सफरनामा

09 दिसंबर, 2009

'लव जिहाद' बनाम प्रेम की चिनगी!

लव जिहाद !....अंग्रेजी और अरबी लफ्जों को मिलाकर बनाया गया एक शब्द-बम। इस बम में बारूद नहीं जहर था। पिछले कुछ महीनों में बड़ी तैयारी के साथ जगह-जगह इसे फोड़ा गया। ये बम छापेखानों की स्याही में घुलकर अखबार के पन्नों पर फैल गया। चैनलों के न्यूज रूम की नकली फर्श के नीचे उलझे पड़े तारों में जहर भरते हुए, ये बम सीधे आकाश में टंगे उपग्रहों से टकराया, और बुद्धू बक्सों के जरिये धमाका करने लगा। चौराहे पर खड़ी चेतना को इसने एक झटके में राख कर दिया।

ये कमाल था संघ परिवार की प्रचार मशीनरी का। धमाका ये बताने के लिए था कि हजारों की तादाद में हिंदू लड़कियों को मुसलमान बनाने के लिए जिहाद छिड़ गया है। संगठित योजनाबद्ध अभियान। मुस्लिम नौजवान भोली-भाली हिंदू लड़कियों को "फंसाते" हैं और फिर उनसे शादी करने के नाम पर इस्लाम कुबूल करने के लिए मजबूर कर देते हैं। बाद में इन लड़कियो की जिंदगी नरक बना दी जाती है। संघ परिवार की इस 'सुरसुरी' से न्यायालय की दीवारें भी कांप गईं। अदालतों ने पुलिस को बाकायदा निर्देश दिया कि इस साजिश की छानबीन की जाए।

दरअसल केरल हाईकोर्ट के सामने एक ऐसा मामला आया था जिसमें एक हिंदू लड़की ने मुस्लिम लड़के से शादी की थी। लड़की के घरवालों ने अपहरण का आरोप लगाया था जिसके बाद हाईकोर्ट ने लड़की को मां-बाप के पास भेज दिया था। एक हफ्ते बाद उस लड़की ने अदालत के सामने बयान दिया कि ब्रेनवाश करने के लिए उसे जिहादी सीडी दिखाई गई थी। इस बयान के बाद अदालत ने पुलिस को लव जिहाद के राष्ट्रव्यापी तंत्र का पता लगाने का निर्देश दे दिया।

इसके बाद तो मंजर वाकई देखने लायक था। समाचार माध्यमों ने ऐसी-ऐसी कथा गढ़ी कि जासूसी नावेल लिखने वाले फेल नजर आने लगे। कोई इस 'जिहाद' का सिरा तलाशते तलाशते अलकायदा तक पहुंच गया तो कोई पाक के नापाक इरादों तक। हालांकि इस कहानी में झोल ही झोल थे, लेकिन सवाल करने वालों के मुंह पर ताले जड़ दिए गए थे। महाराष्ट्र में कांग्रेस-एनसीपी की 'सेक्युलर' सरकार ने मुस्लिम लड़के और हिंदू लड़की वाली हर शादी की जांच का इरादा बना लिया।

'लव जिहाद' का नारा बुलंद करने वाले खुद को धर्मयोद्धा समझते हैं। लेकिन उनकी थीसिस, खासतौर पर हिंदू लड़कियों के लिए बेहद अपमानजनक है। उनके सिद्धांत को मान लेने का मतलब है कि हिंदू लड़कियां किसी से भी आसानी से "फंस" सकती हैं। शादी के नाम पर उन्हें कोई भी बरगला सकता है। वे ये भी नहीं देखतीं कि सामने वाले के इरादे क्या हैं, वो प्रेम के काबिल है भी कि नहीं, बस प्रेम कर बैठती हैं। शादी करने के लिए झट से इस्लाम कुबूल कर लेती हैं।

चलिए, थोड़ी देर के लिए मान लीजिए कि दुनिया में कोई आंतकी ट्रेनिंग कैंप ऐसा भी है जो बंदूक से नहीं 'लव' के जरिए जिहाद की तरकीब सिखाता है। अब ये कैंप या तो सीमा पार होगा या फिर किसी बड़े मजहबी इदारे में। वहां से निकले जिहादी को 'लव' करना है। ऐसे में वो कहां जाएगा? ऐसे शख्स के आसपास हिंदू लड़की तो छोड़िए, हिंदू लड़के भी नहीं होंगे। जब संपर्क ही नहीं रहेगा तो संवाद कैसे होगा। और जब संवाद नहीं होगा तो 'लव' के हालात कैसे बनेंगे?

लेकिन धर्मयोद्धाओं के लिए प्रेम में लड़की की इच्छा का क्या मतलब। उन्हें लगता है कि जिहादी के एक इशारे पर हिंदू लड़की मर मिटने को मजबूर हो जाएगी। गोया उसके दिमाग में भूसा भरा होता है। जाहिर है प्रेम इतनी आसान चीज नहीं है। ऐसा संभव नहीं कि कोई जब चाहे, जहां चाहे, जिससे चाहे प्रेम कर सकता है।

अब जरा प्रेम को लेकर भारतीय समाज का हाल देखिए। खाप पंचायतों के फैसले बताते हैं कि जाति तोड़कर शादी करने वालो को क्या दंड मिल सकता है। खैर जाति तो फिर भी लोग तोड़ देते हैं, लेकिन धर्म! आसपास नजर डालिए, धर्म की दीवार को गिराकर आशियाना बनाने वाले दो-चार ही नजर आएंगे। ऐसे हिंदू लड़के भी नजर आएंगे जिन्होंने मुस्लिम लड़की से शादी की है। जाहिर है, प्रेम का आधार बेहद पुख्ता होने पर ही धर्म की दीवार टूटती है। वरना 'मलेच्छ' और 'काफिर' का क्या मेल?

'काफिर' किसी 'म्लेच्छ' को मन-मंदिर में बैठा ले, या कोई 'म्लेच्छ' किसी 'काफिर'में खुदा का नूर देखने लगे, ये किसी षड़यंत्र का नतीजा नहीं हो सकता। ऐसा करने वाले नि:संदेह वहां पहुंचते हैं जहां "दुइ" की गुंजाइश नहीं बचती (प्रेम गली अति सांकरी, जामे दुइ न समाय)। बचपन से कूट-कूट कर भरे गए संस्कारों से मुक्त होकर ही कोई इस हालत में पहुंच सकता है। इस प्रक्रिया में तो कोई आतंकवादी भी इंसान बनने के लिए मजबूर हो जाएगा। ( आमिर खान की फिल्म 'फना' याद कीजिए!)

साफ है कि 'लव जिहाद' के नाम पर तिल का ताड़ बनाया गया। वो भी खास राजनीतिक मकसद से। वैसे, इस साजिश की पर्तें अब खुल गई हैं। केरल के डीजीपी ने केरल हाईकोर्ट को तमाम पड़ताल के बाद बताया है कि 'लव जिहाद' को लेकर किसी राष्ट्रव्यापी षड़यंत्र के सुबूत नहीं मिले। कर्नाटक में भी अनिता हत्याकांड की सच्चाई सामने आ गई है। पुलिस तफ्तीश में साफ हुआ है कि 22 साल की अनिता की हत्या मोहन कुमार नाम के एक सीरियल किलर ने की थी। संघ परिवार के संगठनों ने इस हत्याकांड को 'लव जिहाद' का हिस्सा बताते हुए हंगामा किया था।

रही बात केरल हाईकोर्ट में जिहादी सीडी दिखाने वाले बयान की, तो याद रखने की बात है कि वो लड़की अपने अभिभावकों के दबाव में थी। वो उसी राह पर गई जिस पर नितीश कटारा केस में भारती यादव गई या फिर रिजवान-उर- रहमान मामले में प्रियंका तोड़ी। वैसे, अंतरधार्मिक प्रेम संबंधों का असफल होना भी उतनी ही स्वाभाविक बात है, जितना किसी सजातीय, सधर्मी प्रेमसंबंध का असफल होना या फिर घर से तय की गई शादी का टूटना।

बहरहाल, 'लव जिहाद' प्रकरण ने भारतीय समाज की तमाम पर्तें एक झटके में हटा दीं। आखिर मीडिया, पुलिस और कानून के गलियारों में ऐसे सांप्रदायिक विषवमन को तरजीह क्यों दी गई। ये बताता है कि सांप्रदायिक और मर्दवादी सोच का असर कितना गहरा है। 'लव जिहाद' और कुछ नहीं, स्त्रियों के चुनाव के अधिकार पर एक और हमला है। उनकी स्वतंत्रता को बर्दाश्त न कर पाने वालों की झल्लाहट है। प्रेम से डरे हुए लोगों की कुंठा का विस्फोट है।

पद्मावत में जायसी फरमा गए हैं.....मोहमद चिनगी प्रेम कै सुनि महि, गगन डराइ / धन बिरही और धन हिया, जहं अस अगनि समाइ।

04 नवंबर, 2009

नक्सली हिंसा और भीष्म पितामह का उपदेश!

आईबीएन7 पर संवाददाता एहेतशाम खान की दिल दहला देने वाली खबर चल रही थी। ये कहानी भूख और बीमारी के कहर में लिपटे झारखंड के गढ़वा जिले के आदिवासियों की थी। मिराल ब्लाक के गांव टेटुका कलां के साठ पार के बूधन भुइयां कांपती आवाज में बता रहे थे कि उनके दो नौजवान बेटे परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाने की जद्दोजहद में भरी जवानी मौत का शिकार बन गए। भूख ने शरीर को इस कदर तोड़ दिया था कि घात लगाए बैठी बीमारियों का हमला बर्दाश्त नहीं हुआ। बूधन की एक-एक अंतड़ी टी.वी के पर्दे पर चमक रही थी। तन पर बस लाज ढकने भर का कपड़ा था। बता रहे थे कि किसी तरह मक्के का जुगाड़ हो पाता है। वो भी रोज नहीं। सरकारी मदद का कोई चेहरा आसपास नजर नहीं आता। हताश बूधन जैसे भविष्यवाणी कर रहे थे—‘इसी तरह एक दिन हम भी मर जाएंगे’

अचानक याद आया कि गढ़वा तो माओवादियों के असर वाला जिला माना जाता है। यानी जिस दिन माओवादी टेटुका कलां में एक बैनर टांग देंगे या बूधन भुइयां चुपचाप मरने के बजाय हालात से लड़ने की बात करने लगेंगे, भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हो जाएंगे। सुरक्षा बलों की गोलियां बूधन को निशाना बनाने के लिए आजाद होंगी और सवाल उठाने की इजाजत नहीं होगी। आजादी के 62 साल बाद आदिवासियों की यही नियति है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि माओवादी हौव्वे के पीछे शासक वर्ग की आपराधिक नाकामी को छिपाने की नीयत है। आंकड़े बताते हैं कि आजादी के बाद की तमाम विकास परियोजनाओं के नाम पर पांच करोड़ से ज्यादा आदिवासियों को विस्थापित किया गया। जल-जंगल-जमीन पर उनके अधिकार को कानून बनाकर छीन लिया गया पर कहीं से आवाज नहीं आई। ये संयोग नहीं कि जिसे माओवादियों का लाल गलियारा कहकर प्रचारित किया जाता है, वो दरअसल, भारत का आदिवासी बहुल क्षेत्र है। जिसकी जमीन के नीचे विशाल खनिज संपदा दबी पड़ी है। दुनिया की तमाम कंपनियों की इस पर नजर है। सरकार से वे समझौता भी कर चुकी हैं। उन्हें जमीन चाहिए। कीमत आदिवासियों को चुकानी पडे़गी। यहां सरकारी विकास योजनाओं का दूसरा मतलब आदिवासियों को उनकी जमीन से खदेड़ना है।

मेरे सामने 13 सितंबर 1946 को संविधान सभा में दिया गया कैप्टन जयपाल सिंह का भाषण है- "अगर भारतीय जनता के किसी समूह के साथ सबसे बुरा व्यवहार हुआ है तो वो मेरे लोग (आदिवासी) हैं। पिछले छह हजार सालों से उनके साथ उपेक्षा और अमानवीय व्यवहार का ये सिलसिला जारी है। मैं जिस सिंधु घाटी सभ्यता की संतान हूं, उसका इतिहास बताता है कि बाहरी आक्रमणकारियों ने हमें जंगलों में रहने के लिए मजबूर किया। हमारा पूरा इतिहास बाहरियों के शोषण और कब्जे से भरा है जिसके खिलाफ हम लगातार विद्रोह करते रहे। बहरहाल, मैं पं.नेहरू और आप सब के इस वादे पर भरोसा करता हूं कि हम एक नया अध्याय शुरू कर रहे हैं। ऐसा भारत बनाने जा रहे हैं जहां सभी को अवसर की समानता होगी और किसी की भी उपेक्षा नहीं की जाएगी। "

कैप्टन जयपाल सिंह ऐसा नाम नहीं है जिसे भुला दिया जाए। 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक में भारत को हॉकी का पहला स्वर्णपदक जिस टीम ने दिलाया था, जयपाल सिंह उसी के कैप्टन थे। बाद में बतौर आदिवासी नेता मशहूर हुए और संविधान सभा के सदस्य चुने गए। उनके इस भाषण में 1855 के संथाल विद्रोह, 1890 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए 'उलगुलान' और 1911 के बस्तर विद्रोह की गूंज है। ये बताता है कि हजारों साल के दमन के खिलाफ विद्रोह की इस परंपरा को इस आशा से स्थगित किया गया था कि आदिवासियों को बेहतर जिंदगी नसीब होगी।

पर अब आदिवासी इस युद्धविराम को तोड़ रहे हैं। इसके साथ ही वे रातो-रात माओवादी घोषित कर दिए गए हैं जो इस देश की सत्ता पर कब्जा करने के लिए हथियारबंद हो रहे हैं। अजब तस्वीर सामने है। पिछले दिनों राजधानी एक्सप्रेस के बहुप्रचारित हाईजैक (हालांकि ट्रेन कहीं और नहीं ले जाई गई। तीर-कमान के बल पर ट्रेन वैसे ही कुछ घंटे रोके रखी गई जैसे देश की सभी पार्टियां देश के हर हिस्से में अपने आंदोलन के दौरान करती है) का अंत पैन्ट्री कार में रखा दाल चावल और कंबल लूटे जाने के साथ हुआ। यानी अलकायदा से लेकर लिट्टे तक से हथियार जुटा रहे माओवादियों के पास दाल चावल और कंबल नहीं है। ये गजब का रूपक है। ‘राजधानी’ के खाने पर भूखे-नंगे लोग हथियार लेकर टूट पड़े हैं।

वाकई ये युद्द है, जिसे चिदंबरम साहब हर हाल में जीतना चाहते हैं। पर दिक्कत ये है कि इस युद्ध के लिए वो जो तर्क दे रहे हैं, वो सिक्के का बस एक पहलू दिखाते हैं, और खराब नीयत का सुबूत हैं। उनका सबसे बड़ा तर्क है हिंसा का, जिसके लिए माओवादी बदनाम हैं, और लोकतंत्र का, जिसे माओवादी खत्म कर देना चाहते हैं।

पहले बात हिंसा की। महावीर, बुद्ध और उनके ढाई हजार साल बाद गांधी जी ने भारतीय समाज में अहिंसा के मंत्र को जोरदार ढंग से फूंका। लेकिन जनता के बीच न्याय के लिए हुई हिंसा कभी भी त्याज्य नहीं मानी गई। हिंदुओं का एक भी देवता ऐसा नहीं है जिसके पास कोई विशिष्ट हथियार न हो। ये देवता अपने हथियार से अक्सर किसी असुर का गला काटते नजर आते हैं। और मुसलमानों के लिए कर्बला की लड़ाई हमेशा ही जीवनदर्शन रही है। इसी तरह गांधी के जवाब में बम का दर्शन लिखने वाले भगत सिंह का नाम आते ही आज भी भारतीयों का खून गर्म हो जाता है। यानी हिंसक कह देने भर से आदिवासी समुदाय माओवादियों से दूर नहीं होंगे। लोकतंत्र के पहरुओं को साबित करना होगा कि उनकी व्यवस्था हिंसा से रहित है। वे संगीनों के जरिए आदिवासियों को उजाड़ने के लिए जंगल नहीं पहुंचे हैं। बल्कि उनकी जिंदगी बेहतर करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

वैसे भी, न्याय के लिए हिंसा का सहारा लेने के लिए भारतीयों को मार्क्स, लेनिन या माओ पढ़ने की जरूरत नहीं पड़ी। जरा महाभारत के शांतिपर्व के इस श्लोक पर ध्यान दीजिए। सरशैया पर पड़े भीष्म राजकाज का गुर सीखने गए युधिष्ठिर से कहते हैं—

“ अहं वो रक्षितेत्युक्त्वा यो न रक्षति भूमिप:
स संहत्य निहंतव्य: श्वेन सोन्माद आतुर:”

(जो राजा प्रजा से कहता है कि मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा, किंतु नहीं करता, वह पागल औऱ बीमार कुत्ते की तरह सारी जनता द्वारा मार डालने लायक है)

समझा जा सकता है कि महाभारत को घर में न रखने की बात क्यों प्रचारित की गई थी। शासक वर्ग ऐसी बातों से डरता है। इसका मतलब ये नहीं कि हिंसा किसी समस्या का समाधान है। लेकिन अन्याय के रहते अहिंसा की कल्पना वैसे ही है जैसे आग के निकट ताप न होने या पानी पड़ने पर गीला न होने की कल्पना।


ऐसा ही मसला लोकतंत्र का भी है। लाल गलियारे में रहने वाले आदिवासियों के लिए लोकतंत्र का वही मतलब नहीं है जो महानगरों के सुरक्षित खोहों में रहने वालों के लिए है। जो बार-बार अपनी जमीन से खदेड़े जाते हों, जिनकी स्त्रियों के खिलाफ बलात्कार की घटनाओं की गिनती न हो सके और जिनके बच्चों को दूध और दवा के अभाव में हर पल तड़पना पड़े, वे इस लोकतंत्र को आनंदवन कभी नहीं मानेंगे।

और जब देश की सभी राजनीतिक पार्टियां उनके मुद्दे पर खामोश हों तो वो क्या करें। हद तो ये है कि बौद्धिकों का एक तबका इसे विकास की स्वाभाविक परिणति मान रहा है। आखिर उनके सपनों के देश अमेरिका की महान सभ्यता रेड इंडियनों के संहार पर ही रची गई थी। वे आदिवासियों की समस्याओं पर कंधे उचकाने के अलावा कुछ नहीं करते। उनके लिए समस्या तभी है जब आदिवासी मरने-मारने पर आमादा हो जाएं। आदिवासी जीवन की अमानुषिक तस्वीर उनके लिए कोई समस्या नहीं है। उनके लिए कारण नहीं, परिणाम ही महत्वपूर्ण है। वे इस सवाल से तो खासतौर पर चिढ़ते हैं कि माओवादी जिस स्थिति का फायदा उठा रहे हैं उसका निर्माता कौन है?

खैर, अभी-अभी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बयान आया है कि माओवादियों का दिल जीतने की जरूरत है। तो क्या चिदंबरम का युद्ध सिद्धांत पलटा जाएगा..। ये आसान नहीं है, क्योंकि यहां भी दिल जीतने का रास्ता पेट से होकर गुजरता है। और आदिवासियों का पेट भरना?...बाप रे बाप...सरकारों से क्या-क्या तो उम्मीद की जाती है!

05 अक्तूबर, 2009

विदर्भ के किसानों की शहादत और वोटतंत्र

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव के सिलसिले में विदर्भ में मौजूद आईबीएन7 के वरिष्ठ संवाददाता नीरज गुप्ता ने बताया है कि किसानों की खुदकुशी चुनाव में कोई मुद्दा नहीं है। चुनाव उन्हीं सारे छल-छंद में रंगा है जो भारतीय लोकतंत्र की खासियत माने जाते हैं। यानी खेती के मोर्चो पर खेत रहे किसानों का भूत नेताओं की नींद खराब नहीं कर रहा है। यूं भी, हमारे नेताओं को असल मुद्दों को दफनाने में महारत हासिल है। जनता की बेजारी ने उनका काम आसान कर दिया है, जो फिलहाल छोटे पर्दे में विराजतीं सास-बहुओं के चिंताकुल चेहरों का जायजा लेने में मुब्तला है और जब फुर्सत मिलती भी है तो कभी राजू श्रीवास्तव का गब्बर छेक लेता है, तो कभी राखी की स्वयंवरित परेशानियां।

पता नहीं, दुनिया का कौन सा ऐसा महाबली देश (आजकल भारत को महाशक्ति कहने का फैशन है) होगा जहां हजारों किसानों की खुदकुशी से राज और समाज इस तरह बेजार रह सकता है। वैसे, इसका आभास तो महीने भर पहले मुझे भी मिला था जब मैं विदर्भ का हाल देखने पहुंचा था। यवतमाल जिले में तुकाराम राठौड़ से हुई मुलाकात याद आ रही है। बोथबोड़न गांव के तुकाराम ने अगर अब तक खुदकुशी नहीं की है तो इसका श्रेय उनकी दारूबाजी को है। विदर्भ का ये जिला किसानों की खुदकुशी के लिए बदनाम है, और जिला मुख्यालय से बमुश्किल 20 किलोमीटर दूर बोथबोड़न गांव खुदकुशी के मामले में अव्वल। यहां 17 किसान खुदकुशी कर चुके हैं। कर्ज में डूबे तुकाराम जब देशी ठर्रे के दो-चार घूंट हलक से नीचे उतार लेते हैं तो कुछ घंटों के लिए उनके सारे दुख दूर हो जाते हैं। यवतमाल, वर्धा जिला से सटा हुआ है। वही वर्धा, जहां गांधी जी ने सेवाग्राम की स्थापना की थी और जो जीवन के आखिरी 12 सालों में उनका स्थायी पता था। लेकिन वर्धा समेत पूरे विदर्भ में शराब को लेकर वही रुख है जो राष्ट्रीय स्तर पर गांधी जी के ग्राम स्वराज को लेकर है।

तुकाराम की कहानी विदर्भ में खदबदा रही मौत की हांडी के एक चावल की तरह है। कुछ साल पहले तक उनके पास 26 एकड़ जमीन थी। पर अब वे साहूकार के हाथ अपनी 13 एकड़ जमीन गंवा चुके हैं। उन्होंने कुछ साल पहले खेती की जरूरतों को पूरा करने के लिए कर्ज लिया था जिसे वे उतार नहीं सके। शर्तनामे के मुताबिक मियाद बीतते ही उनकी जमीन पर साहूकार के गुंडे काबिज करने पहुंच गए। देखते-देखते अपनी हैसियत में आई ऐसी गिरावट को बरदाश्त नहीं कर पा रहे तुकाराम के दिमाग में कई बार खुदकुशी का ख्याल आया। लेकिन उन्होने कीटनाशक की जगह ठर्रे की बोतल को ओंठ से लगा लिया। अब वे रोजाना बहकते कदमों से पूरे गांव में चक्कर लगाते रहते हैं। साहूकार और सरकार के लिए उनके मुंह से मुसलसल गालियां झड़ती हैं जिसे लोग शराबी की बड़बड़ाट कहकर टाल देते हैं।


कहते हैं कि विदर्भ कृष्ण की पटरानी रुक्मिणी का मायका है और कालिदास के मेघदूत पर भरोसा करें तो यक्षों और गंधर्वों का निवास स्थान। लेकिन कभी धन-धान्य से भरपूर विदर्भ की हवा में श्मशान की गंध भरी हुई है। आंकड़े बताते हैं कि बीते आठ सालों में विदर्भ के छह जिलों में करीब छह हजार किसानों ने खुदकुशी की है। वजह है कर्ज। प्रेमचंद के किस्सों में आजादी के पहले के किसानों के मजदूर बनने का जो दर्द मिलता है, वो विदर्भ में छितराया पड़ा है। तुकाराम के पास 26 एकड़ जमीन थी। उत्तर भारत में इतनी जमीन वाले को जमींदार कहा जाता है। लेकिन विदर्भ में इसका कोई खास मतलब नहीं। मिट्टी में उपजाऊ पन कम है। सिंचाई की सुविधा सिर्फ तीन फीसदी इलाके में है। बारिश के पानी के मोहताज किसानों ने जितना हो सकता था, डीजल इंजनों से धरती के अंदर जमा जल निकाल लिया है। फिर भी ले-देकर खरीफ की ही फसल हो पाती है। लेकिन ज्यादा मुश्किल तब से बढ़ी है जब से लोग महंगी खेती के चक्कर में फंसे हैं। खासतौर पर बीटी काटन की खेती ने उन्हें कर्ज के दुश्चक्र में डाला है।

विदर्भ में कपास की खेती सदियों से होती रही है। लेकिन कुछ सालों से यहां बीटी काटन का प्रचार हुआ है। कहा गया कि जैव तकनीक से विकसित बीजों से पैदा हुई कपास में कीड़े नहीं लगेंगे और पैदावार भी ज्यादा होगी। शुरू में ऐसा होता दिखा भी। लेकिन किसान पारंपरिक बीजों से हाथ धो बैठे। हर बार कंपनी का बीज उन्हें लेना पड़ता है। एक एकड़ में डेढ़ किलो बीज लगता है जिसकी कीमत 1500 रुपये है। इसके अलावा तीन बोरी रासायनिक खाद लगती है जिसकी कीमत होती है 1650 रुपये। बीज डालने से लेकर घास निकालने तक में खर्च होते हैं 6000 रुपये। कीटनाशकों पर 750 रुपये का खर्च आता है और कपास चुनने में करीब 2000 रुपये खर्च होते हैं। यानी एक एकड़ में लागत पड़ जाती है 11850 रुपये। इसमें सिंचाई का खर्च शामिल नहीं है। यानी औसतन 12000 रुपये प्रति एकड़ का खर्च आ रहा है। और अच्छे किस्म के कपास का न्यूनतम समर्थन मूल्य है 3000 रुपये प्रति क्विंटल। यानी चार क्विंटल पैदावार हो तो किसान की लागत निकलेगी। पर दिक्कत ये है कि लागत बढ़ती जा रही है और सरकारी खरीद की जगह बिचौलिये ज्यादा सक्रिय हैं। उधर सूखे की मार से फसल अक्सर खराब हो जाती है। लागत बढ़ रही है और पैदावार साल दर साल घट रही है। नतीजा बार-बार नुकसान।


विदर्भ के किसानों से मिलकर यही लगा कि उनकी जिंदगी ही कर्ज है। हर अगली फसल के लिए कर्ज लेने को मजबूर। शादी-विवाह या त्योहारों के लिए भी वो कर्ज पर निर्भर हैं। और जब बैंक या साहूकार का दबाव बढ़ता है तो वे चुपचाप कीटनाशक पीकर जिल्लत की जिंदगी से विदा ले लेते हैं। दिलचस्प बात ये है कि सरकार बीच-बीच में कर्जमाफी की जो लोकलुभावन घोषणा करती है, उसका कोई खास लाभ किसानों को नहीं मिलता। कई बार उन्हें पिछला कर्ज चुकाने पर माफी मिलती है तो कई बार दो एकड़ खेती वाले किसानों को ही ये सुविधा मिलती है। जबकि खराब जमीन की वजह से न्यूनतम पांच एकड़ खेती होना आम बात है।


वैसे, अगर बिजली पानी सड़क को ही विकास का पैमाना माना जाए तो विदर्भ का दुख समझना मुश्किल है। उत्तर भारत की तुलना में वहां के गांवों में पीने के पानी के लिए टंकियों की बेहतर व्यवस्था है। सड़कों और पक्की गलियों का जाल है और बिजली भी तुलनात्मक रूप से ज्यादा मिलती है। लेकिन कर्ज में डूबे किसानों का आत्मविश्वास टूट चुका है। दूसरी तरफ किसी भी राजनीतिक दल की चिंता में ये मसला नहीं रह गया है। विदर्भ जनांदोलन समिति जैसे कुछ संगठन जरूर ये मुद्दा उठाते रहते हैं लेकिन हाशिये का ये हस्तक्षेप बड़ा स्वरूप ग्रहण नहीं कर पा रहा है। कभी-कभी तो लगता है कि विदर्भ के किसान खुदकुशी नहीं कर रहे हैं, शहादत दे रहे हैं। वे जान देकर हमें चेताना चाहते हैं कि देश को खेती और किसानों के बारे में नए सिरे से सोचना होगा। वे विकास के मौजूदा मॉडल पर बलि होकर देश की नाभिस्थल कहे जाने वाले विदर्भ में जीवन जल के सूखने की मुनादी कर रहे हैं।


लेकिन ये मुनादी मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था सुनने को तैयार नहीं। विकास के सारे हो हल्ले के बीच किसानों का दर्द गायब है। ये विकास की नई परिभाषा है जो देश की बहुसंख्यक जनता को नहीं, 10-15 फीसदी उपभोक्ता वर्ग को ध्यान में रखकर गढ़ी गई है। विदर्भ में फैली चितागंध पर इत्र छिड़कर एक बार फिर मंच सजा दिया गया है। माइक-माला, खान-पान-गुणगान, सब जारी है। इस उत्सव को देखकर सर्वेश्वर बार-बार याद आते हैं, जिन्होंने कभी लिखा था-



अगर तुम्हारे घर के एक कमरे में लाश पड़ी हो,

तो क्या तुम दूसरे कमरे में सो सकते हो..

अगर हां !...

तो मुझे तुमसे कुछ नहीं कहना....।

14 सितंबर, 2009

हिंदी दिवस पर 'कितने प्रतिशत भारतीय'...

सलमान खान को 'दस का दम' में जब पहली बार 'कितने प्रतिशत भारतीय' कहते देखा, तो जरा चौंका था। आजकल जिस तरह तत्सम् शब्दों के प्रति हिकारत का भाव है, उसे देखते हुए 'फीसदी' और 'हिंदुस्तानी' कहना कहीं बेहतर होता। लेकिन फिर विचार करने पर लगा कि कार्यक्रम निर्देशक का ये सुचिंतित फैसला होगा। वो चाहता है कि 'दस का दम' गैर हिंदी क्षेत्र में भी सराहा जाए। और इसमें क्या शक कि तत्सम् शब्दों की पहुंच तद्भव की तुलना में ज्यादा है, क्योंकि तमिल जैसे अपवाद को छोड़ दें तो ज्यादातर क्षेत्रीय भाषाएं संस्कृत से उपजी हैं।

तमाम दूसरे लोगों की तरह मैं भी उर्दू-हिंदी के मेल से बनी हिंदुस्तानी जुबान का शैदाई हूं। ये जुबान कानों में मिठास घोलती है। लेकिन अगर ये 'कान' मेरा न होकर लखनऊ, अलीगढ़, इलाहाबाद के घेरे से बाहर रहने वाले किसी शख्स का हो तब? क्या उसमें भी ऐसी ही मिठास घुलेगी?..जाहिर है, पूरे देश से संवाद के लिए ऐसी हिंदी बनानी होगी जिसकी अखिल भारतीय व्याप्ति हो। और ऐसा करते हुए हमें तत्सम् शब्दों की मदद लेनी ही पड़ेगी। यही नहीं, क्षेत्रीय भाषाओं से भी शब्द लेकर हिंदी का भंडार बढ़ाना पड़ेगा। ऐसा करना अखबारों के लिए जरूरी नहीं, क्योंकि वे किसी क्षेत्र विशेष को ध्यान में रखकर निकाले जाते हैं। उनकी भाषा में क्षेत्रीय बोली की छौंक भी चाहिए, लेकिन टेलीविजन जैसे माध्यम के लिए ये बात ठीक नहीं, जो एक साथ पूरे देश में देखा जाता है। फिर चाहे वे मनोरंजन चैनल हों या न्यूज चैनल।

वैसे, भाषा के संबंध में कोई हठी नजरिया ठीक नहीं है। शुद्दतावाद के आग्रह का वही नतीजा होगा जो संस्कृत के साथ हुआ (संसकीरत है कूपजल, भाखा बहता नीर)। किसी भी भाषा का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें दूसरी भाषाओं के शब्दों को पचाने की क्षमता किस हद तक है। ऐसा करने से उसका शब्द भंडार बढ़ता है। लेकिन अफसोस कि बात ये है कि उर्दू से लेकर अंग्रेजी शब्दों को हिंदी में समो लेने के आग्रही लोग संस्कृतनिष्ठ या तत्सम् शब्दों के आने से मुंह बिचकाने लगते हैं। शायद उन्हें ये जानकारी नहीं कि संविधान में नए हिंदी शब्दों के लिए संस्कृत की ओर देखने का स्पष्ट निर्देश है। उसके पीछे भी हिंदी को अखिल भारतीय स्तर पर स्वीकार्य बनाने की समझ थी।

अखबारो और न्यूज चैनलों में इन दिनों अंग्रेजी शब्दों पर बड़ा जोर है। सामान्य प्रवाह में ऐसे शब्दों का आना कतई गलत नहीं। लेकिन आजकल ऐसे कठिन अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल का आग्रह बढ़ रहा है जिनके बेहद आसान पर्याय उपलब्ध हैं। वे अगर तत्सम हैं तो भी अंग्रेजी शब्दों से आसान हैं। जरा ध्यान दीजिए..आजकल इन्फ्रास्ट्रक्चर शब्द का बड़ा चलन है जबकि 'बुनियादी ढांचा' जैसा शब्द उपलब्ध है। आखिर साइकोलाजी (मनोविज्ञान), ग्लोबलाइजेशन (भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण),सिक्योरिटी (सुरक्षा),फाइटर प्लेन (लड़ाकू विमान), बार्डर लाइन (सीमा रेखा), लाइन आफ कंट्रोल (नियंत्रण रेखा), गल्फ कंट्रीज (खाड़ी देश) युनाइटेड नेशन्स (संयुक्त राष्ट्र), कोआपरेटिव (सहकारी), कारपोरेशन (निगम) का इस्तेमाल क्यों किया जाए। होना तो ये चाहिए कि अगर अंग्रेजी और हिंदी के दो कठिन शब्दों में चुनना हो तो तरजीह हिंदी शब्द को दी जानी चाहिए। कठिन और सरल का संबंध व्यवहार से है। एक जमाने में 'आकाशवाणी' शब्द भी कठिन रहा होगा लेकिन धीरे-धीरे ये गांव-गांव आल इंडिया रेडियो का पर्याय हो गया। बीस साल पहले 'अभियंता' शब्द बेहद कठिन था, आज नहीं है।

पिछले दिनों वाय.एस राजशेखर रेड्डी के हेलीकाप्टर का सुराग लग जाने के बाद एक न्यूज चैनल ने ब्रेकिंग खबर चलाई---'रेड्डी का हेलीकाप्टर ट्रेस कर लिया गया।' यहां 'ट्रेस' शब्द का बेहद आसान पर्याय 'खोज' हो सकता था। क्या 'खोज' कोई कठिन शब्द है। जाहिर है, ये भाषा के प्रति लापरवाही का मसला है जबकि पत्रकार के लिए भाषा वैसा ही औजार है जैसा बढ़ई के लिए बसूला या किसान के लिए हंसिया। लेकिन हिंदी तो गरीब की जोरू है, जो चाहे मजाक करे या जितनी चाहे छूट ले। कहीं कोई सुनवाई नहीं। इस लापरवाही (अपराध) का चरम 'आरोपी' और 'आरोपित' शब्द के इस्तेमाल में दिखता है। 'आरोपी' उसे कहते हैं जो आरोप लगाए और 'आरोपित' वो होता है जिस पर आरोप लगे। लेकिन न्यूज चैनलों में इनका बिल्कुल उल्टे अर्थ में इस्तेमाल होता है। हद तो ये है कि कुछ अखबार भी यही गलती करते हैं।


देखते-देखते हिंदी ऐसी ताकत अख्तियार करती जा रही है जिसकी कुछ साल पहले कल्पना भी नहीं थी। कुछ दिन पहले तक जो लोग हिंदी के अंत की घोषणा कर रहे थे, आज वे कमाई के लिए हिंदी पर निर्भर हैं। टेलिविजन चैनलों के 75 फीसदी हिस्से पर हिंदी का कब्जा है और हिंदी अखबारो के सामने अंग्रेजी अखबारों की कोई हैसियत नहीं है। हिंदी में बनने वाले फिल्में दुनिया में किसी भी भाषा में बनने वाली फिल्मों से ज्यादा व्यापार करती हैं। पश्चिम के कुशल व्यापारी इस संकेत को समझ रहे हैं और अमेरिका जैसे देश करोड़ो डालर हिंदी सीखने में खर्च कर रहे हैं।

यानी, वक्त आ गया है कि हिंदी वाले हीनभावना से उबरें। इस आतंक से उबरें कि मुक्ति की भाषा अंग्रेजी है। अंग्रेजी केवल साढ़े चार देशों (अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और आधा कनाडा)की भाषा है। भारत मे सत्ता के गलियारों से अंग्रेजी का अंत हो चुका है। वहां हिंदी या क्षेत्रीय भाषाएं ही राज कर रही हैं। फिर तकनीक तेजी से अपना काम कर रही है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में कंप्यूटर पर एक क्लिक करने से सटीक अनुवाद हासिल हो जाए। तब अंग्रेजी जानने या न जानने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। ऐसे में अखिल भारतीय स्तर पर एक मानक हिंदी की आवश्यकता होगी, जो तत्सम शब्दों से कटकर नहीं, उन्हें अपना कर बनेगी।

मत भूलिए कि मूलरूप से गुजराती भाषी और अंग्रेजी में निष्णात महात्मा गांधी ने सौ साल पहले 'हिंद स्वराज' में अंग्रेजों को ललकारते हुए साफ लिखा था कि भारत की भाषा हिंदी है, आपको उसे सीखना पड़ेगा। अंग्रेज (पश्चिम) तो इस बात को समझने लगा है। सवाल है कि हम कब समझेंगे।

04 सितंबर, 2009

इतिहास का भूत!

इतिहासविद् ई.एच.कार ने इतिहास की परिभाषा दी है- इतिहास भूत और वर्तमान के बीच अविरल संवाद है। अरसा पहले इलाहाबाद विश्विवद्यालय के मध्य एवं इतिहास विभाग के उस नीमअंधेरे लेक्चर थिएटर में युवा शिक्षक श्री हेरंब चतुर्वेदी ने इस परिभाषा को बताते हुए पहला पाठ पढ़ाया था। बी.ए.का पहला दिन था। इंटर के बाद विज्ञान छोड़ आर्ट्स पढ़ने आए मेरे जैसे तमाम विद्यार्थी ये देख कर परेशान थे कि यहां इतिहास को विज्ञान बताया जा रहा था। हम तो विज्ञान से पिंड छुड़ाकर आए थे और यहां भी! धत् तेरे की।

बहरहाल इलाहाबाद स्कूल आफ हिस्ट्री में कूट-कूट कर भरा गया कि इतिहास वही है जो दस्तावेजों या अन्य सुबूतों से प्रमाणित किया जा सके। बाकी गल्प। हुआ भी यही। जल्दी ही मन की दुनिया में नायकों की तरह इतराती तमाम हस्तियों के दामन दागदार नजर आने लगे और घोषित खलनायकों के अच्छे कामों की फेहरिश्त भी सामने थी। दीन-ए-इलाही वाला फरिश्ता जैसा अकबर राजपूताने में खून सनी तलवार लेकर विधर्मियों का नाश कर रहा था तो मंदिर विध्वंसक औरंगजेब चित्रकूट के बालाजी मंदिर और उज्जैन के महाकालेश्वर में 24 घंटे घी के दिए जलाने और भगवान को भोग लगाने के लिए जागीर देने का फरमान जारी कर रहा था। शिवाजी औरंगजेब से दक्षिण की सरदेशमुखी और चौथ वसूली के अधिकार पर समझौता वार्ता करने आगरा आए थे। उन्हें महल में रखा गया था जहां से, समझौता न हो पाने पर वे निकल भागे, न कि किले की काल कोठरी में कैद थे, जैसा कि प्रचार है।

शिवाजी के खिलाफ औरंगजेब का सबसे बड़ा हथियार थे मिर्जा राजा जयसिंह और शिवाजी के सेनानायक का नाम था दौलत खां। उनकी हिंदू पदपादशाही की स्थापना में बीजापुर के मुसलमान सैनिकों की भूमिका किसी से कम नहीं थी। जब शाहजहां के अंत समय उत्तराधिकार का युद्ध हुआ तो हिंदू हो जाने का आरोप झेल रहे दारा शिकोह के खिलाफ कट्टर मुसलमान औरंगजेब का साथ देने में धर्मप्राण राजा जसवंत सिंह और मिर्जा राजा जय सिंह जरा भी नहीं हिचके। यही नहीं, मुगलों के खिलाफ लंबी लड़ाई ल़ड़ने वाली सिख सेना औरंगजेब के बाद हुए उत्तराधिकार युद्ध में बहादुरशाह प्रथम के साथ थीं। यानी न कोई ‘पक्का हिंदू’ था और न कोई ‘पक्का’ मुसलमान।‘

वाकई दिमाग चकरा गया था। बाद में हैरान मन को राहत मिली जब निदा फाजली का ये शेर सुना-‘हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना कई बार देखना।‘ यकीन हो गया कि दुनिया सिर्फ काली-सफेद नहीं है। और सच्चाई का रंग अक्सर धूसर होता है। लेकिन हाल में जसवंत सिंह की जिन्ना पर लिखी किताब ने जो विवाद पैदा किया, उसने बताया कि ये सारा ज्ञान किताबी है। हकीकत की दुनिया में इतिहासबोध दूर की कौड़ी है। इतिहास का जाम किस्सों की सुराही से ही ढालना पसंद किया जाता है। यही वजह है कि पाकिस्तान में गांधी जी की भूमिका नकारात्मक बताई जाती है और भारत मे जिन्ना तो खैर खलनायकों के सिरमौर हैं हीं। स्वाद तो अर्धसत्य में है, फिर पूरे सच से मुंह कड़वा क्यों करें।

पहले आडवाणी और अब जसवंत सिंह को जिन्ना में जो धर्मनिरपेक्षता नजर आ रही है, वो भी अर्धसत्य ही है। जिन्ना का वाकई मजहब से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन में किनारे कर दिए जाने से आहत होकर वे हिंदू-मुसलमान के दो कौम होने के सिद्धांत के साथ खड़े हो गए। इसे हिंदू महासभा के अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर ने सबसे पहले सामने रखा था, जिसे गांधी जी के नेतृत्व वाले आंदोलन ने नकार दिया था। लेकिन जब जिन्ना ने इस सिद्धांत को पकड़ा तो आग भड़क गई। सीधी कार्रवाई के नाम पर बंगाल में जैसा खून बहा, वो कौन भूल सकता है। आखिरकार पाइप से धुंआं उगलते जिन्ना ने पाकिस्तान ले लिया। ये अलग बात है कि इसका भी उनके पास कोई स्पष्ट खाका नहीं था। अगर उनके निजी चिकित्सक सेना के डाक्टर कर्नल इलाहीबख्श पर भरोसा करें तो मौत के कुछ दिन पहले जिन्ना ने गहरी उदासी से कहा था-डाक्टर, पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल है। ( 1949 में प्रकाशित कर्नल इलाहीबख्श की किताब ‘कायदे आजम ड्यूरिंग हिज लास्ट डेज’, में इसका जिक्र है। बाद में 1978 मे जब कायदे आजम अकादमी, कराची ने इसे प्रकाशित किया तो ये अंश हटा दिया गया। तब तक ‘डिफेंस आफ आइडिया आफ पाकिस्तान एक्ट’ बन चुका था।)

जसवंत सिंह कहते हैं कि बंटवारे के लिए जिन्ना नहीं नेहरू और पटेल जिम्मेदार थे। इतिहासबोध कहता है कि कोई एक व्यक्ति न आजादी दिला सकता है, और न बंटवारा करा सकता है। जिन्ना को चाहे जितनी गाली दी जाए, पटेल, नेहरू यहां तक कि गांधी भी बंटवारे के लिए राजी हो गए थे। यानी सहमति सबकी थी। फिर जिन्ना अकले दोषी या निर्दोष कैसे हो सकते हैं। सच्चाई ये है कि भारतीय नेता डायरेक्ट एक्शन से होने वाले खून-खराबे से डर गए थे। वो ये नहीं भांप पाए कि विभाजन हुआ तो कहीं ज्यादा खून बहेगा। फिर एक हकीकत ये भी है कि अखंड भारत एक भावनात्मक विचार चाहे हो, अतीत का कोई कालखंड ऐसा नहीं था जब भारत का नक्शा इतना बड़ा रहा हो। कभी कोई राजा या बादशाह ताकतवर हुआ तो उसने बड़ा भूभाग जीत लिया लेकिन एक प्रशासनिक इकाई के तहत पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को अंग्रेज ही पहली बार लाए थे। इसलिए शायद जो मिल रहा था उसे लेकर ही हमारे नेताओं ने नया भारत बनाना बेहतर समझा। कोई ये भी कह सकता है कि उनमें कोई बिस्मार्क या लिंकन जैसे साहसी नहीं था जो एक विचार के लिए गृहयुद्ध के लिए तैयार हो जाता।

लेकिन दिलचस्प बात ये है कि विभाजन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार कारक को लेकर सबसे कम बात हो रही है। वो कारक है साम्राज्यवाद। जिसने दुनिया के सबसे समृद्ध देश की रग-रग को चूस लिया और जब अपने ही ओठ से खून निकलने लगा तो मुंह पोंछते हुए निकल गया। या कहिए उसने शक्ल बदल ली। साम्राज्यवाद नए-नए रूपों में भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं पूरे दक्षिण एशिया पर खूनी पंजे फैलाए हुए है। यही वजह है कि भूख और बेकारी से लड़ने के बजाय इस क्षेत्र के देश हर वक्त जंगी मुद्रा में रहते हैं। सरकारें उसकी चेरी हैं और जनता चारा।
इलाहाबाद विश्विविद्यालय से इतिहास का वो आखिरी सबक बार-बार याद आता है जो डी.फिल की डिग्री के साथ मिला था—'जो इतिहास से सबक नहीं लेते वो इतिहास दोहराने को अभिशप्त होते हैं।'

12 अगस्त, 2009

एक टी.वी.पत्रकार का इस्तगास:

(ये व्यंग्यलेख या जो भी है, कथादेश के ताजा मीडिया विशेषांक में प्रकाशित हुआ है। कुछ मित्रों का आग्रह था कि इसे ब्लाग पर डाल दिया जाए। थोड़ा लंबा जरूर है, मगर फिर भी... )

मी लार्ड! मैं पंकज श्रीवास्तव, एम.ए डी.फिल फ्रॉम इलाहाबाद यूनिवर्सिटी
उर्फ आक्सफोर्ड आफ ईस्ट (यूजीसी नेट क्वालीफाइड), खुदा को हाजिर नाजिर
मान कर कहना चाहता हूं कि मैं बेहद शरीफ इंसान हूं। पेट पालने के लिए
तकरीबन 12 बरस से पत्रकारिता कर रहा हूं। शुरूआत के पांच बरस अखबार और
फिर न्यूज चैनलों के साथ। नाम के पहले 'डाक्टर' सिर्फ विजिटिंग कार्ड में
छपवाता हूं ताकि नए लोगों से मुलाकात हो तो पढ़े-लिखे होने का सबूत दिया
जा सके। यूं, बाजार में जबसे पढ़े-लिखे लोगों की मांग कम हुई है, मैं इस
सबूत को जाया करने से बचता हूं। मेहनती हूं और बॉस को खुश रखने का हर
जतन करता हूं। बस ये समझिये कि उनको राणा प्रताप और खुद को चेतक समझते
हुए पुतली फिरने से पहले मुड़ जाने का हुनर तेजी से सीख रहा हूं। बदले
में मुझे देश की राजधानी में किस्तों पर ही सही, हर वो चीज हासिल है,
जिनका ख्वाब भी 10-15 साल पहले के पत्रकार नहीं देख सकते थे, और आज भी
एक से दो फीसदी फीसदी पत्रकारों पर ही किस्मत इस कदर मेहरबान है।
चुनांचे कामयाबी की सीढ़ी पर दरम्यानी सतह पर हूं और इर्द-गिर्द के जूतों
से उठती पालिश की गंध को जिंदगी का इत्र समझता हूं, जैसा कि तरक्की के
तलबगार हजारों साल से समझते आए हैं।

मेरे जैसा शरीफ आदमी आपकी अदालत में जान बचाने की गुहार लगाने आया है तो
आप समझ सकते हैं कि देश की हालत किस कदर नाजुक है। शरीफों का जीना
दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। और ये मुश्किल वो लोग भी पैदा कर रहे
हैं जिन्हें दुनिया बदमाशों में शुमार नहीं करती। जी हां, मुझे जान का
खतरा एक ऐसे शख्स से है जो गुंडा-मवाली नहीं, पत्रकार कहलाता है। नाम है
अनिल चमड़िया। नहीं, ये कोई कर्ज-वर्ज वापस करने का मामला नहीं है। न ही
किसी पत्रकार कालोनी में हमारे प्लाट ही अगल-बगल हैं । सच तो ये है कि
जनाब से आज तक सिर्फ एक मुलाकात हुई है जिसमें गलती से मोबाइल नंबर का
आदान-प्रदान हो गया था। और इसी मोबाइल नंबर के दम पर इस शख्स ने जिंदगी
में जहर घोल दिया है। आगे मैं तफसील से उसकी हरकतों के बारे में बताऊं,
इससे पहले अपने बारे में कुछ और जानकारी दे दूं ताकि मेरी शराफत का आपको
इत्मिनान हो जाए।

जैसा कि अर्ज कर रहा था, कुल मिलाकर मैं सीधे रास्ते चलने वाला आदमी
हूं। दोस्तों की तादाद का ठीक-ठीक अंदाजा तो नहीं, या कहें कि कभी इस
बारे में गौर नहीं किया, लेकिन दुश्मन एक भी नहीं है, ये तय है। अपने काम
से काम रखता हूं। घर से दफ्तर जाता हूं और वहां से छूटते ही सीधे घर
वापस। यानी रास्ते में कहीं कोई मोड़ नहीं आता। यकीन न हो तो मेरी
पत्नी से दरयाफ्त कर सकते हैं जिसे मेरी बढ़ती तोंद और थुलथुल होते जा
रहे चेहरे के अलावा कोई खास शिकायत नहीं रह गई है। जिसे मैं रोज यकीन
दिलाता हूं कि वो सुबह जल्दी आएगी जब मैं टहलने निकलूंगा, फिर तेज-तेज
चलूंगा और एक दिन पड़ोस के पार्क के दौड़ते हुए दस चक्कर लगाऊंगा। फिर
भी कमी रह गई तो टी.वी.पर योग सिखाते बाबा रामदेव की शरण में जाकर चर्बी
घटा लूंगा। वैसे, ये कोई मुश्किल काम है भी नहीं, क्योंकि काफी सात्विक
प्रकृति का हूं। होश में मांस-मछली से पर्याप्त दूरी रखता हूं औऱ बेहोश
होने लायक मदिरापान साल-छह महीने में ही हो पाता है। ऐसा नहीं है कि
इच्छा नहीं जगती लेकिन अकेले पीना पसंद नहीं। उधर, दोस्त साथ बैठने से
हिचकते हैं क्योंकि उनका कहना है कि मैं सुरूर चढ़ते ही जोर-जोर से गाने
लगता हूं जिससे उनका मजा खराब हो जाता है। कुछ पुराने दोस्तों का ख्याल
है कि ये वही नगमे होते हैं, जिन्हें 15-20 साल पहले मैं विश्वविद्यालय
के दिनों में झूम-झूमकर गाता था। जी हां, उन्हीं दिनों, जब मेरे चेहरे
पर चेग्वारा जैसी दाढ़ी-मूंछ थी।

दोस्त बताते हैं कि वोदका, ह्विस्की, या जिन का एक-दो पैग अंदर गया नहीं
कि मेरे अंदर का तानसेन बाहर आ जाता है। फिर देखते ही देखते, महफिल में
किसान-मजदूर, बढ़े चलो, क्रांति, इन्कलाब, लाल सूरज, रंग बदलता आसमान,
तख्त गिराओ और ताज उछालो जैसे शब्द बजने लगते हैं। कोई साथ दे न दे, अपना
रेडियो चालू हो जाता है। पर इससे दोस्तों का नशा हिरन हो जाता है। आगे जब
मयखाना सजाने की बात आती है तो मुझे दूर रखने की पूरी कोशिश की जाती है।
वैसे सच बताऊं तो होश आने पर मुझे कुछ याद नहीं रहता। सच तो ये भी है कि
मुझे हिमाकत के दौर के न वो नगमे याद हैं और न गाने का शौक ही बचा है।
इसलिए ये सोचकर शर्मिंदगी होती है कि मैं दारू पीने के बाद जरूर गलत-सलत
सुर लगाता होऊंगा.....फिर मदहोशी में फैज की गजल में गालिब का शेर पढ़ते
हुए अदम गोंडवी को घुसेड़ देने से तो अजब काकटेल बनता होगा। एक बार तो
इस मधुपान का ऐसा असर हुआ कि मैं मेज पर चढ़कर ताली बजाते हुए '
अश्फाकउल्ला, भगत सिंह, वी शैल फाइट-वी शैल विन' चिल्लाने लगा।..फिर इस
नारे ने सुर पकड़ा और मैं ठुमकने भी लगाने लगा। इस नृत्य प्रदर्शन का
नतीजे में कई गिलास और प्लेटों की शहादत हुई... कबाब और प्याज के छल्ले
जमीन पर रंगोली बनाते नजर आए और मेज के उलटने के साथ मैं भी धड़ाम हुआ।
हालांकि मुझे हफ्तों तक परेशान करने वाले दर्द ने ही इस घटना के वास्तविक
होने का अहसास कराया। वरना मैं इसे भी गपबाजी मानकर यकीन नहीं करता।
बहरहाल ये तो था ही कि दोस्त ऐसी महफिलों से मुझे दूर रखने की जुगत
भिड़ाते रहते थे। और मैंने भी दिल को समझा लिया था कि और भी गम हैं जमाने
में दोस्तों की महफिल के सिवा...

बाकी एक ऐब सिगरेट का था तो दो बेटियों की कसम दिलाकर पत्नी ने ये लत भी
छुड़वा दी है। बचपन में कसम तोड़ने के लिए किसी कोने में जाकर 'कसम-भसम'
का मंत्र पढ़ लेता था, पर अब हिम्मत नहीं पड़ती। वजह बेटियां नहीं वे
कैलेंडर हैं जो सिगरेट से कैंसर और हृदयरोग का घातक संबंध बताते हुए उन
डाक्टरों के क्लीनिक में टंगे रहते हैं, जहां अक्सर जाना होता है। जब से
ब्लड प्रेशर और कलोस्ट्राल कंट्रोल की गोलियों का दैनिक सेवन अनिवार्य
हुआ है, ये कैलेंडर सपने में आते हैं और आपसे क्या छुपाना कि मरने के
नाम पर तो फूंक उन दिनों भी सरकती थी जब चेहरे पर चेग्वारा जैसी दाढ़ी थी
और आंखें जमाने की तकलीफों से लाल रहा करती थीं।

जनाब, मैं समझ रहा हूं कि आप असल मामला यानी अनिल चमड़िया के जुर्म के
बारे मे जानने को बेचैन हो रहे हैं। लेकिन अपने बारे में तमाम बातें
बताना जरूरी था ताकि आपको यकीन हो जाए कि मुकदमा दायर करने वाला एक
ईमानदार नगरिक है। पक्का देशभक्त करदाता- जो देश के दुश्मनों की साजिश का
खुलासा करने का अपना कर्तव्य निभा रहा है... निस्वार्थ।

अब मैं अपनी जान के दुश्मन अऩिल चमड़िया की दास्तान शुरू करता हूं। ये
शख्स अखबारों और न्यूज चैनलों में काम कर चुका है। यानी कहने को पत्रकार
है.., लेकिन हरकतें ऐसी हैं कि लंबे समय तक कहीं गुजर नही हो पाती।
वैसे आदमी जुगाड़ू है, इसलिए आए दिन किसी न किसी अखबार या पत्रिका में
लेख छपवा लेता है। मीडिया उसका प्रिय विषय है और आजकल ये बात प्रचारित
करने में खासतौर पर लगा है कि न्यूज चैनल देश को पीछे ले जाने के अभियान
में जुटे हैं। उन्होंने असली मुद्दों को परदे के पीछे करने का गंभीर
अपराध किया है। इतना ही नहीं, वे अंधविश्वास के प्रसार के हथियार बन चुके
हैं। वे पूंजी के गुलाम हैं और बड़े विज्ञापनदाताओं की मर्जी के खिलाफ
चूं भी नहीं बोल सकते। देश की बहुसंख्यक आबादी उनकी चिंता से बाहर है।
वगैरह, वगैरह...

मी लार्ड! इस मोड़ पर मुझे ये साफ कर देना चाहिए कि मुझे ऐसी बातों पर
जरा भी यकीन नहीं है। मैं समझता हूं कि भूत-प्रेत या एलियन, उड़नतश्तरी
जैसी चीजें महज हवाई बातें नहीं हैं। देश की बड़ी आबादी इन बातों पर यकीन
करती है। और लोकतंत्र का तकाजा है कि उनकी भावनाओं का सम्मान करते न्यूज
चैनल लोगों को तफसील से इन चीजों के बारे में जानकारी दें। जैसे इस
लोकसभा चुनाव में हमने राहुल-प्रियंका के नाज-ओ-अंदाज के हर एक रंग को
जनता तक पहुंचाया। और कांग्रेस को पिछली बार के मुकाबले पूरे दो फीसदी
वोट ज्यादा मिलना बताता है कि ऐसा करना जनभावना के मुताबिक था। वैसे भी
जनभावना के साथ नहीं रहे तो टीआरपी कहां से आएगी जिससे पूंजी आती है।
न्यूज चैनल चलाने के लिए कई सौ करोड़ रुपये चाहिए। ये किसी ऐरे-गैरे
पत्रकार के बस की बात तो है नहीं । इतना पैसा तो पैसेवाले ही लगाएंगे। और
जो लोग पैसा लगाते हैं उन्हें ये कहने का पूरा हक है कि उनके हितों का
ध्यान रखा जाए। और मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि दुनिया के सबसे बड़े
लोकतंत्र में ये अधिकार तो होना ही चाहिए कि लोग अपने हितों की बात
बुलंद आवाज में कर सकें।

पर कहते हैं न कि अक्ल आते-आते आती है..। कुछ समय पहले तक मेरे ख्यालात
इस कदर पुख्ता नहीं थे। मैं संदेह के घोड़े पर सवार रहता था।
आत्मविश्वास भी कम था। उन्हीं दिनों किसी काम से दिल्ली गया तो वहां एक
पत्रकार मित्र के घर अनिल चमड़िया से मुलाकात हुई थी। इसी मुलाकात में
मैंने अपना मोबाइल नंबर दे दिया था। मुझे याद है कि भुनी हुई मछली के
टुकड़ों के साथ वोदका पीते हुए हमने देश की नाजुक हालत और विकल्पों के
बारे में ढेरों बात की थी। मुझे याद नहीं कि उस रात मैंने इन्कलाबी नगमे
गाते हुए ठुमके लगाए थे या नहीं। हां, महफिल के खात्मे को लेकर कई बयान
हवा में थे पर पता नहीं क्यों वहां मौजूद लोग मेरे सामने कुछ कहने से
कतरा रहे थे। और जो महफिल में थे ही नहीं, उनकी बातों पर मैंने कान
नहीं दिया। बहरहाल, कुछ दिन बाद अऩिल चमड़िया का फोन आया। उसने हंसते
हुए मेरा हालचाल लिया और फिर जोर दिया कि मुझे कुछ लिखना चाहिए।

उन दिनों मैं हवा में था। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में देश के नंबर
एक और दो के बीच झूलते रहने वाले चैनल का ब्यूरो संभाल रहा था। रोजाना
टी.वी. पर अपना चेहरा देखकर छाती चौड़ी हो जाती थी। छोटे, मंझोले और
बड़े-- सभी कद के बॉस मेहरबान नजर आते थे। पद और पैसै में तरक्की की गति
उम्मीद से ज्यादा थी। हां, धीरे-धीरे एक फर्क जरूर नजर आ रहा था।
संवाददाताओं से स्टोरी मांगने की जगह, उन्हें स्टोरी बताकर बाइट और
विजुअल मंगाए जाने लगे थे। यही नहीं, उन्हें पर्दे पर क्या बोलना है ये
भी हेडआफिस से लिखकर आने लगा था। खैर, मुझे इस ट्रेंड से खास परेशानी
नहीं थी। पर ये जरूर लगने लगा था कि ग्रामीण क्षेत्रों में जाना बंद हो
गया है। बाइट लेने के पहले देखने लगा था कि चेहरा सुदर्शन है या नहीं।
बुंदेलखंड के किसानों की आत्महत्या पर जो आधे घंटे का कार्यक्रम बनाया
था, वो महीनों अटका रह गया। फिर एसाइन्मेंट से जुड़े एक बॉस को ये भी
कहते सुना कि चैनल तो रिपोर्टर के बिना भी चल सकता है। अनिल चमड़िया का
फोन ठीक इसी बीच आया-कुछ लिखो, और मैंने ये गलती कर दी।

जनाब, उन दिनों उत्तर प्रदेश में इलेक्शन हो रहे थे। जमीन पर मायावती और
बीएसपी की आंधी थी, पर न्यूज चैनलों के पर्दे पर इसकी झलक कहीं नहीं थी।
मैंने विस्तार से भावी परिवर्तन की आहट देते हुए एक खबर बनाई। लेकिन किसी
ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। चैनल के रनडाउन में ये खबर कहीं फिट नहीं हो
पा रही थी। मेरी कोफ्त बढ़ रही थी। और जब नतीजा आया तो मायावती ने
इतिहास रच दिया। 16 साल बाद किसी को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत मिला।
जाहिर है, मुझे अपनी पीठ ठोंकने और बॉस लोगों की राजनीतिक समझ पर तरस
खाने का पूरा हक था। पता नहीं क्या सोचकर मैंने एक लेख लिखा--'मायावती और
मीडिया का मोतियाबिंद', जो बुद्धिजीवियों के पसंदीदा और देश की राजधानी
से छपने वाले अखबार में छप गया, वो भी पहले पेज पर बतौर बॉटम।

लेख छपने के बाद उम्मीद थी कि बॉस लोगों की नजर में पढ़े-लिखे होने की
धाक जमेगी। लेकिन पता पता चला कि मामला उलटा है। वे लोग काफी खफा हैं।
तारीफ की जगह मुझसे सवाल किया गया कि किससे पूछकर अखबार में लेख लिखा।
इस तरह मुझे पहली बार पता चला कि मेरा दिमाग चैनल की बौद्धिक संपदा है और
मैं बिना इजाजत किसी अखबार या पत्रिका के लिए नहीं लिख सकता। मेरा दिल
बैठ गया। और इसी बीच....जी हां, इसी बीच अनिल चमड़िया ने लेख पर बधाई
देने के लिए फोन किया। मैंने अपना समझकर अपनी पीड़ा की गठरी खोलकर रख
दी। ये आदमी तो जैसे मौके की तलाश में ही था। इसने तरह-तरह से मुझे
बरगलाने की कोशिश की। `अभिव्यक्ति की आजादी' और `पत्रकार के धर्म' पर
उसके भाषण से मैं इस कदर प्रभावित हुआ कि ये भी भूल गया कि मैंने किस्तों
पर एक मकान खरीद लिया है। मेरी एक गलती पूरे कुनबे पर भारी पड़ सकती है।
मैं खुद को इन्कलाबी समझने लगा। बॉस लोगों से बात करने का मेरा अंदाज
कुछ यूं हो गया कि नौकरी कल लेते हो तो आज ले लो। हालांकि आज मैं उन
लोगों की शराफत को सलाम करता हूं। उन्होंने मुझसे काम लेना तो बंद कर
दिया, लेकिन दफ्तर के दरवाजे खुले रहने दिए। वो तो मैं ही था, जो ऐसे
रहमदिल लोगों को छोड़ भागा।

हालांकि मैं कबूल करता हूं कि इस्तीफा देने का साहस मुझमें यूं ही नहीं
आया था। दिल्ली के कुछ सिरफिरे चैनली पत्रकार माहौल बदलने को व्याकुल थे
और उन्हें एक चैनल शुरू करने का मौका मिल रहा था। हालांकि कंपनी की
प्रतिष्ठा को लेकर कई सवाल हवा में थे लेकिन संचालकों का वादा था कि एक
गंभीर चैनल निकालने के प्रयोग में कोई आड़े नहीं आएगा। और इस टीम में
शामिल होने का मौका मुझे मिल रहा था। संपादक नामधारी पद और मोटी तनख्वाह
के साथ पत्रकारिता को क्रांतिकारी मोड़ देने के प्रयास में शामिल होना
मुझे कतई घाटे का सौदा नहीं लगा।... और क्या तो चैनल निकाला गया! ऐसा लगा
कि देश की सारी समस्याओं का जवाब हमारे पास है। हर दिन अंधविश्वासों की
ऐसी-तैसी करने वाले कार्यक्रम बनाए जा रहे थे। बड़े-बड़े नेताओं को रगड़ा
जा रहा था। चैनल के पर्दे पर कभी महाश्वेता देवी तो कभी अरुंधती राय नजर
आ रही थीं। यहां तक कि जिस अंतर्ऱाष्ट्रीय पुस्तक मेले पर बाकी चैनल एक
मिनट भी जाया करने को तैयार नहीं थे, उस पर हम रोजाना आधे घंटे का
कार्यक्रम दिखा रहे थे।

और जनाब, अब मैं एंकर भी था, यानी शोहरत में चार चांद लग गए थे। स्पेशल
इकोनामिक जोन के सताए किसानों, मजदूरों और मछुआरों की समस्या पर महीने भर
तक चले कार्यक्रम का एंकर बनकर जो सुख मिला, वैसा पहले नहीं मिला था।
गालिब, निराला, फैज, नजरुल इस्लाम, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर से लेकर पाश,
आलोक धन्वा, वीरेन डंगवाल और असद जैदी तक की कविताओं को एंकरिंग के बीच
पिरोकर खुद को साहित्यसेवी भी समझने लगा था। हिंदी चैनल में हिंदी समाज
और राजनीति ही नहीं, हिंदी साहित्य का झंडा भी बुलंद हो रहा था।
आत्मुग्धता बढ़ रही थी। पर जैसा अक्सर होता है, इन्कलाबी जोश, होश पर
भारी पड़ा। दूसरे के पैसे पर क्रांति के सपने का अंत सामूहिक इस्तीफे से
हुआ। शहीदों की टोली सड़क पर थी, कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा...खत्म
फसाना हो गया ।

अफसोस... इस शहादत पर देर तक तालियां भी नहीं बजीं। धीरे-धीरे लोगों ने
बिना दूसरा इंतजाम किए नौकरी छोड़ने के फैसले को बेवकूफी ठहराना शुरू
किया। खैर, अब क्या हो सकता था। दिन बीतने के साथ मेरा जोश भी हवा होने
लगा था। दिल्ली जैसे शहर में बेरोजगार होने का क्या मतलब होता है, ये वही
समझ सकता है, जिस पर ऐसी विपदा पड़ी हो। पांच महीने की संपादकी की सारी
कमाई परिवार को दिल्ली में स्थापित करने और तमाम दूसरे जरूरी इंतजाम में
खर्च हो चुके थे। मामला ठन-ठन गोपाल था। खैर, उऩ दिनों आर्थिक मंदी जैसी
चीज की आहट नहीं थीं। हर तरफ हिरन की तरह कुलांचे मारते सेन्सेक्स की
धूम थी। कंपनियों के रुख में पर्याप्त उदारता थी और शायद किस्मत भी
मेहरबान थी। कुछ विशाल हृदय लोगों की वजह से मुझे फिर नौकरी मिल गई।
अच्छा-खासा सबक मिल चुका था। इस बार शुरूआत हुई तो मिजाज बदल चुका था। दो
तगड़े झटके खाने के बाद अब मैं उस फार्मूले को समझना चाहता था जिसमें
किसी न्यूज चैनल के पत्रकार को जल्दी से जल्दी ढल जाना चाहिए।

मी लार्ड! तुलसी बाबा बहुत पहले लिख गए हैं---धीरज, धरम, मित्र अरु नारी,
आपतकाल परखिए चारी...और मैंने भी लोगों को परख लिया था। मेरे ज्ञानचक्षु
खुल गए थे। बेरोजगारी के दौर में अनिल चमड़िया का फोन एक बार भी नहीं
आया। नौकरी को ठोकर मारकर बेरोजगार होने का साहस दिखाने पर शाबाशी भी
नहीं दी। अब मुझे ऐसे तमाम लोगों की असलियत समझ आ गई थी। दरअसल ये
विघ्नसंतोषी लोग हैं। किसी की खुशहाल जिंदगी इन्हें बरदाश्त नहीं होती और
'आत्मावलोकन' और 'आत्मनिरीक्षण' जैसे बड़े-बड़े शब्द फेंककर ये एक
स्वस्थ आदमी को बीमार बना देते हैं। सोचने और लिखने के लिए बार-बार
कोंचने का इनका तरीका बेहद खतरनाक है। ये चौबीस घंटे चैनलों को गरियाने
में जुटे रहते हैं लेकिन जिन अखबारों में वे बौद्धिक जुगालियां करते हैं
वहीं इनकी नहीं सुनी जाती। आप तो जानते ही हैं, लगभग सारे ही अखबार ऐसे
सेठ निकालते हैं जिनके सौ धंधे और होते हैं। सरकारें जब चाहती हैं उनकी
पूंछ दबा देती हैं और वे चूं तक नहीं बोल पाते। चैनलों पर अंधविश्वास
फैलाने का आरोप लगाने वाले नहीं देखते कि अखबारों में भविष्यफल दैनिक ही
नहीं, साप्ताहिक, मासिक और वार्षिक लिहाज से भी छपता है। पारलौकिक दुनिया
के बारे में किस्से कहानियों की कोई कमी नहीं होती। झूठी या तोड़-मरोड़
के छापी जाने वाली खबरें भी कम नहीं छपतीं। दलाली को पुश्तैनी धंधा
समझने वाले प्रिंट पत्रकारों की फसल देश की राजधानी से लेकर जिलों-कस्बों
तक लहलहा रही है। यही नहीं, ज्यादातर अखबार अपने संचालकों के आर्थिक
साम्राज्य पर तनी छतरी की तरह हैं। और अगर 2009 के लोकसभा चुनाव में
इनकी भूमिका देखें तो उल्टी आ जाएगी। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो
ज्यादातर अखबारों ने खबरों का बाकायदा सौदा किया। जिस उम्मीदवार ने जितना
पैसा दिया उसके बारे में उतना ही अच्छा-अच्छा छापा। अभिव्यक्ति की आजादी
के नाम पर खुली वेश्यावृत्ति हुई ।

और मैं दावे से कह सकता हूं कि न्यूज चैनलों में इतनी गंदगी नहीं है।
किसी पार्टी को लेकर किसी संपादक का थोड़ा-बहुत झुकाव हो सकता है, लेकिन
पैसा लेकर किसी उम्मीदवार को बेहतर बताने का चलन कम से कम राष्ट्रीय
चैनलों में नहीं है। हालिया चुनाव में बाहुबलियों के खिलाफ जैसा अभियान
चलाया गया उसके लिए तो इनाम मिलना चाहिए। चैनल वालों को माफिया के खिलाफ
खबर दिखाते हुए कभी डर नहीं लगता। दाऊद, अलकायदा और तालिबान को पर्दे पर
ऐसे पीटा जाता है जैसे धोबी अपने गधे को पीटता है। इसी साहस की वजह से कई
पत्रकार छोटे पर्दे के जेम्स बांड बन गए हैं। चैनलों ने पत्रकारिता को
ग्लैमरस बना दिया है। तमाम चैनली पत्रकार अपने कद से दुगुनी गाड़ी में
चलते हैं। कइयों के पास एक नहीं, दो-तीन फ्लैट हैं और वे शेयर बाजार के
माहिर खिलाड़ी भी बन चुके हैं। जनाब, कुछ तो सेलिब्रिटी भी बन चुके हैं
जिनके आटोग्राफ लिए जाते हैं। हाल ये है कि नेता हों या बिल्डर,
ब्यूरोक्रेट हों या टेक्नोक्रेट या फिर किसी दफ्तर के बड़े बाबू, सब अपने
बच्चों को मासकामी शिक्षा दिलाने के लिए लाखों खर्च कर रहे हैं। चैनलों
के आने से पहले ये सब कौन सोच सकता था ऐसा। बड़ी मशक्कत और कुर्बानी के
बाद ये दिन नसीब हुए हैं। कितना मुश्किल होता है इस बात को समझ पाना
कि लोग वाकई क्या देखना चाहते हैं। जरा सा ढीले पड़े कि दर्शक ने रिमोट
का बटन दबाया। इसी बटन पर टिका होता है बड़े-बड़ों का वजूद। जो इसे नहीं
समझ पाता वो मैदान से बाहर हो जाता है। न्यूज चैनल लोगों का, और लोगों के
लिए होता है। यही लोकतंत्र का तकाजा है । और लोक की इच्छा का सम्मान
करने वाले तो लोकतंत्र के प्रहरी ही हुए न!

जी....मैं शायद बहक रहा हूं। मुझे अनिल चमड़िया की बात ही करनी चाहिए।
तो जैसा मैं पहले बता चुका हूं, बेरोजगारी के कठिन दिनों में इस शख्स ने
मुझे एक बार भी फोन नहीं किया। लेकिन नौकरी मिलने के कुछ दिन बाद ही इस
शख्स का फोन आया। हाल चाल लेने के बाद फिर वही सवाल कि मीडिया के हाल पर
कुछ लिखूं। कुछ नहीं तो अपने अनुभव पर ही लिखूं। पर इस बार मैं सतर्क था।
हूं-हां करके टरकाया और आगे से मोबाइल पर जब-जब इसका नंबर चमका, फोन नहीं
उठाया। घंटी बजती रहने दी। धीरे-धीरे इस खतरनाक घंटी से मेरी जान छूटी।
मैंने राहत की सांस ली। हालात मेरे सही होने की मुनादी कर रहे थे। मैंने
एक बार एक सहयोगी से पूछा कि क्या वो अपनी तनख्वाह में कोई कमी मंजूर कर
सकता है। उसने मुझे खा जाने वाली निगाहों से घूर दिया था। फिर मुझे ये भी
लगा कि अगर टी.वी.पत्रकारिता इतनी ही बुरी है तो मैं वहां क्यों हूं। और
अगर मैं वहां हूं तो उसके खिलाफ लिखना-बोलना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने
के सिवा क्या है।

जाहिर है, मैं सोचने-समझने के बजाय कुटुंब पालने की जिम्मेदारी को ज्यादा
अहम समझने लगा। अपनी तमाम किताबों को मैंने ताले में बंद कर दिया। यही
नहीं, उस पोस्टर को भी रद्दी के साथ बेच दिया जो दस साल से मेरे कमरे
में टंगा रहता था। इस पोस्टर को मैंने खुद बनाया था। इस पर उदयप्रकाश की
कविता लिखी थी...आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता /आदमी मरने के बाद कुछ
नहीं बोलता /कुछ नहीं सोचने और कुछ नहीं बोलने से आदमी मर जाता है.... ।
लाल कागज पर काले अक्षरों से लिखी ये कविता हर सुबह मेरी आंख के सामने
होती थी। लेकिन कुछ दिनों से ये कविता, न जाने क्यों आंख में चुभने लगी
थी। परेशान होकर मैंने इसे कबाड़ी के हवाले कर दिया। हालांकि रात को
बिस्तर पर जाते ही सामने खाली दीवार नजर आती तो मुझे ये भी लगता कि शायद
पोस्टर हटाकर ठीक नहीं किया।

खैर, भला हो उदयप्रकाश का, जिन्होंने मुझे इस अपराधबोध से छुटकारा
दिलाया। हुआ ये कि पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी के
घोषणापत्र में अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करने की बात पर मची किचकिच के
बीच हिंदी के इस तेजस्वी लेखक ने इकोनामिक टाइम्स में एक लेख लिखा। इस
लेख में उन्होंने हिंदी को प्रतिगामी बताते हुए बल भर गरियाया और ऐलान
किया कि इस दौर में मुक्ति की भाषा अंगरेजी है। यही नहीं, लेख का अंत
उन्होंने "अंगरेजी लाओ-देश बचाओ" के नारे से किया। इस लेख ने मुझे राहत
से भर दिया। मुझे लगा कि जिस कवि को अपनी भाषा पर यकीन नहीं रहा , उसकी
कविता पर मुझे क्यों यकीन करना चाहिए था। यानी, पोस्टर से मुक्ति पाकर
मैंने कोई गलती नहीं की।

पर मुक्ति इतनी आसानी से कहां मिलती है। पता नहीं कहां से अनिल चमड़िया
ने मेरे घर का लैंडलाइन नंबर जुगाड़ लिया। एक दिन सुबह-सुबह फोन आया और
मैंने रिसीव कर लिया। जनाब ने बड़े उत्साह से बताया कि 'कथादेश' का
मीडिया विशेषांक प्रकाशित होना है, जिसके लिए मुझे जरूर ही लिखना चाहिए।
इसी के साथ ही न्यूज चैनलों की बिगड़ती दशा और वैकल्पिक मीडिया की
संभावनाओं पर लंबा भाषण। मैंने किसी तरह जान छुड़ाई पर अंदर-अंदर मैं
कांप गया था। मुझे याद आया ढाई साल पहले प्रकाशित 'हंस' का मीडिया
विशेषांक। इसमें मैंने भी एक कहानी लिखी थी , जिसके बाद ही मेरे अच्छे
भले करियर का सत्यानाश होना शुरू हो गया था। कहानी के असल पात्रों ने
अपना चेहरा पहचान लिया था और ऐसी घेरेबंदी की कि मेरा जीना मुश्किल हो
गया था। मैंने कसम खाई थी कि दोबारा ऐसी गलती नहीं करूंगा।

मी लार्ड! यहीं से शुरू होता है इस दास्तान का वो खतरनाक हिस्सा जो न
सिर्फ मेरे लिए जानलेवा है, बल्कि मुल्क के लिए भी खतरनाक है। मैं समझता
था कि अनिल चमड़िया के फोन उसी के दिमागी फितूर से उपजे हैं, लेकिन नही,
ये तो अंतरराष्ट्रीय षड़यंत्र है। मैं इस षड़यंत्र में शामिल लोगों से न
मिलता तो शायद पता भी नहीं चलता कि हालात किस कदर खराब हैं।

जैसा मैंने पहले अर्ज किया था, मैं दोस्तों की महफिल में अवांछित हो गया
था। इसकी भरपाई के लिए मैं कभी-कभार 'कारोबार' करने लगा था। 'कार-ओ-बार'
का मतलब है कार में 'बार' खोल कर बैठ जाना। किसी सड़क पर कार किनारे
लगाकर बोतल खोल ली जाए तो अकेलापन उतना नहीं सताता। आती-जाती गाड़ियां और
जिंदगी के दूसरे नजारे अकेलापन महसूस नहीं करने देते। हां, मैं मानता हूं
कि ये कोई सभ्य तरीका नहीं है, लेकिन मत भूलिए कि इसी असभ्यता ने मुझे
खतरनाक साजिश की तहए तक पहुंचाया।

किस्सा ये है कि ऐसी ही एक `कारोबारी' रात मैं दफ्तर से छूटने के बाद
राजघाट की ओर निकल गया था। जी हां, वही राजघाट जहां महात्मा गांधी की
समाधि है। हां, ये ठीक है कि राष्ट्रपिता की समाधि की तरफ शराब लेकर जाना
भी पाप है, लेकिन आजादी के 61 बरस बाद ये तो देश मान ही चुका है उनकी
नशाबंदी की अवधारणा खासी अव्यवहारिक थी। इसीलिए मद्यनिषेध और आबकारी
विभाग देश में साथ-साथ चलते रहे हैं। खैर, अगर आपको लगता है कि मैंने गलत
किया तो मान लेता हूं क्योंकि असल मसले का शराब से कोई लेना-देना नहीं
है।

....तो रात के करीब एक बज रहे थे। मैं काफी नशे में था। जोरों से पेशाब
लगी थी। लेकिन डर लग रहा था कि अगर कार से बाहर निकलकर पेशाब करता हूं
तो पुलिस का सामना हो सकता है। पूछताछ में शराब पीकर गाड़ी चलाने का
मामला बन सकता था। तभी मैंने दो सिपाहियों को देखा जो थोड़ी दूर पर एक
लैंप पोस्ट के नीचे मां-बहन की गाली बकते हुए एक दूसरे से जूझ रहे थे।
वहां से अभी-अभी एक ट्रक गुजरा था जो उनके करीब आने पर कछ सेकेंड के लिए
रुक कर आगे बढ़ गया था। ड्राइवर ने हाथ बढ़ाकर एक सिपाही के हाथ में कुछ
रुपये थमाए थे और झगड़ा शायद उसी को लेकर हो रहा था। दूर से देखकर लग रहा
था कि दोनों नशे में धुत हैं क्योंकि दोनों ऐसे लहरा रहे थे जैसे बाराती
नागिन डांस करते हैं।

मैं समझ गया कि सरकार नशे में है, इसलिए हल्का हुआ जा सकता है। मैं कार
से उतरकर पास की एक झाड़ी के पास हल्का होने लगा। अभी पूरी तरह फारिग हो
भी नहीं पाया था कि एक बूढ़ा करीब आता नजर आया। हाथ में लाठी, आंख पर गोल
चश्मा और बदन पर सिर्फ धोती। मुझे अपने दादा जी की याद आई जो अवध के एक
मामूली किसान थे और कुछ इसी हुलिए में गांव का चक्कर लगाया करते थे। पर
उन्हें मरे तो बीस साल हो रहे हैं। वो यहां कैसे आ सकते हैं। मुझे लगा कि
मैंने शायद औकात से ज्यादा पी ली है, इसलिए दिमाग गड्ड-मड्ड हो गया है।

बुजुर्गवार अब काफी करीब आ चुके थे। मैंने उनके चेहरे को गौर से देखा।
नहीं, वो मेरे दादा नहीं थे। उनकी कांख में कुछ कागजात दबे हुए थे। ऐसा
लगा कि वे मुझसे कुछ बात करना चाहते हैं, पर हिचक रहे हैं।

'जी, कोई काम', मैंने पैंट की जिप बंद करते और आवाज को मुलायम बनाते हुए पूछा।

'नहीं, पर मुझे लगा कि आप जैसे नौजवानों को बताना जरूरी है कि सफाई कितनी
जरूरी चीज है। और ये जगह पेशाब करने के लिए नहीं है'- उनकी आवाज में
भर्राहट थी।

'सॉरी', मैं थोड़ा झेंप गया। 'दरअसल, सब कुछ अचानक हुआ'

'नहीं, कुछ भी अचानक नहीं होता। हर चीज लंबी तैयारी का नतीजा होती है।
वैसे, करते क्या हैं आप..'

'जी, पत्रकार हूं'

'पत्रकार...! तब तो एक जिम्मेदार नागरिक बनना आपके लिए बेहद जरूरी है।
मैंने भी बहुत दिन तक पत्रकारिता की है। पत्रकार तो आत्मा के डाक्टर होते
हैं। बस एक मंत्र याद रखो, जो भी लिखो ये सोचकर कि उसका समाज के अंतिम
आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा। अंतिम आदमी, वही देश का मालिक है...'
बुजुर्गवार अपनी रौ में बोले जा रहे थे-'समाचारपत्र एक जबरदस्त शक्ति है,
किंतु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गांव के गांव को डुबो देता है
और फसलों को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार कलम का निरंकुश प्रवाह भी नाश
की सृष्टि करता है। यदि ऐसा अंकुश बाहर से आता है तो वह निरंकुशता से भी
अधिक विषैला सिद्ध होता है। अंकुश तो अंदर का ही लाभदायक होता है...यदि
यह विचारधारा सच है तो दुनिया के कितने समाचारपत्र इस कसौटी पर खरे उतर
सकते हैं। लेकिन निकम्मो को बंद कौन करे? कौन किसे निकम्मा समझे?..उपयोगी
और निकम्मे दोनों साथ-साथ ही चलते रहेंगे। उनमें से मनुष्य को अपना चुनाव
करना होगा '

इतना कहकर उन्होंने गौर से मुझे देखा। फिर कांख में दबाए कागजों का
पुलिंदा मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने गौर से देखा, वे तीन अखबार थे-'इंडियन
ओपीनियन', 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन'। 'इन्हें पढ़ना,. 'वैसे किस अखबार
में काम करते हैं आप,' उन्होंने करीब आकर फुसफुसाते हुए पूछा।

'जी मैं अखबार में नहीं टी.वी. में काम करता हूं'

'ओह... टी.वी. में। उसके बारे में मैं ज्यादा जानता नहीं। दरअसल, मेरे
घर में बिजली नहीं है। खैर, आपको शुभकामनाएं। जहां भी रहिए, डटकर काम
करिए। और याद रखिए-अंतिम आदमी', कहते हुए वे आगे बढ़े।

मैं थोड़ा घबरा गया था। 'आप हैं कौन'

'मो..ह..न..दा..स', बुजुर्गवार रुके नहीं। बस जाते-जाते ये नाम मेरी ओर उछाल गए।

मुझे लगा कि ये नाम कहीं सुना है, पर कहां, कुछ याद नहीं आ रहा था। मुझे
फिर से प्रेशर महसूस हुआ... मैं झाड़ियों की ओर बढ़ा... पर तभी लाठी की
ठक-ठक सुनाई पड़ी। आवाज करीब आती जा रही थी। मैं पसीने-पसीने हो गया।
तुरंत कार में बैठा और आगे बढ़ गया। लेकिन घबराहट में मुझे दिशाभ्रम हो
गया। काफी देर तक मैं आसपास यूं ही चक्कर लगाता रहा। दिमाग पर काफी जोर
देन के बाद मुझे समझ आया कि शायद मैं कश्मीरी गेट से बहादुरशाह जफर मार्ग
की ओर बढ़ रहा हूं। इधर, प्रेशर बढ़ता ही जा रहा था। एक सुनसान जगह देखकर
मैंने गाड़ी रोकी और बिना आगे-पीछे देखे, तुरंत राहत पाने में जुट गया।

मैं ये सोचकर खुश था कि यहां टोकने वाला कोई नहीं है, लेकिन ये मेरी
गलतफहमी थी। जब मैं फारिग होकर पलटा तो एक ऊंचे कद के नौजवान को कार के
पास खड़ा पाया। सिर पर पगड़ी और ढीला-ढाला कुर्ता-पायजामा। मैंने करीब
जाकर देखा तो कंधे पर एक झोला भी टंगा था। झोले में किताबें और कागजात
ठुंसे लग रहे थे। कार एक लैंप पोस्ट के नीचे खड़ी थी जिसकी रोशनी में
नौजवान का चेहरा खासा रोबीला लग रहा था। मुझे लगा कि शायद इसे लिफ्ट
चाहिए। मैं आगे बढ़ा। लेकिन उसका इरादा कुछ और था।

'आपको पता है, आपने कहां पेशाब किया है', उसने तल्ख आवाज में मुझसे पूछा।

'न..नही' मुझे लगा कि फिर कोई गड़बड़ हो गई।

'ये वो जगह है जहां 8 सितंबर 1928 को हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकलन
एसोसिएशन यानी एचएसआरए का गठन हुआ था। फिरोजशाह कोटला मैदान को भूल गए
आप'

'नहीं, फिरोजशाह कोटला को कौन नहीं जानता। यहां लगातार क्रिकेट मैच होते
है। ये वो मैदान है जहां अनिल कुंबले ने एक पारी में दस विकेट लेने का
कमाल दिखाया था। ऐसे दुनिया के क्रिकेट इतिहास में सिर्फ एक बार और हुआ
है, ओवल के मैदान में।'

'मैच तो अब होते हैं बरखुरदार। पर मैं इतिहास के उस दौर की बात कर रहा
हूं जब आपको क्रिकेट खेलने की आजादी नहीं थी। यहां आठ नौजवान जुटे थे।
संयुक्तप्रांत, बिहार, राजपूताना और पंजाब से। बड़ी बहस के बाद
हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी नाम में 'सोशलिस्ट' शब्द जोड़ा गया था।
हिंदुस्तान के क्रांतिकारी इतिहास में ये जगह मील का पत्थर है। आपको
क्रिकेट याद रहा, इसे भूल गए। क्या करते हैं..'

'जी मैं पत्रकार हूं और आप', मैंने परिचय दिया।

'पत्रकार हैं, फिर भी याद नहीं। वैसे पत्रकार मैं भी हूं। मेरा नाम
बलवंत है। 'प्रताप' के लिए कानपुर में काम करता था। आजकल स्वतंत्र लेखन
कर रहा हूं। पर बहुत मुश्किल है.. मेरे लेख छापने को लोग तैयार ही नहीं
होते। मैं अखबारी दफ्तरों का चक्कर काटते-काटते थक गया हूं,... आप कुछ
मदद कर सकते हैं', बलवंत की आवाज की तल्खी गायब थी। उसने कुछ पन्ने मेरी
ओर बढ़ा दिए।

मैंने गौर से देखा। सामने हाथ से लिखे कुछ लेख थे। अजब-अजब शीर्षक थे
उनके--'मैं नास्तिक क्यों हू्', 'बम का दर्शन', 'सांप्रदायिक दंगे और
उनका इलाज', 'समाजवाद का आदर्श', 'मृत्यु के द्वार पर',....मुझे ये नाम
कहीं पढ़े हुए लग रहे थे। ....लेकिन कुछ याद नहीं आ रहा था।

':छपवा सकते हैं आप, मुझे लगता है कि आज के नौजवानों से संवाद करने के
लिए ये लेख कारगर हो सकते हैं। क्या किसी संपादक से परिचय है.... ' एक
सांस में कई सवाल पूछ डाले बलवंत ने।

'देखिए मैं अखबार में काम नहीं करता। न ही किसी संपादक से मेरी
जान-पहचान है। मैं तो टी.वी.में काम करता हूं।

'पर, आपने तो कहा कि आप पत्रकार हैं'

' क्या मतलब... क्या टी.वी. वाले पत्रकार नहीं होते', मुझे गुस्सा आ गया।

बलवंत ने मेरी तरफ थोड़ी हैरानी और उम्मीद भरी निगाह से देखते हुए कहा, -
'तो क्या तुम्हारा टी.वी. लोगों को उस अंदेशे के बारे में.बताएगा जिसे
एचएसआरए ने इसी जगह महसूस किया था। और कसम खाई थी कि जब तक सांस में सांस
रहेगी, अंदेशे को हकीकत नहीं बनने देंगे'

'कैसा अंदेशा'

'यही कि गोरे साहब जिन कुर्सियों को छोड़ जाएंगे, उन पर भूरे साहबों का
कब्जा हो जाएगा'

मुझे लग रहा था कि इस आदमी का दिमाग खराब है, या ये पचास साल बाद जेल से
छूटा है। मैंने झुंझला कर कहा- 'इतिहास का अंत हो गया है मिस्टर.. तुम जो
बातें कर रहे हो वे बेमतलब हो चुकी हैं। दुनिया जैसी है, वैसी चलेगी। इसे
बदलने की कोशिश करना बेकार है। सब ईश्वर की मर्जी पर है। हमारे हाथ कुछ
भी नहीं।'

'बकवास कर रहे हो तुम'-बलवंत को जैसे गुस्सा आ गया-'दुनिया में करो़ड़ों
बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं, लोग धर्म के नाम पर एक दूसरे की जान ले
रहे हैं, जंग से देश के देश तबाह हो रहे हैं और तुम कहते हो कि इतिहास का
अंत हो गया। अंत हुआ है तुम्हारे जैसे पत्रकारों की समझ का, जरा आंख-कान
खोलो, फिर देखो' गुस्से से बड़बड़ाता हुआ बलवंत उस तरफ बढ़ गया जहां एक
हरे रंग का बोर्ड था। हल्की रोशनी में लिखा नजर आया---नगर निगम, शहीदी
पार्क। मैंने पार्क के अंदर नजर दौड़ाई तो एक ऊंचे चबूतरे पर तीन लोग
बुत जैसे कंधे से कंधा मिलाए एक साथ खड़े थे। हाथ में कोई झंडा था शायद।
रोशनी काफी कम थी इसलिए साफ-साफ कुछ नजर नहीं आ रहा था.....कुछ देर बाद
समझ में आया कि वो वाकई बुत ही है । मैंने निगाह घुमाई तो बलवंत गायब
था।

मैं थोड़ी देर तक हतप्रभ खड़ा रहा। फिर पूरी ताकत बटोर कर
चिल्लाया---'सब बकवास है। मुझे इन चक्करों में नहीं पड़ना।'

'चक्करों में पड़ना न पड़ना, कई बार आदमी के बस में नहीं होता
बरखुरदार'- अचानक एक रोबीली आजाव सुनकर मैं चौंक उठा।

मैंने देखा एक अधेड़ सामने खड़ा था। लग रहा था कि काफी देर से मेरी और
बलवंत की बातचीत सुन रहा था। गौर से देखा तो वो कोई विदेशी था। ऊंचा कद,
थुलथुल बदन, सैनिकों जैसे कपड़े। वो थोड़ा और करीब आकर बोलने लगा-' कॉमन
सेंस ये कहता है कि इतिहास का चक्र रुकता नहीं। 1776 के शुरुआती महीनों
तक अमेरिका के भावी राष्ट्रपति टामस जेफरसन कह रहे थे कि इंग्लैंड के
राजतंत्र से अलग होना न हमारे हित में है और न हम चाहते हैं। लेकिन वही
शख्स कुछ महीनों बाद बोल रहा था कि सभी मनुष्य बराबर हैं। अमेरिका का
सबसे धनी किसान वाशिंगटन, जनरल वाशिंगटन बन गया। किसानों के अंदर एक बार
आजादी की लौ जल गई तो फिर हर तरफ रोशनी ही रोशनी थी। किसानों की भीड़ ने
इंग्लैंड की सेना के छक्के छुड़ा दिए। '

'पर आज इन बातों का क्या मतलब है'

'है, बिलकुल है। मैं आज भी कहता हूं, जिन्हें इंसानियत से प्यार है। जो
जालिमों की मुखालिफत करना चाहते हैं, तैयार हो जाएं। सारी धरती उलट-पुलट
हो गई है उत्पीड़न से। सारी धरती पर आजादी का शिकार किया गया है, एशिया
और अफ्रीका से तो उसे पहले ही निकाल दिया गया था, यूरोप उसे अजनबी समझता
है, इंग्लैंड ने चले जाने की नसीहत दी है।.... शरणार्थी का स्वागत करो।
समय रहते मानवता के लिए शरणस्थली तैयार करो'-उसका अंदाज ऐसा था जैसे भाषण
दे रहा हो। फिर मेरी ओर घूमकर बोला, 'पत्रकारों की जिम्मेदारी यही सत्य
सामने लाना है। एक शेर सुनो, हालांकि शायर कौन है, मैं नहीं जानता ----है
नहीं शमशीर अपने हाथ में तो क्या हुआ, हम कलम से ही करेंगे कातिलों के सर
कलम...

' अरे, ये तो मेरा शेर है...मैंने चीखकर कहा..जब सफदर हाशमी की हत्या
हुई थी तो मैं इलाहाबाद में नुक्कड़ नाटक करता था। लगा था कि खुद पर हमला
हुआ है और ये शेर फूटा था। '

'हो..हो..हो'...बूढ़ा हंसने लगा। 'फूटा था' तो ऐसे कह रहे हो जैसे इलहाम
हुआ हो.....ये तो बड़े पहुंचे हुए शायरों की निशानी है जो लिखते नहीं, उन
पर आसमान से शायरी उतरती है। 'अच्छा शेर तुम्हारा है तो पूरी गजल
सुनाओ'.. बूढ़े ने चुनौती दी।

" नहीं, गजल नहीं लिख पाया था। पर बाद में ये शेर बहुत मशहूर हुआ। देश
के तमाम विश्वविद्यालयों में इसके पोस्टर बने। जुलूसों के बैनर भी बनाए
गए। पर अफसोस कोई नहीं जानता कि ये मेरा शेर है. ' ... मैंने मायूस होकर
कहा।

'मैं... मैं..मैं..मेरा...मेरा...मेरा....इसमें न फंसते तो शायद गजल पूरी
हो जाती। खैर अब भी वक्त है। कोशिश करो...मैं पेन्सिल्वेनिया मैगजीन का
एडिटर, तुम्हारी गजल जरूर छापूंगा...अब चलता हूं। स्वात में जीयो टीवी का
मूसा खान मेरा इंतजार कर रहा है। उसके पास शायद कोई बड़ी खबर है।'

बूढ़ा अंधेरे में गायब हो गया।

'कौन था ये,' मैं हैरान था।

'अरे टॉम पैन को नहीं पहचाना......टॉमस पैन' —एक बेहद परिचित आवाज कान
में पड़ी। मुड़ा तो सामने प्रो.लालबहादुर वर्मा खड़े थे। इलाहाबाद
विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के रिटायर्ड प्रोफेसर। मेरे रिसर्च गाइड।

‘सर आप !’ पैर छूते हुए मैंने अचरज से पूछा। समझ नहीं पा रहा था कि
प्रो.वर्मा इस वक्त कैसे। रिसर्च के दौरान उनसे अच्छी खासी आत्मीयता
विकसित हो गई थी। बढ़ती उम्र में नौजवानों सा उत्साह उन्हें बाकी
प्रोफेसरों से जुदा करता था। दुनिया बदलने के विचार पर उनकी गजब की
आस्था थी। नुक्कड़ नाटक करते, सड़कों पर गीत गाते, घूम-घूम कर किताबें
बेचते प्रो.वर्मा को देखकर कौन कह सकता था कि ये आदमी विश्वविद्यालय का
प्रोफेसर है। अंग्रेजी और फ्रेंच के जानकार, पर इरादा ये कि हर साल
दुनिया की एक बेहतरीन किताब का अनुवाद करके हिंदी में ले आएंगे।
उदयप्रकाश से एकदम उलटी चाल। इसीमें जूझते रहते हैं। उन्हें देखकर कई
सवाल मन में उठे, लेकिन कुछ कहता इसके पहले ही प्रो.वर्मा की क्लास शुरू
हो गई थी-

'अरे ये टाम पैन है। तीन क्रांतियों का प्रवक्ता। इंग्लैंड में पैदा
हुआ, जहां क्रांति का उसका सपना कभी पूरा नहीं हुआ। पर अमेरिकी आजादी की
लड़ाई की कल्पना भी इसके बगैर मुमकिन नहीं। वो लड़ाई, जो उसके अपने देश
यानी इंग्लैंड के खिलाफ लड़ी गई थी। उसने पर्चे लिख-लिखकर बिखरी हुई
अमेरिकी किसान फौज को बार-बार एकजुट किया। उसकी वजह से ही जनरल वाशिंगटन
ने हौसला नहीं खोया। और जब अमेरिका ने आजादी का सूरज देख लिया तो वो
फ्रांस चला गया। वहां की क्रांति को बचाने। नेपोलियन उसे क्या-क्या नहीं
देना चाहता था, लेकिन उसे सबसे ज्यादा प्यारी थी आजादी जिसे नेपोलियन
सम्राट बनकर रौंद रहा था।‘

‘आप मुझे ये सब क्यों सुना रहे हैं’, मैंने झुंझलाकर पूछा।

'इसलिए कि जान सको कि पत्रकार होने का मतलब क्या है। लिखकर क्या से क्या
किया जा सकता है। लिखऩा मतलब आंखे के जाले साफ करना, अपने भी और दूसरों
के भी। इससे बचने की कोशिश मत करो।'

'सर, आप ये सब क्यों कह रहे हैं। वक्त काफी बुरा है। फिर पढ़ने की
फुर्सत किसे है', मैं उन्हें ये नहीं बताना चाहता था कि मैं इन सब
चक्करों से आजाद हो गया हूं। उन्हें दुख होता।

'अरे भाई, दौर बुरा है तो बुरे दौर के बारे में ही लिखो। ऐसे दस्तावेज
पीढ़ियों को सबक देते हैं। कलम से निकले अक्षर कभी चुनौती होते हैं तो
कभी कसौटी। वो हमेशा टोकते हैं कि किस राह पर जाना है और किस राह पर जा
रहे हो'

'और मैं नहीं चाहता कि मुझसे कोई टोका-टाकी करे। मैं आजाद हूं...आजाद।
मैंने ठेका नहीं ले रखा है इस देश का,' मैं जैसे फट पड़ा। 'अरे मुझे
सुकून से जीने क्यों नहीं देते'

'क्यों शोर मचा रहे हो'- तभी एक कड़क स्वर गूंजा।

'अरे फुट्टा सर!' मैं उन्हें देखकर घबरा गया। बी.एस.श्रीवास्तव रायबरेली
सेंट्रल स्कूल में आर्ट्स टीचर थे। उगते सूरज वाली सीनरी, साड़ी का
किनारा, गमले में फूल, फूल पर तितली..ऐसी ही न जाने कितनी चीजों बनवाते
रहते थे। लेकिन कापी पर लाइन टेढ़ी खिंचे, या रंगों का सही इस्तेमाल न
हो, या क्लास में कोई शोर मचाए तो वे लकड़ी वाली स्केल से जमकर पिटाई
करते थे। उंगलियों के बीच पेंसिल फंसाकर ऐसा दबाते थे कि रुह फना हो जाती
थी। बहरहाल, ज्यादा मशहूर थी स्केल यानी फुट्टे की पिटाई। इसी एक फुट की
स्केल प्रेम की वजह से वे 'फुट्टा सर' हो गए थे।

'हाथ आगे करो’- वे दहाड़ते हुए बोले, ‘ जिंदगी की सारी लाइनें
टेढ़ी-मेढ़ी खींच रहे हो। और रंग तो देखो। जहां लाल होना चाहिए, वहां
काला भर दिया है। जहां हरा होना चाहिए, वहां पीला। क्या रतौंधी हो गई है'
फुट्टा सर हर जुमले के साथ बदल-बदलकर मेरे हाथ की रेखाओं पर फुट्टा चला
रहे थे।

'सटाक..सटाक सटाक.'

मी लार्ड! मुझे याद नहीं कि मैं कैसे फुट्टा सर की पिटाई से बचा।
प्रो.वर्मा कहां गए, ये भी होश नहीं। पता नहीं कैसे घर वापस आया। सोचा
कि कोई बुरा सपना देखा है। लेकिन ऐसा नहीं था। सुबह अनिल चमड़िया का फिर
फोन आया था। मैंने फोन उठा लिया तो उसने बड़े खतरनाक अंदाज में फुसफुसा
कर पूछा,- 'क्यों लेख कब तक दे रहे हो। प्रो.वर्मा कह रहे थे कि बात हो
गई है। तुम लिखना शुरू कर दोगे।'

मैंने हाथ देखा, पंजे लाल थे और दर्द भी था। मैं समझ गया। ये देश को
अस्थिर करने की कोई बड़ी साजिश है। मोहनदास, बलवंत, टॉम पैन, प्रो.वर्मा,
फुट्टा सर, सब इस आतंकवादी गिरोह के सदस्य हैं। और अनिल चमड़िया उन्हीं
का प्यादा है।

25 जुलाई, 2009

हम अपने ख्याल को सनम समझे थे!



अंदाजा न था कि उदय प्रकाश के सम्मान पर बात निकलेगी तो इतनी दूर तलक जाएगी। वो एक अखबार में छपी फोटू और छोटी सी टिप्पणी भर थी, जिसे पत्रकार अनिल यादव ने ब्लाग जगत के सूचनार्थ जारी करते हुए हम सबसे पूछा था-आपको कैसा लगा?

इस टिप्पणी की भाषा भी वैसी मारक नहीं थी जिसके लिए अनिल मशहूर हैं। क्षोभ जरूर था, जो ऐसे किसी भी शख्स में होता, जो उदय को प्रगतिशील मूल्यों का लेखक मानता है। यू.पी.को गुजरात बनाने की धमकी देने वाले प्रसन्नचित्त योगी के हाथों सम्मानपत्र लेते उदयप्रकाश को देखते ही जिनके बदन में पीड़ा की लहर दौड़ी,वे उदय के शुभचिंतक ही थे।

पर इसके बाद जो हो रहा है, वो ज्यादा गंभीर है। उदय ने जिस तरह बताना शुरू किया कि वे जातिवादी-नस्लवादी गिरोहबंदी के शिकार हुए हैं, उससे साफ हो गया कि असल मुद्दे में उनकी कोई रुचि नहीं है। फिर उनकी पैरोकारी में उतरे कुछ लोगों ने गिनती करके ये भी बता दिया कि इस घटना के विरोध में जारी पत्र में नाम देने वाले लेखकों में कितने ब्राह्मण हैं और कितने कायस्थ। ये भी, कि किन-किन लेखकों ने किस अकादमी से पुरस्कार लिया, या किस सरकार का विज्ञापन अपनी पत्रिका में छापा। जैसे लोकसभा में जब विपक्ष सरकार की करतूत का खुलासा करता है तो सरकार बताती है कि विपक्ष के लोगों ने कहां-कहां और कैसे-कैसे कुकर्म किए। हंगामे के बीच वो सवाल दफ्न हो जाता है, जिस पर बात होनी थी।

उदय कह रहे हैं कि वे गोरखपुर के कार्यक्रम योगी की उपस्थिति का राजनीतिक पाठ नहीं कर पाए। लेकिन उदय का ये रूप उनके विचारों में आए जबरदस्त परिवर्तन का नतीजा है। इस बात को वे स्वीकार भी कर चुके हैं। दिक्कत ये है कि उनके चाहने वाले उस उदय को खोज रहे हैं जो प्रगतिशील मूल्यों का पक्षधर होने का दावा करता था। वे नहीं देख पा रहे कि आजकल उदय 'औलिया' की रहमत में दुनिया का मुस्तकबिल देख रहे है, और मानते हैं कि लेखक को विचारों की बाड़बंदी से ऊपर होना चाहिए।

उदय जी को तो याद नहीं होगा, लेकिन मैं नवंबर 2005 (जहां तक याद आ रहा है) में लखनऊ में हुए कथाक्रम सम्मान को भूल नहीं पाऊंगा। वहां सम्मानित होने आए उदय प्रकाश ने अपने भाषण में कहा था कि उनकी ईश्वर में आस्था है। चौंकना लाजिमी था क्योंकि उदय उसी धारा के कवि-लेखक माने जाते थे जो ईश्वर को मुक्ति का नहीं, शोषण का विचार मानती है। संयोग से शाम को ट्रेन पकड़ने के पहले उनके जिस चाहने वाले ने उनकी आवभगत की थी, उसने मुझे भी आमंत्रित किया था। बेचैन मन से मैंने उनसे काफी बहस की थी। खासतौर पर भगत सिंह के 'मैं नास्तिक क्यों हूं' लेख के तर्कों का जवाब मांगा था। उदय कुछ घबराए से थे (ऐसा मुझे लगा) या शायद तब वे नए मुल्ला थे। हालत डांवाडोल थी, बहस में उलझने से बच रहे थे। इस घटना के वक्त कवि पंकज चतुर्वेदी भी मौजूद थे।

यानी, 'विचारों की बाड़बंदी से लेखक को ऊपर उठ जाना चाहिए' का मंत्र फूंकने वाले उदय चार साल पहले ही उस वैचारिक बाड़े में खूंटा गाड़ चुके थे जिसने ज्ञान-विज्ञान के कदम-कदम पर कांटे बोए। मनुष्य द्वारा मनुष्य को गुलाम बनाना हो, राष्ट्र द्वारा राष्ट्र को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ना हो, यहूदियों को गैस चैंबर में भूनना हो, या फिर विश्वयुद्दों में लाखों मनुष्यों का संहार- सबको परमसत्ता की इच्छा का नतीजा बताया। वही परमसत्ता, जिसकी इच्छा के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता तो योगी की क्या बिसात थी कि उदयप्रकाश को सम्मानित करता। उसी परमसत्ता की इच्छा के आगे उदय प्रकाश ने सिर झुका दिया।

लेकिन बात इतनी सीधी है नहीं। मैं उन खबरों को पढ़कर चकित था कि जिस लेखक को धरती का धुरी पर घूमते रहना परमसत्ता का खेल लगता है वो दलित आंदोलनकारियों के मंच से सम्मानित हो रहा है। मुझे 'दिमागी गुलामी' लिखने वाले ज्योतिबा फुले और अवतारवाद के षड़यंत्र से मुक्त होने का आह्वान करते डा.अंबेडकर याद आ रहे थे। दलितों को वर्णव्यवस्था की मानवद्रोही चक्की में पीसा जाना भी तो ईश्वर की ही मर्जी थी। तभी तो डा.अंबेडकर ने योगियों के हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध हो जाना बेहतर समझा जहां दुख को दूर करने का ठेका किसी आसमानी सत्ता को नहीं दिया गया है। फिर उदय एक तरफ दलित आंदोलन के ध्वजावाहक और दूसरी तरफ ईश्वरवादी कैसे हो सकते हैं?

कहीं ऐसा तो नहीं कि उदय जिस बाम्हनपारा की बात करते हैं उसे दलित वही ब्राह्मणवाद समझ बैठे हैं, जिसके खिलाफ डा.अंबेडकर ने अलख जलाई थी, और जिसे किसी भी प्रगतिशील राजनीतिक विचार का पहला निशाना होना चाहिए। ये मैं इसलिए कह रहा हूं कि हिंदी को लेकर कुछ महीने पहले मैं जब उनसे उलझा, (ये बहस उनके ब्लाग में अब भी है) तो उन्होंने उन मुझे उन लेखकों की जाति पता करने की नसीहत दी, जिन्हें मैंने प्रगितवादी बताते हुए उनकी इस स्थापना का विरोध किया था कि हिंदी का पूरा साहित्य प्रतिगामी और सामंती है। वे बताना चाहते थे कि हिंदी में बाह्मनपारा हावी है जिसने उन्हें साजिश करके उन्हें हाशिये पर डाला है। इसके अलावा उन्होंने इकोनामिक टाइम्स में छपे उस लेख में 'अंग्रेजी लाओ-देश बचाओ' का नारा भी दिया था, जिससे मुझे उनके इरादों पर शक हो रहा था। फिर योगी प्रकरण में वे पूरी हिंदी पट्टी को ही वीर विहीन बताने लगे। पूछा कि मार्क्स, गांधी, भगत सिंह, सुभाष क्यों नहीं पैदा हुए। प्रेमचंद, लोहिया, जयप्रकाश, चंद्रशेखर आजाद, अश्फाक उल्ला, शमशेर, त्रिलोचन या तो उन्हें याद नहीं आते या वे याद करना नहीं चाहते।

वैसे उदय के आरोपों के हल्केपन को देखकर उन्हीं के अंदाज में ये सवाल भी उठाया जा रहा है कि कहीं बाह्मनपारा के खिलाफ वे ठाकुरबाड़ी तो नहीं बना रहे हैं। संयोग से योगी भी उन्हीं की जाति के भूषण हैं। और वे भी, जो उदय के इस कृत्य के जवाब में कह रहे हैं कि ‘बचेगा तो साहित्य ही।‘ निश्चय ही हिंदी पट्टी में ब्राह्मणवाद एक बड़ी समस्या है। लेकिन ये उदय प्रकाश के जेएनयू में अध्यापक बन जाने से समाप्त हो जाती, ऐसा तो नहीं। इसके लिए तो सबसे पहले उन ताकतों से लड़ना पड़ेगा जिनके सिर पर योगी आदित्यनाथ जैसों की सदियों से छत्रछाया बनी हुई है। लेकिन उदय तो खुद ऐसे ही छत्र की छाया से आह्लादित हैं। ऐसे में दलितों को भरोसा देने वाली कहानियां, क्राफ्ट के अलावा क्या कही जाएंगी।

जो लोग इस मसले पर पर्दा डालने के लिए याद दिला रहे हैं कि किस-किस लेखक ने किससे कहां-कहां लाभ लिया, उन्हें भी सोचना चाहिए। सही है कि अकादमियां भी पूरी तरह स्वायत्त नहीं होतीं और सम्मान को लेकर राजनीति भी होती है। लेकिन दंगाई के हाथ से सम्मानित होना और साहित्य अकादमी से पुरस्कार लेने को एक बराबर तौलना कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे सरकार का विरोध करने वालों से मांग की जाए कि वे सरकार की बनाई सड़क पर नहीं चलेंगे। निश्चय ही ये कोई आदर्श स्थिति नहीं है, लेकिन लेखक सरकारों से नहीं, जनता के हाथों से सम्मानित हों, ऐसी दुनिया योगी जैसे लोगों से लड़कर ही बनेगी, उनसे सम्मानित होकर नहीं।

शमशेर का एक कत: याद आ रहा है...


हम अपने ख्याल को सनम समझे थे,
अपने को ख्याल से भी कम समझे थे,
होना था, समझना न था शमशेर,
होना भी कहां था वह जो हम समझे थे।

20 जुलाई, 2009

09 जनवरी, 2009

दुर्गा मिसिर का निधन

आज शाम कोई आठ बजे दुर्गा दादा का निधन हो गया। वही जो मेरी यात्रा की यात्रा के नायक थे और जिसे लिखना छोड़कर मैं अपने आलसीपने के कारण बीच में छोड़ कर लफंडरपन करने लगा था। रात कोई ग्यारह बजे सीपीआई के रा.सचिव अतुल कुमार अनजान ने फोन पर बताया। कोई फोटो तक नहीं है मेरे पास कि यहां लगा सकूं। पता नहीं क्यों लगता था कि वे और मैं हमेशा रहेंगे इसलिए कभी फोटू वगैरा का ख्याल तक नहीं आया। अनजान ने कहा कि उनके निधन की खबर अखबारों में दी जाए लेकिन ऐसे दिन गए कि मुहर्रम पर सारे अखबार बंद हैं। कल दिन में उन्हें चिता में जलता देखने की रस्म बाकी है। अब जब तक गढ़वाल यात्रा पूरी नहीं होगी, हारमोनियम पर कुछ और नहीं लिखा जाएगा। मैं हैरान हूं कि मेरे लिए वे बाप से बढ़कर थे क्योंकि मेरे दोस्त थे तो इस तरह अचानक कैसे बदल गए?