सफरनामा

30 जून, 2008

डिब्बे से एकालाप

जो भी थोड़ी सी कंप्यूटरबाजी जानता है ब्लागर हो सकता है। यह अपने अमरूद का गुआवा होना है। वही हैं...हैं वही हाय-हाय वही हौं-हौं...। नया कुछ नहीं। वही मिडिल क्लास दंतचियरपन और पानमसाले और रात में ब्रश करने की आदत न पड़ पाने से पीले दांत दिखाना। वही खीरा खाने के बजाय आंख पर रख कर सोना। अहो- अहो और अबे तू के बीच झूलती छोटी सी बैल के अंडकोष के बराबर की लेकिन रक्ताभ, आभासी दुनिया। सोचते हैं कंप्यूटर का डब्बा कीर्ति देगा। एक गब्बर भी है भीतर जो अंत में पूछता है कितने आदमी थे? क्या लाए हो ज्वार? सोचा था सरदार शाबासी देगा। वहीं अपना ये भी है बजाज चेतक पर बैठा मूंगफली से बतियाता हुआ। कहां है सब सांबा, पाम्बा, बाम्बा। सफोला से पेट पर बने टायर स्वेटर में छिपाए, मफलर की छांव में कोलेस्ट्राल पाउच संभाले, झूलते गालों से पूछता हुआ और वो गब्बर कहां है? कहां गए सब अयं। किस सहारा के सहारे?

कंप्यूटर मुनाफा देता है। आढ़तियों को। यह कला आजकल डिब्बा ट्रेडिंग के नाम से जानी जाती है। न माल कहीं आता है न जाता है (ये सब करिश्माए तसव्वुर है शकील वरना आता है न जाता है कोई के अंदाज में) आनलाइन बुक जरूर होता है। जानने वाले जानते हैं कि मंहगाई बढ़ने के स्थायी कारणों में यह प्रमुख है। ब्लागिंग ख्यालों की डब्बा ट्रेडिंग है।

यह मास्टर काहे का अखबारों में इतना भौकाल बनाता है। अभिषेक कहता है जेब में बीस- चालीस पोस्टकार्ड रखा जाए और हर दिन एक पोस्ट कर दिया जाए जिन पर लिखा हो- सर जी, आज कई अखबार और पत्रिकाएं देख डालीं आप और उत्तिमा केशरी, पूर्णिया नहीं दिखाई दिए। प्लीज जहां कहीं भी हों, जिस भी हाल में हों, कुछ लिख-विख दीजिए न। अब लगता है कि यह मास्टर दरअसल इंटलेक्चुंअल गुंडा है जो हिंदी के गरीब किंतु परिस्थितजन्य कमीने लेखकों को उनकी जान में उड़नतश्तरी सी रहस्यमय किंतु भीम चीजों ब्लागिंग, गीगाबाइट, देरिदा, टेक्सट, उत्तरआधुनिकता, विखंडनवाद, यंगिस्तान वगैरा का डर दिखाकर अखबारों से हर हफ्ते साढ़े आठ सौ लेकर डेढ़ हजार तक खींचता रहता है। खैंच कर एतना सेफ हो गया है कि चश्मे में डोरी लगवा ली है कि कमानी टूट जाए तो भी सेफ रहेगा यानि निर्भरता के एकाधिक उपादान लहा चुका है। वे बेचारे पत्नी-बच्चों को कंट्रीमेड गन प्वाइंट पर खामोश कर अब भी साली-सलहज की दांताकिल-किल लिखे जा रहे हैं। अंदर ब्लगारी हुंकार भरी है आबे, पहचान। दो हंसों का जोड़ा छाप बीड़ी बेचने वाला आगरे का पप्पू आई विल क्राई टूमारो वाली लिलियन रूथ का हवाला देकर कहता है कि अमां रेवरेंड मदर उर्फ अम्मीजान चुप भी रहा करो, स्त्रीमर्श चल रहा है। ये दोनों बस आभासी नेता है बाकी असली जनता उर्फ प्रवृत्ति की जमात काफी बड़ी है।

अमां यही होना था ब्लागिंग में। वही चिरकुटपन। आज मैने सपने में हर्षद मेहता और धीरूभाई अंबानी दोनों को चिंदबरम को कंपट देकर, छोटा भाई कह कर इमोसनली ब्लैकमेल करते जब उसने छोटा होना मान लिया तो धौंसिया कर चुप कराते देखा। साथ में एक उपेक्षित एक छोटा सा काला, कुपोषित, नंगा, उत्पाती बच्चा था जो कहता था कि एक हफ्ता बहुत होता है बेटा- अब ब्लागिंग से नमस्ते करने का समय आ गया है। कट लो। करना क्या है आते समय दस-बारह दबाए थे जाते समय बेसिक में घुस कर बस एक डि्लीटटटटटटटटटटट वाला दाबना है और क्या? उस समय कोई शब्दपुष्टिकरण टाइप के बेहुदा सवाल पूछे तो हमसे कहना।

ऐसी दुनिया है यह जहां लोगों को उनकी पोस्टवैल्यू, फेसवैल्यू को ही स्वीकारना पड़ता है। उसी के हिसाब से रिस्पांस करना पड़ता है। अंत में तैलचित्र में प्रदर्शित समुद्र में तैरता हुआ हिमालय से भी ऊंचा आभासी पहाड़ खड़ा हो जाता है। यहां आंख का झपकाना, हकलाना, पसीना या कंपन नहीं देखे जा सकते। इस कला में हम पहले ही कम माहिर थे? त्याग और दान की नैतिकता पेलते हुए घूस बटोरने वाले, देवी को पूजते हुए बीवियों को कूटने वाले, बच्चों को भगवान मानते हुए ग्रेड के लिए उन्हें रेत कर शुतुरमुर्ग बनाने वाले, हर असुविधा के लिए सरकार को कोसते हुए अपराधमुक्त हो जाने वाले, कमजोरकोचांपने और दबंग के आगे हें-हें करने वाले। हम उन्हीं की तो संताने हैं। ब्लागों के इस कदर अमूर्त, सहमतिपरक और व्यक्तिगत होते जाने के कारण आनुवांशिक हैं। कोई एन्थ्रोपोलाजिस्ट अगर ब्लागर नहीं है तो चकित हो सकता है कि यह कला तो हमने सतयुग से साध रखी है उसके लिए ब्लाग की क्या आवश्यकता थी।

सबसे अच्छे ब्लाग वे होते हैं जिनमें कहा कम समझा ज्यादा जाता है।

जैसे कबाड़खाना, अंर्तध्वनि, मीत, रेडियो आदि। जैसे आज ही छाप-तिलक में यह क्यों कहा कि बात अधम कह दीनी रे नैना मिलाय के। वह भगवान और भक्तिन के बीच कौन सी बात थी जो अधम थी। क्या भगवान ने भी ब्लाग के जरिये कहा जिसे कोठारिन जी समझ नहीं पाईं और उनका आंचल मैला होते-होते रह गया।

26 जून, 2008

पॉवर--पुत्र


पिता अचानक पॉवर हाउस हो जाएं तो अंधियारे से बाहर आए बेटे चौंधिया कर गदर काटने ही लगते हैं। जहां भी पॉवर है, उसका प्रदर्शन है। वह दिखे नहीं तो पॉवरफुल को अपना होना व्यर्थ लगने लगता है। पॉवर होगा तो खैर, खून, खांसी, खुशी और अनुराग की तरह ही छिप नहीं सकता, इसमें नया कुछ नहीं है।

नया वह है जो मायवती सरकार के मंत्रियों के घरों में हो रहा है। बेटों को पता है कि पिता यानि मंत्री जी, पांच कालिदास मार्ग पर जो अगली बैठक होगी, उसमें फटकारे जाएंगे, उन्हें अलग खड़ा कर सबके सामने अपने लाडलों की करतूत बयान करने के लिए भी कहा जा सकता है। यहां तक कि जिसकी वजह से पॉवर है, मंत्री पद भी जा सकता है। एक झटके में पॉवर का लट्टू जो अभी जला ही जला है, फुस्स हो सकता है। फिर भी वे नहीं मान रहे।

मुख्यमंत्री मायवती अपने एक सांसद और दो मंत्रियों को जेल भिजवाने के बाद इन दिनों ईमानदारी से इस कोशिश में लगी हुई हैं उनका कोई मंत्री या विधायक कानून अपने हाथ में न ले। एक साल से थोड़ा पहले उन्हें जो बहुमत का जनादेश मिला था, वह सर्वजन फार्मूले से ज्यादा पिछली सपा सरकार के मंत्रियों विधायकों की गुंडागर्दी के खिलाफ मिला था और फिर लोकसभा के चुनाव सामने हैं। जिस सरकार ने कानून के राज को अपने एजेंडे पर सबसे ऊपर रखा हो, उसके मंत्रियों के बेटे इसी तरह गदर काटते रहे तो वह लोकसभा चुनाव में मतदाताओं के सामने क्या मुंह लेकर जाएगी? इसी सवाल ने मायावती को परेशान कर रखा है। अपने सरकारी घर, पांच, कालिदास मार्ग पर पिछली बैठक में मायावती ने तीन मंत्रियों, कई विधायकों को जब खड़ा करके अपने ही अंदाज में जब समझाया था तो उनके चेहरे पर यही परेशानी, गुस्सा बनकर उभर आई थी। उसी दिन सुबह मुख्यमंत्री ने महाराजगंज कोतवाली में भीड़ के साथ घुसकर एक कांस्टेबिल की हत्या के आरोप में जमुना प्रसाद निषाद को गिरफ्तार भी कराया था। यानि वह बैठक एक मंत्री की गिरफ्तारी के मंगलाचरण के साथ शुरू हुई थी।

अगर मंत्रियों के बेटों को मायावती जैसी मुख्यमंत्री का भय भी नहीं रोक पा रहा है तो जरूर इसके कुछ कारण होंगे और उनकी बुनियाद उस भावना में होनी चाहिए जो आदमी को अपने बस में लेकर थोड़ी देर के लिए हर तरह के भय से मुक्त कर देती है। यही सत्ता की खास चारित्रिक विशेषता है।

जो बेटे या युवा इन दिनों गदर काट रहे हैं उन सबमें एक खास समानता है। वे सभी दलित, पिछड़े हैं, सत्ता का चस्का नया है और नौसिखिए हैं। लालबत्ती, दरवाजे पर चंपुओं की जय-जयकार, फटकारने के बाद भी न हिलने वाली फरियादियों की भीड़ और मालिक, आपसे ज्यादा जलवा किसका की फुहारों से अकबका कर वे लड़खडाते हुए निकल पड़े हैं। जलवा के पावरप्ले में यह पहली पीढ़ी है, इसलिए उन्हें नहीं पता कि जलवा कैसे महसूस कराया जाता है। रौब, जलवा, आतंक, हनक वगैरा को बहुत पहले ही जमींदारों के सामंती युग में ही क्राफ्ट में बदल डाला गया था। जिसके पास पॉवर हो उसे खुद हाथ गंदे करने की जरूरत नहीं पड़ती। इसका एक कारण यह है कि जलवा सबसे अधिक असरदार तब होता है जब आप अनुपस्थित हों और वह किसी बहुरूपिए की तरह भेष बदल कर तरह-तरह से लोगों के सामने प्रकट हो।

पॉवर को इस्तेमाल करने का ग्रामर न जानने के कारण ही ये नौसिखिए बेटे गच्चा खा रहे हैं और अपने पिताओं के लिए मुसीबतें खड़ी कर रहे हैं। झांसी में मंत्री रतनलाल अहिरवार के बेटे ने अपने दोस्त का क्रेशर बिठाने का विरोध करने वाले आदमी को धमकाने के लिए फायरिंग की तो उसकी बीवी जूझ गई और भीड़ ने घेर लिया। बेटे को अपना लावलश्कर छोड़कर भागना पड़ा। सबूत के तौर गाड़ी और रायफल भी वहीं छूट गई। अंबेडकर नगर के अस्पताल में परिवहन मंत्री रामअचल राजभर के बेटे को अपने चिरकुट पत्रकार दोस्त को जलवा दिखाना था जो चाहता था कि एक वकील की बीवी से पहले डाक्टर उसे अटेंड करे। वकीलों की भीड़ ने मंत्री के बेटे और दोस्तों को धुनक दिया, महीने भर हड़ताल पर रहे और अब लखनऊ हाईकोर्ट में आय से अधिक संपत्ति का मुकदमा दाखिल कर दिया है। याचिका में इस बात का जिक्र है कि रामअचल राजभर जो सन् १९९२ तक साइकिल पर लाउडस्पीकर बांधकर चूहा मार दवाई बेचते थे, के पास इतनी संपत्ति कहां से आई। गोरखपुर में मंत्री सदल प्रसाद के भाई ने
अपने एक परिचित को हनक दिखानी चाही, नही् दिखी तो बिजली विभाग के एक क्लर्क पर कट्टा तान दिया। यह नौसिखियापन नहीं तो और क्या है। ये जिन्हें डराने की कोशिश कर रहे हैं वे सभी मामूली लोग है और यह भी जानते हैं कि ये नए जलवा गर कल तक हमारी ही हालत मे डरे, सहमें रहा करते थे। इसी कारण वे सरकारी ताकत की परवाह न करते हुए उनसे जूझ जा रहे हैं। लेकिन यह नया-नया नशा है जिसके आगे मंत्रियों के बेटे मजबूर हैं। जब उतरेगा तब सोचेंगे क्या बुरा था क्या भला।

जरा इन बेटों की तरफ खड़े होकर सोचिए कि उनके सामने विकल्प क्या है। अब तक जो तथाकथित कुलीन, भद्र, सुसंस्कृत, ऊंची सोच के लोग सत्ता में रहे उन्होंने भी तो यही किया। पॉवर का ग्रामर जानते थे इसलिए अपने हाथ गंदे नहीं किए, खुद नहीं फंसे और बलि के लिए पाले बकरों से काम चलाते रहे। इनके सामने सत्ता के इस्तेमाल का और मॉ़डल है ही नहीं। यह कुछ वैसा ही है कि जंगल में भेडि़ए के साथ पला बच्चा भेड़िया हो जाता है। अपवाद के तौर पर कुछ लोगों ने सत्ता का इस्तेमाल कमजोरों की सरपरस्ती और अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए जरूर किया है। उनके रास्ते पर चलना जरा जिगरे का काम है जिसे इन दिनों मूर्खता भी कहा जाता है।

21 जून, 2008

ब्लागविवेचन कौमुदी



अयं कः।


अयं ब्लागरः
ब्लागरं किं करोति
कटपट-पश्यति-खटपट- पश्यति, क्लिकति पुनपुनः मूषकम्।


ब्लागर कौन होता है? जिसके पास कम्प्यूटर होता है। कंपूटर किसके पास होता है? जो साक्षर होता है। क्या कंपूटर होने से कोई प्राणी ब्लागर होता है? नहीं सिर्फ मनुष्य अब तक ब्लागर होता पाया गया है और इंटरनेट कनेख्शन भी अपरिहार्य है। इंटरनेट किसके पास होता है? जो शुल्क देता है। यह शुल्क लेता कौन है क्या वणिक? चुप वे देवता हैं जो ज्ञान, सूचना और अभिव्यक्ति और मनोरंजन के समुद्र में तैरने के लिए कास्ट्यूम और उसके खारे जल की हानियों से जिज्ञासुओं की त्वचा को बचाने के लिए आसुत जल और तदुपरांत लोशन देते हैं। साधु, साधु।


किंतु कंपूटर किसके पास होता है? जिसके पास उसे रखने के लिए एक मेज हो। मेज किसके पास होती है? जिसके पास उसके समक्ष रखने के लिए एक कुर्सी हो। कुर्सी किसके पास होती है? हां यह भी एक तरह की खामोश, अनुल्लेखनीय सत्ता है, अधिक काल तक उस पर वही बैठ पाता है जो नितंब-दाह से बचने के लिए उस पर कुशन रखता है। कुशन किसके पास होते हैं? जिसके पास अन्य कुशन होते हैं अर्थात वे समूह में रहते हैं। अन्य उपादान? नेत्र हानि से बचने के लिए चश्मा, पानी के लिए जलछुक्कक, काफी का मग जिसमें काफी, चाय या बियरादि वैकल्पिक द्रव हों. ये सब क्या अंतरिक्ष में अवस्थित होते हैं। मनुष्य जिस गुरूत्वाकर्षण का दास है उसी से आबद्ध होने के कारण कदापि नहीं, ये किसी नगर या उपनगर के किसी पुर के भवन में या भवन के एक कमरे में स्थित होते हैं।


भवन या कमरा किसका होता है? जो उसका स्वामी होता है या किराया अदा करता है। किराया का पण्य क्या होता है? मुद्रा- लीरा, डालर या रूबल देश, काल, परिस्थिति के अनुसार परिवर्तनीय किंतु अपने मूल स्वरूप में अविचल एवं अपने समान पण्य की सभी वस्तुओं यथा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि को क्रय कर सकने में सक्षम. साधु साधु।


ब्लागर का संपूर्ण अपरिहार्य एवं तात्कालिक परिवेश कितने मूल्य का होता है? अगर वह अविवाहित, समूह में रहते हुए लैमारी का अभ्यासी या कार्यालय के संसाधनों का प्रयोग करने में निपुण नहीं है तो भारतीय मुद्रा में न्यूनतम बीस हजार रूपए। इतनी भारतीय मुद्रा कहां से आती है? चाकरी, व्यापार किवां उत्कोच या चोरी करने से अन्य स्रोत भी हैं जिनका तुम्हारी हरी धनिया सी ताजी और खुशबूदार चेतना पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है। साधु साधु।


उत्पादन की प्रक्रिया का चिंतन से गूढ़ संबंध है अस्तु बीस हजार या अधिक भारतीय मुद्रा अर्जित करने की प्रक्रिया ब्लागर रूपी जातक की चेतना पर प्रभाव डालती है और उसके विचारों को कैसे रूपांतरित करती है? उसके मष्तिष्क का प्रतिबद्धता भाग लुप्त हो जाता है, विवेक भाग उत्तरोत्तर क्षीण होता है, अपने वर्तमान स्तर की सुरक्षा व प्रगति हेतु चेष्टा करने वाला भाग ग्रीष्म के वायु की भांति प्रलयंकर हो जाता है। तो क्या निर्धन, विकलांग, स्त्रियां, बालक या पण्यविहीन वनों में रहने वाले संन्यासी ब्लागिंग नहीं कर सकते यदि करें तो उनके विचार कैसे होंगे? किसी प्रकार की विकलांगता, लिंग या वय से इसका संबंध नहीं है इसका संबंध संसाधन एवं तकनीक के ज्ञान से है जिसके संसाधन गुड़ है जिसके पीछे ज्ञान कुत्ते की तरह विचरण करता है। साधु साधु।


ब्लागिंग का उपयुक्त काल क्या है और इसे कैसे करना चाहिए? प्रातः प्रातराश से पूर्व या रात्रि को कोलाहल प्रिय परिजनों के शयन के पश्चात, यदि सिद्ध हो जाए तो कभी भी किया जा सकता है। इसका हेतु क्या है और यह क्यों आवश्यक है? इसका अविष्कार ग्राम सभ्यता, संयुक्त परिवारों एवं कृषि आधारित व्यवस्था के उच्छेद काल के परवर्ती भ्रष्टाचार के कच्चे माल से चलने वाले उद्योगों से प्रकीर्ण महानगरों में मनुष्य के अकेले पड़ जाने के पश्चात असुरक्षा की भावना के शमन के लिए हुआ। भली प्रकार से सुसज्जित एवं अन्य सुखकर उपादानों से आच्छादित किंतु बंद प्रकोष्ठों में बैठे मनुष्य समूह से पृथक श्रृंगालों की भांति हुंआ-हुंआ करते हैं अन्य उनकी ही ध्वनि को प्रतिध्वनित करते हैं तब उन्हें एक बार फिर समूह में होने का आभास होता है। इसी प्रक्रिया में एक अन्य रसायन का भी स्राव होता है जिससे लगता है कि श्वान काष्ट की विशाल गाड़ी की छाया में सुखपूर्वक चलने की बजाय उसे संपूर्ण बल से खींच रहा है। तदनंतर इस कल्पित पुरूषार्थ से श्वास फूलने लगता है और वत्स तुमसे यह गुप्त भेद कहता हूं कि उसकी अनुभूति संतति प्राप्ति हेतु किए गए मैथुन से श्लथ आत्मा को मिलने वाले उल्लास मिश्रित आनंद से भिन्न नहीं होती।


इन श्रृंगालों का स्वामी कौन है?


वे आभासी विश्व में रहने के अभ्यस्त हो चले हैं अतः उनमें से अधिकांश स्वयं को स्वामी कहते है, कुछ के स्वामी आभासी विष्णु हैं जो क्षीरसागर में बीस हजार किमी से अधिक लंबे इंटरनेट केबिल रूपी शेषनाग पर लेटे लक्ष्मी से पैर दबवाते रहते हैं।


क्या विष्णु ब्लागिंग करते हैं?


नहीं करते तो अब करेंगे लेकिन अब तुम जाओ सुत रहो। अगले सत्र में अपने मातृकुल से अनुमति से लेकर आना।


19 जून, 2008


असली कौन चेहरा या हाथ

अमिताभ बच्चन जी आजकल अपने ब्लाग पर नैतिकता, ईमानदारी, अच्छाई वगैरा पर बड़ी प्यारी-प्यारी बातें कर रहे हैं, मीडिया को भी कस कर हौंक रहे हैं। मीडिया ने जीवन भर जो उन पर ज्यादती की उसका संचित बदला ले हैं। बता ही डाला कि उन्हीं की दारू पीकर भाई लोग उन्हीं को अगले दिन नसीहत लिख मारते हैं।

ब्लाग बिगबीबिगअड्डा.काम पर उनका जो फोटो लगा है डराने और बस जरा सी जुगुप्सा जगाने वाला है। क्योंकि उनके हाथों और चेहरे की बीच कम से कम पचास साल का फासला है। लगता है कि यह हाथ इस चेहरे को कभी-कभार आशीर्वाद देने या कान उमेठने के लिए छूता होगा वरना दोनों में बरसों तक देखादेखी नहीं होती होगी। बगल में हरिवंश जी की एक कविता है इस्तेमाल यह बताने के लिए किया गया है कि जिंदगी ने मुझे इतना मौका ही नहीं दिया कि मैं किए-कहे-माने की नतीजा सोच सकूं। बेटा-तुम जो आजकल कर रहे हो ठीक है, यानि सही जा रहो हो- एक पिता की कविता अपने व्यापक सरोकारों से कट कर सिर्फ अपने बेटे के लिए वहां कुछ ऐसा ही बिंब बना रही है।

उन खबरों का उनकी तरफ से कोई अभी तक खंडन नहीं आया है जिनमें कहा गया है कि ये बातें करने के लिए उन्हें सौ करोड़ दिये गए हैं। वे ये बातें अपनी तरफ से करते, इसके लिए इतना ज्यादा पैसा लेने की क्या जरूरत थी। अगर उन्होंने पैसा ले लिया है तो इस नैतिकता, ईमानदारी, साफगोई, हिम्मत आदि सामानों का असली मालिक किसे माना जाए? इसे बताने के लिए भी क्या वहां हरिवंश राय बच्चन की कोई एक कविता राइट क्लिक- कापी फिर क्लिक और पेस्ट की जाएगी।

आज बाराबंकी के केपी तिवारी से बात हुई। तिवारी जी लगे बताने कि अपने भाई के ५२ वें जन्मदिन यानि २७ जनवरी को बच्चन जी ने अपनी बहू एश्वर्य, लड़के अभिषेक और धर्मपत्नी जया बच्चन के साथ दौलतपुर गांव आकर लड़कियों के एक कालेज का शिलान्यास किया था। कालेज का नाम पहले हरिवंश जी के नाम पर रखा जाना था लेकिन रखा एश्वर्य के ही नाम पर गया।

वहां चंद्रबाबू नायडू, ओमप्रकाश चौटाला, फारूख अब्दुल्ला यानि पूरा तीसरा मोर्चा और तीसरे मोर्चे के चेयरमैन मुलायम सिंह यादव भी थे। जया बच्चन ने कहा कि वे चाहती है यूपी के हर घर एश्वर्य जैसी पढ़ी-लिखी, शालीन, समझदार बहू आए इसलिए यह कालेज शुरू किया जा रहा है। उन्होंने एश्वर्य से भी कहा कि वे हर साल यहां आकर देखें कि पढ़ाई कैसी हो रही है- कहीं मस्टराइनें एक दूसरे की जुएं निकाल रही हों और लड़कियां पिछवाड़े के खेतों में कबड्डी खेल रही हों। एश्वर्य ने माइक पर अभिषेक को कहा अभिषेक जी और अभिषेक ने कहा ऐश्वर्य जी और लोगों को बड़ा मजा आया। बड़ी देर तक तालियां बजती रहीं। पता नहीं क्यों, शायद दोनों पहली बार एक दूसरे का पहचान लिया था इसलिए।

यह भी कहा गया कि कालेज अगले सत्र से शुरू हो जाएगा और इसे चलाने का जिम्मा जया प्रदा के एनजीओ निष्ठा फाउंडेशन को दिया जा रहा है। उस दिन जिला प्रशासन ने हेलीकाप्टरों के फेरे और तामझाम के सलमे-सितारे गिन कर तखमीना लगाया कि कोई पांच करोड़ का खर्चा शिलान्यास, पूजा-पाठ पर तो आया ही होगा। जो झक्कास हाईप्रोफाइल बस अमिताभ बच्चन के परिवार को लेकर एयर पोर्ट से वहां आई थी वह अफसरों की नजर में चढ़ गई और जांच हुई तो पता चला कि हमीरपुर से उसका जो रजिस्ट्रेशन था फर्जी है जांच एक दारोगा कलकत्ता अमर सिंह के लिए घर गया वहां उसका स्टिंग आपरेशन हो गया और वह मुख्यमंत्री मायावती की बदले की भावना का सबूत बन गया। किस्सा चंद्रकांता संतति सा पेंचदार है....बहरहाल भटकने से बचने के लिए बाराबंकी के दौलतपुर चलें।

तिवारी जी ने बताया कि जौन ईंटा रखा रहा गा हुंआ, कुछ दिन रखा रहा, अब मनई लइ जा रहेन चरनी-नांद बनावै खातिर और जयाप्रदा के फाउंडेशन का अबै तक कौनो अता-पता नहीं ना।

जिस गांव दौलतपुर में यह कालेज है वहां एक और किसान ने अखबार पढ़कर यह जानकारी प्राप्त की है अमिताभ बच्चन का हाथ थोड़ा तंग है क्योंकि किसी अफ्रीकी देश में अभी उन्होंने बयान दिया था कि कालेज के लिए कोई ट्रस्ट है जो अभी पैसा इकट्ठा करने का काम कर रहा है।

तिवारी जी का कहना है कि खांमखां का हौफा है अरे जेतना उद्घाटन में फूंकिन ओतने में तौ हियां लल्लन टाप कालिज बन जातै।

अमिताभ बच्चन जी, जिस कालेज ने आपको जीवन के सबसे बड़े संकट से उबारा ताकि आप रोष में सिंकती अपनी नैतिकता को लोगों तक अबाध पहुंचा सकें- वह कब से शुरू होगा?

ब्लाग अनुबंध की शर्त के बतौर अगर किसी कंपनी या आदमी ने प्रतिबंध न लगा रखा हो तो मैं विनम्रतापूर्वक चाहूंगा कि हारमोनियम पर आकर बताएं। यह भी कि जब आप खुले दिल से डायलॉग करने ब्लाग पर आ ही गए तो यह हाथ और चेहरे बीच आधी सदी का फासला क्यों है? कोई जरा ईमानदार सी फोटो पेस्ट कीजिए ताकि जिन्होंने जिंदगी भर आपकी तस्वीरें देखीं अब आपको भी देख सकें।

17 जून, 2008

साभार विजय- देह की भाषा में बतियाता खबरची

भाई दिलीप मंडल की पोस्ट एसपी की गैरहाजिरी का मतलब में अनिल यादव ने लिखा है, ‘काश, वह क्लिपिंग मेंरे पास आज होती तो आधी रात इतना हारमोनियम बजाने की जरूरत नहीं पड़ती। शायद आपके किसी परिचित ने कोई किताब एसपी पर एडिट की है, जिसमें शायद वह राइटअप है। अगर वह मिल सके तो उसे जरूर अपने ब्लाग पर डालिएगा। ’

एसपी सिंह के निधन के बाद निर्मलेंदु जी ने एक पुस्तक संपादित की थी, ‘शिला पर आख़िरी अभिलेख ’। पुस्तक में विशेष सहयोग देने वालों में दिलीप मंडल भी थे। यह पुस्तक मेरे पास है। रिजेक्ट माल पर मैंने जो टिप्पणी की थी, उसमें जिस किताब का ज़िक्र हुआ है, वह यही है। अनिल यादव का वह लेख पृष्ठ क्रमांक 192 पर है। शीर्षक है, ‘देह की भाषा में बतियाता खबरची ’। अनिल जी का वह लेख प्रस्तुत कर रहा हूं : विजयशंकर चतुर्वेदी

‘एंकरपर्सन’ एसपी सिंह को परदे पर ख़बर बांचते देखना अजीब था। एक तटस्थ और शातिर सांवादिक (कम्यूनिकेटर) की तरह ख़बर को हवा में तैरा कर वह चुप नहीं हो जाते थे - भौंहें सिकोड़ कर, बहुत ज़ोर लगा कर, गर्दन मटकाते हुए पढ़ते थे। मानो ख़बर में छिपी ख़बर को धकियाते हुए परदे के पार जितना अधिक हो सके, उतनी दूर भेज देना चाहते हों। उन्हें शायद यक़ीन नहीं आता था कि दूरदर्शन के सेंसर की चारा मशीन में फंस कर लंगड़ी हो चुकी ख़बर ख़ुद अपना सफ़र तय कर पाएगी।उनका यह ढंग थोड़ा खीझ ज़रूर पैदा करता था, लेकिन साथ ही साथ दर्शकों को ज़्यादा हो कर टीवी के सामने बैठने को बाध्य भी करता था। आख़िर कुछ तो है, जिसकी तरफ आंखों से, गर्दन को पूरा ज़ोर लगा कर वह इशारा कर रहे हैं।

वह सरकार और बाज़ार की बंदिशों को धकेल कर देह की भाषा में सबसे बतियाते खबरची थे। खबरें उन्हें फड़फड़ाने को मजबूर करती थीं। यह बहुत बड़ी बात थी। शिखर पर बैठा हुआ प्रोफेशनल होने के बावजूद एसपी ठंडे और तटस्थ नहीं रह पाते थे।

जनवरी 1997 की एक शाम। ‘आज तक’ के दिल्ली दफ्तर में एसपी से हुई लंबी मुलाक़ात जेहन में आज भी फंसी हुई है - जस की तस। वह पत्रकारिता में बहुतों के आग्रह थे। कुछ के गुरूर (दिलीप जैसे लोगों के) थे और कुछ के लिए कुशल ख़बर मुनीम। यहां दूसरे एसपी थे। आत्मरति में नहायी आग और पत्रकारीय किलाफतह लनतरानियों से एकदम अछूते। थोड़े हताश, बहुत आक्रामक, करीब-करीब मुंहफट और बेधड़क। बिना इंट्रो के नंगी ख़बर की तरह अनौपचारिक और बेलौस।

उस शाम इस एसपी के सामने मैं भी नौकरी मांगने की गरज से पहुंचा औरों की तरह।

एक रिपोर्टर के हाथ से पैकेट ले कर खोलते हुए वह मुस्कुराए - ‘देखा? हमारा रिपोर्टर अब भी भालू से खेलता है।’ रिपोर्टर झेंप गया। वह बोले, ‘अरे भाई, ख़बर पकड़ने के लिए बच्चों जैसा कौतुक ज़रूरी है।’रिपोर्टर के जाते ही वह दोबारा पुरानी पटरी पर आ गये, ‘हां, तो आप इलेक्ट्रॉनिक मीडिया को बूझना-समझना-जानना चाहते हैं। सच कहूं तो यह बहुत छिछोरा माध्यम है। भदेस ढंग से कहें तो थूकने की भी जगह नहीं है यहां। ख़बरनवीस को कुछ नहीं करना है, केवल माइक सामने वाले के मुंह पर अड़ा देना है। बाकी काम कैमरामैन करता रहेगा। समय इतना कम है और बंदिशें इतनी ज़्यादा कि किसी के लिए बहुत कुछ करने की गुंजाइश ही नहीं है। पांच साल कोई यही करता रहे तो तकनालोजी का तो बड़ा जानकार हो जाएगा, लेकिन दिमाग़ एकदम ख़ाली हो जाएगा। अगर आप कुछ ख़ास करके ले भी आएं, तो दूरदर्शन का सेंसर कैंची चला देगा, वहां एक से एक ठस दिमाग़ वाले बैठे हैं। आम बोलचाल की भाषा, दरअसल, उन्हें समझ में नहीं आती, आपत्तिजनक लगती है। हां, यहां पैसा और चकाचौंध बहुत है।’


एसपी की आंखें सिकुड़ कर और छोटी हो गयीं। फिर वह झटके से बोले, ‘मुझे कोई मुगालता नहीं है कि लोग मेरे लिखे को पढ़ने के लिए बेताबी से इंतज़ार कर रहे होंगे। और यह भी नहीं कि मेरे लिखे से कोई उलट-पुलट हो जाएगी। अब मेरा अख़बार में लिखने का मन नहीं करता। हिन्दी के अख़बारों में कोई चीज़ों की तह में उतर कर पड़ताल करता और लिखता नहीं है। वहां साहस और पहल का बहुत-बहुत अभाव है।’


‘मेरा मानना है कि पढ़े-लिखे विचार वाले लोगों को प्रिंट मीडिया में ही जाना चाहिए। अब भी वहां बहुत गुंजाइश है।’नौकरी गयी एक तरफ। एसपी को और अधिक खोलने के लिए सीधी मुठभेड़ का मन बना चुका था। पूछ ही लिया, ‘फिर आप सब जानते-बूझते हुए क्यों इस माध्यम में आ गए?

’कुर्सी पर निढाल होते हुए एसपी खुले, ‘हां यार, आ तो गया। मैं ‘इंडिया टुडे’ में एक कॉलम लिख रहा था। पैसे भी ठीक मिल रहे थे। काम चल रहा था। इसी बीच बीमार पड़ा और अस्पताल पहुंच गया। लिखना रुक जाने से पैसे मिलने का सिलसिला टूट गया। अरुण पुरी (लिविंग मीडिया के मालिक) से पहले भी बातचीत हुई थी। इस बार फिर बात हुई। उन्होंने कहा कि काम शुरू कर दीजिए। मैं मना नहीं कर पाया और ज्वाइन कर लिया।’‘लेकिन यहां आने के बाद आपने पत्रिका और अख़बारों में लिखना क्यों छोड़ दिया?’एसपी की आंखें सिकुड़ कर और छोटी हो गयीं। फिर वह झटके से बोले, ‘मुझे कोई मुगालता नहीं है कि लोग मेरे लिखे को पढ़ने के लिए बेताबी से इंतज़ार कर रहे होंगे। और यह भी नहीं कि मेरे लिखे से कोई उलट-पुलट हो जाएगी। अब मेरा अख़बार में लिखने का मन नहीं करता। हिन्दी के अख़बारों में कोई चीज़ों की तह में उतर कर पड़ताल करता और लिखता नहीं है। वहां साहस और पहल का बहुत-बहुत अभाव है।’

मुझे झटका लगा। क्या एसपी इसी तरह हताशा और मोहभंग की हालत में बीते कई सालों से यंत्रवत लिखते आये हैं। मैंने उन्हें दूसरी तरफ मोड़ा, ‘ऐसा नहीं है। हिंदी अख़बारों में भी नये प्रयोग हो रहे हैं। अभी ‘अमर उजाला’ ने अपने एक संवाददाता को उत्तरप्रदेश में मंडल और मंदिर आन्दोलन के बाद बदली सामाजिक और राजनीतिक स्थितियों के अध्ययन के लिए लगाया है।

’अनमने-से दीख रहे एसपी चौकन्ना हो गये, ‘क्या सचमुच ऐसा है! क्योंकि आम तौर पर हिंदी में दूसरों (ख़ास कर अंग्रेज़ी) का कहा सच मान लिया जाता है। लोग ख़ुद खोजने की ज़हमत नहीं मोल लेते। जिसने भी यह काम किया है, उस सम्पादक से मैं मिलना चाहूंगा। यह मामूली बात नहीं है!’इस बातचीत के बीच वह लगातार सहकर्मियों को निर्देश देते हुए, टेलीप्रिंटर से ख़बरें छांटते हुए, मज़ाक करते हुए रिकॉर्डिंग के लिए तैयार हो रहे थे।

ख़बरों पर बहस करते-करते अचानक किसी को डपट देना और तुंरत गढे गये किसी लतीफे से खिंच आये सन्नाटे को तोड़ डालना उनके स्वभाव का अविरल बहता हिस्सा था।मैं ख़बरनवीस एसपी में अब कुछ और खोज रहा था। वह क्या चीज़ है, जो गाज़ीपुर के उस छोटे-से अंधियारे गांव से यहां कनाट प्लेस में बसे मायावी मीडिया लोक के शीर्ष तक उन्हें ले आयी है।ख़फीफी दाढ़ी और पैनी आंखों की कौंध के बीच उसे तुंरत खोजना असंभव था।

आत्मविश्वास से भरे एसपी को वहां शीर्ष पर देखना सचमुच एक गुरूर जगाता था कि मीडिया का सिंहासन सिर्फ विदेशपलट या वसीयतनामे जेब में ले कर आये लोगों के लिए ही नहीं है। अपनी ज़मीन की समझदारी में पगी जिजीविषा भी वहां छलांग मार कर बैठ सकती है। मुझे वहां खोया हुआ छोड़ एसपी ने कुर्सी पर टंगा कोट उठाया और झटके से रिकॉर्डिंग के लिए चले गये......यही उन्होंने 27 जून को दिल्ली के अपोलो अस्पताल में भी किया। इससे उस गुरूर को धक्का जरूर लगा है।

उनकी फोटो

सही समय पर सही जगह सेट न कर पाने की तकनीक न आने के कारण एसपी का भुटन्नी भर फोटो दाहिने लग गया है। मैग्नीफाइंग लेन्स से देखेंगे तो पाएंगे कि हाल में सचिन तेंदुलकर को सुल्तापुर घुमाने वाले कांग्रेसी एमपी, राजीव शुक्ला के गुरू और फरूर्खाबाद से एमपी रहे पूप्रमं वीपी सिंह के चेले पत्रकार भी दिखाई दे रहे हैं।

16 जून, 2008

एस पी की गैरहाजिरी का मतलब

हां भाई दिलीप, इसी महीने एसपी की मौत हुई थी और उसके एक हफ्ते बाद लखनऊ में एनेक्सी के प्रेस रूम में एक रस्मी शोक सभा हम लोगों ने की थी। हम लोगों के पास वह फोटो नहीं था जो उनसे नत्थी हर कार्यक्रम में लगता आया है। जैसा कि देश में अन्य शोकसभाओं में कहा गया था, उस शोकसभा में भी आश्चर्यजनक समानता से कहा गया- अच्छे थे, भले बहुत थे, पत्रकारिता के सबसे उज्जवल नक्षत्र थे और यह भी कहा कि उनके निधन से क्षति अपूरणीय हुई है।

लेकिन मुझे पक्का भरोसा है कि इले. मीडिया की इस गति यानि ओझा, सोखा, भूत, चुरइन, तंत्र-mant, बैंगन में भगवान, हत्या-बलातकार के मूल से भी वीभत्स रिप्ले, बिल्लो रानी, कैसा लग रहा है आपको, जनता गई तेल लेने-टीआरपी ला उर्फ छीन-झपट-झोली में धर टाइप फ्यूचर का अंदाजा था और वे बहुत चाहते हुए भी इसे रोकने के लिए कुछ नहीं कर पाए.

कर भी क्या सकते थे वे? उनके बस में था ही क्या? शायद वे भी बस एक पुरजा बनकर रह गए थे। या नई छंलाग से पहले जरा गौर से तमासा देख रहे थे। जितना रविवार में या दैनंदिन जिंदगी में उनने किया वो क्या कम था, इससे ज्यादा की उम्मीद उनसे करना क्या ज्यादती नहीं है। अक्सर हम लोग पत्रकारों में नायकत्व की तलाश की रौ में उस शालीन, चुप्पे, नजर न आने वाले चतुर व्यापारी उर्फ मालिक को भूल जाते हैं जिसका पैसा लगा होता है। यानि जिसने हमारे नायक को नौकरी दी होती है और हर महीने तनख्वाह दे रहा (झेल रहा ) होता है।

अगर कोई बदलाव आना है इले, प्रिंट, इंटरनेट पत्रकारिता में तो पहले उस पूंजी के चरित्र, नीयत और अकीदे में आएगा (क्या वाकई)- जिसके बूते अभिव्यकक्ति की स्वतंत्रता का सुगंधित, पौष्टिक बिस्कुट खाने वाला या लोकतंत्र का रखवाला यह कुकुर (वॉचडाग) पलता है। बहरहाल इस कुकुर को पोसना मंहगा शौक बना डाला गया है और उसे बिजनेस कंपल्सन्स के कारण इतना स्पेस देना ही पड़ता है कि कभी-कभार गुर्रा सके। ...... और यह गुर्राना भी आवारा पूंजी के मालिकों के छलकते लहकट अरमानों के हूबहू अमल के दौर में कम बड़ी सहूलियत नहीं है।

उस शोक सभा के एक दिन पहले मेरी लिखी आबिचुअरी अमर उजाला के लखनऊ संस्करण के पेज ग्यारह पर छपी थी (अपने वीरेन डंगवाल की जगह रिपोर्टर की खबर अपने नाम से छापने वाला, जनेऊ का प्रतिभा की तरह इस्तेमाल करने वाला कोई और संपादक होता तो शायद वह भी नहीं छपती )। काश, वह क्लिपिंग मेंरे पास आज होती तो आधी रात इतना हारमोनियम बजाने की जरूरत नहीं पड़ती। शायद आपके किसी परिचित ने कोई किताब एसपी पर एडिट की है जिसमें शायद वह राइटअप है। अगर वह मिल सके तो उसे जरूर अपने ब्लाग पर डालिएगा।

मैं, उन दिनों मेरठ अमर उजाला में खबर एडिट करने वाला मजूर था और पार की पटकथा लिखने वाले, चुंधी आंखों और न फबने के बावजूद खफीफी दाढ़ी रखने वाले एसपी के लिए मेरे भीतर कोई सम्मोहन था। वह होना ही था वरना गिद्धों की बीट से गंधाती दिल्ली रोड से हर शाम गुजर कर अमर उजाला में पपीता फल ही नहीं औषधि भी टाइप के फीचर और मृतक साइकिल पर जा रहा था टाइप खबरें रात के तीन बजे तक एडिट करते हुए और सुभाष ढाबे वाले के मोबिल आयल में डूबे गुनगुनाते पराठे खाकर जीना संभव नहीं था।

(हां वे इतने मोटे और फूले होते थे फोड़ने पर सीटी बजाते और गुनगुनाते थे )

तो तिरानबे में दीवाली के आसपास अपने जिले के पत्रकार एसपी से मिलने एक दिन आजतक में पहुंच गया। दो दिन- कई घंटे बैठने के बाद मुलाकात हुई। बैठने के दौरान मैने पीपी, राकेश त्रिपाठी अनेकों परिचितों और खुद की थोड़ी दबी (लेकिन इसी दबाव के कारण ज्यादा फैले नथुनों से एफिशिएंट) नाक से सूंघ कर जाना कि आजतक में एक चारा मशीन इन्सटाल हो चुकी थी जिससे गुजर कर अच्छी खासी तंदरूस्त खबर लंगड़ाने लगती थी। एसपी टीवी के बाहर ्पनी गरदन निकाल कर उसे दर्शक तक ठेलने की जिद भरी कोशिश करते पर वह टांग टूटी मैना की तरह वहीं कुदकती रह जाती थी।

एसपी चौकन्ने बहुत थे वे बहुगुणा की तरह मुझे और मेरे मालिक अतुल माहेश्वरी दोनों को जानते थे।

स्वाभिक था कि उन्होंने मुझे नौकरी-आतुर गाजिपुरिया युवक समझा होगा। लेकिन थोड़ी बात-चीत के बाद कहा कि इस मीडियम में क्यों आना चाहते हो यह तो अब थूकने की भी जगह नहीं है। यहां क्या है, बस भोंपू लेजाकर किसी नेता-परेता या बाइटबाज के मुंह पर अड़ा देना होता है, बाकी काम वह खुद करता है। यहां सोचने समझने वाले के लिए कोई स्पेस नहीं है। तुम प्रिंट में हो फिर भी वहां बहुत स्पेस है और फिर अतुल माहेश्वरी जैसा समझदार लाला तुम्हारा मालिक है जिसने समय की नब्ज देखते हुए कारोबार जैसा अखबार निकाला है।


इसी बीच दीपक कमरे में आगया उसके हाथ में एक टेडी बियर था एसपी ने उसे लेकर उलट-पलट कर देखा, फिर मेरी तरफ देखा, देखा हमारा रिपोर्टर अभी भी भालू से खेलता है। इसमें व्यंग्य था या दीपक के ट्रेंडी होने का रिकगनिशन मैं नहीं समझ पाया। दीपक के तो खैर दोनों होंठ कानों को छू रहे थे समझ ही गया होगा।

स्वाभाविक यह भी था कि मुझे लगा कि मीठी गोली है, अब कट लो का इशारा है। इडियोलाजी और मीडिया को जनता के पक्ष में इस्तेमाल करने के लौंडप्पन भरे अरमानों की बातें काफी हो लीं अब काम का समय है चलो....मेरठ निकलो।

बराबरी के आंतरिक स्केल पर सबको नापने के कुटैव से और उनके आकर्षण से त्रस्त मैने पूछ लिया, तो आप फिर क्यों अब तक यानि इस मीडियम में क्यों बने हुए हैं। आपको नहीं लगता कि निकल लेना चाहिए?

----मैं तो बेहद बीमार था (बीमारी बाद में पता चली) अस्पताल का बिल (मैने मतलब निकाला कर्ज)बहुत हो गया था। एक दिन अरूण पुरी बोट क्लब पर मिल गए वहां से हम दोनों पैदल चलते हुए यहां तक आए और हाथ पकड़ कर उन्होंने इस कुर्सी पर बिठा दिया। तब से बैठा हुआ हूं। क्या कर सकता हूं पैसा चाहिए तो यहीं बैठना होगा।

होगा (होबो) सुनकर लगा बंगाल वाले एसपी हैं क्योंकि उनकी आंखों की कोर भीग गई थी। एक पछतावा था जो मैने महसूस किया।

उस रात राकेश के कमरे पर नोएडा में रूकना था हम लोग आज तक की रात की पाली के स्टाफ को घर छोडने वाली कार से वापस से लौटे। कार में एक ढलती सी, सेक्सी, बस जरा बीच-२ में मजबूर लगती गाय सी कातर आंखों वाली लड़की थी जो किसी जूनियर को बता रही थी कि उसका सपना किसी दिन दो वारशिपस् की आमने-सामने टक्कर को कवर करना है। मुझे रोमांचित होना चाहिए था लगा कि इससे कल रात ही कोई थ्रिलर पढ़ा है या फिर जो इसके रोल माडल सर होंगे उनकी बकचोदी को सत्य मानकर उवाच रही है।

बहरहाल फिर वह ढलती लड़की फिर कभी अफगान, इराक या किसी और वार के दौरान नजर नहीं आई।

फिर लड़की की नकली उन्माद में खत्म तेल की भभकती ढिबरी लगती आंखों में झांकते हुए, उस रात मुझे लगा कि एसपी गोली नहीं दे रहे थे। उन्हें आभास है कि कल दफ्तर के भीतर एमएमएस और बाहर डाइन के प्रकोप में खेलती गरीब औरतों का दयनीय उन्माद और उनके फटे ब्लाउज बिकने वाले हैं।

आज ही भाई दिलीप को बजरिए ई-मेल बताया कि ब्लाग बन गया। शाम को पोस्ट से ख्याल आया कि एसपी आज ही गए थे। सोचा था रात बारह से पहले लिख देना है क्या, पता किसी को इस का इंतजार हो. लेकिन देर हो ही गई।

बच्चा नींद में उन्मत्त रो रहा है, भूख भयानक लगी है, सुबह जल्दी उठ कर डाक्टर को आंख दिखानी है नहीं तो ससुरा इस हफ्ते फिर लटका देगा। एसपी पर संशोधित, सुचिंतित पोस्ट फिर कभी। खैर जाते समय क्या एसपी मुझ जैसी ही हड़बड़ी में नहीं गए होंगे।

देखिए तो कितने काम छूट गए जो शायद वह या वही कर सकते थे।

बरसो रे मेघा

दो दिन से झमाझम है। आज बादलों से घटाटोप आसमान को देखते एक कविता याद आई। कहीं पढ़ी या किसी से सुनी होगी।



नीली बिजली मेघों वाली

झींगुर, सांवर, सूनापन

हवा लहरियोंदार

घन घुमड़न भुजबंधन के उन्माद सी

बढ़ती आती रात तुम्हारी याद सी।



(बादल और बांहों का चमत्कृत कर देने वाला फ्यूजन है। जरा सोचिए बादल आपकी बांहों के भीतर अनियंत्रित लय में घुमड़ रहे हैं, आतुर हैं, उन्मत्त हैं। उसकी याद का आना जुगुनुओं की टिमटिम, झींगुरों के कोरस के बीच उमस भरी, आपके अस्तित्व को विलीन कर देने वाली अंधियारी रात का आना है। और यह सांवर क्या है, शायद बदली के मद्धिम प्रकाश का खांटी रंग है।)



पता नहीं किसकी कविता है। शायद छायावादी कवि होगा कोई। कवि का नाम गुम गया है, कविता कितनी बरसातों के बाद अब भी बादलों में घुमड़ रही है।

15 जून, 2008

देश की हवा

ब्लाग से ब्लाह, ब्लाह।

एक शाइस्ता किस्म के विधायक जी थे। यह बानबे था। उनके डेरे दारूलशफा के बड़े वाले हाल में दरी पर छह पत्रकार रहते थे। गरमी के दिनों देर रात, जब कभी विधायक जी अपने क्षेत्र से आते तो पाते कि अपने बर्थ-डे सूट में अंडरवीयर या पटरवाले जांघियों के संशोधन के साथ वे छह स्वपनों, आशंकाओं, अवसादों, उन्मादों, अखबारों, किताबों में लिपटे सोए मिलते और वे उनकी तरफ हाथ उठाकर बुदबुदाते- ....हं, हई देखिए ये पत्रकार लोग हैं।


डेरे में एक टूटा स्टंप था और गुरमा मारकुंडी कहीं से एक कंचा लहा लाए थे। देर रात गए उस गोली की गेंद और स्टंप के बल्ले से वे छह क्रिकेट भी खेलते थे। पीपुल फीिलडिंग में जान लगा देते थे और खुद को जोंटी रोडस से कम नहीं समझते थे। वे किसी काकटेल पार्टी में घुस पाते तो वहां से गुरमा के लिए भी दारू और खाना पैक कराकर ही आते थे। कभी-कभार आंगन की मोरी को बनियान से बंद कर घुटनों तक पानी भरने के बाद तैराकी का कंपटीशन भी हो लिया करता था।


श्री कंट- यह नाम उनके नैन्सी फ्राइडे के लिखे की त्वरित भौतिक प्रतिक्रिया देने वाले घनघोर पाठक होने के कारण मिला था। उन ने उस दिन विधायक जी की एक रोलदार कापी फाड़ी और कई पन्नों पर ब्लाह। ब्लाह। .आई एम ममाज ब्वाय- चमकीले पेन से लिखकर दीवारों पर चिपका दिया। और फकत एक चड्ढी में कैलिप्सो करने के बाद खुद बिछौने पर गुलाटी खाने लगे। फिर सबको एक एक टाफी दी अपनी एक कनपटी पर आंच वाले दिन कविता सुनाई। फिर रोने लगे और सुबकते-सुबकते सो गए। देर रात गुरमा लौटे तो बताया कि आज श्री कंट का जन्मदिन था किसी ने विश किया?


सबसे निरपेक्ष पगुराते, धर्नुजंघी टांगों वाले और इलस्ट्रेशन खींचने में माहिर कलाकार फकिंग गाय थे। जो हमेशा भोजन के चक्कर में रहते थे। सबकी आंख बचा कर वे दस रूपया भर पेट वाले होटल में रोटियां गिन ही रहे होते कि अचानक रेड पड़ती और उनके मुंह से बस इतना ही निकल पाता-नििश्चत ही मैं तुम सब को बुलाने वाला था। भाऊ कभी-कभार लोक संवेदना, लोकधर्मी पत्रकारिता वगैरा की बहस से पेट न भरने पर, सरकारी हीटर पर खिचड़ी पकाने बैठते थे। अभी वे चावल बीन ही रहे होते कि उनके खुजलाने की लयबद्ध प्रलयंकर अदा के कारण शुचिता बोध का विस्फोट हो जाता और बहस बौद्धिकता और मलिच्छपन के पेंच लड़ाने लगती थी।


एक बार नवरात्र में श्रीकंट और भाऊ ने पूजा भव्य बंधान बांधा। धूप, दशांग, गुग्गुलादि हवन सामग्री को शंकर भगवान के काफी हाउस के सामन खरीदे पोस्टर के सामने सजा कर दोनों नहाने गए। तभी हर हफ्ते नया हुलिया बनाने के शौकीन जखाकू असली नेपाली मिरचईया लेकर मिर्जापुर से प्रकट हुए और बताने लगे ट्रैक्टर चलाते-३ उनके चूतरों पर गट्ठे पड़ गए हैं और अब वे फिर जर्नलिज्म में एिक्टव होना चाहते हैं। काहे, तो दुर मरदे जौन भौकाल हेम्मे हौ और कत्तों मिली। हम पत्रकार ना निरल्लै किसान रहित त अबले रोवां-रोवां तहसील वाला लील्लाम कई देहले रहतैं।


बहरहाल इसी बीच किसी ने जखाकू का रेल टिकट किसी ने बैल की आंख पर चिपका दिया और स्केच पेन से शंकर भगवान की दाढ़ी बनाकर चूने से गोल नमाजी टोपी पहनाने का प्रयास कर डाला चुका था जिसमें जालियां भी कटी हुई थीं।


बिना सिले कपड़ों में पवित्र भाव से इष्टदेव को हृदय में स्थापित कर श्रीकंट और भाऊ जब हवन के लिए पहुंचे तो भाऊ के मुंह से निकला आहि माई कमनिस्टवा कुल इ का कई दिहलैं और कंट थोड़ी देर शून्य में निहारने के बाद वहीं धड़ाम से गिर कर बेहोश हो गए।



कल रात, बारिश में, एक रेखियाउठान लड़के को कमीज के सारे बटन खोले हुच्च--- बाइक पर उड़ते देखा तो उन सभी की और उनके पंखयुक्त सपनों की बेतरह याद आई। उसके पीठ में घुसकर, बाइक पर एक दुबली सी लड़की बैठी थी जो कह रही थी, हैन्सम नो, नो नाट दिस वे इसी सड़क पर तो मेरा घर है।

लड़के ने कहा, डैम इट लेट देम नो इट टू नाइट। या सिर्फ कहा हो योप्प....। लेकिन मैने कैसे सुना।

भाऊ बहुत दिन जनसत्ता की एक कटिंग लिए फिरते थे। जिसमें ग्वालियर में भाजपा किसी सम्मेलन की रपट थी। पढ़ते थे- आसमान में घना कुहरा था, कहीं कुहरे के भीतर जहाज डोल रहा था। अटल जी मन ही मन बुदबुदाए लैंड करना मुिश्कल होगा। फिर कहते थे- कहो हई अलोक तोमरवा मान ला जहजिए में बैठल रहे त, मन में क बुदबुदाइल कइसे सुन लिहलस।

त रउवा सभे कहां बानी आजकल और कहां तक पहुंचे। आजतक मैं आज तक नहीं जान पाया हूं कि बैल की आंख पर टिकट किसने चिपकाया था?



13 जून, 2008

sarnath की gajarwali

दिन, उस छोटी सी खबर और उससे भी ज्यादा साथ छपी फोटू ने गुदगुदाया। सारनाथ गई एक घुमक्क़ड़ विदेशी युवती ने सड़क की पटरी पर बैठी बुढ़िया से दो रूपए का गाजर खरीदा और स्कूली लड़कों जैसे खिलवाड़ भाव से बिना पैसा दिए जाने लगी। हो सकता है कि युवती को उसमें अपने बचपन की कोई रिगौनी आंटी नजर आ गई हो। लेकिन उस देहातिन को जैसे आग लग गई और वह दौड़कर उस युवती से जूझ गई। युवती को वाकई मजा आ गया, शायद एक गंवई हिन्दुस्तानिन से पहली बार अनायास वास्तविक संवाद स्थापित हो गया था। पुलिस के सिपाहियों और देसी लहकटों को वह रोज झेलती होगी लेकिन उसे बर्दाश्त नहीं था कि कोई ललमुंही विदेशिन उसे उल्लू बनाकर दांताखिलखिल करती हुई चली जाए।इसी बीच गाजर भारत-यूरोप के बीच पुल बन चुका था।फोटू में खड़े युवती के साथी का चेहरा कुछ ऐसा प्रफुल्ल था, जैसे सारनाथ के परदे पर कोई ओरियंटल फिल्म देख रहा हो। उसके आराम से खड़े होने के पीछे का आत्मविश्वास रहा होगा कि वह बुढिया, बैलेंस डाइट पर पली, दिन भर उसके साथ पैदल भारत नापने वाली उसकी छरहरी साथिन का क्या बिगाड़ पाएगी? बाई द वे यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इस युगल को यह घटना जिंदगी भर याद रहेगी। इसमें हाऊ डू यू फील अबाउट बेनारस जैसी रस्मी बोरियत नहीं थी। तंत्र, मंत्र, योगा और होली गंगा का फंदा नहीं था। इसमें खांटी भारतपन था जिसे वे अपने देश जाकर लोगों को बताएंगे।तो अखबार में छपी फोटू में परमआधुनिक यूरोप के साथ एक भारतीय देहातिन भिड़ी हुई थी।कल्पना में न समाने वाला यह पैराडाक्स लोगों को गुदगुदा रहा था। लेकिन गाजर वाली के लिए यह झूमाझटकी कोई खिलवाड़ नहीं थी। ललमुंही विदेशिन के लिए दो रूपए का मतलब कुछ सेंट या पेंस होगा लेकिन गाजरवाली के लिए इसका मतलब है। कुप्पी में डाले गए दो रूपए के तेल से कई रात घर में रोशनी रहती है।दस-बीस के सिक्के चलन से बाहर हो गए हैं फिर भी गाजर का कुछ सेंटीमीटर का पुल पारकर आप उन लोगों की अर्थव्यवस्था में झांक सकते हैं जो हमारे बहुत करीब रहते हुए भी आमतौर पर हमें नजर नहीं आते। मिर्जापुर, सोनभद्र से लाकर महुए के पत्तों के बंडल पान की दुकानों पर बेचने वाले मुसहरों को पत्ता पीछे एक पैसे की आमदनी होती है। रेलवे स्टेशन पर नीम की दातुन बेचने वालों को एक छरका एक रूपए में पड़ता है और वे एक चार टुकड़े कर के आठ-आठ आने में बेचते हैं। चने का होरहा या मौसमी तरकारियां बेचने वालों को देर रात तक सड़कों पर ऐसे ग्राहकों का इंतजार रहता है जो दो रूपया कम ही देकर उनकी परात या खंचिया खाली कर दें। लोग चिप्स का पैकेट बिना दाम पूछे खरीद लेते हैं लेकिन उनसे इस अंदाज में मोल भाव करते हैं जैसे वे उन्हें ठगने के लिए ही आधीरात को सड़क पर घात लगाकर बैठे हों।चूरन, चनामुरमुरा, गुब्बारे, फिरकी और प्लािस्टक के फूल बेचने वाले दस बीस रूपए की आमदनी के लिए सारा दिन गलियों में पैदल चलते रहते हैं। बनारस में अब भी पियरवा मिट्टी के ढेले बिकते हैं, जिन्हें शहनाज हुसैन सबसे बेहतरीन हेयर कंडीशनर बताती हैं। इन्हें बेचने-खरीदने वाले दोनों के लिए दो रूपया रकम है।अभी मार्च के आखिरी हफ्ते में आयकर-रिटर्न भरने में सारा देश पसीना-पसीना हो रहा था। तरह-तरह के खानों वाले ठस सरकारी कागजों का अंबार था और कर विशेषग्यों की चौर्य-कला से विकसित देसी तिकड़में थी। जो चख-चख थी उसका सार यह था कि सरकार बड़ा अत्याचार कर रही है, यदि कोई ईमानदारी से इनकम-टैक्स भर तो भूखों मरेगा और उसके बच्चे भीख मांगेगे। लिहाजा बीमा के प्रीमियम, धर्माथ चंदे और मकान किराए की फर्जी रसीदों, एनएससी वगैरा के जुगाड़ं फिट किए गए ताकि अपना पैसा अपने पास रहे। .यहां कुछ हजार का सवाल था और सारनाथ की गाजरवाली के सामने अदद दो रुपयों का। क्या अब भी ललमुंही विदेशिन से गुत्थमगुत्था बुढ़िया पर अब भी हंसा जा सकता है। अगर आयकर विभाग को झांसा देकर कुछ हजार बचा लेने वाले बाबुओं और सड़क किनारे बैठी बुढ़िया के बीच खरीद-बेच के अलावा कोई और रिश्ता बचा हुआ है तो नहीं हंसा जाएगा।वाकई, क्या ऐसा कोई रिश्ता है?