सफरनामा

09 जून, 2012

मार्क्सवाद के पावन पथ पर...


दुनिया बड़ी है, आबादी ज्यादा। हर दिन लोग मर रहे हैं। उनके लिए शोकगीत लिखे जा रहे हैं, संस्मरण छप रहे हैं और संस्थाएं बन रही हैं। ऐसे में धीरेन्द्र प्रताप सिंह पर लिखने का मतलब नहीं बनता क्योंकि वह बेलीक थे। वे एक मौलिक लीडर और लड़ाका थे इसीलिए हर कहीं मिसफिट थे। आशा है मृत्योपरांत भी बने रहेंगे।
सभी ने मौतें देखी हैं। यहां मौतों का मोल आंकने और दुखों की असहनीयता की मौन प्रतियोगिता (लेकिन उसे शब्द देना असभ्यता समझा जाता है क्योंकि मृत्यु के बाद सबको अच्छाई के उसी एक सिंथेटिक कपड़े का कफन ओढ़ा देने का फैशन है) चलती रहती है जो समय को निरर्थक बड़बड़ाहटों से भर देती है। अक्सर शून्य न भरा जा सकने वाला होता है और क्षति अपूरणीय लेकिन जीवन उसी क्षण खाली जगह को लबालब भरते हुए आगे बढ़ रहा होता है। उनको याद करने की गरज बस इसलिए है कि यह समाज तेजी से अराजनीतिक होता जा रहा है जो मनुष्य के अस्तित्व के लिए बेहद खतरनाक है।
सबसे नरम रोएं वाले लड़के, लड़कियां जब च्युइंगम चबाते हुए आई हेट पालिटिक्स कहते हैं तो आसानी ने नजर न आने वाला एक मेटामार्फासिस घटित होता है। वे लोकतंत्र की सड़क पर फुदकते मासूम मेढकों में बदल जाते हैं जिस पर जनविरोधी राजनीति के रोड रोलर गड़गड़ाते हुए गुजर रहे हैं। वही क्यों दूधनाथ सिंह की कहानी नपनीके पिताजी जैसे पिताओं की तादाद भी बढ़ी ही है जो कहते हैं, ये सब बड़े चीटर काक होते हैं। ये पोलिटिक्स का खेल मैं खूब समझता हूं। सब अपना घर भरे बैठे हैं और दूसरों को रामराज्य का उपदेश देते हैं। अपना गाल चमकाना दुनिया की रसम है। अभी तुम नहीं जानते। जब सीझोगे तब जानोगे। अभी तुम्हारी चमड़ी पतली है, चरपराएगी।
धीरेंद्र भाई स्टूडेन्टस फेडरेशन आफ इंडिया (एसएफआई) के राज्य अध्यक्ष हुए थे, मैं सीपीएम का कार्यकर्ता था जिसे बनारस में कई सालों से ठप पड़े छात्र संगठन को फिर से खड़ा करना था। जो हाथ मिलाने की जगह मुट्ठी कान तक ले जाकर कामरेड लाल सलाम! कहने लगा था लेकिन झेंप अभी गई नहीं थी। हवा में एक नारा था-मिस्टर क्लीन, मिस्टर क्लीन नकली लाया तोप मशीन। देश को गरदनिया पासपोर्ट देकर इक्कीसवीं सदी में ले जाने की अदा मजाक में बदल रही थी। चाय पिलाने के प्रस्ताव पर हास्टल के लड़के राजीव गांधी हो जाते थे, हम देख रहे हैं, हम देखेंगे। सूखी डबलरोटी खाकर साम्राज्यवादियों के कालर थाम लेने की फंतासियों में तैरने और वाल राइटिंग के लिए तीन लड़के भी न जुटा पाने की निराशा में डूबने के दिन थे।
अस्सी के दशक के आखिर में एक रात बनारस के बड़ी पियरी मोहल्ले में एसएफआई के किसी साथी के घर उनसे पहली मुलाकात हुई थी। वह धुआंधार चार्म्स फूंकते हुए पूर्वांचल में संगठन का जाल बिछाने की तकनीक पर बोल रहे थे। काशी विद्यापीठ के किसी लड़के ने कहा था, ऐ कामरेड नीक-नीक बात से काम ना चली। इहां क छात्रनेता गुंडा हउवन और कैरियर का प्रेसर अब ज्यादा हौ।
वे जितना गुंडई के लिए कमिटेड हैं आप संगठन के लिए हो जाएंगे तो बाजी पलट जाएगी।, उनका जवाब था।
उन दिनों इलाहाबाद विश्विद्यालय (जहां वे छात्रसंघ के उपाध्यक्ष रह चुके थे) बहुत से नए कामरेड उन्हीं की स्टाइल में सिगरेट सूत रहे थे। उनकी अंग्रेजी और अवधी का काकटेल उनके सिर चढ़ चुका था। वे मीटिंग के बीच में खड़े होकर कहते थे, भैयाहरे आप सभै डिबेट करैं हम पचै जात अही लड़ै। किसी आंदोलन में जेल में साथ बंद रहने के दौरान मैने स्पष्टता से महसूस किया, उनमें एक संक्रामक आवेश था। एक नैसर्गिक नेतृत्व का गुण। लोग यूं ही किसी को अपना नेता मानते हैं। डाइलेक्टिकल मैटीरियलिज्म और दास कैपिटल पढ़कर नेता नहीं चुनते। लेकिन यह तेजस्विता का रेडिएशन खुद उनके लिए खतरनाक था क्योंकि वह कैंसरग्रस्त पार्टी के भीतर के नौकरशाहों (नेताओं) पर कीमोथेरेपी जैसा असर करता था।
उन्हीं दिनों पार्टी महासचिव हरिकिशन सिंह सुरजीत तीसरे मोर्चे के नेताओं के बीच मध्यस्थता के माहिर बन कर उभरे। वे काला चश्मा लगाने लगे, उनको चाणक्य (यह आश्चर्यजनक था क्योंकि ज्यादातर विशेषण विदेशी हुआ करते थे) कहा जाने लगा, जनवादी क्रांति के बजाय ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनाने पर डिबेट होने लगी और एक नया नारा आया कामरेड मुलायम सिंह यादव जिन्दाबाद! अयोध्या कांड से पहले सांप्रदायिकता से लड़ने के लिए जो संयुक्त मोर्चे बने उनका नतीजा यह हुआ कि दलित (खेत मजदूर) बसपा के साथ और पिछड़े (किसान) मुलायम के साथ चले गए। क्रांति जाति के आगे धुंआ हो गई। गेहूं की कटाई के बाद लेवी इकट्ठा करो और धान की रोपाई के बाद जेल भरो के रस्मी सर्कुलर जारी करना प्रमुख सांगठनिक काम हो गया। सीपीएम के राज्य स्तरीय नेता तहमद भी प्रेस करके पहनने लगे, सम्मेलनों में बिना रिजर्वेशन जाना अकल्पनीय हो गया। जी हां, युवा उनका मूल्यांकन इन्हीं आधारों पर करते थे।   
जल्दी ही उन्हें एसएफआई से हटाकर मेजा (इलाहाबाद) में ट्रेड यूनियन खड़ी करने में लगा दिया गया फिर पार्टी से ही निकाल दिया गया। लेकिन धीरेन्द्र भाई के पास क्या ठाठदार विद्रोही मौलिकता थी। सीपीएम के अंदर के कैरियरिज्म, अवसरवादिता, गणेश परिक्रमा को उन्होंने अपने ही ढंग से सूत्रबद्ध किया- मार्क्सवाद के पावन पथ पर हगा गया है, साले बहनोई की साजिश से हमको ठगा गया है। वामपंथ से निकले तमामों की तरह वह भी एनजीओ की तरफ गए लेकिन वह अपने एनजीओ को हमेशा लड़ने वाली पोलिटिकल पार्टी बनाना चाहते रहे। वहां भी लड़ते भिड़ते बीते एक दशक से दिल्ली में पापुलर एजुकेशन एंड एक्शन सेन्टर (पीस) के साथ जुड़कर सोशल एक्टिविस्टों को प्रशिक्षित करने में लगे हुए थे।
लेकिन एक और विशाल पस्त कर देने वाला मोर्चा उनकी जिन्दगी में बहुत दिनों से खुला पड़ा था जिसमें वह खेत रहे। अगर आप कुछ कमा कर लाते नहीं हैं तो आप चाहे जितने बड़े तुर्रम खां हों किसान परिवार में कौड़ी के तीन होते हैं। उनका एक बेटा ड्रग एडिक्ट हो गया था। दूसरा बेरोजगार था। वे राजनीति के अलावा और कुछ कभी करना चाहते नहीं थे। कमाने-खाने-वंश बढ़ाने से इतर नई राहें चुनने वालों के लिए परिवार हमेशा वाटर लू साबित हुआ है। हालांकि हिन्दी पट्टी में कई वामपंथी इसके उलट उदाहरण हैं जो पार्टी में आए ही इसलिए कि इच्छित समय पर खेती के काम के लिए सस्ते मजदूर मिल सकें। सिर्फ जवाहर लाल नेहरू और मुलायम सिंह यादव ही परिवारवादी नहीं हुआ करते।
तो धीरेन्द्र भाई बावन, तिरपन की उमर में अप्रैल की एक रात सुल्तानपुर में दिल के दौरे से गुजर गए। वे कम्युनिस्ट पार्टी में किसी की जागीर नहीं दखल करना चाहते थे, पार्टी फंड का गबन कर फैक्ट्री नहीं डालना चाहते थे, वे अकेले क्रांति कर भारत के तानाशाह नहीं बनना चाहते थे। फिर उन्हें वह क्यों नहीं करने दिया गया जो वे करना चाहते थे?  ये उस सवाल की नोंक है जिसके पीछे अंधेरा है जिसमें आदर्श और मूल्य और गर्क हालत में पड़े रहते हैं, सिद्धान्तों की लनतरानियां चलती रहती हैं।
आप सीईओ हैं, आईएएस हैं, प्रोफेसर हैं, वैज्ञानिक हैं, फिल्मकार हैं, आप जो भी हैं राजनेताओं को खूब कोसते हैं लेकिन अपने तबादले और टुच्ची सहूलियतों के लिए उन्हीं के आगे खींसे निपोरे झुके पाए जाते हैं। क्या आपको इस पाखंड से निजात नहीं पा लेनी चाहिए। जो आपकी नजर भ्रष्ट, तिकड़मी और पतित हैं क्या उनकी गलत राजनीति को अपदस्थ करने के लिए आपको सही राजनीति नहीं करनी चाहिए। चाहे यह कितना ही असंभव सा काम क्यों न हो।
और इस वक्त में क्या आई हेट डर्टी पालिटिक्स कहना अफोर्ड किया जा सकता है?