28 जुलाई, 2011
अध्यात्म का यथार्थवाद
विपश्यना अध्यात्म का यथार्थवाद है। यहां न आत्मा है, न ईश्वर और न कोई सच्चिदान्द। ध्यान में उतरने के लिए कल्पना, मंत्र, यंत्र समेत किसी बाहरी आलंबन की जरूरत नहीं पड़ती। बुद्ध कहते हैं कि अमूर्त आध्यात्मिक ज्ञान बेकार की चीज है। ज्ञान तो वही होगा जिसे भौतिक रूप से महसूस किया जा सके, जो हमारी देह के भीतर घटित हो और जरूरत पड़ने पर उपयोग में लाया जा सके।
विपश्यना का अर्थ है खुद को विशेष तरीके से देखना। यह इन्ट्रोस्पेक्शन नहीं है जिसमें खुद को सुधारने की मंशा की मिलावट होती है। यह बस खुद को देखना है विकल्पहीन, निरपेक्ष, समभाव से। यहां दृष्टा होना है। बस दृष्टा, न ज्यादा न कम, कुछ इस तरह कि दृष्टि आंख को देखने लगे।
विपश्यना आदिम पद्धति है जो भारतीय आध्यात्मिक इतिहास में चमकती और लुप्त होती रही है। बुद्ध ने कोई ढाई
हजार साल पहले ध्यान की प्रचलित प्रणालियों से अंसंतुष्ट होकर इसे फिर से खोज निकाला था। गौतम 36 साल में बुद्ध होने के बाद के चालीस से अधिक सालों तक लोगों को विपश्यना ही सिखाते रहे। कुशीनारा में मरते वक्त भी उन्होंने एक आदमी को इसकी दीक्षा दी थी।
सबसे पहले आन अपान (पालि) का अभ्यास होता है यानि सांस के प्रवाह और संवेदन को दृष्टा भाव से महसूस करते हैं। स्थिर चित्त होने के बाद ऊपर से नीचे, नीचे से ऊपर पूरे शरीर के प्रत्येक अंग से मन को गुजारते हैं। ऐसा करते हुए वेदना (पालि-अनुभव) पर समचित्त से ध्यान केन्द्रित करते हैं। यानि न पीड़ा से बचना है न सुखानुभूति की ओर खिंचना है। हर अनुभव बस एक अनुभव है और अनिच्च (अनित्य, सतत बदलता हुआ) है जिसका निर्विकल्प दृष्टा साधक को होना है। पहले स्थूल वेदनाएं पकड़ में आती हैं फिर धीरे-धीरे सूक्ष्म संवेदन भी महसूस होने लगते हैं। संवेदनों का दृष्टा होने का अभीष्ट मन को वैरागी बनाना है जो किसी भी राग-द्वेश के प्रभाव में आए बिना जो कुछ जैसा है वैसा देखने के लायक बन सके। वैसा होने पर सब कुछ का अर्थ बदलने लगता है क्योंकि हम सामान्य तौर पर वस्तुओं, विचारों, भावनाओं और जगत के एक या दो पहलू ही देख पाते हैं। यह संपूर्णता में देखने का हुनर है।
धम्म लक्खण के विपश्यना केंद्र में नशापत्ती से सचमुच का तौबा था, दस दिन सचमुच मौन रहना था (संकेत और दूसरे किसी के साथ कदम मिलाकर चलने की भी मनाही), पंचशील का पालन करना था, एक वक्त खाना था और भोर के चार बजे से रात के नौ तक निरंतर विपश्यना के एक आचार्य के निर्देशन में वेदनाओं के स्पंदनों और तरंगों के जाल में सचेत, जागृत भटकना था। अद्भुत अनुभव था। लुप्त हो चुकी विद्रोही भाषा पालि में कैसी मिठास और कैसा संगीत है पहली बार पता चला।
मेडिटेशन और योगा आम तौर पर मध्यवर्ग के मुटाते, तनावग्रस्त अहंकारियों का चोंचला बनता जा रहा है लेकिन वहां ज्यादातर साधक गंवई, किसान और गरीब लोग थे। कुछ एक बीटेक, एमबीए के छात्र और इंटर कर रहे छोकरे भी जिन्हें बुरी आदतों से छुटकारा दिलाने के लिए भेज दिया गया था। मुझे 92 साल के मऊ जिले के दलित शिवकरन जी के साथ कमरा दिया गया था जिन्होंने कुछ दिन दिल्ली में वाचमैनी, पल्लेदारी और अधिकांश उमर खेती की थी। दो दिन पहले उनकी पत्नी मरीं थीं वे आधी सदी से भी पुराने दाम्पत्य के दुख से छूटने के लिए विपश्यना कैंप में आ गए थे।
देहात के विस्तार में कचनार वनस्पतियों पर झमाझम बारिश थी, नीलवर्णी बिजली की लपक थी और था भवतु सब्ब मंगलम की टेर पर मंथर डोलते आसमान का अनंत विस्तार जिसके लिए तरस गया था। जब धम्म हाल में हम लोग अपनी काया से मन को गुजार रहे होते थे,पास के एक एयर बेस से ट्रेनी पायलट मिग विमान लेकर आकाश का वैसा ही सर्वे करने उड़ते थे। मिग के दुर्घटना औसत को जानने के बाद, उनकी कलाबाजियां देखने का के रोमांच को सिर्फ दृष्टा की तरह महसूस करना वाकई कठिन था। अति साधारण दिखते लोगों के आध्यात्मिक अनुभव और आंतरिक संसार की छवियां विलक्षण थीं, उन पर फिर कभी...।
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और लिखें मान्यवर! इतने से काम नहीं चलेगा.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन और रोचक........
जवाब देंहटाएंक्या दिल्ली में भी कोई ध्यान शिविर लगता है. ?
मजा आया !
जवाब देंहटाएंविपश्यना, ५-७ घंटे तो चाहिए होंगे इसके लिए कमसकम | इस वीकेंड पे मैं कोशिश करता हूँ , ये वाला योग ज़रा मेरे टैप की चीज लग रही है |
जवाब देंहटाएं@ दीपक बाबा http://www.dhamma.org/ पर देखें। कई ठिकाने और हैं।
जवाब देंहटाएंहरि अनंत हरि कथा अनंता ..??
जवाब देंहटाएंye achchi cheez hai ...Richard Gere bhi karta hai !
जवाब देंहटाएंअदभुत ....लेकिन पोस्ट जल्दी खत्म हो गई
जवाब देंहटाएंani jee namskar aap is samy lhkh bnhi rhe hai kya bat hai
जवाब देंहटाएंआखिरी पैराग्राफ पढ़ने के बाद अब तीन घंटे की छुट्टी हो गई। नींद कहां आएगी। भाषा का ऐसा जादू कैसे लेकर आते हैं? अपने शब्द बेकार से लगने लगते हैं। अद्भुत।
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