सफरनामा

20 दिसंबर, 2010

राजनीति के आकाश में चंदा


मायावती मुख्यमंत्री हों और उनका जन्म दिन आए तो विपक्ष की बांछे खिलने लगती हैं। विपक्ष अपनी सारी कल्पनाशीलता इस बिंदु पर लगा देता है कि धनलिप्सा, चंदा वसूली के लिए किए जाने वाले भयादोहन और इस अपकर्म की अनैतिकता को प्रचारित करने के लिए कौन से हथकंडे अपनाए जाएं। ऐसा करते हुए विपक्षी राजनीतिक पार्टियों की मुद्रा ऐसी रहती है जैसे वे चंदा जैसी किसी चीज से अपरिचित हैं और उनका कारोबार सिर्फ सिद्धांतों के लेन-देन से चलता रहा है। मायावती ने विपक्ष की इन थोथी भंगिमाओं की परवाह कभी नहीं की क्योंकि आईना दिखाना उनकी राजनीति का बुनियादी स्वभाव है। लेकिन दो साल पहले औरैया में एक इंजीनियर की हत्या और पार्टी के एक विधायक के जेल जाने की घटना ने ऐसा मोड़ ले लिया जैसे सरकार ने चंदे के लिए नरबलि का रिवाज शुरू कर दिया है। इसके बाद मायावती सतर्क हो गईं। पिछले कई सालों की तरह इस बार भी उन्होंने पार्टी के नेताओं को सख्ती से कहा है कि उनके जन्मदिन पर चंदा वसूली न की जाए। नया तत्व यह है कि चंदा वसूली की शिकायत एसएमएस भेज कर करने के लिए कहा गया है। इससे इतना पता चलता है कि मायावती अपनी छवि को लेकर बेहद गंभीर हो गई हैं, विपक्ष को कोई मौका नहीं देना चाहतीं क्योंकि विधानसभा चुनाव बिल्कुल सिर पर आ गए हैं।

यहां बसपा के चंदाशास्त्र पर बात करने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि स्व. कांशीराम और मायावती जिस पृष्ठभूमि से आए नेता हैं, वे पानी की तरह कालाधन बहाने वाली चुनावी राजनीति में एक दिन भी बिना चंदे के नहीं टिक सकते थे। इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण चंदे को लेकर राजनीतिक पार्टियों का बदलता नजरिया है जो पाखंड की हास्यास्पद ऊंचाईयां छूने लगा है। अपने देश की राजनीति में चंदे को लेकर एक बड़ा पवित्र भाव रहा है क्योंकि वह किसी विचार के लिए जनता के असाधारण समर्थन और त्याग के रूप में देखा जाता था। देश की आजादी के आंदोलन की सबसे गर्वीली और आंखों में आंसू ला देने वाली छवियां वे हैं जिनमें महात्मा गांधी मंच से अपील करते है, कांग्रेस के वालंटियर चादर फैलाए भीड़ में जाते हैं और महिलाएं अपने गहने (जिनमें नाक की इकलौती कील से लेकर रानियों के हीरे के हार तक शामिल हैं) चादर पर फेंकती जाती हैं। इस चंदे की क्या कद्र थी इसे जानना हो तो फणीश्वरनाथ रेणु के महान उपन्यास मैला आंचल के वे पन्ने पढ़िए जिनपर कांग्रेस के वालंटियर कुबड़े वामनदास का रोजनामचा लिखा है। भूख से लड़कर हार जाने के बाद वामनदास जनता से चंदे में मिले एक पैसे की जलेबी खा लेता है। उसे आधा तन ढकने वाले गांधी याद आते हैं वह हलक में ऊंगली डालकर जलेबी की उल्टी करता है, कांग्रेस दफ्तर के कुत्ते के आगे रोकर अपना अपराध स्वीकार करता है और इसी जज्बे के कारण कांग्रेस नेताओं की मिलीभगत से कालाबाजारी करने वालों के हाथों बेमौत मारा जाता है। यह जज्बा इस देश की राजनीति में काफी दिन रहा फिर लुप्त हो गया।

अब कोई राजनीतिक दल सार्वजनिक तौर पर चंदा नहीं मांगता, यह काम अब बंद कमरे में किसी धतकरम की तरह होने लगा है। अब नेता किसी भी पार्टी का हो, दाता के अहंकार से यही कहता है कि जब उसकी सरकार बनेगी तो जनता को इतनी खैरात मिलेगी कि झोली फट जाएगी। लेकिन जब सरकार बनती है तो उसकी पार्टी अगले कई चुनाव लड़ने के लिए खर्च की चिंता मुक्त हो जाती है। जिस पैसे से चुनाव लड़े जाते हैं, वह जनता का ही होता है लेकिन अब उसे सीधे मांगने में नेताओं को शर्म आती है। उनका यह शर्माना राजनीति के पतन के नए रास्ते खोल रहा है।

16 दिसंबर, 2010

लड़कियों का मोबाइल


वे दिन पीछे गए जब लोग सब्जी बेचने वालों या घरों में काम करने वाली नौकरानियों को मोबाइल फोन पर बात करते देख चकित होकर तिर्यक मुस्काया करते थे। अब मोबाइल फोन कंप्यूटर में बदल चुका है, उससे फिल्में शूट हो रही हैं और निचले तबके के बहुत से लोगों की तो पहचान ही अंकों में समेट चुका है। घरों में इलेक्ट्रिशियन, प्लम्बर, गैस सप्लाई करने वाले अपने नंबरों से जाने जाते हैं। फुटपाथ पर सोने वाले दिहाड़ी मजदूर अपने ठीहे की दीवारों पर कोयले से अपने नंबर लिख देते हैं ताकि काम देने वाले उनसे संपर्क कर सकें। मोबाइल की इस व्यापकता का एक सबूत यह भी है कि वह हिन्दी फिल्मों के गानों और लोकगीतों में भी पैठ चुका है। युवा जिन चीजों के बारे सबसे अधिक पैशन से बात करते हैं उनमें मोबाइल के फीचर और कारनामें प्रमुख है। छोटा सा फोन उनके लिए समूची दुनिया की खिड़की खोलता है जिससे उनकी भावनाएं और आंकाक्षाएं झम्म से कूद कर मनचाही दिशा की ओर जा सकती हैं।

साथ ही बातों में खोए, टेढ़ी गरदनों वाले लोग सड़कों पर थोक के भाव स्वर्गवासी हो रहे हैं और मोबाइल फोन सामाजिक जिन्दगी में गंभीर उथल पुथल का जरिया बन रहा है। अखबार में अक्सर खबर पढ़ने को मिलती है कि एक महिला ने अपने बच्चों को जहर देने के बाद फांसी लगा ली। कारण का ब्यौरा सिर्फ लाइन में होता है कि मोबाइल पर बात करने को लेकर पति से उसका झगड़ा होता था। यानि मोबाइल ने कुछ ऐसा मुहैया करा दिया है जिस पर पहले पुरूषों का ही वर्चस्व था। अब बिना देहरी से बाहर पांव रखे मर्दों जैसी शक्तिशाली सोशल कनेक्टिविटी पाई जा सकती है और अपने मसले दुनिया के सामने रखे जा सकते हैं। मध्यम वर्गीय घरों में अब सबके पास अपना मोबाइल है। जिन घरों में लोग ज्यादातर वक्त फोन पर अपनी-अपनी दुनिया में खोए रहते हैं सारी कटुता और कलह का दोष मोबाइल पर मढ़ा जाता है और इसका खामियाजा उन बच्चों को भुगतना पड़ रहा है जिनके हाथ में अभी मोबाइल फोन नहीं आ पाया है। खुद लगातार बकबक करने वाले लोग भी चकित होते पाए जाते हैं कि आखिर मोबाइल पर इतने अधिक समय तक क्या बातें की जाती हैं।

इसी बीच जाटों की एक खाप का फरमान आया है कि लड़कियां मोबाइल फोन का इस्तेमाल न करें। खाप की समझ है कि यह छोटा सा फोन ही सगोत्रीय विवाहों और लड़कियों के घर से भाग जाने का कारण है। अगर यह मोबाइल न होता तो प्रेमी जोड़ों को फांसी देने या प्रताड़ना के अन्य तरीकों से उन्हें मारने की जरूरत न पड़ती। तकनीक हमेशा से संकीर्ण सोच वालों की कुंठा का निशाना बनती रही है। पहले पहल जब स्कूटर आया तब उसे चलाने वाली लड़कियां आमतौर पर बदचलन समझी जाती थीं। सिनेमा इसका बेहतरीन उदाहरण है जिसे अपने शुरूआती दिनों में लंबे समय तक महिला पात्रों का अभिनय कमनीय दिखने वाले पुरूषों से कराकर काम चलाना पड़ा था। आम पारंपरिक हिंदुस्तानी घरों में जो बंदिश और दमन का माहौल होता है उसमें मोबाइल लड़कियों के लिए ऐसा शांत, सुरक्षित द्वीप बन जाता है जहां अपनी तकलीफें और भविष्य के स्वप्न किसी से साझा किए जा सकते हैं। जहां स्वप्नों की साझेदारी होती है वहीं किसी भी दमन का प्रतिपक्ष भी रचा जाता है। मोबाइल को दोष देना बेकार है। अगर लड़कियों के पास वाकई कहने लायक कुछ है तो वे कोई और तकनीक खोज लेंगी।

30 नवंबर, 2010

next post aftr 15 dec

filhaal europe aur asia ke deshon ke kai yuva lekhkon ki sohbaat me sangam writers residency programme ke tahat nritygraam (karnatak) men hun. agli post 15 december ke baad.

21 नवंबर, 2010

राजनीति के दरिद्र दिनों में राहुल गांधी


राहुल गांधी का एडवेन्चर और कौतुक के प्रति विशेष आग्रह है। उन्हें सरकारों से लेकर आम आदमी तक को चौंकाना बहुत भाता है। मीडिया अब चौंकता नहीं बल्कि उनसे हर दिन नई लीला की आशा करता है। वे अपनी सुरक्षा की परवाह किए बिना कहीं भी, कभी भी पहुंच जाते हैं। ऐसा करते हुए वे उस कौतुक प्रिय बच्चे की उत्तेजना से भरे होते हैं जो दबे पांव पीछे से आकर आपकी आंखें बंद कर लेता है। पहचान के सारे अनुमान विफल होने के बाद जब आंखे खुलती हैं तो खेल में यह उसके लिए सफलता और आनंद का क्षण होता है। यह जाना-पहचाना अप्रत्याशित घटित करना ही राहुल गांधी की राजनीति का स्थायी भाव है। राहुल गांधी अमेठी से दो बार सांसद हो चुके और इसी बीच युवा से अधेड़ में बदल गए। यदि उनके नाम के आगे अब भी बाबा (बच्चा) का विशेषण मजबूती से चिपका हुआ है तो इसमें उनकी खिलवाड़ी राजनीति और ऊटपटांग बयानों की बड़ी भूमिका है।

राहुल बाबा पर बड़ा बोझ है। उनका जगप्रसिद्ध खानदान, खानदान की स्मृति और भंगिमाओं से चलती कांग्रेस पार्टी और तमाम लोग उन्हें भविष्य के प्रधानमंत्री के रूप में देखते हैं। अपने वंश के प्रधानमंत्रियों को छोड़ कर, वे अब तक हुए बाकी तमाम प्रधानमंत्रियों की तरह नहीं होना चाहते। वे वंश परंपरा में कुछ नया और विलक्षण जोड़ना चाहते हैं इसलिए प्रधानमंत्री बनने के पहले भारत और उसकी आत्मा (जो आम आदमी की आंखों में झिलमिलाती बताई जाती है) को अच्छी तरह समझ लेना चाहते हैं। पढाई पूरी करने के बाद राहुल गांधी मुंबई में एक टेक्नालाजी आउटसोर्सिंग की एजेंसी चलाना चाहते थे। तब उन्होंने धंधा जमाने के लिए अपने उपभोक्ताओं की आत्मा में झांकने के इतने व्याकुल और दुस्साहसिक प्रयास कभी नहीं किए। उन्हें पता था कि धंधे का अपना गणित है उसके नियमों का पालन करने से वह चल ही जाएगा लेकिन यहां देश चलाने की तैयारी है इसलिए कौतुक घटित हो रहे हैं। भारत की आत्मा कोई प्रोटोकाल नहीं मानती सो उसके निकट जाने में सुरक्षा का प्रोटोकाल टूट जाता है।

वे दलितों के घर जा रहे हैं, वे ट्रेन में सफर कर रहे हैं, उन्होंने रेस्टोरेन्ट में चिकेन रोल खाया, उन्होंने कुल्हड़ में चाय पी, हैन्डपम्प का पानी पिया...ये सब मीडिया की सुर्खियां हैं जिसकी पृष्ठभूमि में भकुआए साधारण लोग हैं जो राहुल बाबा को ताक रहे हैं...इतने बड़े राजनीतिक खानदान का वारिस और यहां। यह सब उस दौर में हो रहा है जब राजनीति में कामयाब होने वाला हर शख्स जनता के लिए दुर्लभ है। हर दिन कोई न कोई नेता जनता की भीड़ से निकल कर सत्ता के गलियारे में खो जाता है और यहां एक आदमी सत्ता के शीर्ष से जोखिम उठाकर जनता के बीच आ रहा है। वे कुछ करते नहीं बस जनता से मिल लेते हैं। उनके पास कहने और करने को कुछ खास है भी नहीं। राजनीति आम आदमी से दूर होकर बहुत दरिद्र हो गई है जहां नेता का जनता से मिलना घटना है, खबर है। यहां से देखें राहुल गांधी अपने खानदान से ज्यादा राजनीति की दरिद्रता की उपज हैं। जिन लोगों ने भविष्य के प्रधानमंत्री से हाथ मिलाए हैं वे अपने हाथों का क्या करें। वह सिर्फ एक स्पर्श है जिसमें हाथ मिलाने वाले की जिन्दगी और समाज बदलने के भरोसे की जगह ढेर सारा क्षणजीवी, अर्थहीन ग्लैमर है।

यह लोकतंत्र है जहां राजा रानी के पेट से नहीं बैलट बाक्स से पैदा होता है। एक मिनट के लिए यह सोचा जाए कि राहुल गांधी अगर प्रधानमंत्री नहीं बन पाते तो उन्हें भविष्य में किस तरह के राजनेता के रूप में याद किया जाएगा। शायद कुछ इस तरह- वे अधेड़ होने तक हर तरह के जोखिम उठाकर जनता को समझने का प्रयास करते रहे, काफी कुछ समझ भी गए थे लेकिन यह समझदारी किसी काम नहीं आ सकी क्योंकि वे राजनीति नहीं कर रहे थे राजनीति की दरिद्रता का आनंद ले रहे थे।

14 नवंबर, 2010

इतने किलोमीटर कागद कारे किए भला किसके लिए


रिटायर्ड आईपीएस शैलेन्द्र सागर और उनके कथाकार मित्रों को सराहा जाना चाहिए कि अठारह साल पहले उनके द्वारा शुरू किया गया साहित्यिक आयोजन कथाक्रम लखनऊ की तहजीब का हिस्सा बन चुका है। लेकिन इत्ते से सफर में उसकी देह कांतिहीन और आत्मा जर्जर हो चली है। एक रस्म रह गई है जिसे निभाने के लिए एक बार फिर हिंदी पट्टी के कथाकार, आलोचक और दांतों के बीच जीभ की तरह इक्का दुक्का विनम्र कवि जुटे हैं। यह लिक्खाड़ों के खापों की पंचायत है।

वे हर साल इसी तरह जुटते हैं, मंच पर मकई के दानों की तरह फूटते हैं और फिर लौट कर लिखने में जुत जाते हैं। वे साहित्य की बारीकियों यथा कलावाद, यथार्थवाद, दलितवाद, नारीवाद, शिल्प, बाजार, उत्तराधुनिकता वगैरा पर घनघोर बहस करते हैं। बौद्धिक मुर्गों की लड़ाई में तालियां बजाते वे हमेशा सुधबुध भूल जाते हैं और इस बुनियादी प्रश्न पर कभी बात नहीं करते कि उनका लिखा कोई पढ़ता क्यों नहीं है। जिन किताबों को हिन्दी साहित्य का बेस्टसेलर बता कर इतराया जाता है, उनकी कुल पांच सौ कापियां छपती हैं और वे भी बिक नहीं पाती, ऐसे समय में हिन्दी साहित्य के नाम पर होने वाली इस सालाना वाद-विवाद प्रतियोगिता क्या अर्थ है।

ऐसा नहीं है कि हिन्दी पट्टी के समाज ने अपनी भाषा में पढ़ना, सोचना और जीना बंद कर दिया है। इसी समय हिंदी के अखबारों, टेलीविजन सीरियलों, समाचार चैनलों और बाबाओं को नए पाठक, दर्शक और श्रोता मिल रहे हैं। बीड़ी जलाइले, मंहगाई डायन और मुन्नी बदनाम हुई जैसे भदेस हिन्दी गाने एशिया में धमाल मचा रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति को अपने जबड़े की यूरोपीय ऐंठन ढीली कर थैंक्यू की जगह धन्यवाद और जै हिन्द कहना पड़ रहा है। हिंदी का बाजार इतना बड़ा और संपन्न हो चला है कि मल्टीनेशनल कंपनियों के उत्पादों के विज्ञापन अब अनूदित नहीं होते मूल रुप से हिन्दी वाले की जरूरतों, रूचियों और परिवेश को ध्यान में रखकर डिजाइन किए जाने लगे हैं। ऐसे में हिन्दी के लेखक को लोग क्यों नहीं पूछ रहे उसी के साहित्य को निरंतर नकारा क्यों जा रहा है। मत भूलिए कि यह उलटबांसी उस समाज में घटित हो रही है जहां देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति पढ़ने के लिए गैर हिन्दी भाषी हिन्दी सीखते थे और प्रेमचंद के उपन्यास लड़कियों को दहेज मे दिए जाते थे।

हिंदी साहित्य की वास्तविक चिन्ताएं इन औपचारिक गोष्ठियों में कभी प्रकट नहीं होती है। वे यदा-कदा अपनी नकारात्मक ताकत से उछल कर अखबारों के पन्नों और टीवी स्क्रीन पर चली आती हैं तब बीमारी का पता चलता है। यह नाटकीय लग सकता है लेकिन पूरी तरह सच है कि हाल में एक संपादक ने कहानियों का सुपर वेवफाई विशेषांक निकाला जिसमें एक पूर्व पुलिस अधिकारी, एक विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति और लेखक का इंटरव्यू छपा। इन्टरव्यू में लेखक कम कुलपति ने हिन्दी की लेखिकाओं का छिनाल कहा और यह भी उनका लिखा पढ़कर पता चलता है कि वे किनके साथ सो चुकी हैं और किनके साथ सोना बाकी है। पूरा हिन्दी साहित्य दो खेमों में बंटकर एक महीने तक छिनाल आख्यान में डूबता उतराता रहा। कुलपति का कहा छप गया था इसलिए वे फंस गए वरना इन साहित्यिक मंचों के नेपथ्य में जो तरल सत्र चलता है उसमें यही विमर्श छलछलाता रहता है कि इतनी राशि का अमुक पुरस्कार किसे मिलने वाला है, किसके गिरोह में कौन-कौन है, लेखिकाओं के प्रति सबसे कुत्सित और मनोहारी जुमले किसके हैं। विश्विद्यालयों में हिन्दी के विभाग, अकादमियां, संस्थान, साहित्यिक पत्रिकाओं के दफ्तर ठीक राजनीतिक पार्टियों के मुख्यालयों की तरह हो गए हैं।

हिंदी का लेखक इस बुनियादी सवाल से भागता है और हिन्दी का समाज उसकी तरफ पीठ फेर लेता है।

31 अक्तूबर, 2010

जो अपराध नहीं कर सकते, क्या वे निर्दोष हैं?

यूपी में हर सरकार कानून का राज चलाने का दावा करते हुए आती है लेकिन जल्दी ही न्याय-देवी की ऐसी मूर्ति में बदल जाती है जिसकी आंखे पारदर्शी पट्टी के पीछे से विरोधियों को घूर रही हैं और जिसने न्याय के तराजू को अपने स्वार्थों की तरफ झुका रखा है। इस “टेनीमारी” का नतीजा यह होता है कि समूचा परिदृश्य अपराधियों के अनुकूल हो उठता है, लोग त्राहिमाम करने लगते हैं। लेकिन यह जो त्राहिमाम सुनाई पड़ता है क्या वह सचमुच की पीड़ा और आम नागरिक की सुरक्षा की चिन्ता से पैदा हुआ है, इसकी पड़ताल किए जाने की जरूरत है।

जैसे ही कोई बड़ी आपराधिक वारदात (आमतौर पर हत्या) होती है जिसमें सरकार को घेरने के लायक सारे रस और तत्व मौजूद हों कई नाटकीय परिवर्तन घटित होते हैं। सबसे पहले गले में सदाचार का ताबीज डाले विपक्षी राजनीतिक दल आते हैं। बयान, भर्त्सना फिर प्रायोजित आंदोलनों का सिलसिला शुरू होता है जिसमें यदा-कदा जनता भी दिखाई पड़ती है। फिर रिटायर्ड पूर्व पुलिस महानिदेशकों, कुछ वानप्रस्थी नौकरशाह और सक्रिय बुद्धिजीवियों के जत्थे प्रकट होते हैं जो प्रवचन शैली में बताते हैं कि कानून-व्यवस्था को सुधारने के लिए क्या-क्या किया जाना चाहिए। तभी उचित अवसर की प्रतीक्षा करती सरकार विपक्षी दलों डपट देती है कि जब आपकी सरकार थी तब आपने क्या किया था। आरोप-प्रत्यारोप में कानून बेचारा विधानसभा के पिछवाड़े कहीं जाकर दुबक जाता है। रिटायर्ड पुलिस महानिदेशकों से कोई नहीं पूछता कि आप जब कुर्सी पर थे, तब आपका यह ज्ञान कहां था। लिहाजा वे बुद्धिजीवियों के साथ मिलकर झुनझुने की तरह बजते रहते हैं। अपराधी कबड्डी खेलते रहते हैं, लोकतंत्र की लीला चलती रहती है।

जो अपराधी सरकारी दल में होते हैं उन्हें वहां एक खास उद्देश्य से भर्ती किया गया होता है। बड़े नेताओं द्वारा उन्हें सुधार कर, जिम्मेदार नागरिक के रूप में समाज को वापस कर देने का यह पवित्र उद्देश्य न्याय के मूलभूत सिद्धांतों पर आधारित है और जनता उन्हे अपने वोट से चुनकर यह इच्छा पहले ही सार्वजनिक कर चुकी होती है। उन्हें सुधारने की नीयत से ही बड़े नेता उन्हें कभी “गरीबों का मसीहा” तो कभी “राबिनहुड बताते” रहते हैं। लेकिन अन्य दलों के जो अपराधी होते हैं वे अनिवार्य तौर पर समाजविरोधी और लोकतंत्र के नाम पर कलंक होते हैं। वे हमेशा इस अवसर की तलाश में रहते हैं कि वे सरकार में घुस कर सुधरने का अवसर पा सकें। अवसरों की संभावना के इस दौर असल कारनामा यह हुआ है कि विधानसभा में आपराधिक पृष्ठभूमि के इतने माननीय पहुंच चुके हैं कि वे चाहें तो मिलकर अपनी सरकार बना सकते हैं और राजनेताओं को सुधारने की परियोजना चला सकते हैं। खैर उन्होंने उन्होंने अपने बाहुबल से राजनीति का चरित्र तो बदल ही डाला है। यही कारण है कि कोई भी सरकार अब कानून का राज नहीं स्थापित कर पाती।

सुखी-संपन्न भविष्य के अचूक फार्मूले के रूप में अपराध को समाज में जबर्दस्त लोकप्रियता मिल रही है। अपराध अब नैतिक मुद्दा नहीं रहा, वह एक तकनीक है। मूल रूझान अब कानून को मानने का नहीं उसे धता बताकर किसी भी कीमत पर कामयाब होने का है। रिश्वत लेने वालों से लेकर दूध में यूरिया मिलाने वाले, नकली दवाएं बेचने वाले, लौकी में आक्सीटोसिन का इंजेक्शन ठोंकने वालों तक, सभी किस्मों के अपराधियों को विश्वास है कि वे महान लोकतंत्र के गुप्त रास्तों से बच निकलेंगे। क्या अब उन्हीं लोगों निर्दोष कहा जाता हैं जिनमें अपराध करने की हिम्मत नहीं है? यह एक ऐसा सवाल है जिसपर सोचा जाना चाहिए।

24 अक्तूबर, 2010

मच्छर-संगीत की स्वरलिपि

एक आदमी के मन में कितनी इच्छाएं होती हैं, शायद इसे कभी जान लिया जाएगा लेकिन इस रहस्य से कभी पर्दा नहीं उठ सकेगा कि दिल्ली, लखनऊ समेत देश में डेंगू से अब तक कितने मनुष्य मर चुके हैं। सरकारी, गैरसरकारी विशेषज्ञों से अब तक इतना पता चल पाया है कि डेंगू एक खास तरह के मच्छर के काटने से होने वाली बीमारी है जिससे बच कर रहना चाहिए। हम सब अपने अनुभव से जानते हैं कि मच्छर काटने से पहले गाना गाते हैं। इस गाने की महीन धुन में एक महान चुनौती है, एक हुंकार है। वे पूछते हैं कि आपने कई परमाणु परीक्षण कर दुनिया को बता दिया कि एटम बम बना सकते हैं, आपके डाक्टरों की दुनिया भर में साख है और अब दुनिया के नक्शे पर आर्थिक सुपर पॉवर बनने जा रहे हैं लेकिन आप हमारा बाल-बांका क्यों नहीं कर पाए? यह गाना और गंभीर इसलिए हो जाता है क्योंकि इसे ऐसा कीट गा रहा है जिसने दुनिया में किसी भी जानवर की तुलना में सबसे ज्यादा मनुष्यों को मौत की नींद सुलाया है।

मच्छरों पर दुनिया भर में घूम कर शोध करने में जिन्दगी लगा देने वाले हावर्ड विश्विद्यालय के प्रोफेसर एन्ड्रयू स्पीलमैन और पुलित्जर विजेता पत्रकार माइकेल डी. एन्तोनियो ने एक अद्भुत किताब लिखी है। इस किताब, “मस्कीटोः ए नेचुरल हिस्ट्री आफ अवर मोस्ट परसिस्टेन्ट एंड डेडली फो” में स्पीलमैन तथ्यात्मक ढंग से बताते हैं कि ये मच्छर ही थे जिन्होंने सिकन्दर और चंगेज खां की सेनाओं को हरा दिया था और उनके विश्वविजेता बनने के सपने धरे रह गए। द्वितीय विश्वयुद्ध के समय डीडीटी (डाइक्लोरो डाइफिनाइल ट्राइक्लोरो ईथेन) आने के बाद वैज्ञानिकों ने मान लिया था कि मच्छर खत्म हो गए लेकिन यह भ्रम था। वे ज्यादा ढीठ होकर नए क्षेत्रों में फैलते गए और आज भी सारी दुनिया में नरसंहार का गाना गाते मंडरा रहे हैं।

लेकिन ये वैज्ञानिक हमारी हिन्दी पट्टी के मच्छरों को नहीं जानते। पौन इंच से भी छोटे आकार के इन मच्छरों ने सरकारों, दवाओं और आदमियों का स्वभाव बदल डाला और उनसे अभयदान पा लिया है। ढाई-तीन दशक पहले जब न तकनीक थी न इतने संसाधन गांवों की दीवारों पर स्वास्थ्य विभाग के कारिन्दे सफाई रखने और कुनैन की गोली खाने की सलाहें लिख रहे थे, बच्चों की जांच के लिए स्कूलों में खून की स्लाइडें बन रही थीं और छोटे कस्बों में दवाओं का छिड़काव हो रहा था। आम लोगों को लगता था कि सरकार को उनकी जान की फिक्र है और मलेरिया बस थोड़े दिनों का मेहमान है। जब से
शेयर बाजार के रास्ते देश को सुपर पावर बनाने का रायता फैलना शुरू हुआ, सबकुछ बदल गया। मच्छर तो वही रहे लेकिन वह आदमी बदल गया जो मलेरिया, डेंगू और कालाजार से लड़ने चला था। वह खुद मच्छर हो गया और सरकारी परियोजनाओं से रकम चूसने लगा। उम्मीद की जगह हताशा ने ली और आम आदमी ने खुद को रामभरोसे छोड़ दिया।

मच्छरों ने यह कारनामा कैसे किया। इसका रहस्य संगीत की उस स्वरलिपि में है जिसमें उनके गाने की ताल, मात्राएं और राग दर्ज हैं। वह भ्रष्टाचार के संगीत की स्वरलिपि है जिसे हम सब अच्छी तरह जानते हैं। मच्छर गा रहे हैं और उनके विनाश की परियोजनाएं चलाने वाले नेताओं, प्रशासकों, वैज्ञानिकों, चिकित्सकों, बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका उस महीन धुन पर थिरक रहा है। विचित्र सांस्कृतिक समारोह जारी है।

19 अक्तूबर, 2010

जोगी काहे ध्यान लगाए!

ध्यान की रहस्य गली में लारेन्स लीशान(http://en.wikipedia.org/wiki/Lawrence_LeShan)की मशहूर किताब 'हाऊ टू मेडिटेट' का पहला सफा कुछ यूं खुलता है:

यह वाकया कुछ बरस पहले वैज्ञानिकों की काफ्रेंन्स के दौरान हुआ। वे सभी वैज्ञानिक रोजाना ध्यान (मेडिटेशन) करने वाले थे। कांफ्रेन्स के चौथे दिन तक वे सभी किसी न किसी रूप में बता चुके थे कि वे कैसे ध्यान लगाते हैं, तब मैने जोर डालना शुरू किया कि वे बताएं कि क्यों ध्यान करते हैं। इसकी जरूरत क्या है। कई जवाब आए लेकिन हम सभी जानते थे कि वे संतोषजनक नहीं हैं। जो कहा जा रहा था वह इस सवाल का जवाब था ही नहीं। आखिरकार एक आदमी खड़ा हुआ और उसने कहा, "यह अपने घर लौटने जैसा है।" इसके बाद चुप्पी छा गई। देर तक सहमति में एक एक कर सिर हिलते रहे। जाहिर है कि अब किसी और जवाब की जरूरत नहीं रह गई थी।

मेडिटेशन क्यों? इस सवाल का उत्तर उस साहित्य में अनवरत गतिमान है जो इस अनुशासन का अभ्यास करने वालों ने लिखा है। हम कुछ पाने के लिए, फिर से स्वस्थ्य होने के लिए और सबसे बढ़कर अपनी उस किसी चीज (something) के पास लौटने के लिए ध्यान करते हैं जो कभी हमारे भीतर थी, जिससे हम अनजान थे या बस मद्धिम सा आभास था। फिर इसके पहले कि हम जान पाते कि वह चीज क्या थी, पता नहीं कहां और कब हमसे खो गई।

इसे हम अपनी भरपूर मानवीय क्षमता को पाने, या खुद के और यथार्थ के निकट होने, या जिजिविषा-उत्साह-प्यार करने के नैसर्गिक भाव को पाने, या हम ब्रह्मांड का भाग हैं और इससे कभी जुदा नहीं हो सकते के ज्ञान से रूबरू होने, या सचमुच प्रभावशाली ढंग से देखने और सक्रिय होने की अपनी क्षमता को हासिल करने का उपक्रम कह सकते हैं। जब हम ध्यान की दिशा में जुटते हैं तो पाते हैं कि मकसद के बारे में कही गई इन सारी बातों का मतलब एक ही है। उस क्षति के कारण ही, जिसकी भरपाई की तलाश ध्यान है, मनोवैज्ञानिक मैक्स वेरदाइमर ने वयस्क को "क्षतिग्रस्त बच्चे" के रूप में परिभाषित किया था।

ध्यान की झेन पद्धति का लंबे समय तक अध्ययन करने वाले यूजीन हेरीगेल ने लिखा है," कोआन (झेन स्कूल की एक ध्यान तकनीक) ऐसे बिन्दु पर ले जाती है जहां आप किसी भूली चीज को याद करते आदमी बन जाते हैं।" लुईस क्लाड डी सेन्ट मार्तिन ने ध्यान में अपने बहुतेरे साल खपाने के कारणों का सार कुछ इस अंदाज में पेश किया था, "हम सब विधवा जैसी हालत में हैं और हमारा काम फिर से विवाह करना है।"

अपनी सम्पूर्ण मानवता और मानव होने का जो भी अर्थ है उसका संपूर्ण उपयोग ध्यान का लक्ष्य है। ध्यान एक दृढ़ मन की जरूरत वाला कठोर अनुशासन है जो इस लक्ष्य की ओर जाने में सहायता करता है।

अंत में यह क्षेपक मेरी तरफ से जो युवा वेदांती शंकर ने कहा था-
प्रातः स्मरामि हृदि संस्फुरदात्मतत्वं
सच्चित्सुखं परमहंसगतिं तुरीयम।
यत् स्वप्नजागरसुषुप्तमवेति नित्यं
तद्ब्रह्म निष्कलमहं न च भूतसंघः।।

(प्रातः मैं उस आत्मतत्व का ध्यान करता हूं जिसका स्फुरण हृदय में होता है। जो सत्-चित-आनंद स्वरूप है। जो परमलक्ष्य है, तुरीय अवस्था है। जो स्वप्न, जागृति और सुषु्प्ति तीनों अवस्थाओं का नित्य प्रकाशक है। मैं भूतों का समूह मात्र नहीं मैं वही निष्कल ब्रह्म हूं। )

12 अक्तूबर, 2010

पेड़ लोग औऱ गिरिबाला

पेड़ सम्मोहक क्यों लगते हैं। बस इसलिए कि हरे होते हैं, आक्सीजन देते हैं और जंगलात महकमें के सरकारी कर्मचारियों ने एक "वृक्ष दस पुत्र समान" जो तुकबंदियां रची हैं उन सबके समर्थन में हवा चलने पर सिर हिला कर हांजी! हांजी!! करते हैं? लालची आदमी कितने भी उत्पात क्यों न करे अपने अवचेतन में जानता है कि उसकी जिन्दगी बापनुमा पेड़ों पर निर्भर है, इस डर के कारण। या उनके भीतर से गुजरता आसमान अपना एकरस अनंत विस्तार भूल, झिलमिल वैविध्य दिखाने लगता है इसलिए? पेड़ों का अपना व्यक्तित्व होता है। बरगद संरक्षण देता लगता है और देवदार आत्मकेंद्रित रूक्ष हठयोगी और हरसिंगार जैसे "फूलबाबू" जिसकी अंतर को छू लेने वाली उदारता देख कर कभी-कभार यारा-दिलदारा टाइप कोई गाना गाने का मन होता है। भारतीय फिल्मों के इतिहास में सर्वाधिक गाने हीरो हिरोइनों से पेड़ों के इर्द गिर्द इसी मानसिक कुलेल पर नियंत्रण न कर पाने के कारण ही तो नहीं गवाए गए।

पेड़ों की जिंदगी होती है, क्या उन्हे पता है कि उनका हरा रंग आदमी को अच्छा लगता है और वे उसे प्राणों की सप्लाई करते हैं। आदमी को क्या शुरू से ही यह हरा रंग भा गया कि हरियाला बन्ना या बन्नी होना चाहने लगा। या बहुत दिनों वह चारो ओर के संघन, अंधियारे हरे विस्तार से डरता रहा फिर धीरे-धीरे पेड़ो से होने वाले कुल जमा नफा नुकसान का मिलान किया और उसका सौंदर्य बोध हरा हो गया। सौंदर्य बोध व्याकरण जैसी प्रशिक्षण की चीज है जिसमें अन्य अनुशासनों की तरह भय घुला होता है। इसीलिए अप्रशिक्षित लोग लोग बड़े कलाकारों की बड़ी पेन्टिंग्स को समझ नहीं पाते बस थोड़े से कला-ग्रामर जानने वाले लोग समझते, खरीदते और सराहते हैं और उनमें से भी कई ऐसे होते हैं जो इसलिए बढ़चढ़ कर सराहते हैं कि कहीं उनकी न समझने वाली असलियत का सचमुच के ज्ञानियों को पता न चल जाए।

अगर आदमी बुद्धिमान है तो उसने खुद को पेड़ों की तरह अपने भीतर क्लोरोफिल और फोटोसिन्थेसिस का फंडा क्यों नहीं विकसित किया। पापी के पेट के सवाल को सदा के लिए सूरज और बारिश पर छोड़ देता और मनचाहे काम करता। आदमी की जात को समर्पण पसंद नहीं हैं। कैसे सूरज पर छोड़ देता। उसे ईगो प्यारा है जिसे पौरूष कहा, जिसपर पत्थर के भाले बनाते, शिकार करते धार चढ़ती गई। (पता नहीं नारीवादियों ने पाषाणकाल की महिला शिकारियों के गौरव के लिए कौन सा शब्द ईजाद किया होगा) अब भी वही है क्योंकि दो वक्त की रोटी के आसपास जरा और सरंअजाम जुटाना ही मुख्यधारा का पौरूष है। वैसे गिरि बाला और थेरेस न्यूमान जैसे लोग भी हुए हैं जिनके भीतर फोटोसिन्थेसिस जैसा एक केमिकल लोचा सायास विकसित हो गया और बिना कुछ खाए उन्होंने मौज से अपनी जिन्दगी जी। 1868 में बंगाल में पैदा हुई गिरिबाला को सास ने हमेशा खाते रहने के लिए इतने ताने मारे कि उनने 1881 में एक दिन खाना बंद कर दिया और योगिनी हो गईं। बाद के छप्पन सालों में वैज्ञानिकों ने अंदाजा लगाया कि उनका मेडुला आबलांगेटा सूरज की रोशनी से सीधे उर्जा बनाने लगा था। रिकार्ड बताते हैं कि बर्दवान के महाराजा ने परीक्षण के लिए दो महीने उन्हें एक कोठरी में बंद रखा जिसमें वह सफल साबित हुईं। न्यूमान के बारे मे नेट जानकारियों से लदा हुआ है क्योंकि उन्हें देखने के लिए 1923 तक दुनिया भर के लोग पहुंचते थे और उनपर "स्टिगमाटा" नाम की एक फिलम भी बनी है।

जानवर, आदमी से ज्यादा जानते हैं कि उनकी जिन्दगी पेड़ों पर निर्भर है तो वे कभी उनके प्रति किसी आभार का संकेत क्यों नहीं देते। जहां जंगल कटते हैं जानवर, पक्षी भी खत्म हो जाते हैं। यह आभार प्रकट करने का तरीका नहीं है क्या? सेव टाईगर कैम्पेन किसका आभारी है।

08 अक्तूबर, 2010

उनकी सांसों के आगे सहम जाती है बंदूक-2

नवस्वामी ज्योतिष और नवसाध्वी देवी
चेतना का पूरी तरह आतंरीकरण सीखने (शरीर से समेट कर मेरूदंड में लाने की प्रक्रिया) में कई साल लग सकते हैं, कई जन्म भी लग सकते हैं लेकिन सांस पर नियंत्रण में मामूली प्रगति भी बड़े परिणामों तक ले जाती है। इसके जरिए मिला मानसिक संतुलन हमें निर्मम परीक्षाओं के दौरान शांत रहने, शांति और करूणा के साथ दूसरों की तकलीफ दूर करने और अपने काम में सफलता पूर्वक एकाग्र रहने में मदद करता है।

देवी एक बार नाजुक चाइना कप और क्राकरी का एक भारी बक्सा लेकर अपने घर से ऊपर पहाड़ी पर गई। उसकी बांहें थक गईं और वह डरने लगी कि बक्सा अब गिरा कि तब गिरा। एक क्षण के लिए वह थमीं तो उसका ध्यान अपनी सांस पर गया जो तनावग्रस्त और उथली थी। कुछ गहरी सांसे लेने के बाद उसने तुरंत महसूस किया कि तनाव जा रहा है और उर्जा शरीर में ज्यादा शक्ति से बह रही है।

गहरी और खुली सांस आपको एक खुली और स्वीकार से भरी जिन्दगी की तरफ ले जाती है। इसके उलट तनावग्रस्त, सिकुड़ती सांस को डर और क्रोध की सोहबत मिलती है।

भावना और चेतना में बदलाव
सांस के औजार के इस्तेमाल से भावनाओं को नियंत्रित करना आसान है। सबसे पहले तो यह जानें कि सांस की तीन अवस्थाएं हैं और हर एक का खास मनोवैज्ञानिक मतलब है। खींचना (इनहेलेशन) उर्जा की उर्ध्व, उद्दीप्त गति और मेरूदंड में चेतना के परिणामी भाव से जुडा है। रोकने (रीटेनशन) से उर्जा और ध्यान को एकाग्र करने में मदद मिलती है और बाहर छोड़ना (एक्सहेलेशन) राहत, आश्वस्ति, ग्रहणशीलता औऱ समर्पण की मानसिक अवस्थाओं को प्रोत्साहित करता है।

सांस की इन अवस्थाओं के जरिए अपनी चेतना को कारगर ढंग से बदला जा सकता है। जब आप हताश, नकारात्मक मनःस्थिति में हों, बाहर जाती सांस की तुलना में प्रबल और लंबी सांस खींचे। मतलब सांस लें ज्यादा और छोडें कम। अक्सर सीधा शारीरिक रास्ता आपकी मनःस्थिति को जल्दी बदलता है, विचारों में परिवर्तन का तरीका धीमे काम करता है। खुद को कमजोर महसूस करने वाले मेरूदंड में ऊपर की ओर उर्जा के शक्तिशाली बहाव को देखने की कल्पना करते हुए गहरी सांस लें। इस तरह के सांस-मनोविज्ञान का सफल इस्तेमाल अस्पतालों में हताश मानसिक रोगियों के इस्तेमाल में किया जा चुका है।
मामूली लगते सांस के अभ्यास गहरा असर पैदा करते हैं क्योंकि हमारे ज्यादातर विचारों की प्रकृति मेरूदंड में उर्जा की गति पर निर्भर करती है। आज मैं जमीन से छह इंच ऊपर हूं...मैं सातवें आसमान पर हूं...मैं अपना सर ऊंचा करके चल रहा हूं...मैं हवा में उड़ रहा हूं....ये अभिव्यक्तियां एक ही अनुभूत सत्य की है कि चेतना की ऊर्ध्वगति शरीर में उर्जा के ऊपर की ओर चलने के साथ संभव होती है। जब हम अपने सांस के प्रयोग से ऊर्जा के प्रवाह को उर्ध्वगामी बनाते हैं तो पाते हैं कि हमारे विचार अपने आप बदलने लगे हैं।

विशेष श्वसन तकनीकशरीर को ऊर्जा पूरित करने के लिए परमहंस योगानन्द "दोहरी सांस" (डबल ब्रीदिंग) का अभ्यास कराते थे। इसमें एक छोटी फिर एक लंबी सांस नाक से अंदर खींचते हैं फिर एक छोटी और एक लंबी सांस मुंह से बाहर छोड़ते हैं। शोधों से भी साबित हुआ है कि दोहरी सांस सामान्य की तुलना ज्यादा संपूर्ण तरीके फेफड़ों को भरती और खाली करती है। मेडिटेशन के लिए मन को शांत करने के लिए योगानन्द सभी तीन अवस्थाओं खींचने, रोकने, छोड़ने का अभ्यास समान गिनती के साथ, समान अवधि तक कराते थे।

योगानंद यह भी कह गए हैं कि नथुनों में सांस का प्रवाह जहां महसूस होता है, वह मष्तिष्क को प्रभावित करता है। औपचारिक और अपनी ही धारणाओं में जीने वाले (जजमेन्टल) लोग सिकुड़े हुए नथुनों के बीच संकीर्ण ढंग से सांस लेते हैं जैसे वे दुनियावी झंझटों को अपने भीतर बहुत ज्यादा नहीं जाने देना चाहते। कई लोग मुंह से सांस लेते हैं जो मेरूदंड में ऊर्जा को नीचे की ओर ले जाता है और दिमाग को भरपूर आक्सीजन नहीं मिल पाती। योगानन्द कहते थे कि सांस के बहाव को नाक में ऊपरी हिस्से में महसूस करना चाहिए जहां से आक्सीजन आसानी से दिमाग के फ्रंटल लोब में समा जाती है।

सांस ही रूक जाए तोसांस न ली जाए तो क्या होगा। जब गहरे ध्यान में मन बेहद शांत हो जाता है तो सांस रूक जाती है। एक साधारण सी ध्यान तकनीक है जिसमें सांस की आवाजाही पर सतत निगरानी रखी जाती है, इससे एकाग्रता बढ़ती है जो दिमाग को शांत कर देती है। दिमागी शांति सांस को धीमा कर देती है जो फिर दिमाग को शांत करती है। यह एक चक्र है जिसके जरिए मेडिटेशन कर रहा व्यक्ति सबल एकाग्रता के साथ ध्यान में गहरे और गहरे उतरता जाता है।

जब सांस धीमी हो जाती है तो हृदय को कम काम करना पड़ता है और धड़कने की गति मंद पड़ने लगती है। योगानन्द कहते थे कि हृदय चक्र "मेन स्विच" है जो मेरूदंड से शरीर में बाहर की तरफ जाती ऊर्जा को नियंत्रित करता है। जब हृदय मंद होता है तो अपने आप प्राण मेरूदंड में सिमट आते हैं और शरीर निलंबित हालत में पहुंच जाता है जहां सांस लेने की जरूरत नहीं रह जाती।

ब्रह्मांड चेतना का दरवाजा मशहूर किताब "लाइफ आफ्टर लाइफ" में जिन लोगों के अनुभव रिपोर्ट किए गए हैं, वे कहते हैं कि आपरेशन के दौरान जब उनका दिल ठप हो गया तो उन्होंने खुद को एक अंधेरी सुरंग से गुजरते पाया जो प्रेम और आनंद की अनुभूति कराने वाले चमकीले सफेद प्रकाश की ओर जा रही थी। स्वामी क्रियानन्द का मानना है कि यह सुरंग आतंरिक मेरूदंड है, जहां गहरे ध्यान में प्रवेश किया जा सकता है और चमकीला सफेद प्रकाश आध्यात्मिक आंख का प्रकाश है।

भौंहों के बीच के बिन्दु को योगानंद ने आध्यात्मिक आंख या ब्रह्मांड चेतना का दरवाजा कहा। आध्यात्मिक आंख पर ध्यान लगाकर हम अपनी चेतना को मष्तिष्क के मेडुला आब्लान्गेटा से फ्रंटल लोब्स की ओर ले आते हैं जो उच्चतर चेतना का केंद्र है। गहरे ध्यान में जब हम पांच कोनो वाले सितारे से आगे बढ़ते हैं तो ब्रह्मांड चेतना या समाधि की अनुभूति होती है। इसी आंतरिक समाधि के बारे में संत पॉल ने लिखा था कि मैं "रोज मरता हूं।" इस अवस्था में सांस बंद हो जाती है, जीवन ऊर्जा शरीर से मेरूदंड में सिमट आती है और साधक अपने शरीर को इच्छानुसार छोड़ सकता है।

हम सभी को कभी न कभी मरना ही है। लेकिन गहरे ध्यान में मेरूदंड की सुंरग से आध्यात्मिक आंख के प्रकाश की ओर जाते हुए हम मृत्यु को भय के बजाय आनंदमय तरीके से महसूस कर सकते हैं।

कितनी अच्छी बात है कि सांस जो हमारे अस्तित्व की बुनियाद है वही हमें आत्मसाक्षात्कार की ऊंचाईयों तक भी ले जाती है। जिन्दगी पर नियंत्रण का सारा रहस्य सांसों में है क्योंकि उनके बिना जिन्दगी नहीं चलती।

सांसों के आगे सहम जाती है बंदूक

नवस्वामी ज्योतिष और नवसाध्वी देवी


सान फ्रांसिस्को पुलिस की नारको सेल का अफसर स्तान टाउन्सले हाइत ऐशबरी जिले की एक इमारत की अंधेरी सीढ़ियों पर एक ड्रग डीलर का पीछा करते भागा जा रहा है। ड्रग डीलर के पास असलहा है अद्धी (नाल कटी बंदूक)। सीढ़िया खत्म हुईं, अपराधी गलियारे के अंतिम छोर तक गया। वह फंस चुका है, बौखलाया हुआ है और अब बीस साल की जेल से बचने के लिए अद्धी का इस्तेमाल ही आखिरी विकल्प है। तो यही सही, वह अद्धी टाउन्सले के सीने पर तान देता है।

इस ख्याल से सहम कर कि क्षण भर में किस्सा तमाम हो सकता है, स्तान ने डीलर की आंखों में देखा। मैं बस इतना सोच पाया कि मुझे उसकी आंखों से आंखे नहीं हटानी हैं, स्तान ने उस लमहे को याद करते हुए बाद में बताया, "तो उसकी आंखों में देखते हुए मैने जता दिया कि मेरा इरादा उसे नुकसान पहुंचाने का नहीं है।" पुलिस ट्रेनिंग के दौरान मैने सीखा था कि शांत, गहरी सांस से दिमाग नियंत्रित होने लगता है सो मैने सायास कुछ गहरी सांसे भरी। काफी राहत मिली। शांति और समझदारी उस तक संप्रेषित करते हुए फिर मैने धीरे से अपना हाथ उठाया, हथेलियों को ऊपर किया।

उसने अपनी बंदूक झुका दी और फर्श पर ढह गया।

स्तान (बदला हुआ नाम) परमहंस योगानंद का शिष्य है। हममे से कुछ ने बंदूकों की नालों के सामने भी अपने योग के संतुलन की परीक्षा की है। पेशे अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन हममें से हर एक ने किसी कदर सांस, दिमाग और भावनाओं के बीच के संबंध को महसूस किया है।

आतंरिक उर्जा का पता देती है सांस
हम गुस्से में होते हैं तो सांस लेने में प्रयास करना पड़ता है और यह उखड़ने लगती है। डर में हम उथली और तेज सांस लेते हैं, कभी रूक भी जाती है। दोनों परिस्थितियों में सांसों से हमारी उर्जा या प्राण की आंतरिक हालत का पता चलता है।

योगियों के लिए प्राण शब्द एक ही मूल उर्जा की तीन अलग-अलग अभिव्यक्तियां हैं। सबसे बाहरी रूप में यह सांस है। जरा भीतर यह हमारे शरीर की जीवन उर्जा बन जाती है। ...और सबसे भीतर यह सूक्ष्म, बुद्धिमत्तापूर्ण उर्जा है जो सारी सृष्टि में व्याप्त है। योग के प्राचीन ग्रंथों के अनुसार इनमें से किसी एक को नियंत्रित करने से हम दूसरी को भी नियंत्रित करने लगते हैं।

योग के मुताबिक अध्यात्मिकता के विकास के केंद्र में उर्जा का नियंत्रण है। परमहंस योगानन्द ने प्राणों के प्रवाह को शरीर में महसूस करना, उन पर नियंत्रण और इच्छानुसार शरीर को उर्जा से भरना सिखाने के लिए "एनर्जाइजेशन कसरत" की ईजाद की थी। स्वामी क्रियानंद ने योगमुद्राओं के बारे में लिखा है कि वे कैसे प्राण को तीन बुनियादी रूपों में- उसके मुक्त प्रवाह के रास्ते खोल कर, उसे गतिमान करके और उसे मेरूदंड में ऊपर उठाकर प्रभावित करती हैं। प्राण उर्जा के नियमन के जरिए योगमुद्राएं दिमाग और भावनाओं पर बेहतर नियंत्रण का जरिया बन जाती हैं।

जो महज जीवन उर्जा को नियंत्रित कर ले जाते हैं उन्हें भावनात्मक स्थिरता, गहरी शांति और शारीरिक शक्ति प्राप्त होती है। लेकिन कुछ जो सूक्ष्म उर्जा की हलचल अपने शरीर में महसूस कर पाते हैं, वे ब्रह्मांड की सूक्ष्मतर उर्जाओं की थाह भी पाने लगते हैं। तो योग का अभ्यास सांसों पर नियंत्रण से प्रारंभ होता है। अगर हम प्राणों को अपने शरीर में हर तरफ चला सकते हैं तो हम उन्हें नियंत्रित भी कर सकते हैं। योग में सांस लेने की तकनीकों के जरिए यही तो किया जाता है।
(यह राइट अप पचीस साल पहले इन दोनों योगियों ने संयुक्त रूप से योगा जर्नल में लिखा था जो संभवतः आगे भी हारमोनियम पर जारी रहेगा)

06 अक्तूबर, 2010

लखेन्दर का एन्सर है आपके पास

संझा को सूरूज डुबान लखेन्दर जवान जब लुंगी पर कुर्ता झार के तेल से चिकनाई पटकन लेके और कान पर एक ठो पनामा खोंसे घर से निकलता है तो उसकी माई साइंस को सरापने लगती है। बुढ़िया सूरूज नरायन संझा माई से कहती है, हर चीज में मिलावट है उसको धराने का जंत्र आ गया है लेकिन नकली सराफ पकड़ने का काहे नहीं आया। ऐह भगवान, ई मुंहफुंकवना तो मानेगा नहीं, भगौती माई रच्छा करें अगर कुछ हो गया तो पतोह को लेकर यह बूढ़ी किस कुइंया ईनार में जाएगी।

चट्टी पर बसंतू के चाह के दोकान में कलवारी खुली है जो वोट पड़ने तक अलाहोल पियाती रहेगी लखेन्दर बंऊड़ियाता रहेगा। एक पहर रात गए रतउन्ही के मारल के तरे थथम थथम के जब लौटता है तो दुलहिन अइसे देखती है जमराज चले आ रहे हैं। भुनभुनाती है किसमते खराब था अगल महिला सीट रहा होता तो प्रधान हो जाती, रोज संझा के हाथ पर तीस-बत्तीस रुपैया धर देती। अपना दरवाजे पर बइठ के खांटी देसावर माल पीते। ई डर तो नही लगा रहता।

पहिल बूढ़ पुरनिया को मान लेते थे लेकिन सब नौछिटुआ प्रधानी में उठ रहा है। एतना दौड़ धूप का काम हो गया है बूढ़-ठेल सपर नहीं सकेगा। बिलौक, थानेदार से लेकर कलेक्टर तक का कनेक्शन लगाना पड़ता है। ललका रासन काट है, वृद्धा, विकलांग पेन्सन, नरेगा का जाफ काट है, केतना किसिम का लोनिंग है सबमें प्रधान का दस्खत चाहिए। हर तरह का कच्चा काम में साठ और पक्का में तीस-पैंतीस परसेन्ट कमीसन है। बड़का चुनाव में हर पाटी का लोग घेरे रहता है परधान जी, परधान जी कहते मुंह झुराता है। माने की जिसके नीचे बोलेरो आ ऊपर एगो ढकनी वाला चश्मा नहीं उसको कोई परधान नहीं समझता। एसडीएम उतना टंच का कमाएगा जी जेतना परधान का महीना में सबका काटकूट के हिसाब हो जाता है। एही ला एतना मारा मारी है। जहां महिला सीट है गोबर काछना बंद हो गया है। एक बार जीत लिया तो कऊवाहकनी घर की लछमी हो जाती है।

जनम के लाखैरा लखेन्दर एगो टूटहा कट्टा दिखाय के कब्बो बसंतू के लरिका से एक बन्डल बीड़ी त कभी दस बीस नकद फुसीट लेता था। डेढ़ हजार भाव लगा तो तुरते बेच दिया। अब कहता है कि ममहर से पांच-पांच सौ में तीन गो ले आ के बिजनेस करेगा। सुरक्षित सीट हो गया है न। कतवारू का चानस ज्यादा है। कतवारू के पढ़वईया लरिका ने लखेन्दर को डांटा, बुरबके हो बिजनेस का मतलब जानते हो। पुलिस के बान्ह के ले जाएगी तो तुमरा कट्टा कारपोरेशन के आपिस पर ताला लग जाएगा। सरकार का योजना आया है कि हर गांव में कंपूटर का खोखा लगेगा जिसमें बीस रूपया देके हर तरह का साटिक फिटिक आ जानकारी किसान भाइयों को मिलेगा। कतवारू काका बोले हैं कि लखेन्दर को कंपूटर का खोखा लगवा देंगे। साल दू साल में ग्रामीण भारत में संचार किरान्ती लाने वाला ईनाम भी मिल जाएगा। उसको लेने के लिए फिलीपीन देस जाना पड़ता है। नीके तो सांयसांय जैसा नाम है ऊ ईनाम का, कई लाख ऱूपिया मिलता है।

बलिया में बिहार बोडर के रामपुर छेरियहवा गांव का लखेन्दर अबहिएं सबके कंप्यूटर में झांकने लगा है। पूछता है काहो ई बिलोग वाला सब कहां का फुटानी झारता रहता है। यूपी का त्रिस्तरी पंचायती चुनाव हो रहा है आ ऊहां कौनो चरचा ही नहीं। ई सब कौन इन्डिया का बात करता है जी।

03 अक्तूबर, 2010

क्यूं मारा पिटरूल

टनटनटन घंटा बोला,
अपने बच्चे के मुंह से कल एक अजीब सी कविता सुनी। पता नहीं कहां से सीख कर आया होगा। मेरी नजर में आई यह पहली बाल कविता है जिसमें स्कूल बच्चों के साथ है। वह अपना अस्तित्व बच्चों के पिटने और भाग जाने से नाराज हो कर विसर्जित कर देता है। अपने देश में उजाड़, ढहते, भांय-भाय करते भुतहे प्राइमरी स्कूलों की कमीं नहीं है और यह कविता उन सबके ऊपर शाम के सूने धुंधलके में मंडराती जान पड़ती है। क्या पता किसी ड्राप आउट बच्चे ने जोड़ी हो, अपने इस्कूल इतनी आशा....शायद किसी और के बस की बात नहीं है। आप खुद देखिए।

टन-टन-टन-टन घंटा बोला
बच्चे गए स्कूल
मास्टरजी ने सवाल पूछा
बच्चे गए भूल
मास्टरजी को गुस्सा आया
मार दिया पिटरूल
बच्चों को भी गुस्सा आया
छोड़ दिया स्कूल
स्कूल को भी गुस्सा आया
टूट गया स्कूल।

02 अक्तूबर, 2010

गांधी जी, आंप लिखिए


मैने बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा। लिखा, उतना ही बस जितना रिपोर्टर की नौकरी चलते रहने के लिए जरूरी था। लिखने के बारे में सालों से लगातार सोच रहा हूं। जैसे दिमाग की स्निग्ध, गतिमान, अखरोट के आकार की आलमारी में एक खाली खाना है जिस पर चिप्पी लगी है "लिखने का खाना"। लेकिन हर बार देखने पर चिप्पी दिखती है और उतरते झूले की हौंक सा खालीपन महसूस होता है। काश यह बिम्ब रसोई का होता और चिप्पी चीनी या मसूर की दाल की लगी होती और डिब्बा इतने लंबे समय से खाली होता तो भी इतना खालीपन महसूस नहीं होता।

यह दूसरे तरह का दुख है, लिखकर ऊपर वाले पैरे को मसालेदार तीव्र देसी शराब की तरह असरकारक बनाया जा सकता था। जरा काव्यात्मक भी। लेकिन यह किसी दूसरे, तीसरे टाईप का दुख नहीं है। एक बार मैने और एक दोस्त ने जो बाद में साधू हो गया एक स्वांग बनाया था। हम दोनों अलग-अलग आवाजों में जरा नाक का रचनात्मक प्रयोग करते हुए दिन में पचासों बार एक दूसरे से कहते थे- आंप लिखिए। और खूब हंसते थे। कैसे हर बार वह एक छोटे से वाक्य का कहना, पता नहीं कितने संबंधो (लेखक-प्रशंसक, पोंगा गुरूजी-चापलोस छात्र, रिपोर्टर-संपादक, दो लेखकों की मदमाती पहली मुलाकात आदि ) को उनका वास्तविक पुनर्जीवन दे देता था।

लिखना मन लगाकर बतियाने जैसा काम है। अभी तो टोटका मिटाने की हड़बड़ी है।

साधारण लोग जिन चीजों के बारे में अक्सर बात करते हैं, उनमे से कई जरूरी चीजों के बारे में बहुत कम या प्राय: कोई नहीं लिखता। अखबार में भी नहीं जहां दैनंदिन जीवन के होने का दावा होता है। उदाहरण के लिए इन दिनों लोग एक जज साहबान की बात कर रहे हैं जो लकड़ी धुल कर अपना खाना खुद बनाते हैं। उन्होंने अपने बंगले में एक गाय पाल रखी है। उसे खिलाने के बाद खुद खाते हैं और उसे प्रणाम किए बिना हाईकोर्ट नहीं जाते।

माना कि इस जमाने में भी लकड़ी....। लेकिन जिस लकड़ी को सूखा रखने के लिए इतने जतन किए जाते हैं उसे धुलने का क्या मतलब और भीग गई तो उस पर खाना कैसे बनेगा। यह लकड़ी को पवित्र करने या शायद भोजन-मंत्र से जुड़ा कोई अनुष्ठान होगा जिसे धुलना कहा जा रहा है। पर बेहद मामूली लोगों तक जज साहब के निजी जीवन से जुड़ी अजीब सी लगती यह जानकारी किनके जरिए पहुंची और वे इसके बारे में क्यों इतनी बात कर रहे हैं- यह अखबार समेत मीडिया को बताना चाहिए था। क्या इस आचार का किसी न्यायिक निर्णय से कोई संबंध हो सकता है और यह आदत क्या देश की राजनीति को प्रभावित कर सकती है? हिन्दी साहित्य से यह उम्मीद नहीं की जा सकती है। उसका हाजमा इन दिनों खराब हो चुका है। वह कालिया-विभूति को ही नहीं पचा पा रहा है। इस साल का उसका एजेन्डा तय हो चुका है।

जैसे बच्चों को जू-जू से डराया जाता है, लोकतंत्र को अदालत से डरना सिखाया जाता है। किस्से चलते रहते हैं- एक जज था उसने रामपुर के रेलवे स्टेशन से थोड़ा पहले चलती गाड़ी में ही अदालत लगा ली और एक यात्री को नौ महीने जेल की सजा सुना दी क्योंकि उसने मी लार्ड कहे बिना उनसे नमस्कार कर लिया था। वे चाहे तो भरे ट्रैफिक में अपनी कार को ही अदालत मान कर आपको सजा सुना सकते हैं। वे बहुत ज्यादा समय अकेले रहते हैं। फैसलों पर मिलने वालों का असर न पड़े इसलिए। फिर अकेलापन आदमी को ऐसा ही बना डालता है। इसका परिणाम यह होता है कि कचहरी जाने या न जाने वाले बहुत साधारण लोग जज साहब से कुछ फीट की दूरी पर बैठने वाले पेशकार के आसपास की तुच्छ किन्तु सतत प्रच्छाय हरीतिमा और उसकी छाया से लाभान्वित होने वाले विशाल वृक्षों की बात करते तो रहते हैं लेकिन वह दृश्य किसी भी रूप में किसी अखबार में नहीं देखने को मिलता। हिन्दी साहित्य में भी जज पात्र और लोकेल के रूप में अदालत बहुत कम आए हैं।

आम जीवन के छोटे-छोटे सत्यों की लगातार उपेक्षा का नतीजा यह होता है कि जब कोई पुराना कानून मंत्री चिल्ला कर कहता है अब तक देश के जितने मुख्य न्यायाधीश हुए उसके करीब आधे भ्रष्ट थे तो टीवी देखते कुछ लोग ऊंघती आवाज में कहते हैं-ऐं ऐसा है क्या? तब भी वे सहज लगते हैं।

ठीक इसी वक्त जब लिखने का टोटका मिटा चाहता है, सबसे आखिर में फिल्म के परदे से उधार लेकर यहां जता देने की इच्छा हो रही है कि इस गल्पागल्प के पात्र, घटनाएं क्या कहिए एक-एक शब्द काल्पनिक है और उसका वास्तविकता से कोई संबंध नहीं है, किसी वर्तमान या सेवानिवृत्त न्यायाधीश से तो कतई नहीं। यह किसका प्रभाव है। जब तक यह प्रभाव रहेगा, हमारे समाज में असल लिखे का अभाव नहीं रहेगा क्या?

अपने इस टोटके को नैतिक धज देने के लिए मैं इसे गांधी जयंती पर गांधी की आत्मा को लिखा गया पत्र भी कह सकता हूं। गांधी जी बैरिस्टर रहे थे और सत्य के लिए उनका आग्रह भी था। लोगों को उनकी बैरिस्टरी का कोई पराक्रम नहीं पता लेकिन वे जानते हैं कि उन्होंने किस जरूरत के लिए के लिए छुटपन में अपने कड़े का टुकड़ा बेचा था और जिस समय उनके पिता की मृत्यु हो रही थी वे कहां और क्यों थे। गांधी जयन्ती पर किसी न किसी को यह जरूर लिखना चाहिए कि यह सब कौन नहीं करता लेकिन प्यारे बुढऊ को यह सब स्वीकार करने की क्या पड़ी थी?

28 अगस्त, 2010

मिडिल क्लास मजे को जरा-जरा खर्च करता है

क्या पिए क्या बिन पिए, यशवंत ने मुझे कई बार फूहड़तम गालियां दी हैं और बदले में यथोचित प्रसाद पाया है। उसने कई और ऊटपटांग काम किए हैं लेकिन उसके प्रति भयानक गुस्से, भभकती हिंसा में भी मैने पाया है कि मेरे भीतर कोई है जो तमाम नकारों से अप्रभावित उसे चाहता है। कारण क्या है नहीं सोचा लेकिन अब जरूर सोचूंगा। लेकिन इसी कारण घर-बाहर विरोध और चेतावनियों के बावजूद उससे मेरा एसोसिएशन चला ही आ रहा है। इस आत्मविश्लेषण में वह जरा आत्ममुग्ध है और तानसेनिया गया है लेकिन एक बात बहुत मार्के की कह रहा है कि किसिम-किसिम की उत्तेजनाओं को तटस्थ भाव से ताकना बहुत जरूरी हो चला है तभी कुछ दूर तलक ले जाने वाला दिखेगा।....और कुछ नहीं तो इसे किरानी माइंडसेट से अलग कुछ नया करने की चाह रखने वाले एक स्वतंत्र व्यक्तित्व के युवा के अंतर्द्वंद के रूप में तो पढ़ा ही जाना चाहिए।
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जीवन के 37 साल पूरे हो जाएंगे आज. 40 तक जीने का प्लान था. बहुत पहले से योजना थी. लेकिन लग रहा है जैसे अबकी 40 ही पूरा कर लिया. 40 यूं कि 40 के बाद का जीवन 30 से 40 के बीच की जीवन की मनःस्थिति से अलग होता है. चिंताएं अलग होती हैं. जीवन शैली अलग होती है. लक्ष्य अलग होते हैं. सोच-समझ अलग होती है. भले ही कोई जान कर भी अनजान बन जाए. पर 40 के कुछ पहले ही 40 के बाद के मन-मिजाज की तैयारी शुरू हो जाती है. 24 कैरेट वाला युवा होने का बोध जाने लगता है. दाढ़ी-बाल में एकाध सफेद उगे छिपे बाल 40वाला होने के संकेत देने लगते हैं.

40 तक नौकरी करने का बहुत पहले प्लान किया हुआ था. बेचैनी, वाइब्रेशन, अस्थिरता, गतिशीलता... जो कहिए, जो अपने भीतर है, के चलते 40 तक नौकरी करना प्लान किया था. और, 40 के बाद, नौकरी के बाद, क्या होगा, इसको लेकर बहुत ठीक-ठीक समझ नहीं बन पा रही थी लेकिन इतना तो जरूर तय था कि नौकरी-चाकरी, धन-दौलत, परिवार-बच्चे... इस चक्कर में चालीस तक ही रहना है. उसके बाद उऋण हो जाना है. कोई उऋण करे ना करे, खुद हो लेना है. जब कोई मरना नहीं टाल सकता तो मैं किसी के उऋण करने का इंतजार क्यों करूं. तो, 40 के बाद की कोई प्लानिंग न देख यह तय कर लिया था कि अपने जीवन की सबसे प्रिय चीज, दारूबाजी को इंज्वाय करता रहूंगा, जोरशोर से, इच्छा भर, 40 तक. बच गए तो ठीक. मर गए तो और ठीक.

और, इस 40 से पहले नौकरी भी करनी है. नौकरी न कर पाया. टीम के साथ काम करने में मुझे दिक्कत होती है, यह कहा था मेरे एक संपादक ने. तब भी लगता था, अब भी लगता है कि मैं खुद एक टीम हूं तो टीम की जरूरत क्या है. और, जहां जहां भी नौकरी की, मेरे संग जो टीम रही, लगभग हर जगह उस टीम के बराबर अकेले मैं खुद को पाता था. पर दारूबाजी बंद हो गई. अचानक. इतनी पी कि पीने में कोई स्वाद नहीं बचा. कोई सुख नहीं बचा. दुहराव होने लगा. घटनाओं का. स्थितियों का. माहौल का. लोगों का. सब कुछ बहुत गहरे तक जाना-पहचाना सा लगने लगा. बहुत जल्दी उबता हूं मैं हर चीज से. दो दिन घर में पड़ा रह जाऊं तो घर के एक-एक जड़-चेतन से उब जाऊं. यह जो उब है वह टिकने नहीं देती.
न पहले टिका. और न अब टिकता देख रहा हूं. दारूबाजी से अचानक अलग होने के बाद संशय हुआ कि दारू याद आएगी और सैकड़ों बार तोड़ी गई कसम में इस बार का वादा भी शामिल हो जाएगा. पर इस बार कोई वादा नहीं किया था. बस छूट गई. हालांकि शुरू में एक-दो दिन हाथ-पांव मयखाने की ओर जाने की जिद करते रहे. आदत जो पड़ी थी. आदतें, चाहें जैसी भी हों, मुश्किल से जाती हैं. सो, हाथ-पांव को हाथ-पांव जोड़कर मनाया और दो दिन हाथ-पांव माने तो अब ये पूरी तरह काबू में हैं. मन तो लगता है पहले ही मान गया था तभी छोड़ने का मन हो गया. लेकिन हाथ-पांव तो मन से अलग हैं. कई बार मन के बिना कहे हाथ-पांव चलने लगते हैं, आदत के अनुरूप.

अब जब दारू में सुख नहीं बचा तो जाहिर है, कोई नया सुख अंदर पैदा हो गया है जिसके कारण पुराना सुख बासी पड़ गया. नया सुख अंदर क्या है? संगीत. जी, संगीत का सुख ऐसा हो सकता है, मुझे पहले कभी उम्मीद न थी. पर अब लगता है जैसे अगला पड़ाव संगीत है. संगीत कहने को तो केवल स ग और त से बना एक शब्द है. लेकिन ये तीन जुड़कर बड़े दम वाले बन जाते हैं. इसमें डूबकर आत्मा तृप्त हो जाती है. विचारधारा चरम पर पहुंच जाती है. आनंद का अतिरेक होता है. सुध-बुध खोकर किसी और लोक में होने का एहसास होने लगता है.

तो ये जो संगीत है, पूरी तरह तारी है मुझ पर. संगीत में मुझे आवारपन दिखता है. बंजारापन महसूस होता है. सूफी होने का एहसास होता है. कबीर को जीने का सुकून मिलता है. संतों-महापुरुषों से एकाकार होने का सौभाग्य मिलता है. झूमने-नाचने का हिस्सा इसी संगीत से जुड़ा है जो हर किसी बंधन से मुक्त कर देता है. सिर्फ आप होते हैं और आपका आनंद होता है. ध्यानमग्न हो जाने का जो राह है, मोक्ष पाने का जो रास्ता है, वो मेरे लिए शायद संगीत से होकर गुजरता है. हर आदमी का अलग अलग होता है रास्ता मुक्त होने का. खुद को मुक्त करने का तरीका मेरे लिए संगीत हो चुका है. दुनियावी दबावों में और इससे परे, संगीत कहीं अंदर बजता रहता है.

और, आज तक मैंने फैसले कैसे लिए. दारू पीकर. पीने के बाद सच-सच बोलता है दिल व दिमाग. बिना पिए ज्यादातर दिमाग ही बोलता रहता है क्योंकि दिमाग किसी का खुद का नहीं होता. उसमें उसका घर, परिवार, आफिस, पैसा, अहंकार, विचार सब बैठे होते हैं. सबका हिस्सा होता है. सिर्फ अपने आप तब होते हैं जब आपका सिर्फ दिल चले. और दिमाग शून्य हो ताकि दिल से गाइड हो सके. दिमाग शून्य करे बिना दिल की सुन नहीं सकते. दिल की आवाज को भाव नहीं देगा दिमाग. नौकरी के और जीवन के, ज्यादातर बड़े फैसले, निर्णायक फैसले नशे में लिए. दिल की सुनकर लिया. दिल ने कहा कि शादी कर लो तो कर लिया. दिल ने कहा इस्तीफा दे दो तो दे दिया, दिल ने कहा ट्रांसफर मांगो तो मांग लिया. दिल ने कहा गाली दो तो दे दिया. दिल ने कहा मारो दौड़ाकर तो मारने दौड़ पड़ा.

दिल ने कहा कि खबू गाओ तो गाने लगा. दिल ने कहा कि अब नाच भी पड़ो तो नाचने लगा. दिल ने कहा कि क्लीन शेव हो जाओ तो क्लीन शेव हो गया. दिल ने कहा कि गांव चलो तो बोरिया-बिस्तर समेत गांव चला गया. दिल ने कहा कि अब दिल्ली में ही ठिकाना खोजो तो दिल्ली की तरफ कूच कर गया. दिल ने कहा कि नौकरी में ये सब झंझट चलता रहेगा, खुद के नौकर बनो तो खुद का नौकर बना. दिल ने कहा कि पैसे मांग लो तो मुंह खोलकर पैसे मांग लिए. ये दिल कब बोलता है? हर वक्त नहीं बोलता क्योंकि ज्यादातर वक्त तो दिमाग बोलता है.

दिमाग बहुत दुनियादार और समझदार होता है. वह लाभ लेने को कहता है. वह अनैतिक होने को कहता है. वह काम निकालने को कहता है. वह स्वार्थी होकर ज्यादा से ज्यादा फायदा लेने को कहता है. बहुत कम वक्त देता है वह दिल को बोलने के लिए. और, जब दिमाग बहुत ज्यादा सक्रिय हो तो दिल बेचारा तो वैसे ही कहीं किनारे दुबका रहता होगा. मेरे लिए मेरा दिल दारू के बाद बोलता है. तब दारू के जोर से दिमाग निष्क्रिय होने लगता है. दिल का जब दौर शुरू होता तो मैं खुशी से भर जाता. गाने लगता. ठीक उसके पहले, दिमाग के दौर में मुंह फुलाए, दुनिया से नाराज दिखता. लेकिन दिल का दौर शुरू होते ही चंचल हो जाता. खिल जाता. सब कुछ हरा-भरा दिखता. अचानक ही सिर आसमान की ओर देखने लगता और फिर देर तक बादल, चांद, गांव, पेड़, अंधेरे की कल्पना करते-करते दिल्ली में होते हुए भी कहीं और पहुंचा होता.

खुद की नौकरी करते-करते और भेड़चाल से खुद को दूर रखते-रखते पिछले दो वर्षों में अंदर काफी कुछ बदल गया है. जब आपके उपर कोई दबाव न हो, जब आप अपनी मर्जी के मालिक हों. जब आप अपनी इच्छानुसार एक-एक मिनट जीने लगते हों तब आप, जाहिर है, धीरे-धीरे दिमाग से कम संचालित होने लगते हैं. दिमाग सिर्फ उतना इस्तेमाल होता, जितना वर्किंग आवर की जरूरत होती. उसके बाद दिल वाला. मदिरापान के पहले और बाद की अवस्था एक-सी होने लगी. इच्छा हुई तो सुबह पी ली. कभी दोपहर से शुरू हो गए. कभी देर रात में. कभी पूरे दिन नहाया नहीं. कभी कई दिनों तक ब्रश नहीं किया. कई दिनों तक सिर्फ नानवेज खाता रहा. कई दिनों तक केवल सेक्स प्रधान भाव बना रहा. वैसे रहा, जैसे दिल बोला. इच्छाएं धीरे-धीरे खत्म-सी होने लगीं.

अब लगता कि कई चीजों का क्रेज जानबूझ कर बचा कर रखता है मिडिल क्लास. सेक्स का क्रेज. मदिरा का क्रेज. छुट्टी का क्रेज. जब हर रोज सेक्स हो, हर पल सेक्स की उपलब्धता हो, हर पल दारू हो, हर पल दारू की उपलब्धता हो, हर पल छुट्टी हो, जब जी चाहे छुट्टी लेने का आप्शन हो तो इनमें कोई आनंद नहीं बचता. अचानक समझ में आता है कि अब किसी में रुचि नहीं बची. सब रुटीन सा हो गया. जब सब रुटीन सा हो गया तब फिर क्या? अब इसी क्या को मैं तलाश रहा हूं. पैंट शर्ट पहनने की इच्छा नहीं होती. कोई गाउन सा पहनने का मन करता है. सपने में हारमोनियम, तबला आदि नजर आते हैं. दिन में गाने लगता हूं.

किसी के प्रति कोई दुर्भावना नहीं मन में. किसी से कोई तमन्ना नहीं. जो दे, उसका भला. जो न दे, उसका ज्यादा हो भला क्योंकि उसके पास मांगने ही नहीं गया तो उसके प्रति दुर्भावना क्यों. जो है, बहुत है. जो नहीं है, वो मिल भी जाए तो क्या हो जाएगा. जो भी करता हूं, उसमें अकारथ होने का भाव होता है. लगता है बीत जाये, बीत जाये जनम अकारथ.

जीवन-जगत सब कुछ गोरखधंधे की तरह लगने लगा है, नुसरत फतेह अली खां की आवाज में ...तुम एक गोरखधंधा हो... सुनकर मन नहीं भरता. ..सांसों की माला... नुसरत की आवाज में सुनते हुए सांसों के आने-जाने को महसूस करता हूं और एक-एक सांस को पकड़कर सोचता हूं कि ये सांस न हो तो जीवन न हो और जीवन न हो तो फिर यशवंत क्योंकर हो?
रुटीन की तरह बात खत्म करते करते गल्तियों के लिए माफी नहीं मांगूंगा और आगे के जीवन के लिए प्यार व आशीर्वाद नहीं चाहूंगा क्योंकि मुझे पता है जो गल्तियां नहीं करते, वे उससे सबक भी नहीं लेते और जो सबक नहीं लेते वे जीवन को समझ-बूझ नहीं सकते क्योंकि जो सबक नहीं लेगा वह वहीं पर अटका रहेगा, किसी गाने की फंसी हुई सीडी की तरह. प्यार-आशीर्वाद इसलिए नहीं चाहूंगा क्योंकि यह देने वाला आपसे बेहतर होने की उम्मीद करता है और जब मेरा बेहतर व उसका बेहतर अलग-अलग हो तो ऐसे में देने वाला कभी नाराज होकर लौटाने की मांग मन ही मन कर दे तो कहां से लौटाउंगा. ज्यादा अच्छा है खुद के श्रापों-आशीर्वादों से जीना-बढ़ना, और, मेरे जैसे लोगों की नियति यही है कि हम खुद के श्रापों-आशीर्वादों से दुखी-सुखी हुआ करते हैं, हम लोगों को दुख-सुख कोई दूसरा नहीं दे सकता.

बाजारू उत्तेजना (काम, क्रोध, लोभ, मोह... सभी संदर्भों में) के इस दौर में सारे उत्तेजनाओं से निजात पाना बड़ा भारी काम है, आपके लिए, और मेरे लिए भी. शायद, इससे मुक्त होकर ही सही मायने में हम कुछ नया कर पाएंगे, ऐसा मुझे लगता है. तभी मुझे यह भी लगता है कि एक पूरा वेल मैनेज्ड व इस्टैबलिश तंत्र है जो बाजारू उत्तेजना को दिनों दिन बढ़ा रहा है ताकि हम आप इससे निजात पाएं न. और, इससे निजात न पाना इस तंत्र को मजबूती प्रदान करना ही होता है.

आप सभी का दिल से आभार.

यशवंत
http://bhadas4media.com

02 अगस्त, 2010

दिमाग में कर्फ्यू न लगा हो तो...


माफी मांगो विभूति नारायण।

कठहुज्जती मत करो। लीपने से दायरा और फैलेगा।

साथ ही हिंदी के उन सब काम-कुंठा के मारे वरिष्ठ जोकरों के नाम लो जो लेखिकाओं में छिनालों की खोज करते हैं और उन्हीं से मुखातिब रहते हैं।

अपने अहंकार की चिन्ता मत करो। अगले एक पखवारे तक- ठीक वैसे जैसे पुलिस करती है- उसका मुन्डन होगा, चूना पोता जाएगा और जुलूस निकाला जाएगा। फिर इन जुलूसों की स्मृति सारी उमर परेशान करती रहेगी। ठीक यही रहेगा कि मजबूर होकर मांगने के बजाय खुद पहल करके मांग लो।

कुलपति-फुलपति होने की चिंता भी छोड़ दो। आजकल कुलपति केंद्र से फंड लाकर विवि में वेतन बंटवाने अलावा करता भी क्या है। जिनके लिए कुलपति करता है वे भी कहां काम आते हैं। उनमें रीढ़ की हड्डी कहां होती है।

02 जुलाई, 2010

आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी,


ब्रिटेन की महारानी का डंडा (क्वीन्स बेटेन या राजदंड) पूर्व गुलाम देशों का चक्कर लगाकर भारत में प्रवेश कर गया है। अब हर तरफ राष्ट्रमंडल खेलों की ही चर्चा है। यमुना की लाश पर उल्लासमंच सजा है। रानी के राजदंड को देश भर में घुमाया जा रहा है। अब ये बात बेमानी करार दी गई है कि "राष्ट्रों का ये मंडल" पूर्व गुलामों का संगठन है जो खेल के इस महा-उत्सव के जरिये महारानी को शुक्रिया अदा करते हैं। लेकिन एक जमाने में इस पर खूब बात होती थी। 1960 के आसपास हिंदी के श्रेष्ठ कवि नागार्जुन ने महारानी के आगमन को लेकर एक चर्चित कविता लिखी थी। ये नागार्जुन की जन्मशती का वर्ष है। उन्हें श्रद्धांजलि स्वरूप पेश है वही कविता

आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी

यही हुई है राय जवाहरलाल की

रफू करेंगे फटे-पुराने जाल की

यही हुई है राय जवाहरलाल की

आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी !


आओ शाही बैंड बजाएं,

आओ वंदनवार सजाएं,

खुशियों में डूबे उतराएं,

आओ तुमको सैर कराएं-

उटकमंड की, शिमला-नैनीताल की

आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी!


तुम मुस्कान लुटाती आओ,

तुम वरदान लुटाती जाओ

आओ जी चांदी के पथ पर,

आओ जी कंचन के रथ पर,

नजर बिछी है, एक-एक दिक्पाल की

आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी !


सैनिक तुम्हें सलामी देंगे,

लोग-बाग बलि-बलि जाएंगे,

दृग-दृग में खुशियां छलकेंगी

ओसों में दूबें झलकेंगी

प्रणति मिलेगी नए राष्ट्र की भाल की

आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी !


बेबस-बेसुध सूखे-रुखड़े,

हम ठहरे तिनकों के टुकड़े

टहनी हो तुम भारी भरकम डाल की

खोज खबर लो अपने भक्तों के खास महाल की !

लो कपूर की लपट

आरती लो सोने की थाल की

आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी !


भूखी भारत माता के सूखे हाथों को चूम लो

प्रेसिडेंट की लंच-डिनर में स्वाद बदल लो, झूम लो

पद्म भूषणों, भारत-रत्नों से उनके उद्गार लो

पार्लमेंट के प्रतिनिधियों से आदर लो, सत्कार लो

मिनिस्टरों से शेक हैंड लो, जनता से जयकार लो

दाएं-बाएं खड़े हजारी आफिसरों से प्यार लो

होठों को कंपित कर लो, रह-रह के कनखी मार लो

बिजली की यह दीपमालिका फिर-फिर इसे निहार लो


यह तो नई-नई दिल्ली है, दिल में इसे उतार लो

एक बात कह दूं मलका, थोड़ी से लाज उधार लो

बापू को मत छेड़ो, अपने पुरखों से उपहार लो

जय ब्रिटेन की, जय हो इस कलिकाल की !

आओ रानी, हम ढोएंगे पालकी !

रफू करेंगे फटे-पुराने जाल की !

यही हुई है राय जवाहरलाल की!

आओ रानी हम ढोएंगे पालकी!

16 जून, 2010

जाति की गणना और जाति का धर्म

बड़ी-बड़ी मूँछों से सजे रोबदार चेहरे वाले ई.एन.राममोहन ने जब कहा कि माओवाद कुछ और नहीं जाति-दर्प की उपज है(माओइज्म इस नथिंग बट प्रोडक्ट आफ कास्ट एरोगेन्स), तो चौंकना लाजिमी था। राममोहन बीएसएफ के पूर्व महानिदेशक हैं। उन्हें दंतेवाड़ा में हुए नक्सली हमले की जांच की जिम्मेदारी दी गई थी। लेकिन एक न्यूज चैनल को इंटर्व्यू देते हुए राममोहन न सैन्य तैयारियों की बात कर रहे थे, न गोला-बारूद की कमी की। वे बता रहे थे कि कैसे जाति अहंकार में डूबे समाज को माओवादी विद्रोह का दंड भुगतना पड़ रहा है। उनके मुताबिक, पहले जाति श्रेष्ठता के अहंकार में आदिवासियों को जंगलों 'में' खदेड़ा गया और अब खनिजों के लालच में उन्हें जंगलों 'से' खदेड़ा जा रहा है। नतीजा है विद्रोह।

यह जनगणना के बहाने जाति व्यवस्था को लेकर तेज हुई हालिया बहस का बिल्कुल नया आयाम है। ये बताता है कि अगर इतिहास में भारतीयों को मिली निरंतर पराजय के पीछे जाति-व्यवस्था बड़ा कारक था, तो आज 'आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे' के पीछे भी कहीं न कहीं यही व्यवस्था है। लेकिन जनगणना में जाति को गिनने या न गिनने के सवाल पर उलझे बुद्धिजीवी शायद इतना गहरे नहीं उतरना चाहते। दिलचस्प बात ये है कि दोनों ही पक्ष एक जातिविहीन समाज बनाने का झंडा उठाए हुए हैं। विरोधियों को लगता है कि जातियां गिनी गईं तो जातिवाद बढ़ेगा और जाति व्यवस्था मजबूत होगी। तो समर्थकों को लगता है कि जातियों की गिनती हुई तो तमाम विकास योजनाएं वास्तविक आंकड़ों के आधार पर चलेंगी। खासतौर पर पिछड़ी जातियों का सशक्तीकरण जाति व्यवस्था को कमजोर करेगा।

गौर से देखिए तो दोनो ही तरफ अर्धसत्य है। ऐसा नहीं है कि जाति की गणना होगी तो जाति चेतना प्रबल नहीं होगी और ऐसा भी नहीं कि पिछड़ी जातियों के सशक्तीकरण से मौजूदा व्यवस्था में कोई फर्क ही नहीं पड़ेगा। लेकिन इसे जाति-व्यवस्था के उन्मूलन से जोड़ना गलत है। ये तो तब टूटेगी जब इसके स्रोत पर प्रहार हो। जाति चूंकि (हिंदू)धर्मसम्मत है, इसलिए तमाम उतार-चढ़ाव के बावजूद मानसिक बुनावट का हिस्सा बनी हुई है। यहां तक कि आई.टी.क्रांति या परमाणु ऊर्जा की तकनीक से जुड़े लोगों के लिए भी ये असहज करने वाली चीज नहीं है।

ऐसा धार्मिक मान्यताओं पर अंध आस्था की वजह से है। भगवत् गीता वर्णव्यवस्था को स्वभाव से उत्पन्न गुणों का सहज विभाजन मानती है। अर्जुन को उपदेश देते हुए हुए श्रीकृष्ण कहते हैं (अध्याय 4, श्लोक 13)--- चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागश:। तस्य कर्तारमपि मां विद्धयकर्तारमव्ययम्।। (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य शूद्र-इन चारं वर्णों का समूह, गुण और कर्मों के विभागपूर्वक मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार उस सृष्टि-रचनादि कर्म का कर्ता होने पर भी मुझ अविनाशी परमेश्वर को तू वास्तव में अकर्ता ही जान )

जब गीता जैसी धर्म-दर्शन की शिखर पुस्तक में वर्णव्यवस्था को ईश्वरीय विधान बताया गया है तो पुराणों और स्मृतियों का कहना ही क्या। इन्हीं मान्यताओं ने करोड़ों हिंदुओं के दिमाग को जड़ बना दिया है। यहां तक कि 'हिंदुत्व' का राजनीतिक दर्शन गढ़ने वाले विनायक दामोदर सावरकर जब हिंदू राष्ट्र की कल्पना करते हैं तो शूद्रों और महिलाओं के लिए शर्मनाक स्थितियों को सहज बताने वाली 'मनुस्मृति' में भविष्य की 'विधि संहिता' देखते हैं। वे लिखते हैं--' मनुस्मृति ही वह ग्रंथ है जो वेदों के पश्चात हमारे हिंदू राष्ट्र के लिए अत्यंत पूज्यनीय है।... आज भी करोड़ों हिंदू जिन नियमों के अनुसार जीवन यापन तथा व्यवहार का आचरण कर रहे हैं, वे नियम तत्वत: मनुस्मृति पर आधारित हैं। मनुस्मृति ही हिंदू नियम (हिंदू लॉ ) है। वही मूल है।' (सावरकर समग्र खंड-4, पृष्ठ 415 )

इसलिए जातिविहीन समाज बनाने का मसला जाति गणना से नहीं, धार्मिक मान्यताओं से टकराने से जुड़ा हुआ है। क्या समाज में आज ऐसा कोई आंदोलन है? जाति गणना के पक्ष-विपक्ष में नारे लगा रहे लोगों के लिए वाकई यह कोई मुद्दा है? ढाई हजार साल पहले बुद्ध ने इस व्यवस्था पर गंभीर चोट की थी, लेकिन उन्हें 'क्षत्रिय कुल भूषण' और विष्णु का नवां अवतार और भगवान बताकर, एक महान बौद्धिक आंदोलन की हवा निकाल दी गई। मध्यकाल में जिन भक्त कवियों ने वर्णव्यवस्था की अन्यायी व्यवस्था के खिलाफ आवाज उठाई, वो पिछड़ी या दलित जातियों से ताल्लुक रखने वाले निर्गुण उपासक थे। जाहिर है, शासक वर्ग ने वर्णव्यवस्था के समर्थक सगुण कवियों की आवाज को मान्यता दी। नतीजा, रामलीलाएं तो जगह-जगह होने लगीं, जबकि कबीर की जन्मकथा भी विवादों में उलझा दी गई।

वर्णव्यवस्था पर इसी विश्वास का नतीजा था कि जो लोग हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम और ईसाइयत की शरण में गए, वो साथ में जाति का जहर भी लेते गए। इस्लाम में शेख और जुलाहे का जोड़ नहीं और ईसाइयों में दलित ईसाई एक अलग कुनबा हो गया। कोई जाति को भूलना भी चाहे, तो संभव नहीं। आधुनिक काल के सर्वश्रेष्ठ हिंदू विचारक कहे जाने वाले स्वामी विवेकानंद जब विदेश में डंका बजा रहे थे तो गैरब्राह्णण होने की वजह से, धर्म की व्य़ाख्या करने के उनके अधिकार पर सवाल उठाया गया। आखिरकार जाति प्रथा को बुराई मानने वाले विवेकानंद को भी अपनी कायस्थ जाति की डुगडुगी बजानी पड़ी। विदेश यात्रा से लौटकर मद्रास की सभा में उन्होंने कहा--- 'मैं उन महापुरुष का वंशधर हूं, जिनके चरणकमलों पर प्रत्येक ब्राह्मण 'यमाय धर्मराजाय चित्रगुप्ताय वै नम:' उच्चारण करते हुए पुष्पांजलि प्रदान करता है, और जिनके वंशज शुद्ध क्षत्रिय हैं।' (विवेकानंद साहित्य, पंचम खंड, पृष्ठ 106)

तब जातिविहीन समाज कैसे बनेगा? स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान इस बात पर गांधी जी ने इस पर गंभीर विचार किया था। लेकिन उनकी गाड़ी अस्पृश्यता निवारण पर रुक गई थी। वे अपने धार्मिक आग्रहों की वजह से ही वर्णव्यवस्था को नष्ट करने का आह्वान नहीं कर सके। इस मामले में डा.लोहिया के विचार ज्यादा क्रांतिकारी थे। उन्होंने अपने मशहूर लेख "हिंदू बनाम हिंदू" में लिखा है---'जिस दिन द्विज और शूद्र की शादी को सरकारी नौकरियों और पलटन में भरती के लिए एक योग्यता मान ली जाएगी, और साथ में बैठकर खाने से इंकार करने वालों को इन नौकरियों से निकाल दिया जाएगा, इस दिन वर्णों के खिलाफ लड़ाई शुरू होगी। वह दिन आना अभी बाकी है।'

लेकिन नेहरू की सरकार 'कुजात गांधीवादी' डा.लोहिया की बात क्यों सुनती। बल्कि राष्ट्रपति डा.राजेंद्र प्रसाद ने तब बनारस के घाट पर सैकड़ों ब्राह्मणों का खुलेआम पैर धोकर एक तरह से वर्णव्यवस्था को नए सिरे से वैधता दे डाली थी। यही वजह है कि डा.अंबेडकर ने तमाम शुरुआती कोशिशों के बाद समझ लिया था कि हिंदू धर्म में रहते जाति के अभिशाप से मुक्त होना असंभव है। उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। लेकिन विडंबना देखिए, सवर्ण समाज के बीच किसी के बौद्ध होने का मतलब ही दलित होना हो गया है। धर्म बदल गया पर जाति के नजरिये में फर्क नहीं आया। यहां तक कि डा.अंबेडकर की चौराहे-चौराहे मूर्ति खड़ा करने में मशगूल बहुजन आंदोलन अब जातियों को बनाए रखने में फायदा देख रहा है। जातियों का गठजोड़ बनाकर सत्ता तक पहुंचने का सफल प्रयोग करने वाले परशुराम जयंती मनाने और हाथी को गणेश बताने में जुटे हैं।

इसलिए जातिविहीन समाज बनाने का सवाल आरक्षण या जनगणना के दायरे के बाहर की चीज है। इसके लिए सामाजिक और आर्थिक आधार पर बड़ी रेखा खींचने वाले आंदोलन की जरूरत है, जो जाति व्यवस्था को वैध बताने वाले स्रोतों को ही सुखा दे। भारतीय जनता के कंधे पर ये एक ऐतिहासिक कार्यभार है, क्योंकि वर्ण चेतना का अंत किए बिना मनुष्यता अपने उत्कर्ष पर नहीं पहुंच सकती। रैदास ने बड़े मार्के के बात कही थी---'जात-जात में जात है, जस केलन के पात..रैदास न मानुष बन सकै जब तक जात न जात।'

25 मई, 2010

पीएम, प्रेस-कांफ्रेंस और पत्रकारिता

सोमवार को हुई प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दूसरी पारी की पहली प्रेस कांफ्रेंस से कुछ निकला हो या नहीं, इसने पत्रकारों और पत्रकारिता के तेजी से बदलते सरोकारों को बेपर्दा जरूर कर दिया। ये संयोग नहीं कि प्रधानमंत्री के लिखित वक्तव्य में तो सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा से जुड़े मुद्दों की कमी नहीं थी, लेकिन सवाल पूछने वाली पत्रकार बिरादरी में उनका जिक्र किसी अपवाद की तरह था।

हालांकि इस प्रेस कांफ्रेंस की शुरुआत महंगाई जैसे अहम सवाल से हुई। लेकिन प्रधानमंत्री ने जब इसके लिए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का जिक्र करते हुए दिसंबर तक हालात में सुधार का दावा किया, तो सब लोग संतुष्ट हो गए। जबकि ऐसे दावे अतीत में न जाने कितनी बार किए जा चुके हैं। यूपीए-2 की शुरूआत के साथ ही सौ दिन में महंगाई पर काबू पाने का दावा किया गया था। जाहिर है, इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को घेरा जा सकता था, लेकिन ऐसा लगा कि एक औपचारिकता थी, जो पूरी हो गई है।

इसके बाद लगभग डेढ़ घंटे तक सवाल-जवाब हुए। लेकिन अफसोस, कुल 53 सवालों में गरीबी जैसा अहम मुद्दा कहीं नहीं था। अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी देश की 77 फीसदी आबादी को गरीबी रेखा के नीचे बता चुकी है। हाल ही में सरकार ने जिस तेंडुकलकर कमेटी का निष्कर्ष स्वीकार किया है, उसके मुताबिक भी देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की तादाद करीब दस फीसदी उछलकर 37.5 फीसदी हो गई है। यानी करीब 47 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। तो ये सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री जी, आखिर आपकी नीतियों में क्या गड़बड़ी है कि गरीबों की तादाद बढ़ती जा रही है। ऐसा नहीं है कि इससे मनमोहन सिंह की उपलब्धियां कम हो जातीं, लेकिन उन्हें ये जरूर समझ में आ जाता कि पत्रकार उनके काम काज पर कितनी बारीकी से निगाह रख रहे हैं। लेकिन या तो पत्रकारों में प्रधानमंत्री को असहज करने वाले सवाल पूछने की हिम्मत नहीं बची है, या फिर वे खुद गरीबी को बेकार का सवाल मान चुके हैं।

यही हाल नक्सलवाद से जुड़े सवालों को लेकर था। इस सिलसिले में जो भी सवाल पूछे गए वो सरकार की तैयारियों य़ा इस मुद्दे पर पार्टी और सरकार में मतभेद को लेकर थे। किसी ने ये सवाल नहीं पूछा कि आदिवासियों को उनकी जमीन से उजाड़े जाने पर प्रधानमंत्री का क्या विचार है। दिलचस्प बात ये है कि योजना आयोग की सदस्य और वर्तमान गृह सचिव जी.के पिल्लई की पत्नी सुधा पिल्लई साफतौर पर कह रही हैं कि आदिवासियों को लेकर सरकार औपनिवेशिक मिजाज से काम कर रही है। कानून बनने के 14 साल बाद भी पंचायत एक्सटेंशन टू शिड्यूल्ड एरियाज (PESA) अमल में नहीं लाया जा रहा है। वहीं दंतेवाड़ा में 76 जवानों के मारे जाने की घटना की जांच कर रहे बीएसएफ के पूर्व डीजी ई.एन.राममोहन ने ताजा साक्षात्कार में भूमिसुधार से कन्नी काटने और वनोपज पर आदिवासियों को अधिकार न देने को माओवादी समस्या की जड़ बताया है। पर जो बात नौकरशाह खुलकर कहने को तैयार हैं, वो कहना भी पत्रकारों के बूते की बात नहीं रह गई है। उलटे उनका सवाल था कि मानवाधिकार का सवाल उठाकर सुरक्षाबलों का मनोबल तोड़ने वालों के खिलाफ सरकार क्या कर रही है। देश ने वो दिन भी देखा कि प्रधानमंत्री ने पत्रकारों को मानवाधिकारों के महत्व का पाठ पढ़ाया।

यही रुख किसानों की आत्महत्या को लेकर भी रहा। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक 1997 से देश में अब तक दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। 1997 से 2008 तक 12 सालों में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक,मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में ही 1,22,823 किसानों ने खुदकुशी की। 2008 में ही 16,196 किसानों ने मौत को गले लगाया था। औसतन हर एक घंटे में दो किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ये कृषि प्रधान कहे जाने वाले देश की खौफनाक तस्वीर है। लेकिन प्रधानमंत्री के सामने ये सवाल उठाने की हिम्मत किसी पत्रकार की नहीं हुई। शायद पत्रकारों ने मान लिया है कि भारत जिस आर्थिक राह पर है, वो सही है और उसमें किसानों के लिए खुदकुशी ही नियति है।

ये भी हो सकता है कि जो पत्रकार ऐसे सवाल पूछ सकते थे, उन्हें जानबूझकर मौका नहीं दिया गया। फिर भी 53 सवालों के जरिये जो तस्वीर सामने आई है वो बेहद निराशाजनक है। वैसे ज्यादातर पत्रकारों का जोर रसीली हेडलाइन पाने पर था और वे इसमें कामयाब रहे। प्रधानमंत्री ने कह दिया कि वे राहुल गांधी के लिए प्रधानमंत्री पद छोड़ने को तैयार हैं। सारे अखबारों और न्यूज चैनलों में यही हेडलाइन बनी। ये अलग बात है कि इस 'महान' जानकारी के लिए इतना समय और संसाधन बर्बाद करने की जरूरत नहीं थी। ये बात तो देश के किसी भी हिस्से में, चायखाने में बैठा शख्स छूटते ही बता सकता है। अगर मनमोहन सिंह, सपने में भी कोई दूसरा जवाब देने की स्थिति में होते, तो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर कभी नहीं बैठाए जाते।

जाहिर है, प्रधानमंत्री की प्रेस कांफ्रेंस पत्रकारिता के तेजी से बदल रहे सरोकारों का सुबूत है। वरना, पत्रकार हमेशा गिलास को आधा भरा बताएगा ताकि इसे पूरा भरने का उपक्रम तेज हो सके। ये नकारात्मक सोच नहीं, जनपक्षधरता की कसौटी है। लेकिन प्रेस कांफ्रेंस से साफ था कि देश की बहुसंख्यक जनता पत्रकारों की चिंता से बाहर हो चुकी है। पत्रकारों की बड़ी जमात खुद 'इलीट' का हिस्सा बनने को बेकरार है और वैसे ही सोचने की आदत डाल रही है। ये अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसी बात है। पत्रकारों को भूलना नहीं चाहिए कि 47 करोड़ लोगों की परेशानी को वे आवाज नहीं देंगे, तो उनका लोकतंत्र पर भरोसा नहीं बचेगा। इतनी बड़ी आबादी का असंतोष भड़का तो लोकतंत्र भी नहीं बचेगा। और लोकतंत्र नहीं बचेगा तो पत्रकारिता भी नहीं बच पाएगी।

लेकिन इन पत्रकारों को कौन याद दिलाए कि पैर पर कुल्हाड़ी मारने वाले हमेशा कालिदास ही नहीं बनते, कई बार चलने-फिरने की ताकत भी खो देते हैं, हमेशा के लिए।

14 मई, 2010

बोली का जवाब गोली से देंगे मि.चिदंबरम!

गृह मंत्रालय ने उन बुद्धिजीवियों और स्वयंसेवी संगठनों को भुगतने की धमकी दी है जिनके बयानों या बातों से माओवादियों को 'बल' मिलता है। यानी माओवादियों के सशस्त्र विद्रोह का कोई माकूल तोड़ निकालने में अब तक नाकामयाब रही सरकार उन बुद्धिजीवियों का मुंह बंद कर देना चाहती है जो उसकी नीतियों में खामी गिनाने से हिचकते नहीं हैं। गृह मंत्रालय ने उनके खिलाफ यूएपीए एक्ट के तहत कार्रवाई करने की धमकी दी है। इसमें दस साल तक की सजा हो सकती है।

वैसे, सरकार के माओवाद विरोधी अभियान को तमाम राजनीतिक पार्टियों का ही नहीं, बौद्धिकों के एक बड़े तबके का भी समर्थन प्राप्त है। ये बौद्धिक 'लाल गलियारे' में थलसेना से लेकर वायुसेना तक के इस्तेमाल के हिमायती हैं। जाहिर है, इन बुद्धिजीवियों में न कोई आदिवासी समाज से आता है और न ही इन पिछड़े इलाकों से उनका नाता रिश्ता है। इसीलिए बमबारी से होने वाली भयानक तबाही भी उनके लिए को मुद्दा नहीं है। ऐसे बुद्दिजीवी सरकार के दुलारे हैं।

सरकार को समस्या उन बुद्धिजीवियों से है जो माओवादियों के खात्मे के नाम पर आदिवासियों को उजाड़े जाने के अभियान पर सवाल उठा रहे हैं। जो कह रहे हैं कि जल-जंगल-जमीन बचाने की आदिवासियों की लड़ाई तब से चल रही है जब माओ का जन्म भी नहीं हुआ था। इसलिए अगर माओवादी आदिवासियों का इस्तेमाल कर रहे हैं तो आदिवासी भी माओवादियों का इस्तेमाल कर रहे हैं।

समाजिक विकासक्रम के लिहाज से भारत के मूल निवासी आदिवासी ही हैं। कृषि अर्थव्यवस्था और राजतंत्रों के विकास के साथ ही आर्यों से उनका संघर्ष तेज हुआ। प्राचीन ग्रंथों में जिन्हें वेद विरोधी राक्षस कहा गया है दरअसल, वे आज के आदिवासियों के पुरखे थे। वे न वर्णव्यवस्था में विश्वास करते थे न आर्यों के देवमंडल को ही पूजते थे। उनके अपने ही देवता और रीत-रिवाज थे और जीवन संस्कृति पूरी तरह प्रकृति पर आधारित थी । पौराणिक कहानियां जो भी कहें, लेकिन इसमें शक नहीं कि वे पूरी तरह मनुष्य थे और समय-समय पर आर्यों से वैवाहिक संबंध में भी बंधते थे। आखिर राक्षस राज रावण आर्य ऋषि पुलस्त्य का नाती था। महाभारत में भीम के हिडिम्बा से विवाह का जिक्र है जिसका पुत्र घटोत्कच कर्ण को ब्रह्मास्त्र चलाने के लिए मजबूर करता है ताकि अर्जुन की रक्षा हो सके। जनमेजय के नागयज्ञ को रोकने वाले आस्तीक ऋषि भी जरत्कारु ऋषि और नागराज वासुकि की बहन के पुत्र थे। ऐसे संबंध तो मनुष्यों के बीच ही संभव हो सकते हैं।

साफ है कि आदिवासी हिंदू धर्म के विकास से पहले से भारत में निवास करते थे। उनके अपने साम्राज्य थे और देश में केंद्रीय सत्ता स्थापित करने वाले सम्राटों से उनका सतत संघर्ष चलता रहता था। वे अपनी आजादी और संस्कृति बचाने के लिए लगातार लड़ते रहे। अग्रेजों के जमाने में भी ये सिलसिला जारी रहा। 1855 का संथाल विद्रोह, 1890 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए 'उलगुलान' और 1911 का बस्तर विद्रोह इसकी मिसाल है।

हजारों साल के दमन के खिलाफ विद्रोह की इस परंपरा को इस आशा से स्थगित किया गया था कि आदिवासियों को बेहतर जिंदगी नसीब होगी। भारतीय हॉकी टीम के कैप्टन और 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक में भारत को पहला स्वर्णपदक दिलाने वाले जयपाल सिंह बाद में बतौर आदिवासी नेता संविधान सभा के सदस्य बने थे। 13 सितंबर 1946 को संविधान सभा में उन्होंने कहा था- "अगर भारतीय जनता के किसी समूह के साथ सबसे बुरा व्यवहार हुआ है तो वो मेरे लोग (आदिवासी) हैं। पिछले छह हजार सालों से उनके साथ उपेक्षा और अमानवीय व्यवहार का ये सिलसिला जारी है। मैं जिस सिंधु घाटी सभ्यता की संतान हूं, उसका इतिहास बताता है कि बाहरी आक्रमणकारियों ने हमें जंगलों में रहने के लिए मजबूर किया। हमारा पूरा इतिहास बाहरियों के शोषण और कब्जे से भरा है जिसके खिलाफ हम लगातार विद्रोह करते रहे। बहरहाल, मैं पं.नेहरू और आप सब के इस वादे पर भरोसा करता हूं कि हम एक नया अध्याय शुरू कर रहे हैं। ऐसा भारत बनाने जा रहे हैं जहां सभी को अवसर की समानता होगी और किसी की भी उपेक्षा नहीं की जाएगी। "

हालात बताते हैं कि कैप्टन जयपाल सिंह की उम्मीदें गलत साबित हुईं । होना तो ये चाहिए था कि आदिवासियों की शिक्षा, दीक्षा और स्वास्थ्य के लिए विशेष योजनाएं बनतीं। लेकिन आदिवासी बहुल क्षेत्रों में विकास योजनाओं के नाम पर उन्हें उजाड़े जाने का अभियान शुरू किया गया। कभी बांध के नाम पर, कभी सड़कों के नाम पर तो कभी उद्योग के नाम पर, अब तक एक करोड़ से ज्यादा आदिवासी विस्थापित किए जा चुके हैं। जिन्होंने हजारों साल से जंगलों को बढ़ाया-संभाला, उन आदिवासियों को नए कानूनों के तहत जंगलों का दुश्मन करार दिया गया। उनकी जीवन स्थितियों को देखकर कोई भी कह सकता है कि वे सरकार की चिंता से पूरी तरह बाहर हैं।

लेकिन जो लोग यमुना की लाश पर कामनवेल्थ का उल्लासमंच सजा रहे हैं, और बोतलबंद पानी को सभ्य होने की निशानी मानते हैं, वे नहीं समझ सकते कि नदियों के मरने और जमीन से उजाड़े जाने का अर्थ क्या है। आदिवासियों के लिए जल, जंगल और जमीन का मसला जीवन-मरण से जुड़ा है। माओवादियों के अराजक सैन्यवादी अभियान के ताकतवर होने के पीछे इसी आदिवासी आक्रोश की गूंज है। वे इस लिहाज से सफल भी हैं कि मजाक में ही सही गरीबों का सवाल उठाने वालों को माओवादी कहने का चलन बढ़ रहा है। ये गंभीर मसला है कि जब गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की तादाद दस फीसदी बढ़कर 37.5 फीसदी हो गई हो, तो मुख्यधारा के राजनीतिक दलों से गरीबों का सवाल गायब है। आदिवासियों की समस्या तो दूर की बात है। देखा जाए तो आर्थिक मोर्चे पर विकल्प का स्वप्न भी गायब है। माओवादी मौका पाकर इसी शून्य को भरने में लगे हैं।

ऐसे में सरकार चाहती है कि बुद्धिजीवियों की सारी चिंता माओवादी हिंसा तक सीमित रहे। इसकी तह में जाना माओवाद को समर्थन करना होगा। सरकार भूल जाती है कि कुछ समय पहले रिटार्यर्ड जस्टिस पी.बी.सावंत ने आदिवासियों की बदहाली की तरफ ध्यान खींचने के लिए माओवादियों को धन्यवाद दिया था। हाल ही में संघ की पाठशाला में दीक्षित हुए गोविंदाचार्य से लेकर योगगुरु रामदेव तक ने माओवादियों को महज आतंकवादी मानने से इंकार किया है। और कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह भी कुछ इसी अंदाज में बोल रहे हैं। आखिर, चिदंबरम किस-किस पर यूएपीए लगवाएंगे।

वैसे, नीयत साफ हो तो माओवाद की समस्या से निपटना मुश्किल नहीं है। जिस संविधान को उखाड़ फेंकने की कोशिश का आरोप लगाते हुए चिदंबरम एंड टीम माओवादियों को देश के सामने सबसे बड़ा खतरा बता रही है, हल भी उसी संविधान में है। संविधान निर्माताओं ने एक समतामूलक समाज का आदर्श रखा था जहां सभी वंचितों को पूरा न्याय मिलेगा। तो संविधान का सम्मान करते हुए सरकार घोषित करे कि आदिवासियों को उनकी जमीन से उजाड़ा नहीं जाएगा। विकास का पहला पत्थर तभी लगेगा जब विस्थापित शख्स का घर बन जाएगा। ऐसा करके वो बड़ी आसानी से माओवादी प्रचार की हवा निकाल सकती है।

लेकिन सरकार और उसके सुर में सुर मिला रहे बुद्धिजीवियों को 43 करोड़ गरीबों की समस्या से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए वे हिंसा के तर्क से मूल मुद्दे को दफनाना चाहते हैं। आखिर उनके सपनों का देश अमेरिका मूल निवासियों के रक्त के गारे से ही गढ़ा गया है। ऐसा लगता है कि कुछ हजार बंदूकों के दम पर बमुश्किल दो फीसदी गांवों को नियंत्रण में लेने में कामयाब माओवादियों को देश के सामने सबसे बड़ा खतरा बताना किसी षड़यंत्र का नतीजा है। माओवाद विरोधी अभियान के निशाने पर वे सारे हैं जो गरीबी बढ़ाने वाली नीतियों और देश की खनिज संपदा की लूट पर सवाल उठा रहे हैं।

काश 2 अक्टूबर को राजघाट पर फूल चढ़ाने के बाद पी.चिदंबरम वहीं सड़क की दूसरी ओर गांधी शांति प्रतिष्ठान पर लगे बोर्ड को पढ़ पाते। उस पर लिखा है-आर्थिक समता के बिना अहिंसक स्वराज एक असंभव कल्पना है। बताने की जरूरत नहीं कि ये विचार गांधी जी का है, माओ का नहीं।

(अभी-अभी पता चला है कि सोनिया गांधी ने 'कांग्रेस संदेश' के संपादकीय में मान है कि माओवाद की समस्या की जड़ देश के असमान विकास में है। पता नहीं, चिदंबरम महोदय, 'मैडम' को क्या जवाब देंगे। )

17 अप्रैल, 2010

मारो माओवादियों को..

मैं गृहमंत्री पी.चिदंबरम और उन तमाम विद्वानों की राय से पूरी तरह सहमत हूं जो माओवाद नाम की बीमारी से देश को मुक्त कराने के लिए कड़ी से कड़ी कार्रवाई करने के हक में हैं। बल्कि, मैं तो कहता हूं कि जमीन पर तोपें तैनात की जाएं और हवा में लड़ाकू विमान..ताकि माओवादियों पर ऐसी बमबारी हो कि उनके चिथड़े भी न बीने जा सकें।

दिल तो ये भी कहता है कि दंडकारण्य के जंगलों में परमाणु बम भी छोड़ना पड़े तो हिचकना नहीं चाहिए। आखिर देश कब तक इन अराजक, हिंसक लोगों को बरदाश्त कर सकता है। इसके साथ ही आदिवासियों का सवाल उठाकर माओवादियों की हिमयात करने वालों को भी जेल में डाल दिया जाना चाहिए। इस लिस्ट में पहला नाम अरुंधति राय का होना चाहिए। ये घटिया राइटर और पिटी हुई एक्टर, जब से माओवादी हत्यारों के साथ फोटो खिंचाकर आई है, अपने को बड़ा काबिल समझने लगी है। बताइए भला..हिंसा का समर्थन कर रही है..। ऐसे बुद्धिजीवी देश को अस्थिर करने वाली साजिश में शामिल हैं और यूपीए सरकार को उनके खिलाफ यूएपीए (अनलॉफुल एक्टिविटी प्रेवेन्शन एक्ट) का तुरंत इस्तेमाल करना चाहिए।

मैं ये बात मानने को तैयार नहीं हूं कि माओवादियों को आदिवासियों का समर्थन है। मुझे लगता है कि माओवादियों को आईएसआई ने हथियार दिए हैं जिनके बल पर उन्होंने आदिवासियों को बंधक बना लिया है। हो न हो, नेपाल के माओवादी भी उनकी मदद के लिए आ गए हैं। नेपाल में तो फिलहाल उनके पास कोई काम है नहीं, तो पशुपति से तिरुपति तक लाल गलियारा बनवाने में जुट गए हैं।

मुझे पूरा भरोसा है कि जब देश का पक्ष,विपक्ष, मीडिया, सब एक सुर में माओवाद के खिलाफ बोल रहे हैं तो उन्हें कुचलने में कोई खास मुश्किल नहीं आएगी। इस नासूर से देश को मुक्त कराना ही होगा। जल्द से जल्द..

फिर? फिर क्या....देश चैन की सांस लेगा..और सरकार एलान करेगी कि गरीबी की रेखा से नीचे रहने वाली देश की 37 फीसदी आबादी की बदहाली दूर करना उसकी प्राथमिकता होगी...किसी भी वनवासी या आदिवासी को उनकी जमीन से उजाड़ा नहीं जाएगा। जल, जंगल और जमीन पर उनका सदियों पुराना हक बना रहेगा। इन इलाकों में घुस आईं तमाम बहुराष्ट्रीय खनन कंपनियों को बाहर किया जाएगा ताकि जंगल और पर्यावरण की रक्षा हो सके। सरकार उनके साथ हुए करार यानी एमओयू को सार्वजनिक करेगी। बहुत जरूरी होने पर ही किसी को उसकी जगह से हटाया जाएगा..और विकास का पहला पत्थर तभी लगेगा जब उजाड़े गए लोगों का घर बन जाएगा। यही नहीं..गंगा-यमुना सहित तमाम नदियों को बचाने के लिए बड़े बांधों की नीति बदली जाएगी। सरकार जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिए होगी...और जनता का मतलब देश की 90फीसदी आबादी से होगा। यानी सरकार अंतिम आदमी के लिए होगी....

क्या कहा..? मैं माओवादियों की तरह बात कर रहा हूं...मजाक छोड़िए जनाब..उन्हें तो खत्म किया जा चुका है...मैं खुद इसके हक में नारे लगा रहा था...हटो..हटो...अरे दरोगा जी..क्या कर रहो हो...क्या?.. मुझ पर यूएपीए लग गया है...अरे मैं तो अंतिम आदमी की बात कर रहा था,...अरे कोई इन्हें समझाओ..अंतिम आदमी वाली बात माओ ने नहीं, गांधी ने कही थी....अरे, कोई है...।

27 मार्च, 2010

मरियल क्लर्क, थ्रिल और गलता पत्थर

(अमर होने की चाह के बजाय जिंदगी की गति के साथ चलने के थ्रिल को बार-बार महसूस करने की गरज से लिखी इस लंबी कहानी उर्फ लघु उपन्यास की यह समापन किस्त है। इसे हजार-पांच सौ प्रतियों वाली किसी पत्रिका में प्रकाशित कराने के बजाय नेट पर खास मकसद से जारी किया गया है। इरादा है कि हिंदी के प्री-पेड आलोचकों, समीक्षकों और साहित्यबाजों के बजाय इसे सीधे पाठकों के पास ले जाया जाए और उनकी राय जानी जाए। आप सबसे आग्रह है कि इस कहानी पर अपनी राय बेधक ढंग से लिखें बिना इस बात की परवाह किए कि वह पहले कहीं देखी किसी स्वनामधन्य की लिखावट के आसपास है या नहीं। क्या पता बिना साहित्यिक विवादों की झालर, आलोचना शास्त्र के सलमे सितारों से रहित, इन या उन "जी" के दयनीय दबावों से मुक्त सहज प्रतिक्रियाएं हिंदी के नए लेखकों की रचनाओं के मूल्यांकन का कोई नया दरवाजा खोल दें। आपके नजरिए को अलग से प्रकाशित किया जाएगा।)अनिल

भेजने का पता हैः oopsanil@gmail.com

केएनवीएएनपीः समापन किश्त
कोई तीन महीने बाद, फिर बीमा कंपनी का वही मरियल क्लर्क, काला चश्मा लगाए अखबार के दफ्तर की सीढ़ियों पर नजर आया। इस बार फिर पक्की खबर लाया था कि प्राइवेट डिटेक्टिव एजेंसी की जांच रिपोर्ट आ गई है कि पान मसाला नहीं, डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी ही अपनी पत्नी की आत्महत्या के जिम्मेदार हैं। लगातार मारपीट, प्रताड़ना के तारीखवार ब्यौरे वह लवली त्रिपाठी की डायरियों की फोटो प्रतियों में समेट लाया था। इसके अलावा वह यह खबर भी लाया था कि डीआईजी त्रिपाठी डेढ़ महीने बाद, अपने से काफी जूनियर एक महिला आईपीएस अफसर से शादी करने जा रहे हैं। इन खबरों की स्वतंत्र पड़ताल कराई जाने लगीं।

उन दिनों अखबार प्रकाश को बेहद उबाऊ लगने लगा। हर सुबह खोलते ही काले अक्षर एक दूसरे में गड्डमड्ड अपनी जगहों से डोलते हुए नजर आते थे, जिसकी वजह से सिरदर्द करने लगता था और वह अखबार फेंक देता था। इसकी एक वजह तो यही थी कि जिन घटनाओं को खुद उसने देखा और भोगा होता था, वे छपने के बाद बेरंग और प्राणहीन हो जाती थी। किसी जादू से उनके भीतर की असल बात ही भाप की तरह उड़ जाती थी। पहली लाइन पढ़ते ही वह जान जाता था कि असलियत कैसे शब्दों की लनतरानियों में लापता होने वाली है। रूटीन की बैठकों में उसे रोज झाड़ पड़ती थी कि वह अखबार तक नहीं पढ़ता इसीलिए उसे नहीं पता रहता कि शहर में क्या होने वाला है और प्रतिद्वंदी अखबार किन मामलों में स्कोर कर रहे हैं। दरअसल वह इन दिनों अपनी एक बहुत पुरानी गुप्त लालसा के साकार होने की कल्पना से थरथरा रहा था। यह लालसा थी नकचढ़ा, अहंकार से गंधाता पत्रकार नहीं सचमुच का एक रिपोर्टर होने की। ऐसा रिपोर्टर जिसकी कलम सत्य के साथ एकमेक होकर धरती में कंपन पैदा कर सके।

उसके पास इतने अधिक कागजी सबूत, अनुभव, फोटोग्राफ और बयान हो गए थे कि अब और चुपचाप सब कुछ देखते रह पाना मुश्किल हो गया था। अब वह जब चाहे जब वेश्याओं को हटाने वालों के पाखंड का भांडा फोड़ सकता था। यही सनसनी उसके भीतर लहरों की तरह चल रही थी। सीधे सपाट शब्दों में, उसने रातों को जागकर कंपोज कर डाला कि कैसे पैसा, दारू, देह नहीं मिलने पर वेश्याओं को बसाने वाले लोकल नेता उनके खिलाफ हुए। कैसे निधि कंस्ट्रक्शन कंपनी ने उनके गुस्से को अपने पक्ष में इस्तेमाल कर लिया। कैसे डीआईजी ने अपनी छवि बनाने के लिए धंधा बंद कराया और बाद में वे कमिश्नर के साथ कंस्ट्रक्शन कंपनी के एजेंट हो गए। कंस्ट्रक्शन कंपनी कैसे इससे बड़ा और आधुनिक वेश्यालय खोलने जा रही है। वेश्याओं को हटाने से कैसे यह धंधा और जगहों पर फैलेगा। कैसे डीआईजी के पिता और कमिश्नर ने धार्मिक भावनाओं को भड़काया और कैसे हर-हर महादेव के उद्घघोष के साथ विरोध और वेश्यावृत्ति दोनों एक साथ घाटों पर चल रहे हैं। उसका अनुमान था कि यह सीरीज छपते-छपते बीमा कंपनी के जासूसों की जांच रपट का भी सत्यापन हो जाएगा और उसके छपने के बाद सारे पाखंड के चिथड़े उड़ जाएंगे। इसके बाद शायद सचमुच वेश्याओं के पुनर्वास पर बात शुरू हो।

प्रकाश ने दो दिनों तक अपने ढंग से सभी छोटे-बड़े संपादकों को टटोला और आश्वस्त हो गया कि, उसकी रिपोर्टिंग का वक्त आ गया है। तीसरे दिन उसने रिपोर्ट, तस्वीरें, रजिस्ट्री के कागज, ले-आउट प्लान और तमाम सबूत ले जाकर स्थानीय संपादक की मेज पर रख दिए। पूरे दिन वे उन्हें पढ़ते, जांचते और पूछताछ करते रहे। शाम को आकर उन्होंने उसकी पीठ थपथपाई, ‘तुम तो यार, पुराने रंडीबाज निकाले! बढ़िया रिपोर्ट हैं, हम छापेंगे।’
यह सचमुच दिल से निकली तारीफ थी।

अगले दिन अखबार की स्टियरिंग कमेटी की बैठक हुई क्योंकि इस मसले पर पुराना स्टैंड बदलने वाला था। संपादक का फैसला हो चुका था, बाकी विभागों से अब औपचारिक सहमति ली जाने की देर थी। डेढ़ घंटे की बहस के बाद अखबार के मैनेजर ने संपादक से पूछा, ‘मड़ुवाडीह में कुल कितनी वेश्याएं हैं?

‘करीब साढ़े तीन सौ’।

‘इनमें से कितनी अखबार पढ़ती हैं?’

इसका आंकड़ा किसी के पास नहीं था। उसने फैसला सुनाने के अंदाज में कहा, आज की तारीख में सारा शहर हमारे अखबार के साथ है। कुल साढ़े तीन सौ रंडिया जिनमें से कुल मिलाकर शायद साढ़े तीन होंगी जो अखबार पढ़ती हों, ऐसे में यह सब छापने का क्या तुक है। अगर कोई बहुत बड़ा और नया रीडर ग्रुप जुड़ रहा होता, तो यह जोखिम लिया भी जा सकता था।

संपादक जो ध्यान से उसका गणित सुन रहे थे, हंसे। उन्होंने कहा, सवाल वेश्याओं की संख्या का नहीं है मैनेजर साहब! वे अगर तीन भी होती तो काफी थी। उनके बारे में जो भी अच्छा-बुरा छपता है। उसे उनका विरोध करने वाले भी पढ़ते हैं। बल्कि उनकी ज्यादा दिलचस्पी रहती है।

मैनेजर ने पैंतरा बदला, अब आप ही बताइए कि अपने स्टैंड से इतनी जल्दी कैसे पलट जाया जाए। कल तक आप ही छाप रहे थे कि वेश्याओं की वजह से लोगों की बहू-बेटियों का घर में रहना तक मुश्किल हो गया है और डीआईजी धंधा बंद कराकर बहुत धर्म का काम कर रहा है। अब जब मुद्दा आग पकड़ चुका है तो उस पर पानी डाल रहे हैं। आप बताइए अखबार की क्रेडिबिलिटी का क्या होगा। संपादक ने समझाने की कोशिश की कि क्रेडिबिलिटी एक दिन में बनने-बिगड़ने वाली चीज नहीं है। लोग थोड़ी देर के लिए भावना के उबाल में भले आ जाएं लेकिन अंतत: भरोसा उसी का करते हैं जो उनके भोगे सच को छापता है। पहले ही दिन कोई कैसे जान सकता था कि मड़ुंवाडीह की असली अंदरूनी हालत क्या है। अब हमें जितना पता है, उतना छापेंगे। हो सकता है कल कुछ और नया पता चले उसे भी छापेंगे। अगर हमने नहीं छापा तो हमारी क्रेडिबिलिटी का कबाड़ा तो तब होगा जब लोग देखेंगे कि कंस्ट्रक्शन कंपनी मंडुवाडीह में इमारतें बना रही है।

गुणाभाग और अंततः जिंदगी

मामला उलझ गया कुछ तय नहीं हो पाया। मैनेजर ने डाइरेक्टरों से बात की। डाइरेक्टरों ने प्रधान संपादक को तलब किया। प्रधान संपादक ने फिर बैठक बुलाई। प्रधान ने स्थानीय संपादक को वह समझाया जो वे जानते-बूझते हुए नहीं समझना चाहते थे। उन्होंने उन्हें बताया कि इस इलाके के जितने बिल्डर, नेता, व्यापारी अफसर हैं निधि कंस्ट्रक्शन कंपनी के साथ हैं और चाहते हैं कि जल्दी से जल्दी वह बस्ती वहां से हटे ताकि काम शुरू हो। उन्होंने जनता को भी अपने पक्ष में सड़क पर उतार दिया है। अखबार एक साथ इतने लोगों का विरोध नहीं झेल सकता। खुद हमारे अखबार के इस इलाके के फ्रेंचाइजी यानि जिनकी बिल्डिंग में हम किरायेदार हैं, जिनकी मशीन पर हमारा अखबार छपता है, इस कंस्ट्रक्शन कंपनी के पार्टनर हैं। अखबार के कई शेयर होल्डरों ने भी इस कंपनी में पैसा लगा रखा है। वे सभी अपनी मंजिल के एकदम करीब हैं, और कहां हैं आप! खुद डाइरेक्टर नहीं चाहते कि उनकी राह में कोई अड़ंगा डाला जाए। नौकरी प्यारी है तो हमें, आपको दोनों को चुप रहना चाहिए, फिर कभी देखा जाएगा।

स्थानीय संपादक को निकालने की पूरी तैयारी हो चुकी थी, इसलिए उन्हें सबकुछ बहुत जल्दी समझ में आ गया। स्टियरिंग कमेटी की बैठक में प्रधान संपादक ने भाषण दिया, सभी जानते हैं कि सरसों के पत्तों पर और बैंगन में अल्लाह अपना हस्ताक्षर नहीं करते, दो सिर वाले विकृत बच्चे देवता नहीं होते, खीरे में से भगवान नहीं निकलते, गणेश जी दूध नहीं पीते। यह सब सफेद झूठ है लेकिन हम छापते हैं क्योंकि जनता ऐसा मानती है और उन्हें पूजती है। हम साढ़े तीन सौ वेश्याओं के लिए बीस लाख जनता से बैर नहीं मोल ले सकते। बाजार में हम धंधा करने बैठे हैं। हम वेश्याओं का पुनर्वास कराने वाली एजेंसी नहीं है। लोकतंत्र में जनता सर्वोपरि है इसलिए उसकी भावनाओं का आदर करना ही होगा।
मैनेजर मुस्कराया।
प्रधान संपादक ने स्थानीय संपादक को मुस्करा कर देखा, ‘हम अखबार किसके लिए निकालते हैं?
‘जनता के लिए’ बेजान हंसी हंसते हुए उन्होंने कहा।

स्थानीय संपादक ने प्रकाश से कहा, इस समय ऊपर के लोगों में नाराजगी बहुत है इसलिए थोड़ा माहौल ठंडा होने दो तब देखा जाएगा। वह जानता था कि धरती हिलाने का उसका अरमान सदा के लिए धरती में ही दफन किया जा चुका है।

उसी समय एक विचित्र बात हुई। जलसमाधि का इरादा लिए गंगा में फिरने वाला युवक एक दिन गांजे के नशे में नाव से लड़खड़ाकर नदी में गिर गया। गले में बंधी पत्थर की पटिया के पीछे वह कटी पतंग की तरह लहराता हुआ नदी की पेंदी में बैठा जा रहा था। बड़ी कोशिश करके जल पुलिस के गोताखोरों ने उसे निकाला। पुराना पत्थर काटकर उसकी जगह छोटा पत्थर बांधा गया। उसी दिन से अपने आप उसके गले में बंधे पत्थर का आकार घटने लगा। जैसे चंद्रमा घटता है उसी तरह पहले सिल, फिर चौकी, फिर माचिस की डिबिया के आकार का होता गया। धीरे-धीरे घटते हुए वह एक दिन ताबीज में बदलकर थम गया।

उस क्रमश: घटते हुए रहस्यमय पत्थर की तस्वीरें, प्रकाश के पास मौजूद हैं।

अभी वेश्याएं मड़ुवाडीह से हटी नहीं है। अब वह युवक नाव में नहीं रहता। वह गाहे बेगाहे अपने गले का ताबीज दिखाकर अपना संकल्प दोहराता रहता है कि वह एक दिन काशी को वेश्यावृत्ति के कलंक से मुक्ति दिलाकर मानेगा। लोग उसे प्रचार का भूखा, नौटंकीबाज कहते हैं और उस पर हंसते हैं। प्रकाश को लगता है कि वैसा ही एक ताबीज उसके गले में भी है, जो हमेशा दिखाई देता है। उसे वह ताबीज अक्सर अपनी कमीज के बटन में उलझा हुआ दिख जाता है। उसे भी लोग धंधेबाज, दलाल और एक पौवा दारू पर बिकने वाला पत्रकार कहते हैं। उस पर और उसके अखबार पर हंसते हैं।

प्रकाश सोचता है कि अब छवि से जल्दी से शादी कर ले। माना कि सच लिख नहीं सकता लेकिन उसे अपनी जिन्दगी में स्वीकार तो कर सकता है।
(समाप्त)

26 मार्च, 2010

तितलियों के पंखों की धार

केएनवीएएनपी-16
बदनाम बस्ती में पहले भूखे भंवरे आते थे। तीन महीने तक खिचड़ी खाने के बाद अब भूखी तितलियां दम साधकर फूलों की तरफ उड़ने लगीं, उनके रहस्यमय पंखों के रास्ते में जो भी आया, कट गया।

शाम के धुंधलके में जब गाड़ियों का धुंआ मड़ुंवाडीह की बदनाम बस्ती के ऊपर जमने लगता, सजी-धजी तितलियां एक-एक कर बेहिचक बाहर निकलतीं। सिपाहियों के तानों का मुस्कानों से जवाब देते हुए वे सड़क पार कर जातीं। वहां पहले से खड़े उनके मौसा, चाचा, दुल्हाभाई या भाईजान यानि दलाल उन्हें इशारा करते और वे चुपचाप एक-एक के पीछे हो लेतीं। वे उन्हें पहले से तय ग्राहकों के पास पहुंचा कर लौट आते थे। जिनके कस्टमर पहले से तय नहीं होते थे, वे अतृप्त, कामातुर प्रेतों की तलाश में सड़कों और घाटों पर चलने लगतीं। औरतों को मुड़-मुड़ कर देखने और उनका पीछा करते हुए भटकने वालों को वे ठंडे, सधे ढंग से इतना उकसाती कि वे घबराकर भाग जाते या उन्हें रोककर तय तोड़ करने लगते। जो थोड़ा तेज तर्रार और आत्मविश्वासी थीं वे होटलों और सिनेमाहालों के बाहर कोनों में घात लगातीं।

दोयम दर्जे की समझी जाने वाली अधेड़ औरतें रात गए बस्ती के दूसरे छोर से झुंड में निकलतीं और गांव के पिछवाड़े खेतों से होते हुए हाई-वे पर निकल जातीं। वहां ओस से भीगे, पाले से ऐंठते पैरों को कागज, प्लास्टिक और टायर जलाकर सेंकने के बाद वे एक-एक कर ढाबों पर खड़ी ट्रकों की कतार में समा जातीं। भोर में जब वे लौटतीं लारियों में, चाय की दुकानों की बेंचों और मकानों के चबूतरों पर ओवरकोट में लिपटे, पुलिस वाले आराम से सो रहे होते। पहरा देने वालों का हफ्ता तय कर दिया गया था जिसे दलाल और भड़ुए एक मुश्त पहुंचा आते थे।


एक दोपहर प्रकाश घाट पर सलमा को देखकर चक्कर खाकर गिरते-गिरते बचा। वह नीले रंग का स्कर्ट और सफेद कमीज पहने, छाती पर एक मोटी किताब दबाए, एक पंडे की खाली छतरी के नीचे बैठी छवि के पेट पर लेटी, नदी को देख रही थी। छवि का पेट थोड़ा और उभर आया था और चेहरे पर लुनाई आ गई थी। सलमा की बांह पर हाथ रखे वह जितनी शांत और सुंदर लग रही थी, उतना ही वीभत्स, हाहाकार प्रकाश के भीतर मचा हुआ था।....तो मेरा पूर्वाभास सही था। उसे मडुवाडीह में उस लड़की के बलात्कार का पता था। शायद वह वहां के बारे में मुझसे कहीं ज्यादा जानती है, उसने सोचा। उसका हाथ कैमरे पर गया कि वह दोनों की एक फोटो उतार ले लेकिन फिर वह विक्षिप्त जैसी हालत में लड़खड़ाता, भरसक तेज कदमों से दूसरे घाट की ओर चल पड़ा।

सामने जलसमाधि लेने वाले युवक के आगे पीछे, अजीबो-गरीब अंतर्राष्ट्रीय बेड़ा गुजर रहा था। और लोगों की तरह सलमा भी नाव पर घंटे घड़ियाल बजाते, नारे लगाते लोगों को देखकर हाथ हिला रही थी।

कोई दो घंटे बाद सलमा उसे फिर दिखी। इस बार वह अकेली, छाती पर किताब दबाए भटक रही थी। वह उससे बहुत कुछ पूछना चाहता था, लपक कर पास भी गया। लेकिन उसने किताब की ओर इशारा किया, आज कल तुम्हारे स्कूल में कुरान पढ़ाई जा रही है क्या?

उसने कुरान को पलट दिया और अपनी चुटिया को ऐंठते हुए हंसी। तुनक कर धीमे से कहा, जो मुझे ले जाएगा, वह किताब को नहीं पढ़ेगा... अच्छा अब आप जाइए। यहां मत खड़े होइए, बात करनी हो तो वहीं दिन में आइएगा। वहां अब रात में कोई नहीं मिलता। अब प्रकाश को दिखा कि नीचे घाट की सीढ़ियों पर, नदी किनारे उसी जैसी पांच-सात और लड़कियां स्कर्ट, सलवार सूट, सस्ती जींस पहने घूम रही थीं। उनकी बुलाती आंखे, रूखे बाल, ज्यादा ही इठलाती चाल और किताबें पकड़ने का ढंग, कोई भी गौर करता तो जान जाता कि वे स्कूल-कालेज की लड़कियां नहीं हैं। जो लोग उनके खिलाफ इतने ताम-झाम से समारोहपूर्वक अपना गुस्सा उगल रहे थे, उन्हीं के बीच भटकती हुई वे कस्टमर पटा रही थीं। प्रकाश उनके दुस्साहस पर दंग था। शायद उन्हें सचमुच की हालत का पता नहीं था इसीलिए वे सड़क पर हुंकारते ट्रकों के बीच मेढ़कों की तरह फुदक रही थीं। अगर लोगों को पता चल जाता कि वे वेश्याएं है तो भीड़ उनकी टांगे चीर देती और झुलाकर नदी में फेंक देती। सलमा ने पलटकर देखा प्रकाश वहीं खड़ा, कैमरा फोकस कर रहा था। उसने पूछा ‘आप अखबार में हम लोगों को नगर-वधू क्यों लिखते हैं?’

प्रकाश ने कैमरे में देखते हुए ही कहा, ‘क्योंकि तुम किसी एक की नहीं, सारे नगर की बहू हो, तुम यहां किसी खास आदमी को तो खोज नही रही हो, जो मिल जाए उसी के साथ चली जाओगी।’

‘अच्छा तब मेयर साहब को नगर प्रमुख क्यों, नगर पिता क्यों नहीं लिखते और उनसे कह दो कि आकर हम लोगों के साथ बाप की तरह रहें।’

प्रकाश ने खिलखिलाती हुई उस वेश्या छात्रा को देखा। उसे अचानक लालबत्ती और रेडलाइट एरिया का फर्क नए ढंग से समझ में आ गया। मेयर पुरुष है, संपन्न है इसलिए लालबत्ती में घूम रहे हैं। तुम गरीब लड़की हो इसलिए अपना पेट भरने के लिए मौत के मुंह में घुसकर ग्राहक खोज रही हो।

उसकी हंसी से चिढ़कर पूछा, ‘तुम्हें यहां डर नहीं लगता। इन लोगों को पता चल गया तो?’

वह हंसती ही जा रही थी, उसने नदी के उस पार क्षितिज तक फैले बालू का सूना विस्तार दिखाते हुए कहा, ‘जिन्हें पता चल गया है, वे लड़कियों के साथ उस पार रेती में कहीं पड़े हुए हैं और वे किसी से नहीं कहने जाएंगे... अलबत्ता हल्के होकर हम लोगों को हटाने के लिए और जोर से हर हर महादेव चिल्लाएंगे।...अच्छा अब आप चलिए, नहीं तो लड़कियां आपको ही कस्टमर समझ कर पीछे लग लेंगी।’

बेईमानी का संतोष

धंधा, शहर में फैल रहा है। यह खबर डीआईजी रमाशंकर त्रिपाठी को लग चुकी थी। उन्होंने अफसरों की मीटिंगे की। सिपाहियों की मां-बहन की। दारोगाओं को झाड़ा, एलआईयू को मुस्तैद किया, तबादले किए लेकिन कोई नतीजा नहीं निकला। जो भी मड़ुंवाडीह के दोनों छोरों पर पहरा देने जाता, भड़ुओं का गुस्सैल बड़ा भाई हो जाता। जिसकी हर सुख-सुविधा का वे ढीठ विनम्रता के साथ ख्याल रखते। कप्तान वगैरह रस्मी तौर पर मुआयना करने आते तो सिपाही उन्हें वेश्याओं के खाली पड़े दो-चार घर दिखा देते। वे लौटकर रिपोर्ट देते कि धंधा बंद होने के कारण, उन घरों को छोड़कर वे कहीं और चली गईं हैं। डीआईजी ने शहर के लॉजों, होटलों में छापे डलवाने शुरू करा दिए, जिनमें बाहर से आकर धंधा कर रही कालगर्लें पकड़ी गईं लेकिन मड़ुवाडीह की कोई वेश्या नहीं मिली। हमेशा की तरह खबरे छपी कि रैकेट चलाने वालों की डायरियों और कालगर्लों के बयानों से कई सफेदपोश लोगों के नाम, पते और नंबर मिले हैं जल्दी ही पुलिस उनसे पूछताछ करेगी और उनकी कलई खुलेगी। हमेशा की तरह न पूछताछ हुई, न कलई खुली और न ही फालोअप हुआ। कालगर्लें जमानत पर छूटकर किसी और शहर चली गईं और रैकेट चलाने वालों ने भी नाम और ठिकाने बदल लिए।

प्रकाश की ड्यूटी लगाई गई कि वह शाम को पहरा देते पुलिसवालों के बीच से होकर बदनाम बस्ती से धंधे के लिए निकलने वाली लड़कियों की फोटो ले आए। उसने पहली बार बेईमानी की, जब वे निकल रहीं थी, तब वह अंतरात्मा के घर में बैठकर उनके साथ चाय पी रहा था। उनके निकल जाने के बाद वहां पहुंचकर उसने एक पूरा रोल खींच डाला, जिसमें कुहरे बीच झिलमिलाते सिपाहियों और गुजरते इक्का-दुक्का राहगीरों के सिवा और कुछ नहीं था। उसे फ्लैश चमकाते देख, दो सिपाहियों ने खदेड़ने की कोशिश की तो उसने कहा कि वे निश्चिंत रहें आज वह एक भी फोटो ऐसा नहीं खींचेगा जिससे उनको कोई परेशानी हो। एक सिपाही ने पूछा, बहुत साधु की तरह बोल रहे हो, बाई जी लोगों ने कुछ सुंघा दिया है क्या?’

सिपाही जब आश्वस्त हो गए तो उन्होंने बताया कि कम उम्र की लड़कियों का धंधा बढ़िया चलने से अब नई लड़कियां भी आ रही थीं। उन्हें मड़ुवाडीह में नहीं, शहर में किराए पर लिए मकानों में रखा जा रहा था। थाने का रेट बढ़कर अब पैंतीस से पचास हजार हो गया था। प्रकाश ने अंतरात्मा से कहा कि लगता है निहलानी का मॉरेलिटी ब्रिज ही बनेगा और बड़े लोगों की चांदी रहेगी। तुम तो बाई जी लोगों से ही बात कर लो, शायद उनमें से कोई तुम्हारा मकान खरीद ले। अंतरात्मा को अफसोस था कि पुलिस भी दो टुकड़ा हो चुकी है।

प्रेस लौटकर उसने फोटो एडीटर को समझाया कि कुहरा इतना है कि वहां कुछ भी देख पाना संभव नहीं है। जो बन सकती थीं, वे यही तस्वीरे हैं। वह बेईमानी करके बहुत खुश था। उसने खुद को हताशा से बचा लिया था। उसके फोटो खींचने से अखबार की थोड़ी विश्वसनीयता बढ़ती, सर्कुलेशन बढ़ता लेकिन धंधे पर कोई फर्क नहीं पड़ता। पुलिस वाले ही बंद नहीं होने देते। वह चाहता भी नहीं था कि धंधा बंद हो। वह अब चाहता था कि चले और खूब चले। (जारी)