदियलों के देख क्या सोचते होंगे
यही न, मरें साले ये इसी लायक हैं।

सच मानो
मैं चिड़ियों की नजर में अच्छा बनने की कोशिश नहीं कर रहा हूं।

11 फ़रवरी, 2012

मिस लिन्डा मार्निंग शोः उन्हीं दिनों की चीन्हाखचाई



 

भारी जबड़े वाली एक सांवली


बुढ़ाती लड़की को

तीन चार आदमी रह-रह कर

आंटे की तरह गूंदने लगते थे

वह आनंद में विभोर जब

लेती थी सिसकारी

दांत दिखते थे और आंखे ढरक जाती थीं

मरती गाय की तरह।



वैसे ही तुंदियल थे वैसे ही फूहड़

वही छींटदार कमीजें

वही सेल में दाम पूछने भर अंग्रेजी

वैसे ही गुस्से में फनफनाते थे बेवजह

दांत पीसते अकड़े रहते थे

जैसे मेरे अगल बगल

ब्लू फिल्म जैसे जीवन में।



कपट उदासीनता से देखते थे बूढ़े

अंडकोषों के जोर से चीखते थे बेबस लड़के

मेरे जीवन से फाड़े उस परदे पर

मिस लिन्डा का सबसे स्वाभाविक अभिनय

बलात्कार से बचने का था।



हाउस फुल था

वह शस्य श्यामल सिनेमा हाल।

09 फ़रवरी, 2012

ओ घरघुसनेः उन्हीं दिनों की चीन्हाखचाई

ओ घरघुसने बाहर निकल
पान की दुकान तक बेमकसद यूं ही चल।
कबाड़ी की साइकिल की तीलियों पर टूटते
सूर्य को देख
ओ चिन्ताग्रस्त एक्जीक्यूटिव इंडिया के पूत
कूड़े को घूर गरदन झमकाते कौवे की तरह
कितनी ही बार धरती की परिक्रमा करने के बाद वहां
पर्वत शिखर से टकरा कर टूटी कार पड़ी है
और एक गुड़िया है जो
रोज सजने-सिसकने से उकता कर भाग निकली है घर से
जो सिगरेट की डिब्बी का तकिया लगाए नंगी
मुस्करा रही है।
देख ओ अकेलेपन और अवसाद के मारे
उन गुलाबी छल्लों की गांठों में प्रेम है
जिन्हें स्मारक के जतन से बांधा गया।
किसी दाई या बाई के
खपरैल जैसे पैर देख
फूली नसों पर मैल की धारियों में
उन द्वीपों की धूल
जहां तू कभी गया नहीं।
और कुछ नहीं तो सुन
छत के ऊपर बादलों तक चढता
तानसेन तरकारी वाले का अलाप
खरीद ले अठन्नी की ईमली
अबे ओ घरघुसने बाहर निकल
एक्जीक्यूटिव इन्डिया के पूत।

उन दिनों की चीन्हाखचाई

07 फ़रवरी, 2012