क्या पिए क्या बिन पिए, यशवंत ने मुझे कई बार फूहड़तम गालियां दी हैं और बदले में यथोचित प्रसाद पाया है। उसने कई और ऊटपटांग काम किए हैं लेकिन उसके प्रति भयानक गुस्से, भभकती हिंसा में भी मैने पाया है कि मेरे भीतर कोई है जो तमाम नकारों से अप्रभावित उसे चाहता है। कारण क्या है नहीं सोचा लेकिन अब जरूर सोचूंगा। लेकिन इसी कारण घर-बाहर विरोध और चेतावनियों के बावजूद उससे मेरा एसोसिएशन चला ही आ रहा है। इस आत्मविश्लेषण में वह जरा आत्ममुग्ध है और तानसेनिया गया है लेकिन एक बात बहुत मार्के की कह रहा है कि किसिम-किसिम की उत्तेजनाओं को तटस्थ भाव से ताकना बहुत जरूरी हो चला है तभी कुछ दूर तलक ले जाने वाला दिखेगा।....और कुछ नहीं तो इसे किरानी माइंडसेट से अलग कुछ नया करने की चाह रखने वाले एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के युवा के अंतर्द्वंद के रूप में तो पढ़ा ही जाना चाहिए।
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जीवन के 37 साल पूरे हो जाएंगे आज. 40 तक जीने का प्लान था. बहुत पहले से योजना थी. लेकिन लग रहा है जैसे अबकी 40 ही पूरा कर लिया. 40 यूं कि 40 के बाद का जीवन 30 से 40 के बीच की जीवन की मनःस्थिति से अलग होता है. चिंताएं अलग होती हैं. जीवन शैली अलग होती है. लक्ष्य अलग होते हैं. सोच-समझ अलग होती है. भले ही कोई जान कर भी अनजान बन जाए. पर 40 के कुछ पहले ही 40 के बाद के मन-मिजाज की तैयारी शुरू हो जाती है. 24 कैरेट वाला युवा होने का बोध जाने लगता है. दाढ़ी-बाल में एकाध सफेद उगे छिपे बाल 40वाला होने के संकेत देने लगते हैं.
40 तक नौकरी करने का बहुत पहले प्लान किया हुआ था. बेचैनी, वाइब्रेशन, अस्थिरता, गतिशीलता... जो कहिए, जो अपने भीतर है, के चलते 40 तक नौकरी करना प्लान किया था. और, 40 के बाद, नौकरी के बाद, क्या होगा, इसको लेकर बहुत ठीक-ठीक समझ नहीं बन पा रही थी लेकिन इतना तो जरूर तय था कि नौकरी-चाकरी, धन-दौलत, परिवार-बच्चे... इस चक्कर में चालीस तक ही रहना है. उसके बाद उऋण हो जाना है. कोई उऋण करे ना करे, खुद हो लेना है. जब कोई मरना नहीं टाल सकता तो मैं किसी के उऋण करने का इंतजार क्यों करूं. तो, 40 के बाद की कोई प्लानिंग न देख यह तय कर लिया था कि अपने जीवन की सबसे प्रिय चीज, दारूबाजी को इंज्वाय करता रहूंगा, जोरशोर से, इच्छा भर, 40 तक. बच गए तो ठीक. मर गए तो और ठीक.
और, इस 40 से पहले नौकरी भी करनी है. नौकरी न कर पाया. टीम के साथ काम करने में मुझे दिक्कत होती है, यह कहा था मेरे एक संपादक ने. तब भी लगता था, अब भी लगता है कि मैं खुद एक टीम हूं तो टीम की जरूरत क्या है. और, जहां जहां भी नौकरी की, मेरे संग जो टीम रही, लगभग हर जगह उस टीम के बराबर अकेले मैं खुद को पाता था. पर दारूबाजी बंद हो गई. अचानक. इतनी पी कि पीने में कोई स्वाद नहीं बचा. कोई सुख नहीं बचा. दुहराव होने लगा. घटनाओं का. स्थितियों का. माहौल का. लोगों का. सब कुछ बहुत गहरे तक जाना-पहचाना सा लगने लगा. बहुत जल्दी उबता हूं मैं हर चीज से. दो दिन घर में पड़ा रह जाऊं तो घर के एक-एक जड़-चेतन से उब जाऊं. यह जो उब है वह टिकने नहीं देती.
न पहले टिका. और न अब टिकता देख रहा हूं. दारूबाजी से अचानक अलग होने के बाद संशय हुआ कि दारू याद आएगी और सैकड़ों बार तोड़ी गई कसम में इस बार का वादा भी शामिल हो जाएगा. पर इस बार कोई वादा नहीं किया था. बस छूट गई. हालांकि शुरू में एक-दो दिन हाथ-पांव मयखाने की ओर जाने की जिद करते रहे. आदत जो पड़ी थी. आदतें, चाहें जैसी भी हों, मुश्किल से जाती हैं. सो, हाथ-पांव को हाथ-पांव जोड़कर मनाया और दो दिन हाथ-पांव माने तो अब ये पूरी तरह काबू में हैं. मन तो लगता है पहले ही मान गया था तभी छोड़ने का मन हो गया. लेकिन हाथ-पांव तो मन से अलग हैं. कई बार मन के बिना कहे हाथ-पांव चलने लगते हैं, आदत के अनुरूप.
अब जब दारू में सुख नहीं बचा तो जाहिर है, कोई नया सुख अंदर पैदा हो गया है जिसके कारण पुराना सुख बासी पड़ गया. नया सुख अंदर क्या है? संगीत. जी, संगीत का सुख ऐसा हो सकता है, मुझे पहले कभी उम्मीद न थी. पर अब लगता है जैसे अगला पड़ाव संगीत है. संगीत कहने को तो केवल स ग और त से बना एक शब्द है. लेकिन ये तीन जुड़कर बड़े दम वाले बन जाते हैं. इसमें डूबकर आत्मा तृप्त हो जाती है. विचारधारा चरम पर पहुंच जाती है. आनंद का अतिरेक होता है. सुध-बुध खोकर किसी और लोक में होने का एहसास होने लगता है.
तो ये जो संगीत है, पूरी तरह तारी है मुझ पर. संगीत में मुझे आवारपन दिखता है. बंजारापन महसूस होता है. सूफी होने का एहसास होता है. कबीर को जीने का सुकून मिलता है. संतों-महापुरुषों से एकाकार होने का सौभाग्य मिलता है. झूमने-नाचने का हिस्सा इसी संगीत से जुड़ा है जो हर किसी बंधन से मुक्त कर देता है. सिर्फ आप होते हैं और आपका आनंद होता है. ध्यानमग्न हो जाने का जो राह है, मोक्ष पाने का जो रास्ता है, वो मेरे लिए शायद संगीत से होकर गुजरता है. हर आदमी का अलग अलग होता है रास्ता मुक्त होने का. खुद को मुक्त करने का तरीका मेरे लिए संगीत हो चुका है. दुनियावी दबावों में और इससे परे, संगीत कहीं अंदर बजता रहता है.
और, आज तक मैंने फैसले कैसे लिए. दारू पीकर. पीने के बाद सच-सच बोलता है दिल व दिमाग. बिना पिए ज्यादातर दिमाग ही बोलता रहता है क्योंकि दिमाग किसी का खुद का नहीं होता. उसमें उसका घर, परिवार, आफिस, पैसा, अहंकार, विचार सब बैठे होते हैं. सबका हिस्सा होता है. सिर्फ अपने आप तब होते हैं जब आपका सिर्फ दिल चले. और दिमाग शून्य हो ताकि दिल से गाइड हो सके. दिमाग शून्य करे बिना दिल की सुन नहीं सकते. दिल की आवाज को भाव नहीं देगा दिमाग. नौकरी के और जीवन के, ज्यादातर बड़े फैसले, निर्णायक फैसले नशे में लिए. दिल की सुनकर लिया. दिल ने कहा कि शादी कर लो तो कर लिया. दिल ने कहा इस्तीफा दे दो तो दे दिया, दिल ने कहा ट्रांसफर मांगो तो मांग लिया. दिल ने कहा गाली दो तो दे दिया. दिल ने कहा मारो दौड़ाकर तो मारने दौड़ पड़ा.
दिल ने कहा कि खबू गाओ तो गाने लगा. दिल ने कहा कि अब नाच भी पड़ो तो नाचने लगा. दिल ने कहा कि क्लीन शेव हो जाओ तो क्लीन शेव हो गया. दिल ने कहा कि गांव चलो तो बोरिया-बिस्तर समेत गांव चला गया. दिल ने कहा कि अब दिल्ली में ही ठिकाना खोजो तो दिल्ली की तरफ कूच कर गया. दिल ने कहा कि नौकरी में ये सब झंझट चलता रहेगा, खुद के नौकर बनो तो खुद का नौकर बना. दिल ने कहा कि पैसे मांग लो तो मुंह खोलकर पैसे मांग लिए. ये दिल कब बोलता है? हर वक्त नहीं बोलता क्योंकि ज्यादातर वक्त तो दिमाग बोलता है.
दिमाग बहुत दुनियादार और समझदार होता है. वह लाभ लेने को कहता है. वह अनैतिक होने को कहता है. वह काम निकालने को कहता है. वह स्वार्थी होकर ज्यादा से ज्यादा फायदा लेने को कहता है. बहुत कम वक्त देता है वह दिल को बोलने के लिए. और, जब दिमाग बहुत ज्यादा सक्रिय हो तो दिल बेचारा तो वैसे ही कहीं किनारे दुबका रहता होगा. मेरे लिए मेरा दिल दारू के बाद बोलता है. तब दारू के जोर से दिमाग निष्क्रिय होने लगता है. दिल का जब दौर शुरू होता तो मैं खुशी से भर जाता. गाने लगता. ठीक उसके पहले, दिमाग के दौर में मुंह फुलाए, दुनिया से नाराज दिखता. लेकिन दिल का दौर शुरू होते ही चंचल हो जाता. खिल जाता. सब कुछ हरा-भरा दिखता. अचानक ही सिर आसमान की ओर देखने लगता और फिर देर तक बादल, चांद, गांव, पेड़, अंधेरे की कल्पना करते-करते दिल्ली में होते हुए भी कहीं और पहुंचा होता.
खुद की नौकरी करते-करते और भेड़चाल से खुद को दूर रखते-रखते पिछले दो वर्षों में अंदर काफी कुछ बदल गया है. जब आपके उपर कोई दबाव न हो, जब आप अपनी मर्जी के मालिक हों. जब आप अपनी इच्छानुसार एक-एक मिनट जीने लगते हों तब आप, जाहिर है, धीरे-धीरे दिमाग से कम संचालित होने लगते हैं. दिमाग सिर्फ उतना इस्तेमाल होता, जितना वर्किंग आवर की जरूरत होती. उसके बाद दिल वाला. मदिरापान के पहले और बाद की अवस्था एक-सी होने लगी. इच्छा हुई तो सुबह पी ली. कभी दोपहर से शुरू हो गए. कभी देर रात में. कभी पूरे दिन नहाया नहीं. कभी कई दिनों तक ब्रश नहीं किया. कई दिनों तक सिर्फ नानवेज खाता रहा. कई दिनों तक केवल सेक्स प्रधान भाव बना रहा. वैसे रहा, जैसे दिल बोला. इच्छाएं धीरे-धीरे खत्म-सी होने लगीं.
अब लगता कि कई चीजों का क्रेज जानबूझ कर बचा कर रखता है मिडिल क्लास. सेक्स का क्रेज. मदिरा का क्रेज. छुट्टी का क्रेज. जब हर रोज सेक्स हो, हर पल सेक्स की उपलब्धता हो, हर पल दारू हो, हर पल दारू की उपलब्धता हो, हर पल छुट्टी हो, जब जी चाहे छुट्टी लेने का आप्शन हो तो इनमें कोई आनंद नहीं बचता. अचानक समझ में आता है कि अब किसी में रुचि नहीं बची. सब रुटीन सा हो गया. जब सब रुटीन सा हो गया तब फिर क्या? अब इसी क्या को मैं तलाश रहा हूं. पैंट शर्ट पहनने की इच्छा नहीं होती. कोई गाउन सा पहनने का मन करता है. सपने में हारमोनियम, तबला आदि नजर आते हैं. दिन में गाने लगता हूं.
किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं मन में. किसी से कोई तमन्ना नहीं. जो दे, उसका भला. जो न दे, उसका ज्यादा हो भला क्योंकि उसके पास मांगने ही नहीं गया तो उसके प्रति दुर्भावना क्यों. जो है, बहुत है. जो नहीं है, वो मिल भी जाए तो क्या हो जाएगा. जो भी करता हूं, उसमें अकारथ होने का भाव होता है. लगता है बीत जाये, बीत जाये जनम अकारथ.
जीवन-जगत सब कुछ गोरखधंधे की तरह लगने लगा है, नुसरत फतेह अली खां की आवाज में ...तुम एक गोरखधंधा हो... सुनकर मन नहीं भरता. ..सांसों की माला... नुसरत की आवाज में सुनते हुए सांसों के आने-जाने को महसूस करता हूं और एक-एक सांस को पकड़कर सोचता हूं कि ये सांस न हो तो जीवन न हो और जीवन न हो तो फिर यशवंत क्योंकर हो?
रुटीन की तरह बात खत्म करते करते गल्तियों के लिए माफी नहीं मांगूंगा और आगे के जीवन के लिए प्यार व आशीर्वाद नहीं चाहूंगा क्योंकि मुझे पता है जो गल्तियां नहीं करते, वे उससे सबक भी नहीं लेते और जो सबक नहीं लेते वे जीवन को समझ-बूझ नहीं सकते क्योंकि जो सबक नहीं लेगा वह वहीं पर अटका रहेगा, किसी गाने की फंसी हुई सीडी की तरह. प्यार-आशीर्वाद इसलिए नहीं चाहूंगा क्योंकि यह देने वाला आपसे बेहतर होने की उम्मीद करता है और जब मेरा बेहतर व उसका बेहतर अलग-अलग हो तो ऐसे में देने वाला कभी नाराज होकर लौटाने की मांग मन ही मन कर दे तो कहां से लौटाउंगा. ज्यादा अच्छा है खुद के श्रापों-आशीर्वादों से जीना-बढ़ना, और, मेरे जैसे लोगों की नियति यही है कि हम खुद के श्रापों-आशीर्वादों से दुखी-सुखी हुआ करते हैं, हम लोगों को दुख-सुख कोई दूसरा नहीं दे सकता.
बाजारू उत्तेजना (काम, क्रोध, लोभ, मोह... सभी संदर्भों में) के इस दौर में सारे उत्तेजनाओं से निजात पाना बड़ा भारी काम है, आपके लिए, और मेरे लिए भी. शायद, इससे मुक्त होकर ही सही मायने में हम कुछ नया कर पाएंगे, ऐसा मुझे लगता है. तभी मुझे यह भी लगता है कि एक पूरा वेल मैनेज्ड व इस्टैबलिश तंत्र है जो बाजारू उत्तेजना को दिनों दिन बढ़ा रहा है ताकि हम आप इससे निजात पाएं न. और, इससे निजात न पाना इस तंत्र को मजबूती प्रदान करना ही होता है.
आप सभी का दिल से आभार.
यशवंत
http://bhadas4media.com
dil ki awaj hai yahi hamri awr aapki prakti hai. par ham really bhatak cuke hai. BACK TO NATURE..............
जवाब देंहटाएंप्रिय, प्रिय साथी, आपके लेख का आखिरी पैरा पढकर दो बार प्रिय लिखने का मन कह गया।
जवाब देंहटाएंआखिरी पैरा हम सब की चिंताओं को स्वर देता है पर उसके बाद का पैरा कब लिखा जाएगा, यह सवाल अनुत्तरित है कईयों के लिए।
humne socha tha ki aaj pankaj aur anil se milen, lekin tum mile. dil aur dimag itna ladte hain? honge tabhi to tumne likha hai.
जवाब देंहटाएंlekin tumhara purana mitra ya parichit hone ke nate kuch achcha to nahin laga.
lekin tumhe to kisi ki parvah hi nahin hai.
khuda khair kare.
vipin
वाह वाह
जवाब देंहटाएंबहुत दिल से लिखा है.
सब ऐसे ही गुजर जायेगा