सफरनामा

04 मार्च, 2010

अश्लीलता हुसैन में नहीं, आपकी आंख में है पार्टनर!

बेहतर होता कि एम.एफ.हुसैन भारत में रहते हुए अपने साथ हो रहे अन्याय का प्रतिकार करते। लेकिन 95 साल की उम्र में जब पेंशन के लिए डाकखाने जाना भी दुश्वार हो जाता है, तब हुसैन अदालतों का चक्कर काटें, ये उम्मीद भी ज्यादती ही है। कोई भी समझ सकता है कि हुसैन के पास वक्त कितना कम है। उन्हें इस उम्र में सुकून से रहने का पूरा हक है, ताकि कला के शिखर पर पहुंच चुके अपने घोड़ों का रंग थोड़ा और गाढ़ा कर सकें। इसलिए बिना आवेदन किए कतर की सरकार से मिल रहे नागरिकता के सम्मान स्वीकार कर वे कोई अपराध नहीं कर रहे हैं। रही बात भारत और भारतीयता की, तो इसे हुसैन भी हुसैन से जुदा नहीं कर सकते।

दरअसल, ये पूरा किस्सा सभ्यता की गाड़ी को उलटी दिशा में हांकने की कोशिश से जुड़ा है। हुसैन पर आरोप है कि उन्होंने कथित रूप से सरस्वती का नग्न चित्र बनाया। अभिव्यक्ति की आजादी की आड़ में उन्होंने बहुसंख्यकों की भावनाओं का मजाक उड़ाया। लेकिन सवाल ये है कि सरस्वती का नग्न चित्र बनाने की बात आई कहां से ? क्या ये बात हुसैन ने कही है। क्या उन्होंने अपने चित्र का नाम 'नग्न सरस्वती' दिया है ? या फिर किसी चित्रकार या कला-आलोचक ने ये बात कही है ? या फिर चित्र के सामने आते ही दर्शकों ने ऐसा शोर मचाया ? तथ्य ये है कि ऐसा कुछ भी नहीं हुआ।

हुसैन ने सरस्वती का चित्र 1970 में बनाया गया था, लेकिन इस पर विवाद शुरू हुआ 1996 के आस पास। ऐसा भी नहीं हुसैन तब कोई गुमनाम कलाकार थे। उन्हें 1955 में ही पद्मश्री से नवाजा जा चुका था। 1967 के बर्लिन फिल्म समारोह में उनकी फिल्म "फ्राम द आइज आफ ए पेंटर" को "गोल्डन बियर' पुरस्कार मिल चुका था। लेकिन 26 साल तक शांति बनी रही। हंगामा तब मचा जब एक पत्रिका में लेख छापकर हुसैन को चित्रकार की जगह कसाई बताया गया। आरएसएस और बीजेपी से जुड़े संगठनों ने सरस्वती के 'नग्न चित्र' का शोर मचाना शुरू किया। हुसैन की प्रदर्शनियों पर हमले हुए। उनके खिलाफ देश भर में सैकड़ों मुकदमे दायर कर दिए गए। उन्हें मारने की धमकी दी गई। करीब 10 साल की जद्दोजहद के बाद आखिरकार 2006 में हुसैन ने देश छोड़ दिया। तब से वे लगातार स्व-निर्वासित अवस्था में दरबदर घूम रहे थे।

हुसैन के चित्रों की थोड़ी समझ भी रखने वाले जानते हैं कि वे रंगों और रेखाओं के चित्रकार हैं। उनके यहां 'नख-शिख' चित्रण नहीं होता है। आमतौर पर वे चेहरा भी नहीं बनाते हैं। जिस चित्र को लेकर विवाद है वो भी कमोबेश एक रेखाचित्र ही है। जाहिर है, ये नग्नता बनाने वाले की नहीं, हुसैन विरोधियों की आंख में है। ये उनकी तंगनजरी और राजनीतिक इरादों की उपज है जिसमें एक मुस्लिम कलाकार को निशाना बनाने का खास मकसद होता है।

अजीब बात तो ये है कि ये सब भारतीय संस्कृति के नाम पर हो रहा है। जबकि भारतीय संस्कृति में देवी-देवताओं से 'खेलने' की पूरी परंपरा है। यही वजह है कि यहां मंदिरों की दीवारों पर मिथुन मूर्तियां मिलती हैं। कालिदास 'कुमार संभव' में शिव और पार्वती के रति-प्रसंगों का विशद वर्णन करते हैं। पुराणों में देवताओं के राजा इंद्र को ऋषि पत्नी के साथ छल से संबंध बनाने वाला बताया जाता है। भागवतकार बताता है कि कृष्ण स्नान करती गोपियों का वस्त्र लेकर भाग जाते हैं। अपनी बहन सुभद्रा का अपहरण करने में अर्जुन का साथ देते हैं।

लेखकों और रचनाकारों की आजादी का ये ' रंग' भारतीय संस्कृति में तब से घुला हुआ है, जब'संस्कृति रक्षकों' में चिढ़ पैदा करने वाला 'प्रगतिवाद' जैसा शब्द बना भी न था। साफ है कि हुसैन के खिलाफ बवाल मचाने वाले भारतीय संस्कृति को उतना भी आधुनिक नहीं रहने देना चाहते जितना वो कालिदास के जमाने में थी। समझा जा सकता है कि आज कालिदास होते तो उनकी गर्दन पर किसकी तलवार होती।

हुसैन की गलती यही है कि वे हिंदू या मुसलमान नहीं भारतीय चित्रकार हैं। वे अकेले चित्रकार हैं जिन्होंने रामायण और महाभारत जैसे महाकाव्यों पर चित्रों की पूरी श्रृंखला बनाई है। किसी हिंदू चित्रकार ने आज तक ऐसा नहीं किया। ऐसे में ये सवाल बचकाना लगता है कि हुसैन में हिम्मत है तो पैगंबर या उनसे जुड़े लोगों के चित्र बनाएं। न भारतीय समाज किसी कट्टर समाज की प्रतिक्रिया में बना है और न हुसैन की चित्रकला किसी बाहरी परंपरा से प्रभावित है। हुसैन तो भारतीय कलाओं की हजारों साल पुरानी परंपरा से उपजे चित्रकार हैं जो उनके ब्रश के एक-एक स्ट्रोक में नजर आती है।

वैसे भी, चित्रकला और फोटोग्राफी में फर्क है। वहां सीधे-सीधे यथार्थ का चित्रण तब होता था जब कैमरे नहीं बने थे। जाहिर है, आधुनिक कला में प्रतीकों और बिंबों का इस्तेमाल स्वाभाविक और जरूरी है। लेकिन इसे समझने की कोशिश करने के बजाय भावनाओं के चोटिल होने की दुहाई दी जा रही है। ये सवाल बार-बार पूछा जाना चाहिए कि भावनाएं भड़कीं या भड़काई गईं। हुसैन अपने चित्र को लेकर गली-गली घूमते तो नहीं हैं। उनके चित्र जिन कलादीर्घाओं में लगे, वहां भी किसी दर्शक की भावना भड़कने का इतिहास नहीं है।

फिर, भावनाओं के भड़कने और न भड़कने की सीमा रेखा कौन तय करेगा। जिन्हें पुराणों की इस बात पर भरोसा है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर है, उनकी भावना तो कक्षा छह की विज्ञान की किताब से ही भड़क जाएगी, जो सौरमंडल और उसमें पृथ्वी की मौजूदगी के बारे में बिलकुल उलट बात बताती है। बमुश्किल डेढ़ सौ साल पहले स्वामी दयानंद सरस्वती ने 'सत्यार्थ प्रकाश' लिखकर मूर्तिपूजा के खिलाफ जबरदस्त मुहिम शुरू की थी। लेकिन किसी मूर्तिपूजक ने भावना के आहत होने का सवाल उठाकर उनपर हमला नहीं किया। यही नहीं, 1867 के हरिद्वार कुंभ में उन्होंने 'पाखंड खंडिनी पताका' फहराई थी। लेकिन कोई हंगामा नहीं हुआ।

दरअसल, भावनावादियों को अपनी संस्कृति और इतिहास का उदार पक्ष जहर जैसा लगता है। ये उसी वैश्विक बिरादरी के भारतीय संस्करण हैं, जिनकी वजह से कभी ब्रूनो को जिंदा जलाया गया था। ब्रूनो ने ताल ठोंककर कहा था कि पृथ्वी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाती है। तब पृथ्वी को ब्रह्मांड का केंद्र माना जाता था। भावनाएं भड़क गईं और ब्रूनो को जिंदा जलाकर ही शांत हुईं। गैलीलियो को भी ऐसे ही लोगों ने अपने तमाम खगोलीय सिद्धांत वापस लेने को मजबूर किया था क्योंकि धार्मिक भावनाएं आहत हो रही थीं।

साफ है कि हुसैन के बहाने समाज को कट्टर और मतिमंध बनाने की कोशिश हो रही है। ये एक राजनीतिक अभियान है जो समाज का सांप्रदायिक ध्रवीकरण करके सत्ता तक पहुंचने की कोशिश में अरसे से जुटा है। ये लोकतंत्र में अपना वोटतंत्र विकसति करने के लिए भीड़तंत्र का सहारा लेता है। विडंबना ये है कि भीड़तंत्र के इस राह पर सिर्फ दक्षिणपंथी नहीं हैं। वे वामपंथी भी हैं जिन्होंने एक बेहतर समाज रचने का वादा किया था। जो अभिव्यक्ति की आजादी को लेकर सबसे ज्यादा शोर मचाते रहे हैं।

पश्चिम बंगाल की वाममोर्चा सरकार ने तस्लीमा नसरीन के साथ ऐसा ही किया। हालांकि बांग्लादेशी लेखिका तस्लीमा खुद को हुसैन की परंपरा में नहीं रखतीं। वे अपनी नास्तिक आस्थाओं को लेकर किसी भी धर्म से भिड़ने का साहस रखती हैं लेकिन नास्तिकता से जुड़े सबसे आधुनिक दर्शन यानी मार्क्सवाद पर भरोसा रखने वाले वामपंथी उन्हें कोलकाता में रहने देने को तैयार नहीं हुए। ये वही लोग हैं जो हुसैन पर हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज उठाते हैं, लेकिन तस्लीमा का नाम आने पर बगले झांकने लगते हैं। क्योंकि उन्हें डर है कि तस्लीमा का साथ देने से मुसलमान नाराज हो जाएंगे जो पश्चिम बंगाल में 26 फीसदी हैं। वैसे भी सच्चर कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद किसी को ये भ्रम नहीं रह गया है वहां के मुस्लिम समाज में किस कदर पिछड़ापन है। 33 साल के शासन के बावजूद वामपंथी इस समाज के बड़े हिस्से में आधुनिकता का प्रसार करने में बुरी तरह नाकाम रहे हैं।

हुसैन और तस्लीमा प्रकरण ने भारतीय लोकतंत्र के खोखलेपन को एकबार फिर उजागर कर दिया है। क्योंकि आजादी या तो होती है या नहीं होती। कलाकारों या लेखकों को सीमित आजादी देने का मतलब उन्हें गुलाम बनाना है। इस मोर्चे पर केंद्र की यूपीए सरकार भी बुरी तरह असफल साबित हुई है। वो चाहती तो हुसैन को सुरक्षा दे सकती थी और तस्लीमा को नागरिकता। लेकिन भीड़तंत्र के आगे वो भी नतमस्तक है।

लोकतंत्र की सबसे बड़ी कसौटी अभिव्यक्ति की आजादी है। और अगर इससे किसी की भावनाएं आहत होती हैं तो उसके प्रतिकार के लिए कानूनी मंच होते हैं। इसलिए ये पूरी लड़ाई सिर्फ हुसैन या तस्लीमा की नहीं है। लोकतंत्र पर आस्था रखने वाले हर शख्स की है। फ्रांसीसी क्रांति की बुनियाद रखने वालों में से एक, महान विचारक वाल्तेयर ने लोकतंत्र के मूल्यों पर बात करते हुए कभी कहा था- 'मैं जानता हूं कि तुम्हारी बात गलत है, फिर भी उसे कहने के तुम्हारे अधिकार के लिए मैं अपनी जान तक दे सकता हूं।'

28 टिप्‍पणियां:

  1. अश्लीलता हुसैन में नहीं आपकी आखों में है , क्या बेहुदा बकवास है ,। पता नहीं क्या कुछ सोचकर आपने ये लेख लिखा , आप कह रहे हैं कि हुसैन कलाकार है, मैं कहता हूं कि ये कैसा कलाकार है जिसको कला बस हिन्दू देवी देवताओं में ही दिखती , वह अपनी बेटी की तस्विर बनाता है पूरे वस्त्र में , वहीं ठिक उसके सामनें माता सीता की तस्विर बनाता है नग्न अवस्था में वाह रे कलाकारी, अब जैसे सब देखने वाले हों भाई तब तो ठिक है , आपके नजारिए से इसका विरोध करने वाले लोग बेवकुफ है ही साथ ही अन्धे भी है जो कि आप जैसा नहीं देख पा रहे है ।

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  2. 'अश्लीलता हुसैन में नहीं आपकी आखों में है' - इस समय ऐसी सलाह हुसैन के बड़े काम की है। लेकिन डर यह है कि आपकी सलाह मानकर यही बात वे कतर में करेंगे तो उनके नये वतन में उनका सिर 'कतर' दिया जायेगा।

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  3. लेखक महोदय कुतर्कों का सहारा अपने लेख नहीं लें तो अच्छा होगा। आपने कहा की 95 साल की उम्र में डाकखाना जाना दुश्वार हो जाता है तो अदालतों के चक्कर काटना ज्यादती कही जायेगी तो कृपया कानून में संशोधन करवाकर एक निश्चित उम्र के लोगों को अदालती कार्यवाही से छूट दिला दें या फिर वे कुछ भी करते रहें परंतु उनके खिलाफ कोई भी कानूनी कार्यवाही न हो ऐसा कोई कानून बनवा दीजिये। फिर लफड़ों में पड़ते ही क्यों हो। सन्यासी बन जाइये न। दूसरा थोथा तर्क है कि हुसैन रेखाओं के चित्रकार है तो अपनी मां और बेटी के चित्रों को बनाते समय तो उन्होंने रेखायें नहीं खींची तब तो लकदक कपड़ों का पूरा टच दिया। तब सिर्फ आड़ी-तिरछी रेखाओं से काम नहीं चलाया। अब बताईये नंगापन हमारी आंखों में है या आपके चहेते कलाकार की आंखों में।

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  4. अपन तो अज्ञानी है क्या जाने आपने कहा वो भी ठीक और यह मोहतरमा जिन्हे भारत से निकाल बाहर किया गया और अभिव्यक्ति की आजादी पता नहीं कहाँ गई, तस्लिमाजी ने कहा वो भी ठीक. आप मुलायजा फरमाएं,


    तस्लीमा उवाच: हिंदुत्व के प्रति अविश्वास के चलते ही उन्होंने लक्ष्मी और सरस्वती को नंगा चित्रित किया है! ...क्या वे मोहम्मद को नंगा चित्रित कर सकते हैं? मुझे यकीन है, नहीं कर सकते।
    हुसेन भी उन्हीं धार्मिक लोगों की तरह हैं जो अपने धर्म में तो विश्वास रखते हैं, पर दूसरे लोगों के उनके धर्मों में विश्वास की निंदा करते हैं।

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  5. भाई जान कतर में मोहम्मद को नंगा चित्रित कर दे और अभिव्यक्ति की आजादी साबित कर दे, खूदा कसम अपन इस्लाम कबूल कर लेंगे.

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  6. @ बैगाणी साहब !
    घटिया लेखो को भाव ही क्यों दिया जाये ?

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  7. गरीब भारतीयों की औकात मे नहीं था हुसैन के चित्र खरीद कर देखना और जिनके बेडरूमों के लिये वो तस्वीरे बनाता था वो तो नंगा ही देखते हैं। उसकी अस्लियत तो बाद में बाहर आयी और जब आयी तब हंगामा हुआ इस लिये इस तर्क का मतलब नहीं कि तस्वीरे कब बनीं।

    हुसैन पर कब हमला हुआ? उसे अदालत ले जाया गया और भारत की कानून व्यवस्था पर उसे भरोसा होना ही चाहिये था। अजी साहब आपको भी होना चाहिये था?

    स्वामि दयानंद सरस्वति नें असाधारण संघर्ष किया है कृपया उनके बारे में और पढें, उन्हे हुसैन की लक्जरी प्राप्त नहीं थी न ही उन्हें कुरीतियों का विरोध करने के लिये नग्नता प्रसारित करने की आवश्यकता पडी थी। दयानंद सरस्वती और हुसैन की तुलना हास्यास्पद है।

    लोकतंत्र में विरोध की आजादी भी है। हुसैन की अभिव्यक्ति ही अंतिम सत्य नहीं है उसके खिलाफ संवैधानिक कदम उठाना भी लोकतांत्रिक प्रक्रिया है और इसका हक हर भारतीय को है। हुसैन की देश भक्ति तो कतर की नागरिकता लेते ही प्रामाणित हो गयी अब उस विदेशी के समर्थन का नाहक हल्ला किस लिये?

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  8. हुसैन साहब को सौ खून माफ़ . हां हम अश्लील मान्सिकता को ढोते है .वैसे सन्जय भाई के साथ मे भी कलमा पढ लून्गा

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  9. हमारी सनातन संस्कृति में वैचारिक खुलेपन, विरोधियों से शांत भाव से शास्त्रार्थ और श्लील-अश्लील के चक्करों को लांघ कर किसी भी सीमा तक जाकर विचारों की अभिव्यक्ति और विश्लेषण के सुदीर्घ परंपरा रही है। इस परंपरा को अपना बंधुआ बनाने की सांप्रदायिक, कट्टर, रक्त पिपासुओं ने हाईजैक करने की हर काल में कोशिश पर कभी कामयाब नहीं हो पाए। बात उसी परंपरा को जीवित रखने और आधुनिक समय के साथ उसका तालमेल बिठाने की हो रही है ताकि उन कुंठाओं और गुत्थियों को सुलझाया जा सके जिन्हें हिंदू, मां-बहन, अश्लीलता वगैरा के कपट भावनात्मक गुबार के आगे ढक दिया जाता रहा है। यह लोकतांत्रिक खुलापन हमारी शक्ति है कमजोरी नहीं।
    पता नहीं भाई लोग पैगंबर समेत इस्लामी आस्था के केंद्रीय व्यक्तित्वों को नंगा देखने के लिए इतने आक्रामक ढंग से आतुर किसके (?) असर में हैं।
    मेरा मानना है कि आदमी की बेहतरी के लिए इस्लाम को भी ज्यादा खुला और डेमोक्रेटिक होना चाहिए जैसा कि कुछ देशों में हुआ है। लेकिन भारत में ऐसा आपके कुतर्कों और प्रतिहिंसा से भरी इच्छा से नहीं होने वाला। उसके लिए पहल उस धर्म को मानने वाला मुसलमान ही करेगा। कर भी रहा है। उसे जरा गौर से देखिए और प्रमोट कीजिए।

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  10. सही कह रहे हैं जनाब!!!!!!!!!!!!
    हम हिन्दुओं की आँखें ही खराब हैं. अपने देवी देवताओं को नंगा बना तो सकते हैं पर किसी और के द्वारा नंगा बना देख नहीं सकते. भगवान् के चित्र हम हिन्दुओं के यहाँ नंगे ही तो होते हैं.
    चलिए हुसैन की बात करें. गणेश के सर पर सवार लक्ष्मी किस तरह का प्रतीक है? सरस्वती का रेखांकन जैसा बना है वैसा हुसैन ने अपनी अम्मी का नहीं बनाया?
    कहनीं पढ़ा था की हुसैन ने अपनी माँ का चेहरा नहीं देखा इस कारण उनके चित्रों में चेहरा नहीं होता है. चलिए मान लेते हैं पर उनके मुहम्मद साहब के तो चेहरा है और हुसैन ने उसको देखा भी होगा तो वे उसका चेहरा क्यों नहीं बनाते?
    अब एक सवाल आपसे, की आपके घर में कमरों में किवाड़ हैं या नहीं? मतलब आपकी नज़रें पाक साफ़ हैं तो घर में सब काम (समझ रहे हैं न सभी काम!!!!) खुले आम होते होंगे? महिलाओं के, पुरुषों के ननाहे, कपडे बदलने से लेकर रात के पति-पत्नी के प्रेमालाप????
    कृपया अन्यथा न लें..............ये भी मन के, विचारों के पाक साफ़ होने पर साफ़ दिखेगा.
    जय हिन्द, जय बुन्देलखण्ड

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  11. जय भूसा! जय भारत!

    जय भगवा सुतली!

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  12. पहली बात - जो कोटेशन आपने आखिरी में लिखा है वह कोटेशन वोल्टेयर का नहीं है। वह कोटेशन इविलिन बिट्राइस हॉल का है। जिसकी रचना उन्होंने वोल्टेयर की जीवनी लिखते वक्त की थी और अपने इस मशहूर फ्रेज को वोल्टेयर को समर्पित किया था। इस तथ्यात्मक भूल को सुधार लें।

    दूसरी बात - अभिव्यक्ति की आज़ादी हर समाज में अलग-अलग होती है। जिस आज़ादी की बात आप भारतीय संदर्भ में कर रहे हैं और वह फिलहाल मुमकिन नहीं। आप जिन मूर्तियों और रचनाओं का उदाहरण दे रहे वो कब की हैं और उस समय भारतीय समाज कैसा था इसे ध्यान में रखना होगा। कालीदास 5वीं शताब्दी काल के हैं। उस वक़्त भारत में मुसलमान नहीं आए थे और उस वक़्त टकराव दूसरे मुद्दों को लेकर होता था। और उस टकराव का हिंसक इतिहास इस समाज में मौजूद है। खजुराहो का निर्माण के वक्त भी भारतीय समाज का ढांचा अलग था।

    तीसरी बात - आज हमारे देश में दो बड़े धर्म हैं। हिंदू और मुसलमान। देश का विभाजन धर्म के आधार पर हो चुका है। अनेक बड़े धार्मिक दंगें हो चुके हैं। हज़ारों लोग उन दंगों में मारे गए हैं। आज आपने खजुराहो काल और गुप्ता काल की आज़ादी दे दी तो आप जैसे बुद्धिजीवियों और हुसैन जैसे चित्रकारों की वजह से क्रूर सियासतदान लाखों-करोड़ों लोगों की बलि चढ़ा देंगे। और यकीन मानिए आप और हम जैसे लोग बंद कमरों में बैठ कर तालियां बजाएंगे। इससे अधिक कुछ भी करने की औकात हममे नहीं हैं।

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  13. एक विकृत मानसिकता वाला आदमी कुछ भी लिख बना सकता है. आप जिसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहते हैं वो आने वाले झगड़े फसाद का बीज है. हुसैन को किसने अधिकार दिया की इस धर्मनिरपेक्ष देश में धार्मिक फसाद उकसाने के लिए, किसी ख़ास धर्म को निशाना बना कर चित्रकारी करे.

    फ़िदा हुसैन सीधे सीधे मानवता का दुश्मन है. हाँ मैं मानता हूँ, यहाँ घटिया राजनीति करने वालों की भी फौज है. आप जैसे कलम घिस्सू को सेलेब्रिटियों का दुःख खूब नज़र आता है.

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  14. Post Lekhak ki Pahchaan
    http://www.blogger.com/profile/10306271251260997857

    Sandigdh hai.

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  15. क्या हुसैन हुसैन किये हुए हैं .... ये कहिये कि सच नहीं कहेंगे क्योंकि बहुत बड़े धर्म निरपेक्ष होने का स्वांग करना आपके लिए शायद पहले ज़रूरी है !

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  16. गालियों का जवाब देना मैं जरूरी नहीं समझता, क्योंकि मैं उन्हें स्वीकार ही नहीं करता हूं, कि लौटाना पड़े। फिर गालियां तथ्यों के आधार पर तर्क करने की क्षमता के अभाव का दयनीय प्रदर्शन भी होती हैं। लेकिन समरेंद्र जी ने कुछ अहम बातें उठाई हैं जिन पर बात की जानी चाहिए।

    पहली बात----वाल्तेयर के नाम से मैंने जो कोटेशन दिया है वो इतिहास की सैकड़ों किताबों में यूं ही दर्ज है। लेकिन मैं इस संभावना से इंकार नहीं करता कि कोटेशन वाल्तेयर के जीवनीकार का हो, जैसा समरेंद्र कह रहे हैं। मैं उनकी सजगता को सलाम करता हूं। पर इससे इस कोटेशन का महत्व कम नहीं हो जाता। सैकड़ों साल से ये कोटेशन लोकतांत्रिक समाज की कसौटी बना हुआ है। डा.लोहिया भी इसका खूब इस्तेमाल करते थे। वैसे, इवलिन बिट्राइस हॉल इस फ्रेज की 'रचना" कर ही नहीं सकते थे, अगर वाल्तेयर के जीवन संघर्ष का ऐसा निचोड़ न होता।

    दूसरी बात-समरेंद्र ने ठीक कहा है कि अभिव्यक्ति की आजादी हर समाज में अलग-अलग होती है। इसीलिए भारतीय समाज में मिली अभिव्यक्ति की आजादी को कतर के माहौल से तुलना करना बेमानी है। लेकिन समरेंद्र का निष्कर्ष अजब है। वे कह रहे हैं कि कालिदास वगैरह के समय मुसलमान नहीं थे। यानी मुसलमानों के आते ही परंपरा और इतिहास से मिली अभिव्यक्ति की आजादी बेमानी हो जाती है। वे हुसैन को लेकर हो रही बहस को हिंदू-मुसलमान के खांचे में रखना चाहते हैं। उन्हें देखना चाहिए कि न्यूज चैनलों पर मौलानाओं की बड़ी जमात भी इस मुद्दे पर हुसैन को वैसे ही गलत ठहरा रही है जैसे कि कोई आरएसएस विचारक। इसलिए ये लड़ाई भारतीय परंपरा में उदारता की धारा के पक्षधरों और उसे उलटने वालों के बीच है। खुजराहो के मंदिर निर्माण करने वाले समाज में भी जन जीवन वैसा ही नहीं था जैसा मूर्तियों में दर्ज है। लेकिन मूर्तियां उस समाज के कलाबोध को जरूर दर्शाती हैं।

    तीसरी बात-समरेंद्र कह रहे हैं कि गुप्त काल जैसी आजादी दे दी गई तो दंगे होंगे और हमारे जैसे बुद्धिजीवी ताली बजाएंगे। तो बंधु, पहली बात तो ये कि अभिव्यक्ति की आजादी किसी की कृपा से नहीं मिली है। गुप्त काल में आजादी भले ही उस समय के राजा-महाराजाओं की कृपा की मोहताज रही हो, आधुनिक भारत में ये संवैधानिक अधिकार है। माफ कीजीएगा, पाकिस्तान चाहे धर्म के नाम पर बना हो, लेकिन आधुनिक हिंदुस्तान के निर्माताओं ने उसी वक्त साफ कर दिया था कि उनका राष्ट्र धर्मनिरपेक्ष रहेगा (समरेंद्र जी ये तथ्य मत सुधारियेगा कि धर्मनिरपेक्षता शब्द संविधान में आपातकाल के समय जोड़ा गया, जैसे समाजवाद, क्योंकि ये पूरे स्वतंत्रता आंदोलन की मूल भावना से जुड़ा था। और ये भी सही है कि शासकवर्ग ने इस शब्द का माखौल बनाकर रखा है,,,, )। .....समरेंद्र जी का ये डर भी बेमानी है कि हुसैन जैसे लोगों की वजह से सियासतां करोडों लोगों को दंगों की आग में झोंक देंगे। सियासतदानों के पास बहानों की कमी नहीं है। वे लगातार ये कोशिश करते भी हैं, लेकिन जनता दो-चार दिन से ज्यादा उनके झांसे में नहीं रहती। इसलिए देश की मूल प्रकृति पर भरोसा कीजिए।

    मेरी बात--मुझे अफसोस है कि मेरे मूल प्रश्न पर समरेंद्र या किसी ने गौर नहीं फरमाया। सब लोग ये मान रहे हैं कि हुसैन ने सरस्वती का नग्न चित्र बनाया। मेरी सबसे बड़ी आपत्ति इसी पर है। कला समीक्षा की जिम्मेदारी भीड़ को नहीं सौंपी जा सकती। इसलिए भारतीय परंपरा 'अरिसकेषु काव्य निवेदनम्' से बरजती है।

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  17. वैसे अब तक जो दंगे हुए हैं उनमें से कितनों में कलाकारों/लेखकों/बुद्धिजीवियों का हाथ था?

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  18. पंकज श्रीवास्तव जी इस मुद्दे पर सबसे संतुलित,सटीक और विचारवान आलेख प्रस्तुत करने के लिए धन्यवाद। दंगा निर्माण एवं उत्पाद उद्योग की अभियांत्रिकी की तरफ आपने ध्यान खींचने की कोशिश की इसके लिए आपका कोटी-कोटी आभार। भावनाएं भड़कती हैं या भड़कायी जाती हैं इस लाइन पर बहस की यहां कोई गंुजाइश नहीं दिखती। यहां तो खण्डन-मण्डन ही ईश वंदन का स्थान ले चुका है। इस लेख में ऐसा बहुत कुछ है जिसके लिए कह सकता हूं कि आपने मेरे मुंह की बात छीन ली। लेकिन फिर भी कुछ मुंह में रह गयी है। उसे कहे देता हूं। तसलीमा के मामले में आपने सिर्फ पश्चिम बंगाल उर्फ सीपीएम का जिक्र किया है। जबकि हमारे ख्याल से वहां बांग्लादेश और भारत सरकार का भी उल्लेख जरूरी होता। तसलीमा कोलकाता में नहीं रह पाईं तो वो दिल्ली में भी नहीं रह पाईं। जितने दिन रही भीं नजरबंद रहीं।

    कुछ लोगों को यह लेख समझ में नहीं आ रहा है। ऐसा होना स्वाभाविक भी है। जिन्हें अंकज्ञान न हो उसे गणित के सामान्यतम सिद्धांत भी नहीं समझाए जा सकते। जिन्हें अक्षरज्ञान न हो उन्हें प्राइमरी की बालपोथी भी नहीं समझाई जा सकती।

    उसी तरह सहिष्णुता और संस्कृति के कखगघ से भी वंचित लोगों को समझाना लगभग नामुमकिन है। हुसैन के विरोधी तसलीमा और रश्दी की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समझते हैं। तसलीमा और रश्दी के विरोधी हुसैन की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को समझते हैं। इससे स्पष्ट है दोनों धार्मिक असहिष्णुता के अतिरिक्त कुछ नहीं समझते। उनकी सहमति-असहमति का आधार उनका धार्मिक कट्टरपन है। न कि लोकतांत्रिक मूल्यों का सम्मान।

    एक तीसरी प्रजाती भी है। जो इन दोनों मतांधों को समझाते हैं कि देखो तुम लोग सब कुछ करो लेकिन खुद में इतना भी मत लड़ो कि दोनों का भेद खुल जाए। दुनिया बहुत बड़ी है। मिलकर चरो-खाओ। दोनों के लिए पर्याप्त है। ऐसे लोग ऐसे अवसरों पर शांति और संयम की अपील के साथ नमुदार होते हैं। हालांकि ऐसे लोगों की अपील के निशाने पर दंगाई नहीं होते। वो सृजनकार होते हैं जिनके छवि की लाश पर दंगाई नाच रहे होते हैं।

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  19. . .पंकज जी
    आपका लेख पढ़ा. बहुत अच्छा है. सच है.
    टिप्पणियाँ भी पढ़ीं. मजा आया. एक बात मैं आज तक समझ नहीं पाया कि लोग कट्टर कैसे हो जाते हैं ?
    जो लोग कहते हैं कि मुहम्मद साहब का नग्न चित्र हुसैन ने क्यों नहीं बनाया , उन्हें सोचना चाहिए कि दरअसल यह काम उन्होंने अपने विरोधियों के लिए छोड़ रखा था. अफसोस, उनमें कोई कलाकार नहीं , लट्ठमार हैं.
    matuk

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  20. oh ek to seedhe khaki kachhadhari hain aur kuchh yh kaam aad lekar karte hain. moorkhon aur dhoorton se bahas karna fijool hai Pankaj bhaii

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  21. बेशक गालियों का कोई जवाब नहीं होता, लेकिन पंकज जी, कला सिर्फ रंगों और रेखाओं का माध्यम नहीं होता, इसके पीछे एक भावना होती है,जो रंगो और रेखाओं की तरह स्पष्ट होनी चाहिए. अगर भावना अदृश्य है, तो भंगिमा भी नंगी लगती है. जब सरस्वती के चित्र, भारतमाता के चित्र पर विवाद उठा, तो भावना हुसैन साहब को ही साफ करनी चाहिए, न कि उम्र की दुहाई देते हुए देश छोड़ दें. चित्र कब के हैं इससे फर्क नहीं पड़ता, उन चित्रों के पीछे आपकी कौन सी कलाकारी है, इस बात से फर्क पड़ता है. समरेन्द्र संभवतः इसी कलाकारी और कला की इसी आजादी की तरफ इशारा कर रहे हैं...
    कुछ और दलीले हैं इस लिंक पर, चाहें तो पढ़ लें-
    http://kyascenehai.blogspot.com/2010/03/blog-post_06.html

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  22. यह भाजपा और उसके सहयोगी दलों की सफलता है कि भारत का मध्यवर्ग बाबरी विध्वंस के बाद से कट्टर हुआ है...लेकिन देश के राजनैतिक,सांस्कृतिक और सामाजिक ढाँचे की चरमराहट इसमें सुनी जा सकती है...कला और साहित्य की विषयवस्तु का निर्धारण पहले से बी जे पी और उसी तरह के दलों से करा कर काम किया जाना चाहिए... हुसैन के सैकड़ों अविवादित चित्रों के स्तर और सौंदर्य को क्यों देखा जाए..देखा भी जाए तो कैसे समझा जाये.. इनके आका बाल ठाकरे को बॉम्बे की जनता ने आईना दिखा दिया है...एक दो बार और ये मसखरे केन्द्र से दूर रह जाएँ इनके नकली दाँत घास खाने के लायक भी नहीं रह जाएँगे...ये तर्क की नहीं पिटाई की भाषा समझते हैं...इस वैलेंटाइन पर छत्तीसगढ़ में इनकी सारेराह पिटाई हुई है...अगले साल कुछ और जगहों पर यह होगा ऐसी उम्मीद की जानी चाहिए...ज़्यादातर लोग भारत की तुलना पाकिस्तान और अरब के इस्लामिक देशों से कर के भारत के उदार होने पर नाराज़गी भी ज़ाहिर करते हैं.. उन्हें यूरोप के पुनर्जागरण और वहाँ की सांस्कृतिक उदारता से सबक नहीं लेना है...भारत भी आँख निकालने, हाथ काटने, पत्थर मरने की सज़ा वाला देश बने...इनकी यही कोशिश है...
    एक मज़बूत इरादे से लिखे गये लेख के लिए सलाम.

    महेश छत्तीसगढ़

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  23. रंगनाथ भाई, तस्लीमा प्रकरण में यूपीए सरकार को बख्शने का तो सवाल ही नहीं है। ध्यान दें, मैंने आखिरी से पहले वाले पैराग्राफ में यूपीए सरकार पर टिप्पणी की है। लेकिन कांग्रेस से इस मामले में उम्मीद भी कहां थी। उम्मीद तो वामपंथियों से थी जो उन्होंने बंगाल की खाड़ी में डुबो दी। ..
    @कुमार विनोद...हुसैन ने उम्र की दुहाई देकर देश नहीं छोड़ा। वे दस साल तक यहीं रहकर गालियां और धमकियां झेलते रहे। अदालत भी पहुंचे थे। लेकिन 2006 में जब वे 90 साल के हो रहे थे तो हार कर विदेश चले गए...तमाम देशों में भटकते रहने के बाद वे कतर पहुंचे जहां उन्हें चित्रकारी का एक प्रोजेक्ट मिला। उन्होंने बेहतरीन काम किया तो वहां की सरकार ने उन्हें नागरिकता देने का प्रस्ताव किया। ध्यान दें, उन्होंने इसके लिए आवेदन नहीं किया था। एक बार 95 साल की उम्र के बारे में गंभीरता से सोच कर देखिए... हुसैन की तकलीफ भी समझ सकेंगे।

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  24. पंकज भाई,
    बधाई। बहुत सधा हुआ और तार्किक लेखन। सबने बहुत कुछ कहा। आपसे सहमत हूं। टिप्पणियों के जवाब में भी बहुत कुछ स्पष्ट कर दिया। दो वाक्यांश खास पसंद आए उन्हें कोट कर रहा हूं।
    1. दरअसल, भावनावादियों को अपनी संस्कृति और इतिहास का उदार पक्ष जहर जैसा लगता है।
    2.कला समीक्षा की जिम्मेदारी भीड़ को नहीं सौंपी जा सकती। इसलिए भारतीय परंपरा 'अरिसकेषु काव्य निवेदनम्' से बरजती है।

    जैजै

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  25. bandhuvar, yah nischit taur par kah sakta hu ki aapke ekdam sadha hua aur tarkik likha hai, halanki samrendra ji ki kathan apani jagah jayaj rahe.

    pata nahi ham dharm aur kala in dono chashmo ko alag kab kar payenge....aur in dono ke bich... aap to jante hi hain

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  26. आदरणीय पंकज जी,
    मैं पढ़-पढ़ कर इतना जान सका हूँ की फिदा हूसैन बडे ही नहीं अद्भुत चित्रकार हैं, इसलिये उनकी कला प्रश्न लगाना मूर्खता होगी। हूसैन प्रकरण निसंदेह राजनीतिक प्रकरण है इसका कला, संस्कृति या सहिष्णुता से कोई लेना देना नहीं है। ऐसे ही चित्र किसी आम सडकछाप चित्रकार ने बनाये हों (और निश्चित बनाते होंगे)तो शायद कोई शोर-सराबा नहीं होगा। बहुत से अश्लील और लज्जाजनक कवित्त हम सुनते ही रहते हैं लेकिन यही कोई बड़ा कवि कहदे तो सचमुच लानत-मलामत का मामला बनता है। एक आम हिन्दु सरस्वती का नंगा चित्र देखकर मुंह मोड लेगा या उसे नष्ट कर देगा(यदि उसकी की कला की समझ नहीं है, कोई कलाकार क्या करेगा ! मैं नहीं जानता) लेकिन इस पर दंगा-फसाद राजनीति या कट्टरवाद ही करता है। मुझे सुरों का ज्ञान नहीं है लेकिन कोई एक गीत तो मैं बहुत प्रयास से सीख ही सकता हूँ। मेरी इच्छा है कि मैं पेंटिग का क ख ग सीख पाऊँ या नहीं लेकिन इतने प्रसिद्ध चित्र की खूबियों के बारे में जानना चाहता हूँ। चित्र की रेखाओं को लेकर कोई विशेष बात जरूर होगी, गुप्तांग की रेखाओं की कलात्मकता, चित्र का संदेश (खासकर नग्नता का) आखिर कुछ तो उस कोटि का होगा जिस कोटि के हूसैन हैं। क्या मैं केवल एक चित्र को भी नहीं समझ सकूँगा ? तो कृपया अन्य विवरणों में जाने से पहले कला के साथ सबसे पहला न्याय यह है कि उसका महत्त्व निरूपण किया जाये। उस चित्र की समीक्षा की जाये तो लोगों को समझ आयेगा कि इतनी उत्कृष्ट कृति को वे क्या समझ रहे हैं! चित्र पर ऐतराज यकीनन उन लोगों द्वारा किया जा रहा है जो चित्रकला की abc नहीं जानते लेकिन लगता है जो उसकी ओर से बचाव कर रहे हैं वे भी चित्रकला के आलोचक नहीं है, चित्रकार नहीं है, रंगों, कूचियों, रेखाओं के बारे कुछ बहस नहीं कर सकते। आप चित्र की समीक्षा कीजिये, इसकी कलागत विशेषताओं, इसके संदेश के विषय में लिखिये। माना की लोग गलत हैं लेकिन उन्हें सही होने का अवसर तो दिया जाये।

    हाल कुछ ऐसा है-
    कभी-कभी अपने दिल को हमने यूँ बहलाया है
    जिन बातों को खुद नहीं समझे औरों को समझाया है

    मैं ने आपके आर्टिकल का कुछ लोगों से बातचीत में उपयोग किया तो कुछ अज़ीब से तर्क सुनने पड़े।

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  27. jaisi karni vaisi bharni.krishna bhagvan ne kaha hai (karm pradhan hai)

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