सफरनामा

25 जुलाई, 2009

हम अपने ख्याल को सनम समझे थे!



अंदाजा न था कि उदय प्रकाश के सम्मान पर बात निकलेगी तो इतनी दूर तलक जाएगी। वो एक अखबार में छपी फोटू और छोटी सी टिप्पणी भर थी, जिसे पत्रकार अनिल यादव ने ब्लाग जगत के सूचनार्थ जारी करते हुए हम सबसे पूछा था-आपको कैसा लगा?

इस टिप्पणी की भाषा भी वैसी मारक नहीं थी जिसके लिए अनिल मशहूर हैं। क्षोभ जरूर था, जो ऐसे किसी भी शख्स में होता, जो उदय को प्रगतिशील मूल्यों का लेखक मानता है। यू.पी.को गुजरात बनाने की धमकी देने वाले प्रसन्नचित्त योगी के हाथों सम्मानपत्र लेते उदयप्रकाश को देखते ही जिनके बदन में पीड़ा की लहर दौड़ी,वे उदय के शुभचिंतक ही थे।

पर इसके बाद जो हो रहा है, वो ज्यादा गंभीर है। उदय ने जिस तरह बताना शुरू किया कि वे जातिवादी-नस्लवादी गिरोहबंदी के शिकार हुए हैं, उससे साफ हो गया कि असल मुद्दे में उनकी कोई रुचि नहीं है। फिर उनकी पैरोकारी में उतरे कुछ लोगों ने गिनती करके ये भी बता दिया कि इस घटना के विरोध में जारी पत्र में नाम देने वाले लेखकों में कितने ब्राह्मण हैं और कितने कायस्थ। ये भी, कि किन-किन लेखकों ने किस अकादमी से पुरस्कार लिया, या किस सरकार का विज्ञापन अपनी पत्रिका में छापा। जैसे लोकसभा में जब विपक्ष सरकार की करतूत का खुलासा करता है तो सरकार बताती है कि विपक्ष के लोगों ने कहां-कहां और कैसे-कैसे कुकर्म किए। हंगामे के बीच वो सवाल दफ्न हो जाता है, जिस पर बात होनी थी।

उदय कह रहे हैं कि वे गोरखपुर के कार्यक्रम योगी की उपस्थिति का राजनीतिक पाठ नहीं कर पाए। लेकिन उदय का ये रूप उनके विचारों में आए जबरदस्त परिवर्तन का नतीजा है। इस बात को वे स्वीकार भी कर चुके हैं। दिक्कत ये है कि उनके चाहने वाले उस उदय को खोज रहे हैं जो प्रगतिशील मूल्यों का पक्षधर होने का दावा करता था। वे नहीं देख पा रहे कि आजकल उदय 'औलिया' की रहमत में दुनिया का मुस्तकबिल देख रहे है, और मानते हैं कि लेखक को विचारों की बाड़बंदी से ऊपर होना चाहिए।

उदय जी को तो याद नहीं होगा, लेकिन मैं नवंबर 2005 (जहां तक याद आ रहा है) में लखनऊ में हुए कथाक्रम सम्मान को भूल नहीं पाऊंगा। वहां सम्मानित होने आए उदय प्रकाश ने अपने भाषण में कहा था कि उनकी ईश्वर में आस्था है। चौंकना लाजिमी था क्योंकि उदय उसी धारा के कवि-लेखक माने जाते थे जो ईश्वर को मुक्ति का नहीं, शोषण का विचार मानती है। संयोग से शाम को ट्रेन पकड़ने के पहले उनके जिस चाहने वाले ने उनकी आवभगत की थी, उसने मुझे भी आमंत्रित किया था। बेचैन मन से मैंने उनसे काफी बहस की थी। खासतौर पर भगत सिंह के 'मैं नास्तिक क्यों हूं' लेख के तर्कों का जवाब मांगा था। उदय कुछ घबराए से थे (ऐसा मुझे लगा) या शायद तब वे नए मुल्ला थे। हालत डांवाडोल थी, बहस में उलझने से बच रहे थे। इस घटना के वक्त कवि पंकज चतुर्वेदी भी मौजूद थे।

यानी, 'विचारों की बाड़बंदी से लेखक को ऊपर उठ जाना चाहिए' का मंत्र फूंकने वाले उदय चार साल पहले ही उस वैचारिक बाड़े में खूंटा गाड़ चुके थे जिसने ज्ञान-विज्ञान के कदम-कदम पर कांटे बोए। मनुष्य द्वारा मनुष्य को गुलाम बनाना हो, राष्ट्र द्वारा राष्ट्र को पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ना हो, यहूदियों को गैस चैंबर में भूनना हो, या फिर विश्वयुद्दों में लाखों मनुष्यों का संहार- सबको परमसत्ता की इच्छा का नतीजा बताया। वही परमसत्ता, जिसकी इच्छा के बगैर पत्ता भी नहीं हिलता तो योगी की क्या बिसात थी कि उदयप्रकाश को सम्मानित करता। उसी परमसत्ता की इच्छा के आगे उदय प्रकाश ने सिर झुका दिया।

लेकिन बात इतनी सीधी है नहीं। मैं उन खबरों को पढ़कर चकित था कि जिस लेखक को धरती का धुरी पर घूमते रहना परमसत्ता का खेल लगता है वो दलित आंदोलनकारियों के मंच से सम्मानित हो रहा है। मुझे 'दिमागी गुलामी' लिखने वाले ज्योतिबा फुले और अवतारवाद के षड़यंत्र से मुक्त होने का आह्वान करते डा.अंबेडकर याद आ रहे थे। दलितों को वर्णव्यवस्था की मानवद्रोही चक्की में पीसा जाना भी तो ईश्वर की ही मर्जी थी। तभी तो डा.अंबेडकर ने योगियों के हिंदू धर्म को छोड़कर बौद्ध हो जाना बेहतर समझा जहां दुख को दूर करने का ठेका किसी आसमानी सत्ता को नहीं दिया गया है। फिर उदय एक तरफ दलित आंदोलन के ध्वजावाहक और दूसरी तरफ ईश्वरवादी कैसे हो सकते हैं?

कहीं ऐसा तो नहीं कि उदय जिस बाम्हनपारा की बात करते हैं उसे दलित वही ब्राह्मणवाद समझ बैठे हैं, जिसके खिलाफ डा.अंबेडकर ने अलख जलाई थी, और जिसे किसी भी प्रगतिशील राजनीतिक विचार का पहला निशाना होना चाहिए। ये मैं इसलिए कह रहा हूं कि हिंदी को लेकर कुछ महीने पहले मैं जब उनसे उलझा, (ये बहस उनके ब्लाग में अब भी है) तो उन्होंने उन मुझे उन लेखकों की जाति पता करने की नसीहत दी, जिन्हें मैंने प्रगितवादी बताते हुए उनकी इस स्थापना का विरोध किया था कि हिंदी का पूरा साहित्य प्रतिगामी और सामंती है। वे बताना चाहते थे कि हिंदी में बाह्मनपारा हावी है जिसने उन्हें साजिश करके उन्हें हाशिये पर डाला है। इसके अलावा उन्होंने इकोनामिक टाइम्स में छपे उस लेख में 'अंग्रेजी लाओ-देश बचाओ' का नारा भी दिया था, जिससे मुझे उनके इरादों पर शक हो रहा था। फिर योगी प्रकरण में वे पूरी हिंदी पट्टी को ही वीर विहीन बताने लगे। पूछा कि मार्क्स, गांधी, भगत सिंह, सुभाष क्यों नहीं पैदा हुए। प्रेमचंद, लोहिया, जयप्रकाश, चंद्रशेखर आजाद, अश्फाक उल्ला, शमशेर, त्रिलोचन या तो उन्हें याद नहीं आते या वे याद करना नहीं चाहते।

वैसे उदय के आरोपों के हल्केपन को देखकर उन्हीं के अंदाज में ये सवाल भी उठाया जा रहा है कि कहीं बाह्मनपारा के खिलाफ वे ठाकुरबाड़ी तो नहीं बना रहे हैं। संयोग से योगी भी उन्हीं की जाति के भूषण हैं। और वे भी, जो उदय के इस कृत्य के जवाब में कह रहे हैं कि ‘बचेगा तो साहित्य ही।‘ निश्चय ही हिंदी पट्टी में ब्राह्मणवाद एक बड़ी समस्या है। लेकिन ये उदय प्रकाश के जेएनयू में अध्यापक बन जाने से समाप्त हो जाती, ऐसा तो नहीं। इसके लिए तो सबसे पहले उन ताकतों से लड़ना पड़ेगा जिनके सिर पर योगी आदित्यनाथ जैसों की सदियों से छत्रछाया बनी हुई है। लेकिन उदय तो खुद ऐसे ही छत्र की छाया से आह्लादित हैं। ऐसे में दलितों को भरोसा देने वाली कहानियां, क्राफ्ट के अलावा क्या कही जाएंगी।

जो लोग इस मसले पर पर्दा डालने के लिए याद दिला रहे हैं कि किस-किस लेखक ने किससे कहां-कहां लाभ लिया, उन्हें भी सोचना चाहिए। सही है कि अकादमियां भी पूरी तरह स्वायत्त नहीं होतीं और सम्मान को लेकर राजनीति भी होती है। लेकिन दंगाई के हाथ से सम्मानित होना और साहित्य अकादमी से पुरस्कार लेने को एक बराबर तौलना कुछ-कुछ वैसा ही है जैसे सरकार का विरोध करने वालों से मांग की जाए कि वे सरकार की बनाई सड़क पर नहीं चलेंगे। निश्चय ही ये कोई आदर्श स्थिति नहीं है, लेकिन लेखक सरकारों से नहीं, जनता के हाथों से सम्मानित हों, ऐसी दुनिया योगी जैसे लोगों से लड़कर ही बनेगी, उनसे सम्मानित होकर नहीं।

शमशेर का एक कत: याद आ रहा है...


हम अपने ख्याल को सनम समझे थे,
अपने को ख्याल से भी कम समझे थे,
होना था, समझना न था शमशेर,
होना भी कहां था वह जो हम समझे थे।

20 जुलाई, 2009