सफरनामा

16 जून, 2010

जाति की गणना और जाति का धर्म

बड़ी-बड़ी मूँछों से सजे रोबदार चेहरे वाले ई.एन.राममोहन ने जब कहा कि माओवाद कुछ और नहीं जाति-दर्प की उपज है(माओइज्म इस नथिंग बट प्रोडक्ट आफ कास्ट एरोगेन्स), तो चौंकना लाजिमी था। राममोहन बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक हैं। उन्हें दंतेवाड़ा में हुए नक्सली हमले की जांच की जिम्मेदारी दी गई थी। लेकिन एक न्यूज चैनल को इंटर्व्यू देते हुए राममोहन न सैन्य तैयारियों की बात कर रहे थे, न गोला-बारूद की कमी की। वे बता रहे थे कि कैसे जाति अहंकार में डूबे समाज को माओवादी विद्रोह का दंड भुगतना पड़ रहा है। उनके मुताबिक, पहले जाति श्रेष्ठता के अहंकार में आदिवासियों को जंगलों 'में' खदेड़ा गया और अब खनिजों के लालच में उन्हें जंगलों 'से' खदेड़ा जा रहा है। नतीजा है विद्रोह।

यह जनगणना के बहाने जाति व्यवस्था को लेकर तेज हुई हालिया बहस का बिल्कुल नया आयाम है। ये बताता है कि अगर इतिहास में भारतीयों को मिली निरंतर पराजय के पीछे जाति-व्यवस्था बड़ा कारक था, तो आज 'आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे' के पीछे भी कहीं न कहीं यही व्यवस्था है। लेकिन जनगणना में जाति को गिनने या न गिनने के सवाल पर उलझे बुद्धिजीवी शायद इतना गहरे नहीं उतरना चाहते। दिलचस्प बात ये है कि दोनों ही पक्ष एक जातिविहीन समाज बनाने का झंडा उठाए हुए हैं। विरोधियों को लगता है कि जातियां गिनी गईं तो जातिवाद बढ़ेगा और जाति व्यवस्था मजबूत होगी। तो समर्थकों को लगता है कि जातियों की गिनती हुई तो तमाम विकास योजनाएं वास्तविक आंकड़ों के आधार पर चलेंगी। खासतौर पर पिछड़ी जातियों का सशक्तीकरण जाति व्यवस्था को कमजोर करेगा।

गौर से देखिए तो दोनो ही तरफ अर्धसत्य है। ऐसा नहीं है कि जाति की गणना होगी तो जाति चेतना प्रबल नहीं होगी और ऐसा भी नहीं कि पिछड़ी जातियों के सशक्तीकरण से मौजूदा व्यवस्था में कोई फर्क ही नहीं पड़ेगा। लेकिन इसे जाति-व्यवस्था के उन्मूलन से जोड़ना गलत है। ये तो तब टूटेगी जब इसके स्रोत पर प्रहार हो। जाति चूंकि (हिंदू)धर्मसम्मत है, इसलिए तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद मानसिक बुनावट का हिस्सा बनी हुई है। यहां तक कि आई.टी.क्रांति या परमाणु ऊर्जा की तकनीक से जुड़े लोगों के लिए भी ये असहज करने वाली चीज नहीं है।

ऐसा धार्मिक मान्यताओं पर अंध आस्था की वजह से है। भगवत् गीता वर्णव्यवस्था को स्वभाव से उत्पन्न गुणों का सहज विभाजन मानती है। अर्जुन को उपदेश देते हुए हुए श्रीकृष्ण कहते हैं (अध्याय 4, श्लोक 13)--- चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:। तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।। (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र-इन चारं वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान )

जब गीता जैसी धर्म-दर्शन की शिखर पुस्तक में वर्णव्यवस्था को ईश्वरीय विधान बताया गया है तो पुराणों और स्मृतियों का कहना ही क्या। इन्हीं मान्यताओं ने करोड़ों हिंदुओं के दिमाग को जड़ बना दिया है। यहां तक कि 'हिंदुत्व' का राजनीतिक दर्शन गढ़ने वाले विनायक दामोदर सावरकर जब हिंदू राष्ट्र की कल्पना करते हैं तो शूद्रों और महिलाओं के लिए शर्मनाक स्थितियों को सहज बताने वाली 'मनुस्मृति' में भविष्य की 'विधि संहिता' देखते हैं। वे लिखते हैं--' मनुस्मृति ही वह ग्रंथ है जो वेदों के पश्चात हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए अत्यंत पूज्यनीय है।... आज भी करोड़ों हिंदू जिन नियमों के अनुसार जीवन यापन तथा व्यवहार का आचरण कर रहे हैं, वे नियम तत्वत: मनुस्मृति पर आधारित हैं। मनुस्मृति ही हिंदू नियम (हिंदू लॉ ) है। वही मूल है।' (सावरकर समग्र खंड-4, पृष्ठ 415 )

इसलिए जातिविहीन समाज बनाने का मसला जाति गणना से नहीं, धार्मिक मान्यताओं से टकराने से जुड़ा हुआ है। क्या समाज में आज ऐसा कोई आंदोलन है? जाति गणना के पक्ष-विपक्ष में नारे लगा रहे लोगों के लिए वाकई यह कोई मुद्दा है? ढाई हजार साल पहले बुद्ध ने इस व्यवस्था पर गंभीर चोट की थी, लेकिन उन्हें 'क्षत्रिय कुल भूषण' और विष्णु का नवां अवतार और भगवान बताकर, एक महान बौद्धिक आंदोलन की हवा निकाल दी गई। मध्यकाल में जिन भक्त कवियों ने वर्णव्यवस्था की अन्यायी व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई, वो पिछड़ी या दलित जातियों से ताल्लुक रखने वाले निर्गुण उपासक थे। जाहिर है, शासक वर्ग ने वर्णव्यवस्था के समर्थक सगुण कवियों की आवाज को मान्यता दी। नतीजा, रामलीलाएं तो जगह-जगह होने लगीं, जबकि कबीर की जन्मकथा भी विवादों में उलझा दी गई।

वर्णव्यवस्था पर इसी विश्वास का नतीजा था कि जो लोग हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम और ईसाइयत की शरण में गए, वो साथ में जाति का जहर भी लेते गए। इस्लाम में शेख और जुलाहे का जोड़ नहीं और ईसाइयों में दलित ईसाई एक अलग कुनबा हो गया। कोई जाति को भूलना भी चाहे, तो संभव नहीं। आधुनिक काल के सर्वश्रेष्ठ हिंदू विचारक कहे जाने वाले स्वामी विवेकानंद जब विदेश में डंका बजा रहे थे तो गैरब्राह्णण होने की वजह से, धर्म की व्य़ाख्या करने के उनके अधिकार पर सवाल उठाया गया। आखिरकार जाति प्रथा को बुराई मानने वाले विवेकानंद को भी अपनी कायस्थ जाति की डुगडुगी बजानी पड़ी। विदेश यात्रा से लौटकर मद्रास की सभा में उन्होंने कहा--- 'मैं उन महापुरुष का वंशधर हूं, जिनके चरणकमलों पर प्रत्येक ब्राह्मण 'यमाय धर्मराजाय चित्रगुप्ताय वै नम:' उच्चारण करते हुए पुष्पांजलि प्रदान करता है, और जिनके वंशज शुद्ध क्षत्रिय हैं।' (विवेकानंद साहित्य, पंचम खंड, पृष्ठ 106)

तब जातिविहीन समाज कैसे बनेगा? स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इस बात पर गांधी जी ने इस पर गंभीर विचार किया था। लेकिन उनकी गाड़ी अस्पृश्यता निवारण पर रुक गई थी। वे अपने धार्मिक आग्रहों की वजह से ही वर्णव्यवस्था को नष्ट करने का आह्वान नहीं कर सके। इस मामले में डा.लोहिया के विचार ज्यादा क्रांतिकारी थे। उन्होंने अपने मशहूर लेख "हिंदू बनाम हिंदू" में लिखा है---'जिस दिन द्विज और शूद्र की शादी को सरकारी नौकरियों और पलटन में भरती के लिए एक योग्यता मान ली जाएगी, और साथ में बैठकर खाने से इंकार करने वालों को इन नौकरियों से निकाल दिया जाएगा, इस दिन वर्णों के खिलाफ लड़ाई शुरू होगी। वह दिन आना अभी बाकी है।'

लेकिन नेहरू की सरकार 'कुजात गांधीवादी' डा.लोहिया की बात क्यों सुनती। बल्कि राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद ने तब बनारस के घाट पर सैकड़ों ब्राह्मणों का खुलेआम पैर धोकर एक तरह से वर्णव्यवस्था को नए सिरे से वैधता दे डाली थी। यही वजह है कि डा.अंबेडकर ने तमाम शुरुआती कोशिशों के बाद समझ लिया था कि हिंदू धर्म में रहते जाति के अभिशाप से मुक्त होना असंभव है। उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। लेकिन विडंबना देखिए, सवर्ण समाज के बीच किसी के बौद्ध होने का मतलब ही दलित होना हो गया है। धर्म बदल गया पर जाति के नजरिये में फर्क नहीं आया। यहां तक कि डा.अंबेडकर की चौराहे-चौराहे मूर्ति खड़ा करने में मशगूल बहुजन आंदोलन अब जातियों को बनाए रखने में फायदा देख रहा है। जातियों का गठजोड़ बनाकर सत्ता तक पहुंचने का सफल प्रयोग करने वाले परशुराम जयंती मनाने और हाथी को गणेश बताने में जुटे हैं।

इसलिए जातिविहीन समाज बनाने का सवाल आरक्षण या जनगणना के दायरे के बाहर की चीज है। इसके लिए सामाजिक और आर्थिक आधार पर बड़ी रेखा खींचने वाले आंदोलन की जरूरत है, जो जाति व्यवस्था को वैध बताने वाले स्रोतों को ही सुखा दे। भारतीय जनता के कंधे पर ये एक ऐतिहासिक कार्यभार है, क्योंकि वर्ण चेतना का अंत किए बिना मनुष्यता अपने उत्कर्ष पर नहीं पहुंच सकती। रैदास ने बड़े मार्के के बात कही थी---'जात-जात में जात है, जस केलन के पात..रैदास न मानुष बन सकै जब तक जात न जात।'