सफरनामा
पत्रकारिता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
पत्रकारिता लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

02 अक्टूबर, 2010

गांधी जी, आंप लिखिए


मैने बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा। लिखा, उतना ही बस जितना रिपोर्टर की नौकरी चलते रहने के लिए जरूरी था। लिखने के बारे में सालों से लगातार सोच रहा हूं। जैसे दिमाग की स्निग्ध, गतिमान, अखरोट के आकार की आलमारी में एक खाली खाना है जिस पर चिप्पी लगी है "लिखने का खाना"। लेकिन हर बार देखने पर चिप्पी दिखती है और उतरते झूले की हौंक सा खालीपन महसूस होता है। काश यह बिम्ब रसोई का होता और चिप्पी चीनी या मसूर की दाल की लगी होती और डिब्बा इतने लंबे समय से खाली होता तो भी इतना खालीपन महसूस नहीं होता।

यह दूसरे तरह का दुख है, लिखकर ऊपर वाले पैरे को मसालेदार तीव्र देसी शराब की तरह असरकारक बनाया जा सकता था। जरा काव्यात्मक भी। लेकिन यह किसी दूसरे, तीसरे टाईप का दुख नहीं है। एक बार मैने और एक दोस्त ने जो बाद में साधू हो गया एक स्वांग बनाया था। हम दोनों अलग-अलग आवाजों में जरा नाक का रचनात्मक प्रयोग करते हुए दिन में पचासों बार एक दूसरे से कहते थे- आंप लिखिए। और खूब हंसते थे। कैसे हर बार वह एक छोटे से वाक्य का कहना, पता नहीं कितने संबंधो (लेखक-प्रशंसक, पोंगा गुरूजी-चापलोस छात्र, रिपोर्टर-संपादक, दो लेखकों की मदमाती पहली मुलाकात आदि ) को उनका वास्तविक पुनर्जीवन दे देता था।

लिखना मन लगाकर बतियाने जैसा काम है। अभी तो टोटका मिटाने की हड़बड़ी है।

साधारण लोग जिन चीजों के बारे में अक्सर बात करते हैं, उनमे से कई जरूरी चीजों के बारे में बहुत कम या प्राय: कोई नहीं लिखता। अखबार में भी नहीं जहां दैनंदिन जीवन के होने का दावा होता है। उदाहरण के लिए इन दिनों लोग एक जज साहबान की बात कर रहे हैं जो लकड़ी धुल कर अपना खाना खुद बनाते हैं। उन्होंने अपने बंगले में एक गाय पाल रखी है। उसे खिलाने के बाद खुद खाते हैं और उसे प्रणाम किए बिना हाईकोर्ट नहीं जाते।

माना कि इस जमाने में भी लकड़ी....। लेकिन जिस लकड़ी को सूखा रखने के लिए इतने जतन किए जाते हैं उसे धुलने का क्या मतलब और भीग गई तो उस पर खाना कैसे बनेगा। यह लकड़ी को पवित्र करने या शायद भोजन-मंत्र से जुड़ा कोई अनुष्ठान होगा जिसे धुलना कहा जा रहा है। पर बेहद मामूली लोगों तक जज साहब के निजी जीवन से जुड़ी अजीब सी लगती यह जानकारी किनके जरिए पहुंची और वे इसके बारे में क्यों इतनी बात कर रहे हैं- यह अखबार समेत मीडिया को बताना चाहिए था। क्या इस आचार का किसी न्यायिक निर्णय से कोई संबंध हो सकता है और यह आदत क्या देश की राजनीति को प्रभावित कर सकती है? हिन्दी साहित्य से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है। उसका हाजमा इन दिनों खराब हो चुका है। वह कालिया-विभूति को ही नहीं पचा पा रहा है। इस साल का उसका एजेन्डा तय हो चुका है।

जैसे बच्चों को जू-जू से डराया जाता है, लोकतंत्र को अदालत से डरना सिखाया जाता है। किस्से चलते रहते हैं- एक जज था उसने रामपुर के रेलवे स्टेशन से थोड़ा पहले चलती गाड़ी में ही अदालत लगा ली और एक यात्री को नौ महीने जेल की सजा सुना दी क्योंकि उसने मी लार्ड कहे बिना उनसे नमस्कार कर लिया था। वे चाहे तो भरे ट्रैफिक में अपनी कार को ही अदालत मान कर आपको सजा सुना सकते हैं। वे बहुत ज्यादा समय अकेले रहते हैं। फैसलों पर मिलने वालों का असर न पड़े इसलिए। फिर अकेलापन आदमी को ऐसा ही बना डालता है। इसका परिणाम यह होता है कि कचहरी जाने या न जाने वाले बहुत साधारण लोग जज साहब से कुछ फीट की दूरी पर बैठने वाले पेशकार के आसपास की तुच्छ किन्तु सतत प्रच्छाय हरीतिमा और उसकी छाया से लाभान्वित होने वाले विशाल वृक्षों की बात करते तो रहते हैं लेकिन वह दृश्य किसी भी रूप में किसी अखबार में नहीं देखने को मिलता। हिन्दी साहित्य में भी जज पात्र और लोकेल के रूप में अदालत बहुत कम आए हैं।

आम जीवन के छोटे-छोटे सत्यों की लगातार उपेक्षा का नतीजा यह होता है कि जब कोई पुराना कानून मंत्री चिल्ला कर कहता है अब तक देश के जितने मुख्य न्यायाधीश हुए उसके करीब आधे भ्रष्ट थे तो टीवी देखते कुछ लोग ऊंघती आवाज में कहते हैं-ऐं ऐसा है क्या? तब भी वे सहज लगते हैं।

ठीक इसी वक्त जब लिखने का टोटका मिटा चाहता है, सबसे आखिर में फिल्म के परदे से उधार लेकर यहां जता देने की इच्छा हो रही है कि इस गल्पागल्प के पात्र, घटनाएं क्या कहिए एक-एक शब्द काल्पनिक है और उसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है, किसी वर्तमान या सेवानिवृत्त न्यायाधीश से तो कतई नहीं। यह किसका प्रभाव है। जब तक यह प्रभाव रहेगा, हमारे समाज में असल लिखे का अभाव नहीं रहेगा क्या?

अपने इस टोटके को नैतिक धज देने के लिए मैं इसे गांधी जयंती पर गांधी की आत्मा को लिखा गया पत्र भी कह सकता हूं। गांधी जी बैरिस्टर रहे थे और सत्य के लिए उनका आग्रह भी था। लोगों को उनकी बैरिस्टरी का कोई पराक्रम नहीं पता लेकिन वे जानते हैं कि उन्होंने किस जरूरत के लिए के लिए छुटपन में अपने कड़े का टुकड़ा बेचा था और जिस समय उनके पिता की मृत्यु हो रही थी वे कहां और क्यों थे। गांधी जयन्ती पर किसी न किसी को यह जरूर लिखना चाहिए कि यह सब कौन नहीं करता लेकिन प्यारे बुढऊ को यह सब स्वीकार करने की क्या पड़ी थी?

25 मई, 2010

पीएम, प्रेस-कांफ्रेंस और पत्रकारिता

सोमवार को हुई प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दूसरी पारी की पहली प्रेस कांफ्रेंस से कुछ निकला हो या नहीं, इसने पत्रकारों और पत्रकारिता के तेजी से बदलते सरोकारों को बेपर्दा जरूर कर दिया। ये संयोग नहीं कि प्रधानमंत्री के लिखित वक्तव्य में तो सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा से जुड़े मुद्दों की कमी नहीं थी, लेकिन सवाल पूछने वाली पत्रकार बिरादरी में उनका जिक्र किसी अपवाद की तरह था।

हालांकि इस प्रेस कांफ्रेंस की शुरुआत महंगाई जैसे अहम सवाल से हुई। लेकिन प्रधानमंत्री ने जब इसके लिए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का जिक्र करते हुए दिसंबर तक हालात में सुधार का दावा किया, तो सब लोग संतुष्ट हो गए। जबकि ऐसे दावे अतीत में न जाने कितनी बार किए जा चुके हैं। यूपीए-2 की शुरूआत के साथ ही सौ दिन में महंगाई पर काबू पाने का दावा किया गया था। जाहिर है, इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को घेरा जा सकता था, लेकिन ऐसा लगा कि एक औपचारिकता थी, जो पूरी हो गई है।

इसके बाद लगभग डेढ़ घंटे तक सवाल-जवाब हुए। लेकिन अफसोस, कुल 53 सवालों में गरीबी जैसा अहम मुद्दा कहीं नहीं था। अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी देश की 77 फीसदी आबादी को गरीबी रेखा के नीचे बता चुकी है। हाल ही में सरकार ने जिस तेंडुकलकर कमेटी का निष्कर्ष स्वीकार किया है, उसके मुताबिक भी देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की तादाद करीब दस फीसदी उछलकर 37.5 फीसदी हो गई है। यानी करीब 47 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। तो ये सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री जी, आखिर आपकी नीतियों में क्या गड़बड़ी है कि गरीबों की तादाद बढ़ती जा रही है। ऐसा नहीं है कि इससे मनमोहन सिंह की उपलब्धियां कम हो जातीं, लेकिन उन्हें ये जरूर समझ में आ जाता कि पत्रकार उनके काम काज पर कितनी बारीकी से निगाह रख रहे हैं। लेकिन या तो पत्रकारों में प्रधानमंत्री को असहज करने वाले सवाल पूछने की हिम्मत नहीं बची है, या फिर वे खुद गरीबी को बेकार का सवाल मान चुके हैं।

यही हाल नक्सलवाद से जुड़े सवालों को लेकर था। इस सिलसिले में जो भी सवाल पूछे गए वो सरकार की तैयारियों य़ा इस मुद्दे पर पार्टी और सरकार में मतभेद को लेकर थे। किसी ने ये सवाल नहीं पूछा कि आदिवासियों को उनकी जमीन से उजाड़े जाने पर प्रधानमंत्री का क्या विचार है। दिलचस्प बात ये है कि योजना आयोग की सदस्य और वर्तमान गृह सचिव जी.के पिल्लई की पत्नी सुधा पिल्लई साफतौर पर कह रही हैं कि आदिवासियों को लेकर सरकार औपनिवेशिक मिजाज से काम कर रही है। कानून बनने के 14 साल बाद भी पंचायत एक्सटेंशन टू शिड्यूल्ड एरियाज (PESA) अमल में नहीं लाया जा रहा है। वहीं दंतेवाड़ा में 76 जवानों के मारे जाने की घटना की जांच कर रहे बीएसएफ के पूर्व डीजी ई.एन.राममोहन ने ताजा साक्षात्कार में भूमिसुधार से कन्नी काटने और वनोपज पर आदिवासियों को अधिकार न देने को माओवादी समस्या की जड़ बताया है। पर जो बात नौकरशाह खुलकर कहने को तैयार हैं, वो कहना भी पत्रकारों के बूते की बात नहीं रह गई है। उलटे उनका सवाल था कि मानवाधिकार का सवाल उठाकर सुरक्षाबलों का मनोबल तोड़ने वालों के खिलाफ सरकार क्या कर रही है। देश ने वो दिन भी देखा कि प्रधानमंत्री ने पत्रकारों को मानवाधिकारों के महत्व का पाठ पढ़ाया।

यही रुख किसानों की आत्महत्या को लेकर भी रहा। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक 1997 से देश में अब तक दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। 1997 से 2008 तक 12 सालों में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक,मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में ही 1,22,823 किसानों ने खुदकुशी की। 2008 में ही 16,196 किसानों ने मौत को गले लगाया था। औसतन हर एक घंटे में दो किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ये कृषि प्रधान कहे जाने वाले देश की खौफनाक तस्वीर है। लेकिन प्रधानमंत्री के सामने ये सवाल उठाने की हिम्मत किसी पत्रकार की नहीं हुई। शायद पत्रकारों ने मान लिया है कि भारत जिस आर्थिक राह पर है, वो सही है और उसमें किसानों के लिए खुदकुशी ही नियति है।

ये भी हो सकता है कि जो पत्रकार ऐसे सवाल पूछ सकते थे, उन्हें जानबूझकर मौका नहीं दिया गया। फिर भी 53 सवालों के जरिये जो तस्वीर सामने आई है वो बेहद निराशाजनक है। वैसे ज्यादातर पत्रकारों का जोर रसीली हेडलाइन पाने पर था और वे इसमें कामयाब रहे। प्रधानमंत्री ने कह दिया कि वे राहुल गांधी के लिए प्रधानमंत्री पद छोड़ने को तैयार हैं। सारे अखबारों और न्यूज चैनलों में यही हेडलाइन बनी। ये अलग बात है कि इस 'महान' जानकारी के लिए इतना समय और संसाधन बर्बाद करने की जरूरत नहीं थी। ये बात तो देश के किसी भी हिस्से में, चायखाने में बैठा शख्स छूटते ही बता सकता है। अगर मनमोहन सिंह, सपने में भी कोई दूसरा जवाब देने की स्थिति में होते, तो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर कभी नहीं बैठाए जाते।

जाहिर है, प्रधानमंत्री की प्रेस कांफ्रेंस पत्रकारिता के तेजी से बदल रहे सरोकारों का सुबूत है। वरना, पत्रकार हमेशा गिलास को आधा भरा बताएगा ताकि इसे पूरा भरने का उपक्रम तेज हो सके। ये नकारात्मक सोच नहीं, जनपक्षधरता की कसौटी है। लेकिन प्रेस कांफ्रेंस से साफ था कि देश की बहुसंख्यक जनता पत्रकारों की चिंता से बाहर हो चुकी है। पत्रकारों की बड़ी जमात खुद 'इलीट' का हिस्सा बनने को बेकरार है और वैसे ही सोचने की आदत डाल रही है। ये अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसी बात है। पत्रकारों को भूलना नहीं चाहिए कि 47 करोड़ लोगों की परेशानी को वे आवाज नहीं देंगे, तो उनका लोकतंत्र पर भरोसा नहीं बचेगा। इतनी बड़ी आबादी का असंतोष भड़का तो लोकतंत्र भी नहीं बचेगा। और लोकतंत्र नहीं बचेगा तो पत्रकारिता भी नहीं बच पाएगी।

लेकिन इन पत्रकारों को कौन याद दिलाए कि पैर पर कुल्हाड़ी मारने वाले हमेशा कालिदास ही नहीं बनते, कई बार चलने-फिरने की ताकत भी खो देते हैं, हमेशा के लिए।

01 मार्च, 2010

के एन वी ए एन पी... (नहीं पढ़तीं न पढ़ेंगी)

यह एक कहानी है। लंबी कहानी,उपन्यास की हद से जरा पहले खत्म होती हुई। चार साल पहले लिखी गई इस कहानी ने काफी धक्के खाए। वैसे ही जैसे कुछ जरा लंबे या नाटे, ज्यादा हंसने या चुप रहने वाले, मतिमंद या तेज लोग अपने घर में अपैथी और उपेक्षा के शिकार हो जाते हैं। कारण कुछ और होते हैं नजर कुछ और आते हैं। किसी ने कहा बेहद लंबी है, किसी ने कहा कि इसका कोई नायक नहीं है, ज्यादातर ने कुछ नहीं कहा।

दोस्त अशोक पांडे और मेरे महबूब कथाकार योगेन्द्र आहूजा ने पढ़ा। कुछ सुझाव दिए। मैने कुछ हिस्से फिर से लिखे। अब इसे आप सबके सामने धारावाहिक प्रस्तुत किया जा रहा हैं। पढ़िए...। इसे होली का एक रंग माना जाए।



क्योंकि नगर वधुएं अखबार नहीं पढ़तीं


छवि जिसे फोटो समझती थी, दरअसल एक दुःस्वप्न था। रास्ते में चलते-चलते अक्सर उसे प्रकाश के हाथों में एक चेहरा दिखता था और उसके पीछे अपने दोनों हाथ सीने पर रखे, कुछ कहने की कोशिश करती एक बिना सिर की लड़की....।

प्रकाश जिसे सपना जानता था, एक फोटो थी जो कभी भी नींद की घुमेर में झिलमिला कर लुप्त हो जाती थी- रात की झपकी के बाद जागते, अलसाए घाट, लाल दिखती नदी और सुबह का साफ आसमान है। एक बहुत ऊंचे झरोखेदार बुर्ज के नीचे सैकड़ों नंगी, मरियल, उभरी पसलियों वाली कुलबुलाती औरतों के ऊपर काठ की एक विशाल चौकी रखी है। उस डोलती, कंपकंपाती चौकी पर पीला उत्तरीय पहने उर्ध्वबाहु एक कद्दावर आदमी बैठा है जिसके सिर पर एक पुजारी तांबे के विशाल लोटे से दूध डाल रहा है। चौकी के एक कोने पर मुस्तैद खडे़ एक मुच्छड़ सिपाही के हाथों में हैंगर से लटकी एक कलफ लगी वर्दी है जो हवा में फड़फड़ा रही है। थोड़ी दूर समूहबद्ध, प्रसन्न बटुक मंत्र बुदबुदाते हुए चौकी की ओर अक्षत फेंक रहे हैं।

इस फोटो और सपने को एक दिन, पूरी शक्ति के साथ टकराना ही था और शायद सबकुछ नष्ट हो जाना था। मृत्यु हमेशा जीवन के बिल्कुल पास घात लगाए दुबकी रहती है लेकिन जीवन के ताप से सुदूर लगती है। यह दिन भी उन दोनों से बहुत दूर - बहुत पास था।

फोटोजर्नलिस्ट प्रकाश जानता था कि यह सपनों की फोटो है जो कभी नहीं मिलेगी लेकिन इसी अंतर्वस्तु की हजारों तस्वीरें उन दिनों गलियों, घाटों, सड़कों और मंदिरों के आसपास बिखरी हुई थी, जिनमें से एक को भी वह कायदे से नहीं खींच पाया। सब कुछ इतनी तेजी से बदल रहा था कि कैमरा फोकस करते-करते दृश्य कुछ और हो चुका होता था और अदृश्य सामने आ जाता था। लगता था पूरा शहर किसी तरल भंवर में डूबता-उतराता चक्कर खा रहा है।


लवली त्रिपाठी की आत्महत्या

धर्म, संस्कृति और ठगी के पुरातन शहर बनारस में सहस्त्राब्दि का पहला जाड़ा वाकई अजब था। हाड़ कंपाती, शीतलहर में लोग ठिठुर रहे थे लेकिन घुमावदार, संकरी, अंधेरी गलियों में और भीड़ से धंसती सड़कों पर नैतिकता की लू चल रही थी। लू के थपेड़ों से समय का पहिया उल्टी दिशा में दनदना रहा था।
नैतिकता की इस लू के चलने की शुरुआत यूं हुई कि सबसे पहले एक कुम्हलाती पत्ती टूट कर चकराती हुई जमीन पर गिरी।

उस दिन के अखबार के ग्यारहवें पन्ने पर सी. अंतरात्मा के मोहल्ले के एक घर की ब्लैक एंड व्हाइट, डबल कालम फोटो छपी। आधा ईंट-आधा खपरैल वाले घर के दरवाजे के बगल में अलकतरे से एक लंबा तीर खींचा गया था, जिसके नीचे लिखा था, ‘यह कोठा नहीं, शरिफों का घर है।’ तीर की बनावट में कुछ ऐसा था जैसे खुले दरवाजे की ओर बढ़ने में वह हिचकिचा रहा हो और शरीफों में छोटी इ की मात्रा लगी थी। घर के आगे एक भैंस बंधी थी जो आतुर भाव से इस लिखावट को ताक रही थी। फोटो के नीचे इटैलिक, बोल्ड अक्षरों में कैप्शन था- ‘ताकि इज्ज्त बची रहेः बदनाम बस्ती में आने वाले मनचले अब पड़ोस के मुहल्लों के घरों में घुसने लगे हैं। लोगों ने अपनी बहू बेटियों के बचाव का यह तरीका निकाला है। महुवाडीह में इन दिनों करीब साढ़े तीन सौ नगर-वधुएं हैं।’

सी. अंतरात्मा ही प्रकाश को लेकर वहां गए थे। दोनों को अफसोस था कि अंदर के पेज पर काले-सफेद में छापकर इतने अच्छे फोटों की हत्या कर दी गई है।

काशी की संस्कृति के गलेबाज कहा करते थे कि यहां के अखबार आज भी बहन-बेटी का संबंध बनाए बिना वेश्याओं तक की चर्चा नहीं करते। यह आचार्य चतुरसेन के जमाने की भाषा की जूठन बची हुई थी। वे अपहरण को बलान्नयन, बलात्कार को शीलभंग, पुलिस की गश्त को चक्रमण और काकटेल पार्टी को पान- गोष्ठी लिखते थे। धोती वाले संपादक ही नहीं प्रूफ रीडर, पेस्टर, टाइपराइटर और टेलीप्रिंटर भी विदा हो चुके थे लेकिन सूट के नीचे जनेऊ की तरह अखबरों के व्यक्तित्व में ये शब्द छिपे हुए थे, और कई लक्षणों के साथ इस भाषा से भी अखबारों की आत्मा की थाह मिलती थी।

रोज की तरह उस दिन भी बयालीस साल के संवाददाता सी. अंतरात्मा अपनी खटारा स्कूटर से जिसके आगे पीछे की नंबर प्लेटों के अलावा स्टेपनी पर भी लाल रंग से प्रेस लिखा था, शाम को चीरघर गए। लाशों का लेखा-जोखा उनका रूटीन असाइमेंट था। उन्होंने चौकीदार को चाय पिलाई, एक बीड़ा पान खिलाया, खुद भी जमाया और कागज कलम निकालकर इमला घसीटने लगे। मर्चुरी में उस दिन आई लाशों के नाम, पते, मृत्यु का कारण और कुछ किस्से नोट कर दफ्तर लौट आए। उन्होंने रिपोर्टिंग-डेस्क से पुलिस के भेजे क्राइम बुलेटिन का पुलिंदा, निंदा, बधाई, चुनाव, मनोनयन, की विज्ञप्तियां बटोरीं और अखबार के सबसे उपेक्षित कोने में जाकर बैठ गए। रात साढ़े दस तक वह मारपीट, चेन छिनैती, स्मैक बरामदगी, आलानकब और प्रथम सूचना रपट दर्ज की सिंगल कॉलम खबरें बनाते रहे। ग्यारह बजे क्राइम रिपोर्टर को ये खबरें सौंपकर वे सीनियरों को पालागन के दैनिक राउंड पर निकलने ही वाले थे कि उसने पूछा, ‘यह लवली त्रिपाठी कौन हैं जानते हैं?’

‘सल्फास खाकर आई थी, किसी अफसर की बीबी है, पोस्टमार्टम तुरंत हो गया अब तो दाह संस्कार भी हो चुका होगा।’ उन्होंने बताया।

‘और यह रमाशंकर त्रिपाठी, आईपीएस कौन है?

उन्होंने सिर खुजलाया। मतलब था, आप ही बताइए कौन हो सकते हैं।

क्राइम रिपोर्टर बमक गया, अरे बुढ़ऊ रात ग्यारह के ग्यारह बज रहे हैं। चार घंटे से चूतड़ के नीचे डीआईजी की बीबी की आत्महत्या की खबर दबाए बैठे हो और अब सिंगल कालम दे रहे हो। कब सुधरोगे। कब डेवलप होगी, कब जाएगी, यह कब छपेगी। सी. अंतरात्मा की घुन्नी आंखें चमकीं, जरा जोर से बोले हम क्या जानें, हम तो समझे थे कि आपको पहले से पता होगा। प्रकाश ने भी जानकारी दी कि अंतिम संस्कार की फोटो भी है, तीन बजे मणिकर्णिका घाट पर हुआ था।

कोई जवाब देने के बजाय रिपोर्टर ने लपककर खाली पड़े एक टेलीफोन को गोद में उठा लिया। पौन घंटे तक सिपाही, दरोगा, ड्राइवर, नर्सिंग होम की रिसेप्शनिस्ट की मनुहार करने के बाद उसने पूरा ब्यौरा जुटा लिया। खबर का इंट्रो कम्प्यूटर में फीड करने के बाद उसने सी. अंतरात्मा को बुलवाया जो दफ्तर के बाहर पान की दुकान पर अपनी मुस्तैदी और क्राइम रिपोर्टर की चूक की शेखी बघार रहे थे। उसने उनकी ड्यूटी रात डेढ़ बजे तक के लिए डीआईजी के बंगले के बाहर लगा दी। अंतरात्मा जानते थे कि बंगले बाहर अब कुछ नहीं मिलना है, इसलिए उन्होंने जी भईया जी कहा और अपने घर चले गए।

डीआईजी की बीबी सुंदर थी, सोशियोलाइट थी, शहर की एक हस्ती थी। उसने भरी जवानी में आत्महत्या क्यों की। इसके बारे में सिर्फ कयास थे। एक कयास यह था कि डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी के अवैध संबंध किसी महिला पुलिस अफसर से थे, जिसके कारण उसने जान दे दी। लेकिन इस कयास को किसी ने गॉसिप के कालम में भी लिखने की हिम्मत नहीं की, डर था कि तूफान से भी तेज रफ्तार उन जीपों की शामत आ जाएगी जो रात में अखबार लेकर दूसरे जिलों में जाती थीं। तब पुलिस अवैध ढंग से सवारी लादने के आरोप में उनका चालान करती, थाने में खड़ा कराती। एक घंटे की भी देर होती तो सेंटर तक पहुंचते-पहुंचते अखबार रद्दी कागज हो जाता। प्रतिद्वंद्वी अखबारों की बन आती। ऐसे समय क्राइम रिपोर्टर को ही पुलिस के बड़े अफसरों से चिरौरी कर जीपें छुड़ानी पड़ती थीं। मोटी तनख्वाह पाने वाले किसी कॉरपोरेटिया मैनेजर के पास इस देसी हथकंडे से निपटने का कोई ऊपाय नहीं था।

लवली त्रिपाठी, छवि की क्लाइंट थी जिसे वह अपनी दोस्त कहना पसंद करती थी। छवि यूनिवर्सिटी से ब्यूटीशियन का कोर्स करने के बाद अपने बूढ़े, बीमार पिता के असहाय विरोध के बावजूद घर के एक कमरे में व्यूटी पार्लर चलाती थी। डीआईजी की पत्नी से उसकी मुलाकात यूनिवर्सिटी की एक मेंहदी एंड फेशियल कंपटीशन में हुई थी जिसकी वह चीफ गेस्ट थी। अक्सर लवली त्रिपाठी के घर जाने के कारण वह जानती थी कि उसका सोशियोलाइट होना पति की उपेक्षा से त्रस्त आकर, दिन काटने की मजबूरी थी क्योंकि डीआईजी ने कह रखा था कि वह जहां चाहे मुंह मार सकती है या जब चाहे मर सकती है। लवली की दोस्त बनने की प्रक्रिया में छवि को एक नए तरह के फेशियल का आविष्कार करना पड़ा जिससे घूंसों से बने नील और तमाचों के निशान खूबसूरती से छिपाए जा सकते थे। वह लगातार प्रकाश से कह रही थी कि अपराध की फर्जी कहानियां रचने के माहिर डीआईजी ने ही लवली की हत्या की है और उसे फांसी मिलनी चाहिए।

प्रकाश और छवि के तीन साल पुराने प्यार में लवली त्रिपाठी अक्सर तनाव लेकर आती थी जिसके झटके से वह आगे बढ़ता था। प्रकाश को लगता था कि लवली जैसी संपन्न, निठल्ली औरतों के प्रभाव में आकर ही वह कहा करती है कि वह प्रेस फोटोग्राफी छोड़कर मॉडलों के फोटो खींचे और फैशन-फोटोग्राफर बन जाए तभी उसकी कला की कद्र होगी और पैसे भी कमा पाएगा। छवि जानती थी कि यह सुनकर उसके भीतर के जर्नलिस्ट उर्फ वाच डॉग को किलनियां लगती हैं, तब यह सलाह आती है कि अगर वह तमाचों के निशान छिपाने की मेकअप कला का पेटेंट करा ले तो करोड़ों महिलाएं उसकी क्लाइंट हो जाएंगी और टूटते परिवारों को सुंदर और सुखी दिखाने के अपने हुनर के कारण वह इतिहास में अमर हो जाएगी। समझौता यहां होता था कि कृपा करके अपनी-अपनी सलाहें उन बच्चों के लिए बचा कर रखीं जाएं जो भविष्य में पैदा होने हैं और अभी इस तरह से प्यार किया जाए कि वे पैदा न होने पाएं।.........क्योंकि शादी होने में अभी देर है।

प्रकाश के पास एक लवली त्रिपाठी की एक सहेली थी जो डीआईजी और उसके झगड़ों की प्रत्यक्षदर्शी थी और खुलेआम डीआईजी की फांसी की मांग भी कर सकती थी। लेकिन प्रकाश उसे किसी जोखिम में नहीं डालना चाहता था। उसने भी और पत्रकारों की तरह अपने प्रोफेशन और निजी जीवन को अलग-अलग जीना सीख लिया था क्योंकि दोनों का घालमेल इस नाजुक से रिश्ते को तबाह कर सकता था। फिर भी छवि को दुखी, परेशान देखकर उसने वादा किया कि इस मामले में सच सामने लाने के लिए उससे जो बन पड़ेगा जरूर करेगा।

बिना पुख्ता सबूत के हाथ डालना खतरनाक था। लेकिन इस सनसनीखेज मुद्दे को छोड़ा भी तो नहीं जा सकता था। इसलिए रिपोर्टरों को लवली त्रिपाठी के मायके दौड़ाया गया, उसकी सहेलियों को कुछ याद करने के लिए उकसाया गया, समाजसेवियों को उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर रोशनी डालने के लिए कहा गया। प्रकाश ने एक स्टूडियो से डीआईजी की फैमिली अलबम की कुछ पुरानी तस्वीरों का जुगाड़ किया। कुछ चर्चित आत्महत्याओं का ब्यौरा जुटाया गया और लच्छेदार शब्दों में ह्यूमन एंगिल समाचार कथाओं का सोता पन्नों से फूट निकला। समाचार चैनलों पर भी यही कुछ, जरा ज्यादा मसालेदार ढंग से आ रहा था।(...जारी)

05 जनवरी, 2010

बौनों का यह देश विशाल!

कभी-कभी सपनों के टूटे आईने में दिखने वाली शक्ल बेतरह डराती है। इक्कीसवीं सदी का पहला दशक जाते-जाते कुछ ऐसा ही मंजर छोड़ गया है। ऐसा लगता है कि भारत तेजी से बौनो के देश में तब्दील होता नजर आ रहा है। जिन मूल्यों पर इस महादेश की आधारशिला रखी गई थी, वो टुकड़े-टुकड़े होकर राजपथ से लेकर जनपथ पर बिखरे पड़े हैं। और अफसोस ये है कि किसी को अफसोस नहीं।

याद नहीं पड़ता कि नारायण दत्त तिवारी के अलावा मौजूदा दौर में कोई दूसरा नेता गांधी टोपी और खद्दर की ऐसी संभाल करता रहा हो। लेकिन हैदराबाद के राजभवन से निकले वीडियो टेप में न उनकी टोपी है न धोती। 86 बरस के तिवारी की ये दुर्गति एक व्यक्ति का मसला नहीं, उन सपनों के स्खलन की कथा है जिन्हें देख-देखकर देश जवान हुआ था।

एन.डी.तिवारी उन इन-गिने जीवित नेताओं में हैं, जिन्होंने देश के लिए कभी कुर्बानी दी थी। उन्होंने 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में 15 महीने की जेल काटी। आजादी के साल इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अध्यक्ष बने। फिर समाजवादी सपनों के साथ प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हुए और 1952 और 1957 में विधायक और नेता विरोधी दल बने। कांग्रेस में उनका आना 60 के दशक की शुरूआत में हुआ। इसके बाद वे सत्ता में समाते चले गए। उनके नाम तमाम उपलब्धियां दर्ज हैं। तीन बार उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री, उत्तराखंड के पहले कांग्रेसी मुख्यमंत्री और केंद्र में मंत्री। लेकिन इन सब उपलब्धियों पर भारी रहा राजभवन से निकला वो टेप जो 86 बरस की उम्र में उनकी रुचियों और चिंताओं का जीवंत प्रमाण है। (तिवारी इस टेप को गलत तो बताते हैं लेकिन अदालत में चुनौती देने को तैयार नहीं हैं..यानी..?. )

इसलिए तिवारी की पतनकथा गांधी और नेहरू का नाम लेकर देश बनाने निकले योद्धाओं की गाथा है। एक तरह से देखा जाए तो उस कांग्रेस संस्कृति की पतनकथा है जिसके एन.डी.तिवारी प्रतीक पुरुष रहे हैं। स्वदेशी और स्वावलंबन के नारे के साथ शुरू हुआ जो सफर भारत को तीसरी दुनिया के नेतृत्वकारी शिखर तक ले गया था, वो इसी पतन की वजह से 2010 में अमेरिकी खेमे के बाहर खड़ा गिड़गिड़ा रहा है कि कहीं पाकिस्तान के कटोरे को उससे ज्यादा न भर दिया जाए।

ये इक्कीसवीं सदी के पहले दशक में ही हुआ कि प्रधानमंत्री पद को कंपनी के सीईओ जैसा बना दिया गया। इस पद पर पहुंचने के लिए जनता के वोटों की दरकार नहीं रह गई। ये संयोग नहीं कि प्रधानमंत्री को चुनाव लड़ने की झंझट से मुक्ति दे दी गई। जी हां, मनमोहन सिंह पहले प्रधानमंत्री हैं जिनका कोई चुनाव क्षेत्र नहीं है। उनकी ईमानदारी का डंका बजता है, लेकिन उनकी आंख के सामने संसद में खरीद-फरोख्त हुई और वो चुप रहे।

ये वही दशक था, जिसमें 'इंडिया' ने 'भारत' को निर्णायक रूप से शिकस्त दे दी। अब भारत सिर्फ महानगरों में चमकेगा। जहां की चमचमाती सड़कों पर पैदल और साइकिल वालों के लिए कोई जगह नहीं होगी। ये वही दशक था, जिसमें आदिवासियों की तकलीफों पर दिमाग खर्च करने के बजाय तमाम आंदोलनों के खिलाफ सेना के इस्तेमाल की बेशर्म वकालत की गई। ऐसा नहीं कि विकास नहीं हुआ, लेकिन विकास की बहुमंजिला इमारत से देश की 75 फीसदी से ज्यादा आबादी को निकाल बाहर किया गया। और ये सब तानाशाही नहीं, लोकतंत्र के नाम पर हुआ।

गरीबों को हाशिये पर धकेलते जाने को लेकर इस दशक में अद्भुत आम सहमति नजर आई। राजनीति पूंजी की चेरी हो गई और गरीब देश की संसद पर करोड़पतियों का कब्जा हो गया। हाल ये है कि सादगी, शुचिता, त्याग और संस्कृति का नारा लगाने वाली देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी बीजेपी का अध्यक्ष उन नितिन गडकरी को बनाया गया जो पांच सौ करोड़ से ज्यादा की कीमत वाली कंपनियों के मालिक हैं।

समाजवादियों का हाल तो पूछिए ही मत। लोहिया के चेले मुलायम ने जो सिलसिला अमर सिंह के कारपोरेटी तड़कों को अपनाने के साथ शुरू किया था, वो बहू डिंपल को समाजवादी परचम थमाने तक जा पहुंचा। कोई नहीं जानता कि रातो-रातो मुलायम अमेरिका से परमाणु करार के पक्ष में कैसे खड़े हो गए, जिसे वे पानी पी-पीकर कोसते थे। हद तो ये है कि जीवन भर तुड़ा-मुड़ा कुर्ता पहनने वाले फायरब्रांड समाजवादी जार्ज फर्नांडिस ने जीवन की संध्या बेला में चुनाव आयोग के सामने करोड़ों के मालिक होने की तस्दीक की। उधर, वर्णव्यवस्था के विरुद्ध विकसित हो रहे एक महान आंदोलन को दलितों की देवी ने पथरीले पार्कों में कैद कर दिया और वर्ग-व्यवस्था खत्म करने का संकल्प जताने वाला लाल झंडा, किसानों और मजदूरों पर गोलियां चलवाता नजर आया।

ये पतन सिर्फ राजनीति में नहीं है। जरा संस्कृति के क्षेत्र में नजर डालिए। इसकी मुख्य संवाहक अगर क्षेत्रीय भाषाओं को माना जाए तो वे तिल-तिल मर रही हैं। अंग्रेजी को जीवन के हर मोर्चे पर स्थापित करने में जुटे लुके-छुपे षड़यंत्रकारी अब सीना ठोंककर नसीहत दे रहे हैं। इसके खिलाफ राज ठाकरे जैसे अराजक प्रतिवाद के अलावा कोई सुगबुगाहट नजर नहीं आती। हिंदी क्षेत्र में तो विकट स्थिति है। हिंदी के शिक्षक, पत्रकार, बुद्धिजीवी वगैरह तेजी से अंग्रेजी अपनाकर वैश्विक होने को मरे जा रहे हैं। गोया हिंदी संसार को चमकदार बनाने की जिम्मेदारी निरक्षरों पर है। साहित्यकारों का भी यही हाल है। वे जनता के लिए लिखने का दावा करते हैं लेकिन उनकी रचनाएं जनता पढ़-समझ ले, ये बात उनके और उनके संगठनों की चिंता से बाहर है। वे अंग्रेजी में मिलने वाली रायल्टी के किस्से सुन-सुनकर आहें भरते हैं और अपनी किताबों का अनुवाद कराने की जुगत भिड़ाते रहते हैं। जनता के पास सीरियलों की दुनिया को टुकुर-टुकुर ताकने के अलावा कोई चारा नहीं है।

देश का चंद्रयान अभियान सफल रहा। आतिशबाजी हुई। लेकिन कोई भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के पूर्व अध्यक्ष डा.जी.माधवन नायर की सुनने को तैयार नहीं है। डा.नायर कह रहे हैं कि युवा पीढ़ी ने विज्ञान की ओर आना बंद कर दिया है और तीस साल पहले विज्ञान में शोध करने आई पीढ़ी अब रिटायर हो रही है। पर सब आंख मूंदे हुए हैं। यही वजह है कि आईआईटी जैसे संस्थान शिक्षकों और शोधार्थियों की कमी से जूझ रहे हैं। जब बीटेक करके लाखों रुपये महीने मिल रहे हों तो हजारों वाली शिक्षक की नौकरी करना मूर्खता ही कहलाएगी। जबकि हकीकत ये है कि बुनियादी विज्ञान में काम नहीं हुआ तो टेक्नोलॉजी का विकास ठप होते देर नहीं लगेगी। लेकिन सबको सब कुछ तुरंत चाहिए, जंक फूड की तरह। फिलहाल जिस शिक्षा प्रणाली पर जोर दिया जा रहा है उसका जोर कॉल सेंटर में काम दिलाने पर है। विज्ञान में शोध के लिए अमेरिका तो है ही।

नजर में इस मोतियाबिंद का ही नतीजा है कि देश की राजधानी में यमुना की लाश पर अरबों रुपये का उल्लासमंच सज रहा है। 11 दिनों का ये राष्ट्रमंडल तमाशा देश के साथ एक अश्लील मजाक से ज्यादा कुछ नहीं। इतने पैसे में तो कई शहरों में यमुना में गिरने वाले हर नाले को साफ करने का इंतजाम हो सकता था। ठेकेदार-इंजीनियर-राजनेता गठजोड़ का ये गिद्धभोज शासकवर्ग की प्राथमिकताओं की चुगली भी है। जो बोतलबंद पानी का कारोबार हजारों करोड़ सालाना हो जाने को विकास समझते हों, वो एक नदी की मौत पर परेशान क्यों होंगे। विडंबना ये है कि इक्कसवीं सदी के दूसरे दशक के स्वागत में रचे जा रहे इस महाभ्रष्ट रास को देश का गौरव बताने में मीडिया भी पीछे नहीं है। राज्यसभा के एक द्वार पर 'सिर्फ संपादकों के लिए' की तख्ती यूं ही नहीं लगी है। लगता है कि सजग आवाजों को देशनिकाला मिल गया है।

यानी न कोई सपना बचा, न संकल्प। दुनिया की सबसे पुरानी सभ्यता होने का दुहाई देने वाला देश, विचार के हर मोर्चे पर महज पिछलग्गू पैदा कर रहा है। नायक-महानायक की जरूरत पूरा करने के लिए सिर्फ रुपहला पर्दा बचा है। वाकई, इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक की शुरूआत में हर तरफ एक बियाबान है जिसमें बस बौने चर-विचर रहे हैं। इनके रंग, इनके झंडे जुदा हैं, लेकिन हैं सब बौने के बौने। वे खुद को ऊंचा जताने के लिए हजारों कंधों की सीढ़ी लेकर चलते हैं। उम्मीद करिए कि इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक में इनके नीचे के कंधों में हरकत होगी। उम्मीद करिए कि इसी विराट शून्य से किसी शक्ति का उदय होगा।

12 अगस्त, 2009

एक टी.वी.पत्रकार का इस्तगास:

(ये व्यंग्यलेख या जो भी है, कथादेश के ताजा मीडिया विशेषांक में प्रकाशित हुआ है। कुछ मित्रों का आग्रह था कि इसे ब्लाग पर डाल दिया जाए। थोड़ा लंबा जरूर है, मगर फिर भी... )

मी लार्ड! मैं पंकज श्रीवास्तव, एम.ए डी.फिल फ्रॉम इलाहाबाद यूनिवर्सिटी
उर्फ आक्सफोर्ड आफ ईस्ट (यूजीसी नेट क्वालीफाइड), खुदा को हाजिर नाजिर
मान कर कहना चाहता हूं कि मैं बेहद शरीफ इंसान हूं। पेट पालने के लिए
तकरीबन 12 बरस से पत्रकारिता कर रहा हूं। शुरूआत के पांच बरस अखबार और
फिर न्यूज चैनलों के साथ। नाम के पहले 'डाक्टर' सिर्फ विजिटिंग कार्ड में
छपवाता हूं ताकि नए लोगों से मुलाकात हो तो पढ़े-लिखे होने का सबूत दिया
जा सके। यूं, बाजार में जबसे पढ़े-लिखे लोगों की मांग कम हुई है, मैं इस
सबूत को जाया करने से बचता हूं। मेहनती हूं और बॉस को खुश रखने का हर
जतन करता हूं। बस ये समझिये कि उनको राणा प्रताप और खुद को चेतक समझते
हुए पुतली फिरने से पहले मुड़ जाने का हुनर तेजी से सीख रहा हूं। बदले
में मुझे देश की राजधानी में किस्तों पर ही सही, हर वो चीज हासिल है,
जिनका ख्वाब भी 10-15 साल पहले के पत्रकार नहीं देख सकते थे, और आज भी
एक से दो फीसदी फीसदी पत्रकारों पर ही किस्मत इस कदर मेहरबान है।
चुनांचे कामयाबी की सीढ़ी पर दरम्यानी सतह पर हूं और इर्द-गिर्द के जूतों
से उठती पालिश की गंध को जिंदगी का इत्र समझता हूं, जैसा कि तरक्की के
तलबगार हजारों साल से समझते आए हैं।

मेरे जैसा शरीफ आदमी आपकी अदालत में जान बचाने की गुहार लगाने आया है तो
आप समझ सकते हैं कि देश की हालत किस कदर नाजुक है। शरीफों का जीना
दिन-ब-दिन मुश्किल होता जा रहा है। और ये मुश्किल वो लोग भी पैदा कर रहे
हैं जिन्हें दुनिया बदमाशों में शुमार नहीं करती। जी हां, मुझे जान का
खतरा एक ऐसे शख्स से है जो गुंडा-मवाली नहीं, पत्रकार कहलाता है। नाम है
अनिल चमड़िया। नहीं, ये कोई कर्ज-वर्ज वापस करने का मामला नहीं है। न ही
किसी पत्रकार कालोनी में हमारे प्लाट ही अगल-बगल हैं । सच तो ये है कि
जनाब से आज तक सिर्फ एक मुलाकात हुई है जिसमें गलती से मोबाइल नंबर का
आदान-प्रदान हो गया था। और इसी मोबाइल नंबर के दम पर इस शख्स ने जिंदगी
में जहर घोल दिया है। आगे मैं तफसील से उसकी हरकतों के बारे में बताऊं,
इससे पहले अपने बारे में कुछ और जानकारी दे दूं ताकि मेरी शराफत का आपको
इत्मिनान हो जाए।

जैसा कि अर्ज कर रहा था, कुल मिलाकर मैं सीधे रास्ते चलने वाला आदमी
हूं। दोस्तों की तादाद का ठीक-ठीक अंदाजा तो नहीं, या कहें कि कभी इस
बारे में गौर नहीं किया, लेकिन दुश्मन एक भी नहीं है, ये तय है। अपने काम
से काम रखता हूं। घर से दफ्तर जाता हूं और वहां से छूटते ही सीधे घर
वापस। यानी रास्ते में कहीं कोई मोड़ नहीं आता। यकीन न हो तो मेरी
पत्नी से दरयाफ्त कर सकते हैं जिसे मेरी बढ़ती तोंद और थुलथुल होते जा
रहे चेहरे के अलावा कोई खास शिकायत नहीं रह गई है। जिसे मैं रोज यकीन
दिलाता हूं कि वो सुबह जल्दी आएगी जब मैं टहलने निकलूंगा, फिर तेज-तेज
चलूंगा और एक दिन पड़ोस के पार्क के दौड़ते हुए दस चक्कर लगाऊंगा। फिर
भी कमी रह गई तो टी.वी.पर योग सिखाते बाबा रामदेव की शरण में जाकर चर्बी
घटा लूंगा। वैसे, ये कोई मुश्किल काम है भी नहीं, क्योंकि काफी सात्विक
प्रकृति का हूं। होश में मांस-मछली से पर्याप्त दूरी रखता हूं औऱ बेहोश
होने लायक मदिरापान साल-छह महीने में ही हो पाता है। ऐसा नहीं है कि
इच्छा नहीं जगती लेकिन अकेले पीना पसंद नहीं। उधर, दोस्त साथ बैठने से
हिचकते हैं क्योंकि उनका कहना है कि मैं सुरूर चढ़ते ही जोर-जोर से गाने
लगता हूं जिससे उनका मजा खराब हो जाता है। कुछ पुराने दोस्तों का ख्याल
है कि ये वही नगमे होते हैं, जिन्हें 15-20 साल पहले मैं विश्वविद्यालय
के दिनों में झूम-झूमकर गाता था। जी हां, उन्हीं दिनों, जब मेरे चेहरे
पर चेग्वारा जैसी दाढ़ी-मूंछ थी।

दोस्त बताते हैं कि वोदका, ह्विस्की, या जिन का एक-दो पैग अंदर गया नहीं
कि मेरे अंदर का तानसेन बाहर आ जाता है। फिर देखते ही देखते, महफिल में
किसान-मजदूर, बढ़े चलो, क्रांति, इन्कलाब, लाल सूरज, रंग बदलता आसमान,
तख्त गिराओ और ताज उछालो जैसे शब्द बजने लगते हैं। कोई साथ दे न दे, अपना
रेडियो चालू हो जाता है। पर इससे दोस्तों का नशा हिरन हो जाता है। आगे जब
मयखाना सजाने की बात आती है तो मुझे दूर रखने की पूरी कोशिश की जाती है।
वैसे सच बताऊं तो होश आने पर मुझे कुछ याद नहीं रहता। सच तो ये भी है कि
मुझे हिमाकत के दौर के न वो नगमे याद हैं और न गाने का शौक ही बचा है।
इसलिए ये सोचकर शर्मिंदगी होती है कि मैं दारू पीने के बाद जरूर गलत-सलत
सुर लगाता होऊंगा.....फिर मदहोशी में फैज की गजल में गालिब का शेर पढ़ते
हुए अदम गोंडवी को घुसेड़ देने से तो अजब काकटेल बनता होगा। एक बार तो
इस मधुपान का ऐसा असर हुआ कि मैं मेज पर चढ़कर ताली बजाते हुए '
अश्फाकउल्ला, भगत सिंह, वी शैल फाइट-वी शैल विन' चिल्लाने लगा।..फिर इस
नारे ने सुर पकड़ा और मैं ठुमकने भी लगाने लगा। इस नृत्य प्रदर्शन का
नतीजे में कई गिलास और प्लेटों की शहादत हुई... कबाब और प्याज के छल्ले
जमीन पर रंगोली बनाते नजर आए और मेज के उलटने के साथ मैं भी धड़ाम हुआ।
हालांकि मुझे हफ्तों तक परेशान करने वाले दर्द ने ही इस घटना के वास्तविक
होने का अहसास कराया। वरना मैं इसे भी गपबाजी मानकर यकीन नहीं करता।
बहरहाल ये तो था ही कि दोस्त ऐसी महफिलों से मुझे दूर रखने की जुगत
भिड़ाते रहते थे। और मैंने भी दिल को समझा लिया था कि और भी गम हैं जमाने
में दोस्तों की महफिल के सिवा...

बाकी एक ऐब सिगरेट का था तो दो बेटियों की कसम दिलाकर पत्नी ने ये लत भी
छुड़वा दी है। बचपन में कसम तोड़ने के लिए किसी कोने में जाकर 'कसम-भसम'
का मंत्र पढ़ लेता था, पर अब हिम्मत नहीं पड़ती। वजह बेटियां नहीं वे
कैलेंडर हैं जो सिगरेट से कैंसर और हृदयरोग का घातक संबंध बताते हुए उन
डाक्टरों के क्लीनिक में टंगे रहते हैं, जहां अक्सर जाना होता है। जब से
ब्लड प्रेशर और कलोस्ट्राल कंट्रोल की गोलियों का दैनिक सेवन अनिवार्य
हुआ है, ये कैलेंडर सपने में आते हैं और आपसे क्या छुपाना कि मरने के
नाम पर तो फूंक उन दिनों भी सरकती थी जब चेहरे पर चेग्वारा जैसी दाढ़ी थी
और आंखें जमाने की तकलीफों से लाल रहा करती थीं।

जनाब, मैं समझ रहा हूं कि आप असल मामला यानी अनिल चमड़िया के जुर्म के
बारे मे जानने को बेचैन हो रहे हैं। लेकिन अपने बारे में तमाम बातें
बताना जरूरी था ताकि आपको यकीन हो जाए कि मुकदमा दायर करने वाला एक
ईमानदार नगरिक है। पक्का देशभक्त करदाता- जो देश के दुश्मनों की साजिश का
खुलासा करने का अपना कर्तव्य निभा रहा है... निस्वार्थ।

अब मैं अपनी जान के दुश्मन अऩिल चमड़िया की दास्तान शुरू करता हूं। ये
शख्स अखबारों और न्यूज चैनलों में काम कर चुका है। यानी कहने को पत्रकार
है.., लेकिन हरकतें ऐसी हैं कि लंबे समय तक कहीं गुजर नही हो पाती।
वैसे आदमी जुगाड़ू है, इसलिए आए दिन किसी न किसी अखबार या पत्रिका में
लेख छपवा लेता है। मीडिया उसका प्रिय विषय है और आजकल ये बात प्रचारित
करने में खासतौर पर लगा है कि न्यूज चैनल देश को पीछे ले जाने के अभियान
में जुटे हैं। उन्होंने असली मुद्दों को परदे के पीछे करने का गंभीर
अपराध किया है। इतना ही नहीं, वे अंधविश्वास के प्रसार के हथियार बन चुके
हैं। वे पूंजी के गुलाम हैं और बड़े विज्ञापनदाताओं की मर्जी के खिलाफ
चूं भी नहीं बोल सकते। देश की बहुसंख्यक आबादी उनकी चिंता से बाहर है।
वगैरह, वगैरह...

मी लार्ड! इस मोड़ पर मुझे ये साफ कर देना चाहिए कि मुझे ऐसी बातों पर
जरा भी यकीन नहीं है। मैं समझता हूं कि भूत-प्रेत या एलियन, उड़नतश्तरी
जैसी चीजें महज हवाई बातें नहीं हैं। देश की बड़ी आबादी इन बातों पर यकीन
करती है। और लोकतंत्र का तकाजा है कि उनकी भावनाओं का सम्मान करते न्यूज
चैनल लोगों को तफसील से इन चीजों के बारे में जानकारी दें। जैसे इस
लोकसभा चुनाव में हमने राहुल-प्रियंका के नाज-ओ-अंदाज के हर एक रंग को
जनता तक पहुंचाया। और कांग्रेस को पिछली बार के मुकाबले पूरे दो फीसदी
वोट ज्यादा मिलना बताता है कि ऐसा करना जनभावना के मुताबिक था। वैसे भी
जनभावना के साथ नहीं रहे तो टीआरपी कहां से आएगी जिससे पूंजी आती है।
न्यूज चैनल चलाने के लिए कई सौ करोड़ रुपये चाहिए। ये किसी ऐरे-गैरे
पत्रकार के बस की बात तो है नहीं । इतना पैसा तो पैसेवाले ही लगाएंगे। और
जो लोग पैसा लगाते हैं उन्हें ये कहने का पूरा हक है कि उनके हितों का
ध्यान रखा जाए। और मैं जोर देकर कहना चाहूंगा कि दुनिया के सबसे बड़े
लोकतंत्र में ये अधिकार तो होना ही चाहिए कि लोग अपने हितों की बात
बुलंद आवाज में कर सकें।

पर कहते हैं न कि अक्ल आते-आते आती है..। कुछ समय पहले तक मेरे ख्यालात
इस कदर पुख्ता नहीं थे। मैं संदेह के घोड़े पर सवार रहता था।
आत्मविश्वास भी कम था। उन्हीं दिनों किसी काम से दिल्ली गया तो वहां एक
पत्रकार मित्र के घर अनिल चमड़िया से मुलाकात हुई थी। इसी मुलाकात में
मैंने अपना मोबाइल नंबर दे दिया था। मुझे याद है कि भुनी हुई मछली के
टुकड़ों के साथ वोदका पीते हुए हमने देश की नाजुक हालत और विकल्पों के
बारे में ढेरों बात की थी। मुझे याद नहीं कि उस रात मैंने इन्कलाबी नगमे
गाते हुए ठुमके लगाए थे या नहीं। हां, महफिल के खात्मे को लेकर कई बयान
हवा में थे पर पता नहीं क्यों वहां मौजूद लोग मेरे सामने कुछ कहने से
कतरा रहे थे। और जो महफिल में थे ही नहीं, उनकी बातों पर मैंने कान
नहीं दिया। बहरहाल, कुछ दिन बाद अऩिल चमड़िया का फोन आया। उसने हंसते
हुए मेरा हालचाल लिया और फिर जोर दिया कि मुझे कुछ लिखना चाहिए।

उन दिनों मैं हवा में था। उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में देश के नंबर
एक और दो के बीच झूलते रहने वाले चैनल का ब्यूरो संभाल रहा था। रोजाना
टी.वी. पर अपना चेहरा देखकर छाती चौड़ी हो जाती थी। छोटे, मंझोले और
बड़े-- सभी कद के बॉस मेहरबान नजर आते थे। पद और पैसै में तरक्की की गति
उम्मीद से ज्यादा थी। हां, धीरे-धीरे एक फर्क जरूर नजर आ रहा था।
संवाददाताओं से स्टोरी मांगने की जगह, उन्हें स्टोरी बताकर बाइट और
विजुअल मंगाए जाने लगे थे। यही नहीं, उन्हें पर्दे पर क्या बोलना है ये
भी हेडआफिस से लिखकर आने लगा था। खैर, मुझे इस ट्रेंड से खास परेशानी
नहीं थी। पर ये जरूर लगने लगा था कि ग्रामीण क्षेत्रों में जाना बंद हो
गया है। बाइट लेने के पहले देखने लगा था कि चेहरा सुदर्शन है या नहीं।
बुंदेलखंड के किसानों की आत्महत्या पर जो आधे घंटे का कार्यक्रम बनाया
था, वो महीनों अटका रह गया। फिर एसाइन्मेंट से जुड़े एक बॉस को ये भी
कहते सुना कि चैनल तो रिपोर्टर के बिना भी चल सकता है। अनिल चमड़िया का
फोन ठीक इसी बीच आया-कुछ लिखो, और मैंने ये गलती कर दी।

जनाब, उन दिनों उत्तर प्रदेश में इलेक्शन हो रहे थे। जमीन पर मायावती और
बीएसपी की आंधी थी, पर न्यूज चैनलों के पर्दे पर इसकी झलक कहीं नहीं थी।
मैंने विस्तार से भावी परिवर्तन की आहट देते हुए एक खबर बनाई। लेकिन किसी
ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई। चैनल के रनडाउन में ये खबर कहीं फिट नहीं हो
पा रही थी। मेरी कोफ्त बढ़ रही थी। और जब नतीजा आया तो मायावती ने
इतिहास रच दिया। 16 साल बाद किसी को उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत मिला।
जाहिर है, मुझे अपनी पीठ ठोंकने और बॉस लोगों की राजनीतिक समझ पर तरस
खाने का पूरा हक था। पता नहीं क्या सोचकर मैंने एक लेख लिखा--'मायावती और
मीडिया का मोतियाबिंद', जो बुद्धिजीवियों के पसंदीदा और देश की राजधानी
से छपने वाले अखबार में छप गया, वो भी पहले पेज पर बतौर बॉटम।

लेख छपने के बाद उम्मीद थी कि बॉस लोगों की नजर में पढ़े-लिखे होने की
धाक जमेगी। लेकिन पता पता चला कि मामला उलटा है। वे लोग काफी खफा हैं।
तारीफ की जगह मुझसे सवाल किया गया कि किससे पूछकर अखबार में लेख लिखा।
इस तरह मुझे पहली बार पता चला कि मेरा दिमाग चैनल की बौद्धिक संपदा है और
मैं बिना इजाजत किसी अखबार या पत्रिका के लिए नहीं लिख सकता। मेरा दिल
बैठ गया। और इसी बीच....जी हां, इसी बीच अनिल चमड़िया ने लेख पर बधाई
देने के लिए फोन किया। मैंने अपना समझकर अपनी पीड़ा की गठरी खोलकर रख
दी। ये आदमी तो जैसे मौके की तलाश में ही था। इसने तरह-तरह से मुझे
बरगलाने की कोशिश की। `अभिव्यक्ति की आजादी' और `पत्रकार के धर्म' पर
उसके भाषण से मैं इस कदर प्रभावित हुआ कि ये भी भूल गया कि मैंने किस्तों
पर एक मकान खरीद लिया है। मेरी एक गलती पूरे कुनबे पर भारी पड़ सकती है।
मैं खुद को इन्कलाबी समझने लगा। बॉस लोगों से बात करने का मेरा अंदाज
कुछ यूं हो गया कि नौकरी कल लेते हो तो आज ले लो। हालांकि आज मैं उन
लोगों की शराफत को सलाम करता हूं। उन्होंने मुझसे काम लेना तो बंद कर
दिया, लेकिन दफ्तर के दरवाजे खुले रहने दिए। वो तो मैं ही था, जो ऐसे
रहमदिल लोगों को छोड़ भागा।

हालांकि मैं कबूल करता हूं कि इस्तीफा देने का साहस मुझमें यूं ही नहीं
आया था। दिल्ली के कुछ सिरफिरे चैनली पत्रकार माहौल बदलने को व्याकुल थे
और उन्हें एक चैनल शुरू करने का मौका मिल रहा था। हालांकि कंपनी की
प्रतिष्ठा को लेकर कई सवाल हवा में थे लेकिन संचालकों का वादा था कि एक
गंभीर चैनल निकालने के प्रयोग में कोई आड़े नहीं आएगा। और इस टीम में
शामिल होने का मौका मुझे मिल रहा था। संपादक नामधारी पद और मोटी तनख्वाह
के साथ पत्रकारिता को क्रांतिकारी मोड़ देने के प्रयास में शामिल होना
मुझे कतई घाटे का सौदा नहीं लगा।... और क्या तो चैनल निकाला गया! ऐसा लगा
कि देश की सारी समस्याओं का जवाब हमारे पास है। हर दिन अंधविश्वासों की
ऐसी-तैसी करने वाले कार्यक्रम बनाए जा रहे थे। बड़े-बड़े नेताओं को रगड़ा
जा रहा था। चैनल के पर्दे पर कभी महाश्वेता देवी तो कभी अरुंधती राय नजर
आ रही थीं। यहां तक कि जिस अंतर्ऱाष्ट्रीय पुस्तक मेले पर बाकी चैनल एक
मिनट भी जाया करने को तैयार नहीं थे, उस पर हम रोजाना आधे घंटे का
कार्यक्रम दिखा रहे थे।

और जनाब, अब मैं एंकर भी था, यानी शोहरत में चार चांद लग गए थे। स्पेशल
इकोनामिक जोन के सताए किसानों, मजदूरों और मछुआरों की समस्या पर महीने भर
तक चले कार्यक्रम का एंकर बनकर जो सुख मिला, वैसा पहले नहीं मिला था।
गालिब, निराला, फैज, नजरुल इस्लाम, रघुवीर सहाय, सर्वेश्वर से लेकर पाश,
आलोक धन्वा, वीरेन डंगवाल और असद जैदी तक की कविताओं को एंकरिंग के बीच
पिरोकर खुद को साहित्यसेवी भी समझने लगा था। हिंदी चैनल में हिंदी समाज
और राजनीति ही नहीं, हिंदी साहित्य का झंडा भी बुलंद हो रहा था।
आत्मुग्धता बढ़ रही थी। पर जैसा अक्सर होता है, इन्कलाबी जोश, होश पर
भारी पड़ा। दूसरे के पैसे पर क्रांति के सपने का अंत सामूहिक इस्तीफे से
हुआ। शहीदों की टोली सड़क पर थी, कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा...खत्म
फसाना हो गया ।

अफसोस... इस शहादत पर देर तक तालियां भी नहीं बजीं। धीरे-धीरे लोगों ने
बिना दूसरा इंतजाम किए नौकरी छोड़ने के फैसले को बेवकूफी ठहराना शुरू
किया। खैर, अब क्या हो सकता था। दिन बीतने के साथ मेरा जोश भी हवा होने
लगा था। दिल्ली जैसे शहर में बेरोजगार होने का क्या मतलब होता है, ये वही
समझ सकता है, जिस पर ऐसी विपदा पड़ी हो। पांच महीने की संपादकी की सारी
कमाई परिवार को दिल्ली में स्थापित करने और तमाम दूसरे जरूरी इंतजाम में
खर्च हो चुके थे। मामला ठन-ठन गोपाल था। खैर, उऩ दिनों आर्थिक मंदी जैसी
चीज की आहट नहीं थीं। हर तरफ हिरन की तरह कुलांचे मारते सेन्सेक्स की
धूम थी। कंपनियों के रुख में पर्याप्त उदारता थी और शायद किस्मत भी
मेहरबान थी। कुछ विशाल हृदय लोगों की वजह से मुझे फिर नौकरी मिल गई।
अच्छा-खासा सबक मिल चुका था। इस बार शुरूआत हुई तो मिजाज बदल चुका था। दो
तगड़े झटके खाने के बाद अब मैं उस फार्मूले को समझना चाहता था जिसमें
किसी न्यूज चैनल के पत्रकार को जल्दी से जल्दी ढल जाना चाहिए।

मी लार्ड! तुलसी बाबा बहुत पहले लिख गए हैं---धीरज, धरम, मित्र अरु नारी,
आपतकाल परखिए चारी...और मैंने भी लोगों को परख लिया था। मेरे ज्ञानचक्षु
खुल गए थे। बेरोजगारी के दौर में अनिल चमड़िया का फोन एक बार भी नहीं
आया। नौकरी को ठोकर मारकर बेरोजगार होने का साहस दिखाने पर शाबाशी भी
नहीं दी। अब मुझे ऐसे तमाम लोगों की असलियत समझ आ गई थी। दरअसल ये
विघ्नसंतोषी लोग हैं। किसी की खुशहाल जिंदगी इन्हें बरदाश्त नहीं होती और
'आत्मावलोकन' और 'आत्मनिरीक्षण' जैसे बड़े-बड़े शब्द फेंककर ये एक
स्वस्थ आदमी को बीमार बना देते हैं। सोचने और लिखने के लिए बार-बार
कोंचने का इनका तरीका बेहद खतरनाक है। ये चौबीस घंटे चैनलों को गरियाने
में जुटे रहते हैं लेकिन जिन अखबारों में वे बौद्धिक जुगालियां करते हैं
वहीं इनकी नहीं सुनी जाती। आप तो जानते ही हैं, लगभग सारे ही अखबार ऐसे
सेठ निकालते हैं जिनके सौ धंधे और होते हैं। सरकारें जब चाहती हैं उनकी
पूंछ दबा देती हैं और वे चूं तक नहीं बोल पाते। चैनलों पर अंधविश्वास
फैलाने का आरोप लगाने वाले नहीं देखते कि अखबारों में भविष्यफल दैनिक ही
नहीं, साप्ताहिक, मासिक और वार्षिक लिहाज से भी छपता है। पारलौकिक दुनिया
के बारे में किस्से कहानियों की कोई कमी नहीं होती। झूठी या तोड़-मरोड़
के छापी जाने वाली खबरें भी कम नहीं छपतीं। दलाली को पुश्तैनी धंधा
समझने वाले प्रिंट पत्रकारों की फसल देश की राजधानी से लेकर जिलों-कस्बों
तक लहलहा रही है। यही नहीं, ज्यादातर अखबार अपने संचालकों के आर्थिक
साम्राज्य पर तनी छतरी की तरह हैं। और अगर 2009 के लोकसभा चुनाव में
इनकी भूमिका देखें तो उल्टी आ जाएगी। कुछ अपवादों को छोड़ दें तो
ज्यादातर अखबारों ने खबरों का बाकायदा सौदा किया। जिस उम्मीदवार ने जितना
पैसा दिया उसके बारे में उतना ही अच्छा-अच्छा छापा। अभिव्यक्ति की आजादी
के नाम पर खुली वेश्यावृत्ति हुई ।

और मैं दावे से कह सकता हूं कि न्यूज चैनलों में इतनी गंदगी नहीं है।
किसी पार्टी को लेकर किसी संपादक का थोड़ा-बहुत झुकाव हो सकता है, लेकिन
पैसा लेकर किसी उम्मीदवार को बेहतर बताने का चलन कम से कम राष्ट्रीय
चैनलों में नहीं है। हालिया चुनाव में बाहुबलियों के खिलाफ जैसा अभियान
चलाया गया उसके लिए तो इनाम मिलना चाहिए। चैनल वालों को माफिया के खिलाफ
खबर दिखाते हुए कभी डर नहीं लगता। दाऊद, अलकायदा और तालिबान को पर्दे पर
ऐसे पीटा जाता है जैसे धोबी अपने गधे को पीटता है। इसी साहस की वजह से कई
पत्रकार छोटे पर्दे के जेम्स बांड बन गए हैं। चैनलों ने पत्रकारिता को
ग्लैमरस बना दिया है। तमाम चैनली पत्रकार अपने कद से दुगुनी गाड़ी में
चलते हैं। कइयों के पास एक नहीं, दो-तीन फ्लैट हैं और वे शेयर बाजार के
माहिर खिलाड़ी भी बन चुके हैं। जनाब, कुछ तो सेलिब्रिटी भी बन चुके हैं
जिनके आटोग्राफ लिए जाते हैं। हाल ये है कि नेता हों या बिल्डर,
ब्यूरोक्रेट हों या टेक्नोक्रेट या फिर किसी दफ्तर के बड़े बाबू, सब अपने
बच्चों को मासकामी शिक्षा दिलाने के लिए लाखों खर्च कर रहे हैं। चैनलों
के आने से पहले ये सब कौन सोच सकता था ऐसा। बड़ी मशक्कत और कुर्बानी के
बाद ये दिन नसीब हुए हैं। कितना मुश्किल होता है इस बात को समझ पाना
कि लोग वाकई क्या देखना चाहते हैं। जरा सा ढीले पड़े कि दर्शक ने रिमोट
का बटन दबाया। इसी बटन पर टिका होता है बड़े-बड़ों का वजूद। जो इसे नहीं
समझ पाता वो मैदान से बाहर हो जाता है। न्यूज चैनल लोगों का, और लोगों के
लिए होता है। यही लोकतंत्र का तकाजा है । और लोक की इच्छा का सम्मान
करने वाले तो लोकतंत्र के प्रहरी ही हुए न!

जी....मैं शायद बहक रहा हूं। मुझे अनिल चमड़िया की बात ही करनी चाहिए।
तो जैसा मैं पहले बता चुका हूं, बेरोजगारी के कठिन दिनों में इस शख्स ने
मुझे एक बार भी फोन नहीं किया। लेकिन नौकरी मिलने के कुछ दिन बाद ही इस
शख्स का फोन आया। हाल चाल लेने के बाद फिर वही सवाल कि मीडिया के हाल पर
कुछ लिखूं। कुछ नहीं तो अपने अनुभव पर ही लिखूं। पर इस बार मैं सतर्क था।
हूं-हां करके टरकाया और आगे से मोबाइल पर जब-जब इसका नंबर चमका, फोन नहीं
उठाया। घंटी बजती रहने दी। धीरे-धीरे इस खतरनाक घंटी से मेरी जान छूटी।
मैंने राहत की सांस ली। हालात मेरे सही होने की मुनादी कर रहे थे। मैंने
एक बार एक सहयोगी से पूछा कि क्या वो अपनी तनख्वाह में कोई कमी मंजूर कर
सकता है। उसने मुझे खा जाने वाली निगाहों से घूर दिया था। फिर मुझे ये भी
लगा कि अगर टी.वी.पत्रकारिता इतनी ही बुरी है तो मैं वहां क्यों हूं। और
अगर मैं वहां हूं तो उसके खिलाफ लिखना-बोलना अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने
के सिवा क्या है।

जाहिर है, मैं सोचने-समझने के बजाय कुटुंब पालने की जिम्मेदारी को ज्यादा
अहम समझने लगा। अपनी तमाम किताबों को मैंने ताले में बंद कर दिया। यही
नहीं, उस पोस्टर को भी रद्दी के साथ बेच दिया जो दस साल से मेरे कमरे
में टंगा रहता था। इस पोस्टर को मैंने खुद बनाया था। इस पर उदयप्रकाश की
कविता लिखी थी...आदमी मरने के बाद कुछ नहीं सोचता /आदमी मरने के बाद कुछ
नहीं बोलता /कुछ नहीं सोचने और कुछ नहीं बोलने से आदमी मर जाता है.... ।
लाल कागज पर काले अक्षरों से लिखी ये कविता हर सुबह मेरी आंख के सामने
होती थी। लेकिन कुछ दिनों से ये कविता, न जाने क्यों आंख में चुभने लगी
थी। परेशान होकर मैंने इसे कबाड़ी के हवाले कर दिया। हालांकि रात को
बिस्तर पर जाते ही सामने खाली दीवार नजर आती तो मुझे ये भी लगता कि शायद
पोस्टर हटाकर ठीक नहीं किया।

खैर, भला हो उदयप्रकाश का, जिन्होंने मुझे इस अपराधबोध से छुटकारा
दिलाया। हुआ ये कि पिछले लोकसभा चुनाव के दौरान समाजवादी पार्टी के
घोषणापत्र में अंग्रेजी की अनिवार्यता खत्म करने की बात पर मची किचकिच के
बीच हिंदी के इस तेजस्वी लेखक ने इकोनामिक टाइम्स में एक लेख लिखा। इस
लेख में उन्होंने हिंदी को प्रतिगामी बताते हुए बल भर गरियाया और ऐलान
किया कि इस दौर में मुक्ति की भाषा अंगरेजी है। यही नहीं, लेख का अंत
उन्होंने "अंगरेजी लाओ-देश बचाओ" के नारे से किया। इस लेख ने मुझे राहत
से भर दिया। मुझे लगा कि जिस कवि को अपनी भाषा पर यकीन नहीं रहा , उसकी
कविता पर मुझे क्यों यकीन करना चाहिए था। यानी, पोस्टर से मुक्ति पाकर
मैंने कोई गलती नहीं की।

पर मुक्ति इतनी आसानी से कहां मिलती है। पता नहीं कहां से अनिल चमड़िया
ने मेरे घर का लैंडलाइन नंबर जुगाड़ लिया। एक दिन सुबह-सुबह फोन आया और
मैंने रिसीव कर लिया। जनाब ने बड़े उत्साह से बताया कि 'कथादेश' का
मीडिया विशेषांक प्रकाशित होना है, जिसके लिए मुझे जरूर ही लिखना चाहिए।
इसी के साथ ही न्यूज चैनलों की बिगड़ती दशा और वैकल्पिक मीडिया की
संभावनाओं पर लंबा भाषण। मैंने किसी तरह जान छुड़ाई पर अंदर-अंदर मैं
कांप गया था। मुझे याद आया ढाई साल पहले प्रकाशित 'हंस' का मीडिया
विशेषांक। इसमें मैंने भी एक कहानी लिखी थी , जिसके बाद ही मेरे अच्छे
भले करियर का सत्यानाश होना शुरू हो गया था। कहानी के असल पात्रों ने
अपना चेहरा पहचान लिया था और ऐसी घेरेबंदी की कि मेरा जीना मुश्किल हो
गया था। मैंने कसम खाई थी कि दोबारा ऐसी गलती नहीं करूंगा।

मी लार्ड! यहीं से शुरू होता है इस दास्तान का वो खतरनाक हिस्सा जो न
सिर्फ मेरे लिए जानलेवा है, बल्कि मुल्क के लिए भी खतरनाक है। मैं समझता
था कि अनिल चमड़िया के फोन उसी के दिमागी फितूर से उपजे हैं, लेकिन नही,
ये तो अंतरराष्ट्रीय षड़यंत्र है। मैं इस षड़यंत्र में शामिल लोगों से न
मिलता तो शायद पता भी नहीं चलता कि हालात किस कदर खराब हैं।

जैसा मैंने पहले अर्ज किया था, मैं दोस्तों की महफिल में अवांछित हो गया
था। इसकी भरपाई के लिए मैं कभी-कभार 'कारोबार' करने लगा था। 'कार-ओ-बार'
का मतलब है कार में 'बार' खोल कर बैठ जाना। किसी सड़क पर कार किनारे
लगाकर बोतल खोल ली जाए तो अकेलापन उतना नहीं सताता। आती-जाती गाड़ियां और
जिंदगी के दूसरे नजारे अकेलापन महसूस नहीं करने देते। हां, मैं मानता हूं
कि ये कोई सभ्य तरीका नहीं है, लेकिन मत भूलिए कि इसी असभ्यता ने मुझे
खतरनाक साजिश की तहए तक पहुंचाया।

किस्सा ये है कि ऐसी ही एक `कारोबारी' रात मैं दफ्तर से छूटने के बाद
राजघाट की ओर निकल गया था। जी हां, वही राजघाट जहां महात्मा गांधी की
समाधि है। हां, ये ठीक है कि राष्ट्रपिता की समाधि की तरफ शराब लेकर जाना
भी पाप है, लेकिन आजादी के 61 बरस बाद ये तो देश मान ही चुका है उनकी
नशाबंदी की अवधारणा खासी अव्यवहारिक थी। इसीलिए मद्यनिषेध और आबकारी
विभाग देश में साथ-साथ चलते रहे हैं। खैर, अगर आपको लगता है कि मैंने गलत
किया तो मान लेता हूं क्योंकि असल मसले का शराब से कोई लेना-देना नहीं
है।

....तो रात के करीब एक बज रहे थे। मैं काफी नशे में था। जोरों से पेशाब
लगी थी। लेकिन डर लग रहा था कि अगर कार से बाहर निकलकर पेशाब करता हूं
तो पुलिस का सामना हो सकता है। पूछताछ में शराब पीकर गाड़ी चलाने का
मामला बन सकता था। तभी मैंने दो सिपाहियों को देखा जो थोड़ी दूर पर एक
लैंप पोस्ट के नीचे मां-बहन की गाली बकते हुए एक दूसरे से जूझ रहे थे।
वहां से अभी-अभी एक ट्रक गुजरा था जो उनके करीब आने पर कछ सेकेंड के लिए
रुक कर आगे बढ़ गया था। ड्राइवर ने हाथ बढ़ाकर एक सिपाही के हाथ में कुछ
रुपये थमाए थे और झगड़ा शायद उसी को लेकर हो रहा था। दूर से देखकर लग रहा
था कि दोनों नशे में धुत हैं क्योंकि दोनों ऐसे लहरा रहे थे जैसे बाराती
नागिन डांस करते हैं।

मैं समझ गया कि सरकार नशे में है, इसलिए हल्का हुआ जा सकता है। मैं कार
से उतरकर पास की एक झाड़ी के पास हल्का होने लगा। अभी पूरी तरह फारिग हो
भी नहीं पाया था कि एक बूढ़ा करीब आता नजर आया। हाथ में लाठी, आंख पर गोल
चश्मा और बदन पर सिर्फ धोती। मुझे अपने दादा जी की याद आई जो अवध के एक
मामूली किसान थे और कुछ इसी हुलिए में गांव का चक्कर लगाया करते थे। पर
उन्हें मरे तो बीस साल हो रहे हैं। वो यहां कैसे आ सकते हैं। मुझे लगा कि
मैंने शायद औकात से ज्यादा पी ली है, इसलिए दिमाग गड्ड-मड्ड हो गया है।

बुजुर्गवार अब काफी करीब आ चुके थे। मैंने उनके चेहरे को गौर से देखा।
नहीं, वो मेरे दादा नहीं थे। उनकी कांख में कुछ कागजात दबे हुए थे। ऐसा
लगा कि वे मुझसे कुछ बात करना चाहते हैं, पर हिचक रहे हैं।

'जी, कोई काम', मैंने पैंट की जिप बंद करते और आवाज को मुलायम बनाते हुए पूछा।

'नहीं, पर मुझे लगा कि आप जैसे नौजवानों को बताना जरूरी है कि सफाई कितनी
जरूरी चीज है। और ये जगह पेशाब करने के लिए नहीं है'- उनकी आवाज में
भर्राहट थी।

'सॉरी', मैं थोड़ा झेंप गया। 'दरअसल, सब कुछ अचानक हुआ'

'नहीं, कुछ भी अचानक नहीं होता। हर चीज लंबी तैयारी का नतीजा होती है।
वैसे, करते क्या हैं आप..'

'जी, पत्रकार हूं'

'पत्रकार...! तब तो एक जिम्मेदार नागरिक बनना आपके लिए बेहद जरूरी है।
मैंने भी बहुत दिन तक पत्रकारिता की है। पत्रकार तो आत्मा के डाक्टर होते
हैं। बस एक मंत्र याद रखो, जो भी लिखो ये सोचकर कि उसका समाज के अंतिम
आदमी पर क्या प्रभाव पड़ेगा। अंतिम आदमी, वही देश का मालिक है...'
बुजुर्गवार अपनी रौ में बोले जा रहे थे-'समाचारपत्र एक जबरदस्त शक्ति है,
किंतु जिस प्रकार निरंकुश पानी का प्रवाह गांव के गांव को डुबो देता है
और फसलों को नष्ट कर देता है, उसी प्रकार कलम का निरंकुश प्रवाह भी नाश
की सृष्टि करता है। यदि ऐसा अंकुश बाहर से आता है तो वह निरंकुशता से भी
अधिक विषैला सिद्ध होता है। अंकुश तो अंदर का ही लाभदायक होता है...यदि
यह विचारधारा सच है तो दुनिया के कितने समाचारपत्र इस कसौटी पर खरे उतर
सकते हैं। लेकिन निकम्मो को बंद कौन करे? कौन किसे निकम्मा समझे?..उपयोगी
और निकम्मे दोनों साथ-साथ ही चलते रहेंगे। उनमें से मनुष्य को अपना चुनाव
करना होगा '

इतना कहकर उन्होंने गौर से मुझे देखा। फिर कांख में दबाए कागजों का
पुलिंदा मेरी ओर बढ़ा दिया। मैंने गौर से देखा, वे तीन अखबार थे-'इंडियन
ओपीनियन', 'यंग इंडिया' और 'नवजीवन'। 'इन्हें पढ़ना,. 'वैसे किस अखबार
में काम करते हैं आप,' उन्होंने करीब आकर फुसफुसाते हुए पूछा।

'जी मैं अखबार में नहीं टी.वी. में काम करता हूं'

'ओह... टी.वी. में। उसके बारे में मैं ज्यादा जानता नहीं। दरअसल, मेरे
घर में बिजली नहीं है। खैर, आपको शुभकामनाएं। जहां भी रहिए, डटकर काम
करिए। और याद रखिए-अंतिम आदमी', कहते हुए वे आगे बढ़े।

मैं थोड़ा घबरा गया था। 'आप हैं कौन'

'मो..ह..न..दा..स', बुजुर्गवार रुके नहीं। बस जाते-जाते ये नाम मेरी ओर उछाल गए।

मुझे लगा कि ये नाम कहीं सुना है, पर कहां, कुछ याद नहीं आ रहा था। मुझे
फिर से प्रेशर महसूस हुआ... मैं झाड़ियों की ओर बढ़ा... पर तभी लाठी की
ठक-ठक सुनाई पड़ी। आवाज करीब आती जा रही थी। मैं पसीने-पसीने हो गया।
तुरंत कार में बैठा और आगे बढ़ गया। लेकिन घबराहट में मुझे दिशाभ्रम हो
गया। काफी देर तक मैं आसपास यूं ही चक्कर लगाता रहा। दिमाग पर काफी जोर
देन के बाद मुझे समझ आया कि शायद मैं कश्मीरी गेट से बहादुरशाह जफर मार्ग
की ओर बढ़ रहा हूं। इधर, प्रेशर बढ़ता ही जा रहा था। एक सुनसान जगह देखकर
मैंने गाड़ी रोकी और बिना आगे-पीछे देखे, तुरंत राहत पाने में जुट गया।

मैं ये सोचकर खुश था कि यहां टोकने वाला कोई नहीं है, लेकिन ये मेरी
गलतफहमी थी। जब मैं फारिग होकर पलटा तो एक ऊंचे कद के नौजवान को कार के
पास खड़ा पाया। सिर पर पगड़ी और ढीला-ढाला कुर्ता-पायजामा। मैंने करीब
जाकर देखा तो कंधे पर एक झोला भी टंगा था। झोले में किताबें और कागजात
ठुंसे लग रहे थे। कार एक लैंप पोस्ट के नीचे खड़ी थी जिसकी रोशनी में
नौजवान का चेहरा खासा रोबीला लग रहा था। मुझे लगा कि शायद इसे लिफ्ट
चाहिए। मैं आगे बढ़ा। लेकिन उसका इरादा कुछ और था।

'आपको पता है, आपने कहां पेशाब किया है', उसने तल्ख आवाज में मुझसे पूछा।

'न..नही' मुझे लगा कि फिर कोई गड़बड़ हो गई।

'ये वो जगह है जहां 8 सितंबर 1928 को हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकलन
एसोसिएशन यानी एचएसआरए का गठन हुआ था। फिरोजशाह कोटला मैदान को भूल गए
आप'

'नहीं, फिरोजशाह कोटला को कौन नहीं जानता। यहां लगातार क्रिकेट मैच होते
है। ये वो मैदान है जहां अनिल कुंबले ने एक पारी में दस विकेट लेने का
कमाल दिखाया था। ऐसे दुनिया के क्रिकेट इतिहास में सिर्फ एक बार और हुआ
है, ओवल के मैदान में।'

'मैच तो अब होते हैं बरखुरदार। पर मैं इतिहास के उस दौर की बात कर रहा
हूं जब आपको क्रिकेट खेलने की आजादी नहीं थी। यहां आठ नौजवान जुटे थे।
संयुक्तप्रांत, बिहार, राजपूताना और पंजाब से। बड़ी बहस के बाद
हिंदुस्तान रिपब्लिकन आर्मी नाम में 'सोशलिस्ट' शब्द जोड़ा गया था।
हिंदुस्तान के क्रांतिकारी इतिहास में ये जगह मील का पत्थर है। आपको
क्रिकेट याद रहा, इसे भूल गए। क्या करते हैं..'

'जी मैं पत्रकार हूं और आप', मैंने परिचय दिया।

'पत्रकार हैं, फिर भी याद नहीं। वैसे पत्रकार मैं भी हूं। मेरा नाम
बलवंत है। 'प्रताप' के लिए कानपुर में काम करता था। आजकल स्वतंत्र लेखन
कर रहा हूं। पर बहुत मुश्किल है.. मेरे लेख छापने को लोग तैयार ही नहीं
होते। मैं अखबारी दफ्तरों का चक्कर काटते-काटते थक गया हूं,... आप कुछ
मदद कर सकते हैं', बलवंत की आवाज की तल्खी गायब थी। उसने कुछ पन्ने मेरी
ओर बढ़ा दिए।

मैंने गौर से देखा। सामने हाथ से लिखे कुछ लेख थे। अजब-अजब शीर्षक थे
उनके--'मैं नास्तिक क्यों हू्', 'बम का दर्शन', 'सांप्रदायिक दंगे और
उनका इलाज', 'समाजवाद का आदर्श', 'मृत्यु के द्वार पर',....मुझे ये नाम
कहीं पढ़े हुए लग रहे थे। ....लेकिन कुछ याद नहीं आ रहा था।

':छपवा सकते हैं आप, मुझे लगता है कि आज के नौजवानों से संवाद करने के
लिए ये लेख कारगर हो सकते हैं। क्या किसी संपादक से परिचय है.... ' एक
सांस में कई सवाल पूछ डाले बलवंत ने।

'देखिए मैं अखबार में काम नहीं करता। न ही किसी संपादक से मेरी
जान-पहचान है। मैं तो टी.वी.में काम करता हूं।

'पर, आपने तो कहा कि आप पत्रकार हैं'

' क्या मतलब... क्या टी.वी. वाले पत्रकार नहीं होते', मुझे गुस्सा आ गया।

बलवंत ने मेरी तरफ थोड़ी हैरानी और उम्मीद भरी निगाह से देखते हुए कहा, -
'तो क्या तुम्हारा टी.वी. लोगों को उस अंदेशे के बारे में.बताएगा जिसे
एचएसआरए ने इसी जगह महसूस किया था। और कसम खाई थी कि जब तक सांस में सांस
रहेगी, अंदेशे को हकीकत नहीं बनने देंगे'

'कैसा अंदेशा'

'यही कि गोरे साहब जिन कुर्सियों को छोड़ जाएंगे, उन पर भूरे साहबों का
कब्जा हो जाएगा'

मुझे लग रहा था कि इस आदमी का दिमाग खराब है, या ये पचास साल बाद जेल से
छूटा है। मैंने झुंझला कर कहा- 'इतिहास का अंत हो गया है मिस्टर.. तुम जो
बातें कर रहे हो वे बेमतलब हो चुकी हैं। दुनिया जैसी है, वैसी चलेगी। इसे
बदलने की कोशिश करना बेकार है। सब ईश्वर की मर्जी पर है। हमारे हाथ कुछ
भी नहीं।'

'बकवास कर रहे हो तुम'-बलवंत को जैसे गुस्सा आ गया-'दुनिया में करो़ड़ों
बच्चे भूख से बिलबिला रहे हैं, लोग धर्म के नाम पर एक दूसरे की जान ले
रहे हैं, जंग से देश के देश तबाह हो रहे हैं और तुम कहते हो कि इतिहास का
अंत हो गया। अंत हुआ है तुम्हारे जैसे पत्रकारों की समझ का, जरा आंख-कान
खोलो, फिर देखो' गुस्से से बड़बड़ाता हुआ बलवंत उस तरफ बढ़ गया जहां एक
हरे रंग का बोर्ड था। हल्की रोशनी में लिखा नजर आया---नगर निगम, शहीदी
पार्क। मैंने पार्क के अंदर नजर दौड़ाई तो एक ऊंचे चबूतरे पर तीन लोग
बुत जैसे कंधे से कंधा मिलाए एक साथ खड़े थे। हाथ में कोई झंडा था शायद।
रोशनी काफी कम थी इसलिए साफ-साफ कुछ नजर नहीं आ रहा था.....कुछ देर बाद
समझ में आया कि वो वाकई बुत ही है । मैंने निगाह घुमाई तो बलवंत गायब
था।

मैं थोड़ी देर तक हतप्रभ खड़ा रहा। फिर पूरी ताकत बटोर कर
चिल्लाया---'सब बकवास है। मुझे इन चक्करों में नहीं पड़ना।'

'चक्करों में पड़ना न पड़ना, कई बार आदमी के बस में नहीं होता
बरखुरदार'- अचानक एक रोबीली आजाव सुनकर मैं चौंक उठा।

मैंने देखा एक अधेड़ सामने खड़ा था। लग रहा था कि काफी देर से मेरी और
बलवंत की बातचीत सुन रहा था। गौर से देखा तो वो कोई विदेशी था। ऊंचा कद,
थुलथुल बदन, सैनिकों जैसे कपड़े। वो थोड़ा और करीब आकर बोलने लगा-' कॉमन
सेंस ये कहता है कि इतिहास का चक्र रुकता नहीं। 1776 के शुरुआती महीनों
तक अमेरिका के भावी राष्ट्रपति टामस जेफरसन कह रहे थे कि इंग्लैंड के
राजतंत्र से अलग होना न हमारे हित में है और न हम चाहते हैं। लेकिन वही
शख्स कुछ महीनों बाद बोल रहा था कि सभी मनुष्य बराबर हैं। अमेरिका का
सबसे धनी किसान वाशिंगटन, जनरल वाशिंगटन बन गया। किसानों के अंदर एक बार
आजादी की लौ जल गई तो फिर हर तरफ रोशनी ही रोशनी थी। किसानों की भीड़ ने
इंग्लैंड की सेना के छक्के छुड़ा दिए। '

'पर आज इन बातों का क्या मतलब है'

'है, बिलकुल है। मैं आज भी कहता हूं, जिन्हें इंसानियत से प्यार है। जो
जालिमों की मुखालिफत करना चाहते हैं, तैयार हो जाएं। सारी धरती उलट-पुलट
हो गई है उत्पीड़न से। सारी धरती पर आजादी का शिकार किया गया है, एशिया
और अफ्रीका से तो उसे पहले ही निकाल दिया गया था, यूरोप उसे अजनबी समझता
है, इंग्लैंड ने चले जाने की नसीहत दी है।.... शरणार्थी का स्वागत करो।
समय रहते मानवता के लिए शरणस्थली तैयार करो'-उसका अंदाज ऐसा था जैसे भाषण
दे रहा हो। फिर मेरी ओर घूमकर बोला, 'पत्रकारों की जिम्मेदारी यही सत्य
सामने लाना है। एक शेर सुनो, हालांकि शायर कौन है, मैं नहीं जानता ----है
नहीं शमशीर अपने हाथ में तो क्या हुआ, हम कलम से ही करेंगे कातिलों के सर
कलम...

' अरे, ये तो मेरा शेर है...मैंने चीखकर कहा..जब सफदर हाशमी की हत्या
हुई थी तो मैं इलाहाबाद में नुक्कड़ नाटक करता था। लगा था कि खुद पर हमला
हुआ है और ये शेर फूटा था। '

'हो..हो..हो'...बूढ़ा हंसने लगा। 'फूटा था' तो ऐसे कह रहे हो जैसे इलहाम
हुआ हो.....ये तो बड़े पहुंचे हुए शायरों की निशानी है जो लिखते नहीं, उन
पर आसमान से शायरी उतरती है। 'अच्छा शेर तुम्हारा है तो पूरी गजल
सुनाओ'.. बूढ़े ने चुनौती दी।

" नहीं, गजल नहीं लिख पाया था। पर बाद में ये शेर बहुत मशहूर हुआ। देश
के तमाम विश्वविद्यालयों में इसके पोस्टर बने। जुलूसों के बैनर भी बनाए
गए। पर अफसोस कोई नहीं जानता कि ये मेरा शेर है. ' ... मैंने मायूस होकर
कहा।

'मैं... मैं..मैं..मेरा...मेरा...मेरा....इसमें न फंसते तो शायद गजल पूरी
हो जाती। खैर अब भी वक्त है। कोशिश करो...मैं पेन्सिल्वेनिया मैगजीन का
एडिटर, तुम्हारी गजल जरूर छापूंगा...अब चलता हूं। स्वात में जीयो टीवी का
मूसा खान मेरा इंतजार कर रहा है। उसके पास शायद कोई बड़ी खबर है।'

बूढ़ा अंधेरे में गायब हो गया।

'कौन था ये,' मैं हैरान था।

'अरे टॉम पैन को नहीं पहचाना......टॉमस पैन' —एक बेहद परिचित आवाज कान
में पड़ी। मुड़ा तो सामने प्रो.लालबहादुर वर्मा खड़े थे। इलाहाबाद
विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के रिटायर्ड प्रोफेसर। मेरे रिसर्च गाइड।

‘सर आप !’ पैर छूते हुए मैंने अचरज से पूछा। समझ नहीं पा रहा था कि
प्रो.वर्मा इस वक्त कैसे। रिसर्च के दौरान उनसे अच्छी खासी आत्मीयता
विकसित हो गई थी। बढ़ती उम्र में नौजवानों सा उत्साह उन्हें बाकी
प्रोफेसरों से जुदा करता था। दुनिया बदलने के विचार पर उनकी गजब की
आस्था थी। नुक्कड़ नाटक करते, सड़कों पर गीत गाते, घूम-घूम कर किताबें
बेचते प्रो.वर्मा को देखकर कौन कह सकता था कि ये आदमी विश्वविद्यालय का
प्रोफेसर है। अंग्रेजी और फ्रेंच के जानकार, पर इरादा ये कि हर साल
दुनिया की एक बेहतरीन किताब का अनुवाद करके हिंदी में ले आएंगे।
उदयप्रकाश से एकदम उलटी चाल। इसीमें जूझते रहते हैं। उन्हें देखकर कई
सवाल मन में उठे, लेकिन कुछ कहता इसके पहले ही प्रो.वर्मा की क्लास शुरू
हो गई थी-

'अरे ये टाम पैन है। तीन क्रांतियों का प्रवक्ता। इंग्लैंड में पैदा
हुआ, जहां क्रांति का उसका सपना कभी पूरा नहीं हुआ। पर अमेरिकी आजादी की
लड़ाई की कल्पना भी इसके बगैर मुमकिन नहीं। वो लड़ाई, जो उसके अपने देश
यानी इंग्लैंड के खिलाफ लड़ी गई थी। उसने पर्चे लिख-लिखकर बिखरी हुई
अमेरिकी किसान फौज को बार-बार एकजुट किया। उसकी वजह से ही जनरल वाशिंगटन
ने हौसला नहीं खोया। और जब अमेरिका ने आजादी का सूरज देख लिया तो वो
फ्रांस चला गया। वहां की क्रांति को बचाने। नेपोलियन उसे क्या-क्या नहीं
देना चाहता था, लेकिन उसे सबसे ज्यादा प्यारी थी आजादी जिसे नेपोलियन
सम्राट बनकर रौंद रहा था।‘

‘आप मुझे ये सब क्यों सुना रहे हैं’, मैंने झुंझलाकर पूछा।

'इसलिए कि जान सको कि पत्रकार होने का मतलब क्या है। लिखकर क्या से क्या
किया जा सकता है। लिखऩा मतलब आंखे के जाले साफ करना, अपने भी और दूसरों
के भी। इससे बचने की कोशिश मत करो।'

'सर, आप ये सब क्यों कह रहे हैं। वक्त काफी बुरा है। फिर पढ़ने की
फुर्सत किसे है', मैं उन्हें ये नहीं बताना चाहता था कि मैं इन सब
चक्करों से आजाद हो गया हूं। उन्हें दुख होता।

'अरे भाई, दौर बुरा है तो बुरे दौर के बारे में ही लिखो। ऐसे दस्तावेज
पीढ़ियों को सबक देते हैं। कलम से निकले अक्षर कभी चुनौती होते हैं तो
कभी कसौटी। वो हमेशा टोकते हैं कि किस राह पर जाना है और किस राह पर जा
रहे हो'

'और मैं नहीं चाहता कि मुझसे कोई टोका-टाकी करे। मैं आजाद हूं...आजाद।
मैंने ठेका नहीं ले रखा है इस देश का,' मैं जैसे फट पड़ा। 'अरे मुझे
सुकून से जीने क्यों नहीं देते'

'क्यों शोर मचा रहे हो'- तभी एक कड़क स्वर गूंजा।

'अरे फुट्टा सर!' मैं उन्हें देखकर घबरा गया। बी.एस.श्रीवास्तव रायबरेली
सेंट्रल स्कूल में आर्ट्स टीचर थे। उगते सूरज वाली सीनरी, साड़ी का
किनारा, गमले में फूल, फूल पर तितली..ऐसी ही न जाने कितनी चीजों बनवाते
रहते थे। लेकिन कापी पर लाइन टेढ़ी खिंचे, या रंगों का सही इस्तेमाल न
हो, या क्लास में कोई शोर मचाए तो वे लकड़ी वाली स्केल से जमकर पिटाई
करते थे। उंगलियों के बीच पेंसिल फंसाकर ऐसा दबाते थे कि रुह फना हो जाती
थी। बहरहाल, ज्यादा मशहूर थी स्केल यानी फुट्टे की पिटाई। इसी एक फुट की
स्केल प्रेम की वजह से वे 'फुट्टा सर' हो गए थे।

'हाथ आगे करो’- वे दहाड़ते हुए बोले, ‘ जिंदगी की सारी लाइनें
टेढ़ी-मेढ़ी खींच रहे हो। और रंग तो देखो। जहां लाल होना चाहिए, वहां
काला भर दिया है। जहां हरा होना चाहिए, वहां पीला। क्या रतौंधी हो गई है'
फुट्टा सर हर जुमले के साथ बदल-बदलकर मेरे हाथ की रेखाओं पर फुट्टा चला
रहे थे।

'सटाक..सटाक सटाक.'

मी लार्ड! मुझे याद नहीं कि मैं कैसे फुट्टा सर की पिटाई से बचा।
प्रो.वर्मा कहां गए, ये भी होश नहीं। पता नहीं कैसे घर वापस आया। सोचा
कि कोई बुरा सपना देखा है। लेकिन ऐसा नहीं था। सुबह अनिल चमड़िया का फिर
फोन आया था। मैंने फोन उठा लिया तो उसने बड़े खतरनाक अंदाज में फुसफुसा
कर पूछा,- 'क्यों लेख कब तक दे रहे हो। प्रो.वर्मा कह रहे थे कि बात हो
गई है। तुम लिखना शुरू कर दोगे।'

मैंने हाथ देखा, पंजे लाल थे और दर्द भी था। मैं समझ गया। ये देश को
अस्थिर करने की कोई बड़ी साजिश है। मोहनदास, बलवंत, टॉम पैन, प्रो.वर्मा,
फुट्टा सर, सब इस आतंकवादी गिरोह के सदस्य हैं। और अनिल चमड़िया उन्हीं
का प्यादा है।