सफरनामा

04 नवंबर, 2009

नक्सली हिंसा और भीष्म पितामह का उपदेश!

आईबीएन7 पर संवाददाता एहेतशाम खान की दिल दहला देने वाली खबर चल रही थी। ये कहानी भूख और बीमारी के कहर में लिपटे झारखंड के गढ़वा जिले के आदिवासियों की थी। मिराल ब्लाक के गांव टेटुका कलां के साठ पार के बूधन भुइयां कांपती आवाज में बता रहे थे कि उनके दो नौजवान बेटे परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाने की जद्दोजहद में भरी जवानी मौत का शिकार बन गए। भूख ने शरीर को इस कदर तोड़ दिया था कि घात लगाए बैठी बीमारियों का हमला बर्दाश्त नहीं हुआ। बूधन की एक-एक अंतड़ी टी.वी के पर्दे पर चमक रही थी। तन पर बस लाज ढकने भर का कपड़ा था। बता रहे थे कि किसी तरह मक्के का जुगाड़ हो पाता है। वो भी रोज नहीं। सरकारी मदद का कोई चेहरा आसपास नजर नहीं आता। हताश बूधन जैसे भविष्यवाणी कर रहे थे—‘इसी तरह एक दिन हम भी मर जाएंगे’

अचानक याद आया कि गढ़वा तो माओवादियों के असर वाला जिला माना जाता है। यानी जिस दिन माओवादी टेटुका कलां में एक बैनर टांग देंगे या बूधन भुइयां चुपचाप मरने के बजाय हालात से लड़ने की बात करने लगेंगे, भारत की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा हो जाएंगे। सुरक्षा बलों की गोलियां बूधन को निशाना बनाने के लिए आजाद होंगी और सवाल उठाने की इजाजत नहीं होगी। आजादी के 62 साल बाद आदिवासियों की यही नियति है।

कहीं ऐसा तो नहीं कि माओवादी हौव्वे के पीछे शासक वर्ग की आपराधिक नाकामी को छिपाने की नीयत है। आंकड़े बताते हैं कि आजादी के बाद की तमाम विकास परियोजनाओं के नाम पर पांच करोड़ से ज्यादा आदिवासियों को विस्थापित किया गया। जल-जंगल-जमीन पर उनके अधिकार को कानून बनाकर छीन लिया गया पर कहीं से आवाज नहीं आई। ये संयोग नहीं कि जिसे माओवादियों का लाल गलियारा कहकर प्रचारित किया जाता है, वो दरअसल, भारत का आदिवासी बहुल क्षेत्र है। जिसकी जमीन के नीचे विशाल खनिज संपदा दबी पड़ी है। दुनिया की तमाम कंपनियों की इस पर नजर है। सरकार से वे समझौता भी कर चुकी हैं। उन्हें जमीन चाहिए। कीमत आदिवासियों को चुकानी पडे़गी। यहां सरकारी विकास योजनाओं का दूसरा मतलब आदिवासियों को उनकी जमीन से खदेड़ना है।

मेरे सामने 13 सितंबर 1946 को संविधान सभा में दिया गया कैप्टन जयपाल सिंह का भाषण है- "अगर भारतीय जनता के किसी समूह के साथ सबसे बुरा व्यवहार हुआ है तो वो मेरे लोग (आदिवासी) हैं। पिछले छह हजार सालों से उनके साथ उपेक्षा और अमानवीय व्यवहार का ये सिलसिला जारी है। मैं जिस सिंधु घाटी सभ्यता की संतान हूं, उसका इतिहास बताता है कि बाहरी आक्रमणकारियों ने हमें जंगलों में रहने के लिए मजबूर किया। हमारा पूरा इतिहास बाहरियों के शोषण और कब्जे से भरा है जिसके खिलाफ हम लगातार विद्रोह करते रहे। बहरहाल, मैं पं.नेहरू और आप सब के इस वादे पर भरोसा करता हूं कि हम एक नया अध्याय शुरू कर रहे हैं। ऐसा भारत बनाने जा रहे हैं जहां सभी को अवसर की समानता होगी और किसी की भी उपेक्षा नहीं की जाएगी। "

कैप्टन जयपाल सिंह ऐसा नाम नहीं है जिसे भुला दिया जाए। 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक में भारत को हॉकी का पहला स्वर्णपदक जिस टीम ने दिलाया था, जयपाल सिंह उसी के कैप्टन थे। बाद में बतौर आदिवासी नेता मशहूर हुए और संविधान सभा के सदस्य चुने गए। उनके इस भाषण में 1855 के संथाल विद्रोह, 1890 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए 'उलगुलान' और 1911 के बस्तर विद्रोह की गूंज है। ये बताता है कि हजारों साल के दमन के खिलाफ विद्रोह की इस परंपरा को इस आशा से स्थगित किया गया था कि आदिवासियों को बेहतर जिंदगी नसीब होगी।

पर अब आदिवासी इस युद्धविराम को तोड़ रहे हैं। इसके साथ ही वे रातो-रात माओवादी घोषित कर दिए गए हैं जो इस देश की सत्ता पर कब्जा करने के लिए हथियारबंद हो रहे हैं। अजब तस्वीर सामने है। पिछले दिनों राजधानी एक्सप्रेस के बहुप्रचारित हाईजैक (हालांकि ट्रेन कहीं और नहीं ले जाई गई। तीर-कमान के बल पर ट्रेन वैसे ही कुछ घंटे रोके रखी गई जैसे देश की सभी पार्टियां देश के हर हिस्से में अपने आंदोलन के दौरान करती है) का अंत पैन्ट्री कार में रखा दाल चावल और कंबल लूटे जाने के साथ हुआ। यानी अलकायदा से लेकर लिट्टे तक से हथियार जुटा रहे माओवादियों के पास दाल चावल और कंबल नहीं है। ये गजब का रूपक है। ‘राजधानी’ के खाने पर भूखे-नंगे लोग हथियार लेकर टूट पड़े हैं।

वाकई ये युद्द है, जिसे चिदंबरम साहब हर हाल में जीतना चाहते हैं। पर दिक्कत ये है कि इस युद्ध के लिए वो जो तर्क दे रहे हैं, वो सिक्के का बस एक पहलू दिखाते हैं, और खराब नीयत का सुबूत हैं। उनका सबसे बड़ा तर्क है हिंसा का, जिसके लिए माओवादी बदनाम हैं, और लोकतंत्र का, जिसे माओवादी खत्म कर देना चाहते हैं।

पहले बात हिंसा की। महावीर, बुद्ध और उनके ढाई हजार साल बाद गांधी जी ने भारतीय समाज में अहिंसा के मंत्र को जोरदार ढंग से फूंका। लेकिन जनता के बीच न्याय के लिए हुई हिंसा कभी भी त्याज्य नहीं मानी गई। हिंदुओं का एक भी देवता ऐसा नहीं है जिसके पास कोई विशिष्ट हथियार न हो। ये देवता अपने हथियार से अक्सर किसी असुर का गला काटते नजर आते हैं। और मुसलमानों के लिए कर्बला की लड़ाई हमेशा ही जीवनदर्शन रही है। इसी तरह गांधी के जवाब में बम का दर्शन लिखने वाले भगत सिंह का नाम आते ही आज भी भारतीयों का खून गर्म हो जाता है। यानी हिंसक कह देने भर से आदिवासी समुदाय माओवादियों से दूर नहीं होंगे। लोकतंत्र के पहरुओं को साबित करना होगा कि उनकी व्यवस्था हिंसा से रहित है। वे संगीनों के जरिए आदिवासियों को उजाड़ने के लिए जंगल नहीं पहुंचे हैं। बल्कि उनकी जिंदगी बेहतर करने के लिए प्रतिबद्ध हैं।

वैसे भी, न्याय के लिए हिंसा का सहारा लेने के लिए भारतीयों को मार्क्स, लेनिन या माओ पढ़ने की जरूरत नहीं पड़ी। जरा महाभारत के शांतिपर्व के इस श्लोक पर ध्यान दीजिए। सरशैया पर पड़े भीष्म राजकाज का गुर सीखने गए युधिष्ठिर से कहते हैं—

“ अहं वो रक्षितेत्युक्त्वा यो न रक्षति भूमिप:
स संहत्य निहंतव्य: श्वेन सोन्माद आतुर:”

(जो राजा प्रजा से कहता है कि मैं तुम्हारी रक्षा करूंगा, किंतु नहीं करता, वह पागल औऱ बीमार कुत्ते की तरह सारी जनता द्वारा मार डालने लायक है)

समझा जा सकता है कि महाभारत को घर में न रखने की बात क्यों प्रचारित की गई थी। शासक वर्ग ऐसी बातों से डरता है। इसका मतलब ये नहीं कि हिंसा किसी समस्या का समाधान है। लेकिन अन्याय के रहते अहिंसा की कल्पना वैसे ही है जैसे आग के निकट ताप न होने या पानी पड़ने पर गीला न होने की कल्पना।


ऐसा ही मसला लोकतंत्र का भी है। लाल गलियारे में रहने वाले आदिवासियों के लिए लोकतंत्र का वही मतलब नहीं है जो महानगरों के सुरक्षित खोहों में रहने वालों के लिए है। जो बार-बार अपनी जमीन से खदेड़े जाते हों, जिनकी स्त्रियों के खिलाफ बलात्कार की घटनाओं की गिनती न हो सके और जिनके बच्चों को दूध और दवा के अभाव में हर पल तड़पना पड़े, वे इस लोकतंत्र को आनंदवन कभी नहीं मानेंगे।

और जब देश की सभी राजनीतिक पार्टियां उनके मुद्दे पर खामोश हों तो वो क्या करें। हद तो ये है कि बौद्धिकों का एक तबका इसे विकास की स्वाभाविक परिणति मान रहा है। आखिर उनके सपनों के देश अमेरिका की महान सभ्यता रेड इंडियनों के संहार पर ही रची गई थी। वे आदिवासियों की समस्याओं पर कंधे उचकाने के अलावा कुछ नहीं करते। उनके लिए समस्या तभी है जब आदिवासी मरने-मारने पर आमादा हो जाएं। आदिवासी जीवन की अमानुषिक तस्वीर उनके लिए कोई समस्या नहीं है। उनके लिए कारण नहीं, परिणाम ही महत्वपूर्ण है। वे इस सवाल से तो खासतौर पर चिढ़ते हैं कि माओवादी जिस स्थिति का फायदा उठा रहे हैं उसका निर्माता कौन है?

खैर, अभी-अभी प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का बयान आया है कि माओवादियों का दिल जीतने की जरूरत है। तो क्या चिदंबरम का युद्ध सिद्धांत पलटा जाएगा..। ये आसान नहीं है, क्योंकि यहां भी दिल जीतने का रास्ता पेट से होकर गुजरता है। और आदिवासियों का पेट भरना?...बाप रे बाप...सरकारों से क्या-क्या तो उम्मीद की जाती है!