सफरनामा

18 मार्च, 2010

यज्ञ, जला हुआ स्कूल और संपादकों से निवेदन

केएनवीएएनपी-12-13
वेश्याओं के जुलूस के अगले दिन दशश्वमेध के बगल में मान मंदिर घाट पर ब्रह्मचारी साधुओं और बटुकों ने सामाजिक पर्यावरण की शुद्धि के लिए गणिका उच्छेद यज्ञ शुरू कर दिया। आटे के स्त्रियों के सैकड़ों पुतले बनाए गए। उन्हें नहलाने के बाद चंदन, सिंदूर, गुग्गुल आदि का लेप करने के बाद कच्चे सूत से लपेट कर सीढ़ियों पर सजा दिया गया। हर दिन हजारों की तमाशाई भीड़ के आगे टीवी चैनलों के कैमरो की उपस्थिति में गुरू गंभीर मंत्रोच्चार के बीच इन्हें हवन कुंड में फेंका जाता था। साधु और मांत्रिक गर्व से बताते थे कि इससे वेश्याएं समूल नष्ट हो जाएंगी और काशी पुन: पवित्र हो जाएगी।

इन साधुओं और बटुकों की अधिक विश्वसनीयता नहीं थी, इसलिए उन्हें बहुत समर्थन नहीं मिल पाया। इनमें से ज्यादातर साधु, पंडे थे जो खासतौर पर विदेशियों को फांसने के लिए टूटी-फूटी अंग्रेजी, फ्रेंच या स्पेनिश बोलते हुए घाटों पर अलबम लिए बैठे रहते थे। बटुक भी ऐसे थे जिन्हें पितृपक्ष के महीने में यजमानों की भारी भीड़ जुट जाने पर पुरोहित दिहाड़ी पर लगा लेते थे। उन्हें घाटों पर मुंडित सिरों के बीच थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पोथी थमाकर बिठा गया जाता था। पुराहित माइक्रोफोन पर मंत्र बोलते थे, वे उसे दुहराते थे। वे पुरोहित के निर्देशों की नकल कर यजमानों को उपनिर्देश देते थे। एक तरह से वे पिंडदान और तर्पण के दिहाड़ी मजदूरों की तरह थे।

हवन कुंड में पककर फट गई इन पुतलियों को विधि विधान पूर्वक गंगा में प्रवाहित कर दिया जाता था। रात में इन हवन कुंडों को घाटों पर सोने वाले भिखारी टटोलते थे और आग पर पकी इन पुतलियों का गूदा निकालकर खा जाते थे। वे अपनी भूख मिटाने के लिए वेश्याओं को वैसे ही खा रहे थे जैसे थोड़े पैसे वाले लोग अपनी भूख मिटाने के लिए वेश्याओं से संभोग करते हैं। जब मालाओं और धागों में लिपटी प्रवाहित पुतलियां नदी के किनारों पर तिर रही थीं और उनके नितंबो, स्तनों, पेट, जांघों, चेहरों का गूदा फूलकर पानी में छितर रहा था तब वेश्याएं राजनीतिक पार्टियों के दफ्तरों के फेरे लगाकर मदद की गुहार कर रही थीं।


डेढ़ महीने के बाद बदनाम बस्ती के बच्चों का स्कूल एक रात जला दिया गया। यह स्कूल बस्ती के बाहर एक खंडहर पर टीन शेड डालकर चलता था। स्कूल चलाने वाले युवक अभिजीत ने बहुत कोशिश की लेकिन रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई। सभी जानते थे कि किसने जलाया है लेकिन पुलिस ने अपनी तरफ से जांच कर निष्कर्ष निकाला कि वहां रात में जुआ खेला जाता था। रात में आग तापने के लिए जुआरियों ने जो अलाव जलाया था, उसी से आग लगी थी। अखबारों में भी यही छपा क्योंकि कोई सबूत नहीं था। जिसके आधार पर आग लगाने वालों को इस घटना का जिम्मेदार ठहराया जा सके।

यह लड़का अभिजीत दिल्ली विश्वविद्यालय से एम.फिल. करने के बाद कुछ दिन मध्य प्रदेश के सीधी जिले में बेड़िनियों के एक गांव में एक साल रहा था। यहां आकर उसने वेश्याओं के कुछ बच्चों को गोद लेकर पढ़ाना शुरू किया। अब उसके स्कूल में सौ से अधिक बच्चे पढ़ते थे और उसे विश्वास था कि ये बच्चे, उस नर्क में जाने से बच जाएंगे। वेश्याएं पहले अपने बच्चों को स्कूल नहीं भेजती थीं क्योंकि उन्हें यकीन ही नहीं था कि उन्हें कोई सचमुच पढ़ाना चाहता है। वह लगातार वेश्याओं से कहता रहता था कि वे अपनी आमदनी अपने पास रखें, उसे अपने पतियों यानि दलालों और भड़ुओं को न दें। उस पैसे को अपने और बच्चों पर खर्च करें।

वह बदनाम बस्ती के पुरुषों की आंख की किरकिरी था। वे स्कूल जलने से खुश थे। यहां भी ज्यादातर औरतें बिना पति के अकेले नहीं रह पाती थीं। उन्हें किसी न किसी से सुरक्षा की ओट चाहिए थी। ये पति यानि दलाल, भड़ुंए और साजिंदे ही उनके लिए ग्राहक पटाकर लाते थे और ज्यादातर पैसे हड़प लेते थे। वे आम पत्नियों की ही तरह उनके नाम पर व्रत और उपवास करती थीं और वे उन्हें आम पतियों की ही तरह पीटते थे। यह लड़का अभिजीत अब सब तरफ से मायूस होकर सारे दिन अखबारों के दफ्तरों में चपरासी से लेकर संपादक तक सबसे निवेदन करता रहता था कि वे बस एक बार चलकर अपनी आंखों से बदनाम बस्ती की हालत देख लें। वहां भुखमरी की हालत है, छह औरतें कोठे छोड़कर जा चुकी हैं और दूसरे जगहों पर धंधा ही कर रही हैं। यहां अगर पुलिस पिकेट नहीं उठती और उनका धंधा नहीं शुरू होता तो वे भूखों मरेंगी, या फिर चारों ओर फैल जाएंगी। इससे वेश्यावृत्ति कम नहीं होगी, बल्कि और बढ़ेगी। सी. अंतरात्मा की तरह, आम पत्रकारों की भी उसके बारे में राय यही थी कि बच्चों को पढ़ाने की आड़ में वह लड़कियों की तस्करी का रैकेट चलाता है और वेश्याओं की आमदनी से हिस्सा लेता है। वेश्याओं की भलाई का स्वांग करते हुए वह करोड़पति हो चुका है।

डेढ़ महीना बीतने के बाद भी किसी वेश्या ने थाने में जाकर सरकारी लोन की अर्जी नहीं दी थी और कोई भी नारी संरक्षण गृह जाने को तैयार नहीं हुई। ज्यादातर साजिंदों, दलालों के जाने के बाद यह मान लिया गया था कि जल्दी ही वे सभी कहीं और चली जाएंगी, सिर्फ बूढ़ी, बीमार औरते रह जाएंगी। जिनमें से कुछ को पुलिस उठाकर संरक्षण गृह में डाल देगी। बाकियों को खदेड़ दिया जाएगा जो घूमकर भीख मांगेगी। वैसे भी जनगणना विभाग वेश्याओं की गिनती भिखारियों के रूप में ही करता आया है।

साड्डे नाल रहोगे तो ऐश करोगे
एक दिन चुपचाप प्रकाश ने अभिजीत के सामने प्रस्ताव रखा, मैं तुम्हारे साथ वहां चल सकता हूं लेकिन मुजरा कराना पड़ेगा, फोटो खींचना चाहता हूं। उसके मन में मुजरा देखने सुनने की भी बहुत पुरानी दबी इच्छा थी जो इस समय आसानी से पूरी हो सकती थी। इस इच्छा से भी बड़ी वह गुत्थी थी जिसे खोलने के लिए मड़ुवाडीह जाना शायद जरूरी था।

एक शाम रुटीन के फोटो प्रेस में डाउनलोड करने के बाद वह जल्दी निकल गया और मड़ुंवाडीह की उस बस्ती में पहुंचकर उसने पाया कि वहां की बिजली काटी जा चुकी है। बस्ती के दोनों तरफ भरे पानी के उस पार बुलडोजरों की गड़गड़ाहट और छपाक-छपाक मिट्टी फेंकने की आवाजें आ रही थीं। पहली बार ध्यान से उसने कोठों को देखा, जिन्हें एक खास तरह के भ्रम के कारण कोठे कहा जाता था। एक टूटी फूटी सड़क के किनारे ईंटों के एक मंजिला, कहीं दुमंजिला मकान थे। ज्यादातर के पिछले हिस्से में पलस्तर नहीं था। पतली-पतली गलियों में खिड़कियों से लालटेनों और मोमबत्तियों की रोशनी आ रही थीं। बस्ती के दोनों तरफ बरसात का सड़ता पानी भरा था और चारों ओर हवा में बदबू थी, मच्छर भिनभिना रहे थे। सड़क किनारे की खाली पड़ी दुकानों की चाय की भट्ठियों में और छज्जों की छांव में अलाव जल रहे थे, जिनके गिर्द औरतें और रुखे बालों वाले कुम्हलाए बच्चे बैठे हुए थे। यह दलितों का कोई गांव लग रहा था। जहां उदास रात उतर रही थी।

मुजरे के तुरंता इंतजाम के तहत किसी घर से हारमोनियम, कहीं से ढोलक मंगाई गई। एक झबरे बालों वाला नशेड़ी लगता लड़का एक बैजों ले आया। एक घर के दालान में कई लालटेनें रखी गईं जिसकी छत के कोनों में मकड़ी के जाले थे जिनके आसपास सुस्त छिपकलियां रेंग रही थीं। दीवारों पर मामूली कैलेंडर और फ्रेमों में परिवारों के मेले, ठेले या चलताऊ स्टूडियोज में खिंचवाए फोटो लटक रहे थे। अंदर के दरवाजे पर नॉयलान की साड़ी को फाड़कर बनाया गया, चीकट हो चुका परदा लटक रहा था। थोड़ी देर में कमरा औरतों, बच्चों और दलालों से ठसाठस भर गया, उसे किसी तरह अपना कैमरा गोद में रखकर
ऊकड़ू बैठना पड़ा। परदे की ओट से एक काले रंग की मोटी सी औरत आई जिसके चेहरे पर पुते पाउडर के बावजूद चेचक के दाग झिलमिला रहे थे, बैठकर घुघंरू बांधने लगी। प्रकाश को लगा कि वह घुघंरू नहीं बांध रहीं, कहीं जाने से पहले जूते पहन रही है। उसके पीछे घुघंरू बांधे एक खूबसूरत सी लड़की आई जिसकी आंखे बिल्कुल भावहीन थीं। वह होंठ आगे की तरफ निकालकर बीच में खड़ी हो गई। उसे देख कर प्रकाश को लगा कि उसे कहीं पहले देखा है। वह इतनी दुबली थी कि एनीमिया की मरीज लगती थी।

अचानक सुर मिलाने के लिए टूटी भाथी वाले हारमोनियम ने हांफना शुरू किया और दोनों औरतें नाचने लगीं। वे हाथ-पैर ऐसे झटक रही थी जैसे उन पर जमी धूल झाड़ रही हों। दोनों ने भावहीन तरीके से एक चालू फिल्मी गाना गाया। एक ऊंघती बुढ़िया ने जैसे नींद में फरमाइश की, ‘बाबू को पंजाबी सुनाओ, पंजाबी।’

एक क्षण के लिए मोटी औरत ने होंठ फैलाकर प्रकाश की तरफ देखा फिर अपने आंचल को कमर से निकालकर सिर पर पटका बांध लिया। ढोलक की गमक के साथ उचकते हुए उन्होंने गाना शुरू किया, ‘बोले तारा रा रा, बोले तारा रा रा!
साड्डे नाल रहोगे तो ऐश करोगे, दुनिया के सारे मजे कैश करोगे...’

कई बच्चे भी कूदकर नाचने लगे और धक्का-मुक्की होने लगी। कमरे में धूल उड़ने लगी, लालटेनों के आगे कुहासा सा गया। अब चीख पुकार के बीच सिर्फ उछलती हुई आकृतियों का आभास भर हो रहा था मानो रात के धुंधलके में प्रेत नाच रहे हों। वाकई यह भूखे और क्रुद्ध प्रेतों का ही नाच था जिन्हें घेरकर सड़ते हुए पानी और पुलिस के पहरे में बंद कर दिया गया। धूल के गुबार के काऱण अब फोटो खींच पाना संभव नहीं रह गया था। वह उठकर बाहर निकल आया। चेहरे के सामने की धूल उड़ाने की बेकार कोशिश करते हुए अभिजीत ने कहा, ‘यही इनकी जिदंगी है सर।’

अभिजीत को साथ लेकर प्रकाश चला तो सड़क आते ही पुलिस वाले चिल्लाते हुए लपके। इससे पहले कि वह कुछ बोल पाता एक लाठी से मोटर साइकिल की हेडलाइट फूट कर छितरा चुकी थी। अभिजीत ने तेजी से कहा, मुड़ लीजिए, दूसरी तरफ से निकलिए जानबूझकर मार रहे हैं, ये प्रेस बताने पर भी सुनेंगे नहीं।

मुड़ते-मुड़ते एक लाठी अभिजीत की पीठ पर पड़ी वह बिलबिला गया। बस्ती के दूसरे छोर पर मुस्तैद पर पुलिस वाले दूर से ही लाठियां लहराते, गालियां देते हुए बुला रहे थे, वह समझ गया ये निकलने नहीं देंगे। आज की रात यहीं काटनी पड़ेगी। बहुत दिनों के बाद उसे उस रात सचमुच का डर लगा। लग रहा था जैसे पेट में पानी भर गया है और मुंह से बाहर आ जाना चाहता है। थोड़ी देर तक बस्ती के दोनों छोरों से गालियां लहरातीं आती रही, ‘साले, मादरचोद प्रेस के नाम पर रंडीबाजी करने आते हैं।’

मोटरसाइकिल खड़ी कर संयत होने के बाद दुखते हाथ को सेंकने के लिए वह एक अलाव के आगे बैठ गया। अभिजीत वहां पहले ही जैकेट उतारकर अपनी पीठ सेंक रहा था और दो बच्चे, सिपाहियों को गालियां देते हुए, मास्टर साहब की पीठ की मालिश कर रहे थे। दोनों नाचने वालियां यास्मीन और विमला उसे छेड़ रही थी, और कराओ, खुलेआम मुजरा, समुझावन-बुझावन का प्रसाद मिल गया न।

वे दोनों अब प्रकाश को देखकर मुस्करा रही थी। कुछ इस भाव से जैसे अब आटे-दाल का भाव समझ में कुछ समझ में आने लगा होगा पत्रकार जी को। दोनों के चेहरे पर चुहचुहा आए पसीने से पावडर जगह-जगह बह गया था। उसने यास्मीन से कहा, तुम दोनों नाचती अच्छा हो, खूब नाचती हो। वह जैसे बुरा मान गई, खाली पेट खाक नाचेंगे दीवाली अंधेरे में गई, शादी ब्याह में सट्टा होता था, वह भी बंद हुआ देखिए कितने दिन नुमाइश के लिए नाचते हैं। अलाव से फूस का एक तिनका खींचते हुए यास्मीन ने उलाहना दिया, जिनको खिलाया, पिलाया, बाप-भाई माना जब वही दुश्मन हो जाएं तो कोई क्या गाएगा और क्या नाचेगा।

प्रकाश ने अभिजीत से पूछा इनके कौन बाप-भाई है जो दुश्मन हो गए हैं। वह हंसा, ‘खुद ही देख लीजिए, अब रुक ही गए हैं तो सब समझ में आ जाएगा। उसके कहने पर विमला एक घर से एक छोटा सा फोटो अलबम ले आई। वापसी में उसके पीछे छोटी सी भीड़ चली आ रही थी। उसने फोटो दिखाने शुरू किए, ‘यह देखिए सावित्री की बिटिया का कन्यादान हो रहा है।’ अगल बगल बैठी कई औरतों, बच्चों के चेहरे उस फोटों में थे वे। सभी एक सरपत के मंडप के नीचे खड़े थे। एक आदमी झुका हुआ वर के पैर धो रहा था।

‘ये मायाराम पटेल हैं, जो इस लड़की के बाप हैं। यहीं से डेढ़ साल पहले शादी हुई थी आज यह हम लोगों को भगाने के लिए कचहरी पर धरना देकर बैठा हुआ है।

यह देखिए, असगरी बेगम के लड़के के खतने में सभासद तीरथराज दुबे मुर्गा तोड़ रहे हैं।
बोतलों, गिलासों, जूठी प्लेटों के पीछे दो औरतों को अगल-बगल दबाए तीरथराज दुबे फोटो से बाहर भहराने वाला था।

‘यह देखिए, हम लोगों के छोटे भइया सलमा से राखी बंधवा रहे हैं।’
पान की दुकान चलाने वाले राजेश भारद्वाज के हाथों में इतनी राखियां बंधी थी कि उसकी कलाइयां फूलदान लग रही थीं।

‘यह देखिए प्रधान जी सुहानी के साथ चांद पर जा रहे हैं।’
शिवदासपुर के उपप्रधान राम विलास यादव किसी मेले के स्टूडियो में चमकीली पन्नियों से सजे लकड़ी के चांद तारे पर एक लड़की से गाल सटाए बेवजह मुस्करा रहे थे।

‘यह देखिए... यह देखिए...वे एक के बाद एक मामूली कैमरों से खींचे हुए गैरमामूली फोटो दिखाए जा रही थीं।’(जारी)

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