02 अक्टूबर, 2010
गांधी जी, आंप लिखिए
मैने बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा। लिखा, उतना ही बस जितना रिपोर्टर की नौकरी चलते रहने के लिए जरूरी था। लिखने के बारे में सालों से लगातार सोच रहा हूं। जैसे दिमाग की स्निग्ध, गतिमान, अखरोट के आकार की आलमारी में एक खाली खाना है जिस पर चिप्पी लगी है "लिखने का खाना"। लेकिन हर बार देखने पर चिप्पी दिखती है और उतरते झूले की हौंक सा खालीपन महसूस होता है। काश यह बिम्ब रसोई का होता और चिप्पी चीनी या मसूर की दाल की लगी होती और डिब्बा इतने लंबे समय से खाली होता तो भी इतना खालीपन महसूस नहीं होता।
यह दूसरे तरह का दुख है, लिखकर ऊपर वाले पैरे को मसालेदार तीव्र देसी शराब की तरह असरकारक बनाया जा सकता था। जरा काव्यात्मक भी। लेकिन यह किसी दूसरे, तीसरे टाईप का दुख नहीं है। एक बार मैने और एक दोस्त ने जो बाद में साधू हो गया एक स्वांग बनाया था। हम दोनों अलग-अलग आवाजों में जरा नाक का रचनात्मक प्रयोग करते हुए दिन में पचासों बार एक दूसरे से कहते थे- आंप लिखिए। और खूब हंसते थे। कैसे हर बार वह एक छोटे से वाक्य का कहना, पता नहीं कितने संबंधो (लेखक-प्रशंसक, पोंगा गुरूजी-चापलोस छात्र, रिपोर्टर-संपादक, दो लेखकों की मदमाती पहली मुलाकात आदि ) को उनका वास्तविक पुनर्जीवन दे देता था।
लिखना मन लगाकर बतियाने जैसा काम है। अभी तो टोटका मिटाने की हड़बड़ी है।
साधारण लोग जिन चीजों के बारे में अक्सर बात करते हैं, उनमे से कई जरूरी चीजों के बारे में बहुत कम या प्राय: कोई नहीं लिखता। अखबार में भी नहीं जहां दैनंदिन जीवन के होने का दावा होता है। उदाहरण के लिए इन दिनों लोग एक जज साहबान की बात कर रहे हैं जो लकड़ी धुल कर अपना खाना खुद बनाते हैं। उन्होंने अपने बंगले में एक गाय पाल रखी है। उसे खिलाने के बाद खुद खाते हैं और उसे प्रणाम किए बिना हाईकोर्ट नहीं जाते।
माना कि इस जमाने में भी लकड़ी....। लेकिन जिस लकड़ी को सूखा रखने के लिए इतने जतन किए जाते हैं उसे धुलने का क्या मतलब और भीग गई तो उस पर खाना कैसे बनेगा। यह लकड़ी को पवित्र करने या शायद भोजन-मंत्र से जुड़ा कोई अनुष्ठान होगा जिसे धुलना कहा जा रहा है। पर बेहद मामूली लोगों तक जज साहब के निजी जीवन से जुड़ी अजीब सी लगती यह जानकारी किनके जरिए पहुंची और वे इसके बारे में क्यों इतनी बात कर रहे हैं- यह अखबार समेत मीडिया को बताना चाहिए था। क्या इस आचार का किसी न्यायिक निर्णय से कोई संबंध हो सकता है और यह आदत क्या देश की राजनीति को प्रभावित कर सकती है? हिन्दी साहित्य से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है। उसका हाजमा इन दिनों खराब हो चुका है। वह कालिया-विभूति को ही नहीं पचा पा रहा है। इस साल का उसका एजेन्डा तय हो चुका है।
जैसे बच्चों को जू-जू से डराया जाता है, लोकतंत्र को अदालत से डरना सिखाया जाता है। किस्से चलते रहते हैं- एक जज था उसने रामपुर के रेलवे स्टेशन से थोड़ा पहले चलती गाड़ी में ही अदालत लगा ली और एक यात्री को नौ महीने जेल की सजा सुना दी क्योंकि उसने मी लार्ड कहे बिना उनसे नमस्कार कर लिया था। वे चाहे तो भरे ट्रैफिक में अपनी कार को ही अदालत मान कर आपको सजा सुना सकते हैं। वे बहुत ज्यादा समय अकेले रहते हैं। फैसलों पर मिलने वालों का असर न पड़े इसलिए। फिर अकेलापन आदमी को ऐसा ही बना डालता है। इसका परिणाम यह होता है कि कचहरी जाने या न जाने वाले बहुत साधारण लोग जज साहब से कुछ फीट की दूरी पर बैठने वाले पेशकार के आसपास की तुच्छ किन्तु सतत प्रच्छाय हरीतिमा और उसकी छाया से लाभान्वित होने वाले विशाल वृक्षों की बात करते तो रहते हैं लेकिन वह दृश्य किसी भी रूप में किसी अखबार में नहीं देखने को मिलता। हिन्दी साहित्य में भी जज पात्र और लोकेल के रूप में अदालत बहुत कम आए हैं।
आम जीवन के छोटे-छोटे सत्यों की लगातार उपेक्षा का नतीजा यह होता है कि जब कोई पुराना कानून मंत्री चिल्ला कर कहता है अब तक देश के जितने मुख्य न्यायाधीश हुए उसके करीब आधे भ्रष्ट थे तो टीवी देखते कुछ लोग ऊंघती आवाज में कहते हैं-ऐं ऐसा है क्या? तब भी वे सहज लगते हैं।
ठीक इसी वक्त जब लिखने का टोटका मिटा चाहता है, सबसे आखिर में फिल्म के परदे से उधार लेकर यहां जता देने की इच्छा हो रही है कि इस गल्पागल्प के पात्र, घटनाएं क्या कहिए एक-एक शब्द काल्पनिक है और उसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है, किसी वर्तमान या सेवानिवृत्त न्यायाधीश से तो कतई नहीं। यह किसका प्रभाव है। जब तक यह प्रभाव रहेगा, हमारे समाज में असल लिखे का अभाव नहीं रहेगा क्या?
अपने इस टोटके को नैतिक धज देने के लिए मैं इसे गांधी जयंती पर गांधी की आत्मा को लिखा गया पत्र भी कह सकता हूं। गांधी जी बैरिस्टर रहे थे और सत्य के लिए उनका आग्रह भी था। लोगों को उनकी बैरिस्टरी का कोई पराक्रम नहीं पता लेकिन वे जानते हैं कि उन्होंने किस जरूरत के लिए के लिए छुटपन में अपने कड़े का टुकड़ा बेचा था और जिस समय उनके पिता की मृत्यु हो रही थी वे कहां और क्यों थे। गांधी जयन्ती पर किसी न किसी को यह जरूर लिखना चाहिए कि यह सब कौन नहीं करता लेकिन प्यारे बुढऊ को यह सब स्वीकार करने की क्या पड़ी थी?
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हिंदी साहित्य अपने फटनियों का पैबंद सिलती रहे. यहां मन लगाकर बतियाहटों की लिखावटें खिलती रहें.
जवाब देंहटाएंअभिव्यक्ति के लिए सब जायज़ है ।
जवाब देंहटाएंबंधू अपनी समझ में कुछ नहीं आया सिवा एक उस बात के झूला जब लौट रहा होता है तो दिल सांय से करके रह जाता है।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी विचारोत्तेजक पोस्ट! आपको नियमित तौर पर लिखना चाहिए...मेरे कहने का मतलब है कि आंप लिखां कीजिए!
जवाब देंहटाएंlakdi dhone wale kai log dekhe gaye, ve atma kabhi nahi dhote the.
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