सफरनामा

17 मार्च, 2010

महावर, आशिक का बैनर और पुतलियां

केएनवीएएनपी-11
पुलिस वाले मंड़ुवाडीह की बदनाम बस्ती से फिर किसी लड़की को न घसीट ले जाएं, इसकी चौकसी के लिए टोलियां बनाकर रात में गश्त की जा रही थी। डर कर भागने वालियों को मनाने के लिए पंचायत हो रही थी। अदालत जाने के लिए चंदा जुटाया जा रहा था। पुराने ग्राहकों और हमदर्दों से संपर्क साधा जा रहा था। शहर में फैली इस कचरघांव के बीच मड़ुंवाडीह की बदनाम बस्ती में चुपचाप अखबारों पर रोशनाई और महावर से अनगढ़ लिखावट में ‘हमको वेश्या किसने बनाया, ‘काशी में किसने बसाया, जो किस्मत से लाचार-उन पर भी बलात्कार, पहले पुनर्वास करो-फिर धंधे की बात करो जैसे नारे लिखे जा रहे थे। पुआल, पॉलीथीन और कागज के अलावों पर एल्यूमिनियम की पतीलियों में पतली लेई पक रही थी। एक पुराना कस्टमर जो पेंटर था, बैनर लिखकर दे गया जिस इतनी फूल-पत्तियां बना दी थीं कि जो लिखा था, छिप गया था। स्कूल चलाने वाले लड़के अभिजीत ने राष्ट्रपति से लेकर कलेक्टर तक के नाम ज्ञापन लिखे।

एक दिन सुबह वे अचानक, चुपचाप अपने बच्चों, भूखे खौरहे कुत्तों, सुग्गों के पिंजरों, पानदानों, खाने की पोटलियों, पानी की बोतलों के साथ हाथ से सिली जरी के किनारी वाले, फूलपत्तियों से ढके बैनर के पीछे मुख्य सड़क पर आ खड़ी हुईं। आगे वही लड़का अभिजीत था और सबके हाथों में नारे लिखी तख्तियां थीं। यह अब तक के ज्ञात इतिहास में वेश्याओं का पहला जुलूस था जो आठ किलोमीटर दूर कचहरी पर प्रदर्शन करने और कलेक्टर को मांग-पत्र देने जा रहा था। तीन सौ औरतों की लंबी कतार। इनमें से ज्यादातर बस्ती में लाए जाने के बाद पहली बार बाहर शहर में निकलीं थीं। उन्हें देखने के लिए ट्रैफिक थम गया, सड़कों के किनारे और मकानों के छज्जों पर लोगों की कतारें लग गईं।

रंडियां... रंडियां... देखो, रंडियां

लेकिन वे किसी को नहीं देख रही थीं, उनकी आंखों में भीड़ से घिरे जानवर के भय की परछाई थी और रह-रहकर गुस्सा भभक जाता था। लड़ेंगे... जीतेंगे, लड़ेंगे.. जीतेंगे वे किसी का सिखाया हुआ, अजीब सा नारा लगा रही थीं जिसका उनकी जिंदगी और हुलिए से कोई मेल नहीं था। ज्यादातर औरतें बीमार, उदास और थकी हुई लग रही थीं। मामूली साड़ियों से निकले प्लास्टिक की चप्पलों वाले पैर संकोच के साथ इधर-उधर पड़ रहे थे मानो सड़क में अदृश्य गड्ढे हों, जिनमें गिरकर समा जाने का खतरा था। बच्चे और कुत्ते भी सहमे हुए थे। नारे लगाते वक्त उठने वाले हाथों में भी लय नहीं झिझक और बेतरतीबी थी। लेकिन उनकी चिंचियाती, भर्राई आवाजों में कुछ ऐसा मार्मिक जरूर था जो रह-रहकर कचोट जाता था। उनके साथ-साथ सड़कों के किनारे-किनारे लोग भी गरदनें मोड़े चलने लगे। लोगों के घूरने से घबराकर गले में हारमोनियम और ढोलक लटकाए सांजिदों ने तान छेड़ी और वे चौराहों पर रुक-रुक कर नाचने लगीं।

झिझकते, नाचते-गाते यह विशाल जुलूस जब कचहरी में दाखिल हुआ तो वहां भी सनसनी फैल गई।
वे नारे लगाती कलेक्टर के दफ्तर के सामने के बरामदे और सड़क पर धरने पर बैठीं और चारों ओर तमाशबीनों का घेरा बन गया। जल्दी ही वकील, मुवक्किल, पुलिसवाले और कर्मचारी कागज की पर्चियों पर गानों की फरमाइशें लिखकर उन पर फेंकने और नोट दिखाने लगे। कुछ ढीठ किस्म के वकील हाथों से मोर और नागिन बनाकर भीड़ में बैठी कम उमर की लड़कियों को नाचने के लिए इशारे करने लगे। वेश्याओं ने उनकी ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया, वे अपने बच्चों को संभालती नारे लगाती बैठी रहीं। दो-ढाई घंटे बाद जिलाधिकारी के भेजे प्रोबेशन अधिकारी ने आकर कहा कि विभाग के पास वेश्याओं के पुनर्वास के लिए कोई फंड और योजना नहीं है। इसके लिए केन्द्र और राज्य सरकार को लिखा गया है। उनकी मांगे सभी संबंधित पक्षों तक पहुंचा दी जाएंगी। नारी संरक्षण गृह में इतनी जगह नहीं है कि सभी को रखा जा सके। जिलाधिकारी ने आश्वासन दिया है कि अगर वे धंधा नहीं करें तो अपने घरों में रह सकती हैं, उनके साथ जोर-जबरदस्ती नहीं की जाएगी। जिलाधिकारी ने राहत फंड की उपलब्धता जानने के लिए समाज कल्याण अधिकारी को बुलवाया लेकिन पता चला कि वे इन दिनों जेल में हैं। उनके विभाग के क्लर्कों और स्कूलों के प्रधानाचार्यों ने मिलकर हजारों दलित छात्रों के नाम से फर्जी खाते खोलकर उनके वजीफे हड़प लिए थे। इस मामले का भंडा फूटने के बाद कल्याण विभाग पर इन दिनों ताला लटक रहा था।

भीड़ में से एक बुढ़िया प्रोबेशन अधिकारी के आगे अपनी मैली धोती का आंचल फैलाकर खड़ी हो गई और भर्राई आवाज में कहने लगी,... जब तक जवानी रही सरकार आप सब लोगन की सेवा किया। ऊपर वाले ने जैसा रखा, रह लिए अब बुढ़ापा है। सरकार उजाड़िए मत कहां जाएंगे, कहीं ठौर नहीं है। वेश्याएं हंसने लगी, बुढ़िया प्रोबेशन अधिकारी को ही कलक्टर समझकर फरियाद कर रही थी। बुढ़िया बोले जा रही थी, ‘जब तक जवानी रही आपकी सेवा किया सरकार।’ तमाशबीन भी हंसने लगे। प्रोबेशन अधिकारी के चेहरे का रंग उतर गया। वह जल्दी से कुछ बोलकर मुड़ा और अंग्रेजों के जमाने की कचहरी के बरामदे के विशाल खंभों के पीछे अदृश्य हो गया। (जारी)

3 टिप्‍पणियां:

  1. । ओह इतना मार्मिक की आंख भर आई, अब तक ब्लॉग पर पढ़े गए किसी भी रचनाओं में श्रेष्ठ। कितना दर्द जब बुढ़ीया कह रही थी सरकार जब तक जवानी रही आपकी सेवा की........................

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  2. जिलाधिकारी ने राहत फंड की उपलब्धता जानने के लिए समाज कल्याण अधिकारी को बुलवाया लेकिन पता चला कि वे इन दिनों जेल में हैं।

    नमन, ये स्वाधीन राष्ट्र अजर - अमर रहे.

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