सलमान खान को 'दस का दम' में जब पहली बार 'कितने प्रतिशत भारतीय' कहते देखा, तो जरा चौंका था। आजकल जिस तरह तत्सम् शब्दों के प्रति हिकारत का भाव है, उसे देखते हुए 'फीसदी' और 'हिंदुस्तानी' कहना कहीं बेहतर होता। लेकिन फिर विचार करने पर लगा कि कार्यक्रम निर्देशक का ये सुचिंतित फैसला होगा। वो चाहता है कि 'दस का दम' गैर हिंदी क्षेत्र में भी सराहा जाए। और इसमें क्या शक कि तत्सम् शब्दों की पहुंच तद्भव की तुलना में ज्यादा है, क्योंकि तमिल जैसे अपवाद को छोड़ दें तो ज्यादातर क्षेत्रीय भाषाएं संस्कृत से उपजी हैं।
तमाम दूसरे लोगों की तरह मैं भी उर्दू-हिंदी के मेल से बनी हिंदुस्तानी जुबान का शैदाई हूं। ये जुबान कानों में मिठास घोलती है। लेकिन अगर ये 'कान' मेरा न होकर लखनऊ, अलीगढ़, इलाहाबाद के घेरे से बाहर रहने वाले किसी शख्स का हो तब? क्या उसमें भी ऐसी ही मिठास घुलेगी?..जाहिर है, पूरे देश से संवाद के लिए ऐसी हिंदी बनानी होगी जिसकी अखिल भारतीय व्याप्ति हो। और ऐसा करते हुए हमें तत्सम् शब्दों की मदद लेनी ही पड़ेगी। यही नहीं, क्षेत्रीय भाषाओं से भी शब्द लेकर हिंदी का भंडार बढ़ाना पड़ेगा। ऐसा करना अखबारों के लिए जरूरी नहीं, क्योंकि वे किसी क्षेत्र विशेष को ध्यान में रखकर निकाले जाते हैं। उनकी भाषा में क्षेत्रीय बोली की छौंक भी चाहिए, लेकिन टेलीविजन जैसे माध्यम के लिए ये बात ठीक नहीं, जो एक साथ पूरे देश में देखा जाता है। फिर चाहे वे मनोरंजन चैनल हों या न्यूज चैनल।
वैसे, भाषा के संबंध में कोई हठी नजरिया ठीक नहीं है। शुद्दतावाद के आग्रह का वही नतीजा होगा जो संस्कृत के साथ हुआ (संसकीरत है कूपजल, भाखा बहता नीर)। किसी भी भाषा का विकास इस बात पर निर्भर करता है कि उसमें दूसरी भाषाओं के शब्दों को पचाने की क्षमता किस हद तक है। ऐसा करने से उसका शब्द भंडार बढ़ता है। लेकिन अफसोस कि बात ये है कि उर्दू से लेकर अंग्रेजी शब्दों को हिंदी में समो लेने के आग्रही लोग संस्कृतनिष्ठ या तत्सम् शब्दों के आने से मुंह बिचकाने लगते हैं। शायद उन्हें ये जानकारी नहीं कि संविधान में नए हिंदी शब्दों के लिए संस्कृत की ओर देखने का स्पष्ट निर्देश है। उसके पीछे भी हिंदी को अखिल भारतीय स्तर पर स्वीकार्य बनाने की समझ थी।
अखबारो और न्यूज चैनलों में इन दिनों अंग्रेजी शब्दों पर बड़ा जोर है। सामान्य प्रवाह में ऐसे शब्दों का आना कतई गलत नहीं। लेकिन आजकल ऐसे कठिन अंग्रेजी शब्दों के इस्तेमाल का आग्रह बढ़ रहा है जिनके बेहद आसान पर्याय उपलब्ध हैं। वे अगर तत्सम हैं तो भी अंग्रेजी शब्दों से आसान हैं। जरा ध्यान दीजिए..आजकल इन्फ्रास्ट्रक्चर शब्द का बड़ा चलन है जबकि 'बुनियादी ढांचा' जैसा शब्द उपलब्ध है। आखिर साइकोलाजी (मनोविज्ञान), ग्लोबलाइजेशन (भूमंडलीकरण या वैश्वीकरण),सिक्योरिटी (सुरक्षा),फाइटर प्लेन (लड़ाकू विमान), बार्डर लाइन (सीमा रेखा), लाइन आफ कंट्रोल (नियंत्रण रेखा), गल्फ कंट्रीज (खाड़ी देश) युनाइटेड नेशन्स (संयुक्त राष्ट्र), कोआपरेटिव (सहकारी), कारपोरेशन (निगम) का इस्तेमाल क्यों किया जाए। होना तो ये चाहिए कि अगर अंग्रेजी और हिंदी के दो कठिन शब्दों में चुनना हो तो तरजीह हिंदी शब्द को दी जानी चाहिए। कठिन और सरल का संबंध व्यवहार से है। एक जमाने में 'आकाशवाणी' शब्द भी कठिन रहा होगा लेकिन धीरे-धीरे ये गांव-गांव आल इंडिया रेडियो का पर्याय हो गया। बीस साल पहले 'अभियंता' शब्द बेहद कठिन था, आज नहीं है।
पिछले दिनों वाय.एस राजशेखर रेड्डी के हेलीकाप्टर का सुराग लग जाने के बाद एक न्यूज चैनल ने ब्रेकिंग खबर चलाई---'रेड्डी का हेलीकाप्टर ट्रेस कर लिया गया।' यहां 'ट्रेस' शब्द का बेहद आसान पर्याय 'खोज' हो सकता था। क्या 'खोज' कोई कठिन शब्द है। जाहिर है, ये भाषा के प्रति लापरवाही का मसला है जबकि पत्रकार के लिए भाषा वैसा ही औजार है जैसा बढ़ई के लिए बसूला या किसान के लिए हंसिया। लेकिन हिंदी तो गरीब की जोरू है, जो चाहे मजाक करे या जितनी चाहे छूट ले। कहीं कोई सुनवाई नहीं। इस लापरवाही (अपराध) का चरम 'आरोपी' और 'आरोपित' शब्द के इस्तेमाल में दिखता है। 'आरोपी' उसे कहते हैं जो आरोप लगाए और 'आरोपित' वो होता है जिस पर आरोप लगे। लेकिन न्यूज चैनलों में इनका बिल्कुल उल्टे अर्थ में इस्तेमाल होता है। हद तो ये है कि कुछ अखबार भी यही गलती करते हैं।
देखते-देखते हिंदी ऐसी ताकत अख्तियार करती जा रही है जिसकी कुछ साल पहले कल्पना भी नहीं थी। कुछ दिन पहले तक जो लोग हिंदी के अंत की घोषणा कर रहे थे, आज वे कमाई के लिए हिंदी पर निर्भर हैं। टेलिविजन चैनलों के 75 फीसदी हिस्से पर हिंदी का कब्जा है और हिंदी अखबारो के सामने अंग्रेजी अखबारों की कोई हैसियत नहीं है। हिंदी में बनने वाले फिल्में दुनिया में किसी भी भाषा में बनने वाली फिल्मों से ज्यादा व्यापार करती हैं। पश्चिम के कुशल व्यापारी इस संकेत को समझ रहे हैं और अमेरिका जैसे देश करोड़ो डालर हिंदी सीखने में खर्च कर रहे हैं।
यानी, वक्त आ गया है कि हिंदी वाले हीनभावना से उबरें। इस आतंक से उबरें कि मुक्ति की भाषा अंग्रेजी है। अंग्रेजी केवल साढ़े चार देशों (अमेरिका, इंग्लैंड, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और आधा कनाडा)की भाषा है। भारत मे सत्ता के गलियारों से अंग्रेजी का अंत हो चुका है। वहां हिंदी या क्षेत्रीय भाषाएं ही राज कर रही हैं। फिर तकनीक तेजी से अपना काम कर रही है। हो सकता है कि आने वाले दिनों में कंप्यूटर पर एक क्लिक करने से सटीक अनुवाद हासिल हो जाए। तब अंग्रेजी जानने या न जानने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। ऐसे में अखिल भारतीय स्तर पर एक मानक हिंदी की आवश्यकता होगी, जो तत्सम शब्दों से कटकर नहीं, उन्हें अपना कर बनेगी।
मत भूलिए कि मूलरूप से गुजराती भाषी और अंग्रेजी में निष्णात महात्मा गांधी ने सौ साल पहले 'हिंद स्वराज' में अंग्रेजों को ललकारते हुए साफ लिखा था कि भारत की भाषा हिंदी है, आपको उसे सीखना पड़ेगा। अंग्रेज (पश्चिम) तो इस बात को समझने लगा है। सवाल है कि हम कब समझेंगे।
14 सितंबर, 2009
04 सितंबर, 2009
इतिहास का भूत!
इतिहासविद् ई.एच.कार ने इतिहास की परिभाषा दी है- इतिहास भूत और वर्तमान के बीच अविरल संवाद है। अरसा पहले इलाहाबाद विश्विवद्यालय के मध्य एवं इतिहास विभाग के उस नीमअंधेरे लेक्चर थिएटर में युवा शिक्षक श्री हेरंब चतुर्वेदी ने इस परिभाषा को बताते हुए पहला पाठ पढ़ाया था। बी.ए.का पहला दिन था। इंटर के बाद विज्ञान छोड़ आर्ट्स पढ़ने आए मेरे जैसे तमाम विद्यार्थी ये देख कर परेशान थे कि यहां इतिहास को विज्ञान बताया जा रहा था। हम तो विज्ञान से पिंड छुड़ाकर आए थे और यहां भी! धत् तेरे की।
बहरहाल इलाहाबाद स्कूल आफ हिस्ट्री में कूट-कूट कर भरा गया कि इतिहास वही है जो दस्तावेजों या अन्य सुबूतों से प्रमाणित किया जा सके। बाकी गल्प। हुआ भी यही। जल्दी ही मन की दुनिया में नायकों की तरह इतराती तमाम हस्तियों के दामन दागदार नजर आने लगे और घोषित खलनायकों के अच्छे कामों की फेहरिश्त भी सामने थी। दीन-ए-इलाही वाला फरिश्ता जैसा अकबर राजपूताने में खून सनी तलवार लेकर विधर्मियों का नाश कर रहा था तो मंदिर विध्वंसक औरंगजेब चित्रकूट के बालाजी मंदिर और उज्जैन के महाकालेश्वर में 24 घंटे घी के दिए जलाने और भगवान को भोग लगाने के लिए जागीर देने का फरमान जारी कर रहा था। शिवाजी औरंगजेब से दक्षिण की सरदेशमुखी और चौथ वसूली के अधिकार पर समझौता वार्ता करने आगरा आए थे। उन्हें महल में रखा गया था जहां से, समझौता न हो पाने पर वे निकल भागे, न कि किले की काल कोठरी में कैद थे, जैसा कि प्रचार है।
शिवाजी के खिलाफ औरंगजेब का सबसे बड़ा हथियार थे मिर्जा राजा जयसिंह और शिवाजी के सेनानायक का नाम था दौलत खां। उनकी हिंदू पदपादशाही की स्थापना में बीजापुर के मुसलमान सैनिकों की भूमिका किसी से कम नहीं थी। जब शाहजहां के अंत समय उत्तराधिकार का युद्ध हुआ तो हिंदू हो जाने का आरोप झेल रहे दारा शिकोह के खिलाफ कट्टर मुसलमान औरंगजेब का साथ देने में धर्मप्राण राजा जसवंत सिंह और मिर्जा राजा जय सिंह जरा भी नहीं हिचके। यही नहीं, मुगलों के खिलाफ लंबी लड़ाई ल़ड़ने वाली सिख सेना औरंगजेब के बाद हुए उत्तराधिकार युद्ध में बहादुरशाह प्रथम के साथ थीं। यानी न कोई ‘पक्का हिंदू’ था और न कोई ‘पक्का’ मुसलमान।‘
वाकई दिमाग चकरा गया था। बाद में हैरान मन को राहत मिली जब निदा फाजली का ये शेर सुना-‘हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना कई बार देखना।‘ यकीन हो गया कि दुनिया सिर्फ काली-सफेद नहीं है। और सच्चाई का रंग अक्सर धूसर होता है। लेकिन हाल में जसवंत सिंह की जिन्ना पर लिखी किताब ने जो विवाद पैदा किया, उसने बताया कि ये सारा ज्ञान किताबी है। हकीकत की दुनिया में इतिहासबोध दूर की कौड़ी है। इतिहास का जाम किस्सों की सुराही से ही ढालना पसंद किया जाता है। यही वजह है कि पाकिस्तान में गांधी जी की भूमिका नकारात्मक बताई जाती है और भारत मे जिन्ना तो खैर खलनायकों के सिरमौर हैं हीं। स्वाद तो अर्धसत्य में है, फिर पूरे सच से मुंह कड़वा क्यों करें।
पहले आडवाणी और अब जसवंत सिंह को जिन्ना में जो धर्मनिरपेक्षता नजर आ रही है, वो भी अर्धसत्य ही है। जिन्ना का वाकई मजहब से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन में किनारे कर दिए जाने से आहत होकर वे हिंदू-मुसलमान के दो कौम होने के सिद्धांत के साथ खड़े हो गए। इसे हिंदू महासभा के अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर ने सबसे पहले सामने रखा था, जिसे गांधी जी के नेतृत्व वाले आंदोलन ने नकार दिया था। लेकिन जब जिन्ना ने इस सिद्धांत को पकड़ा तो आग भड़क गई। सीधी कार्रवाई के नाम पर बंगाल में जैसा खून बहा, वो कौन भूल सकता है। आखिरकार पाइप से धुंआं उगलते जिन्ना ने पाकिस्तान ले लिया। ये अलग बात है कि इसका भी उनके पास कोई स्पष्ट खाका नहीं था। अगर उनके निजी चिकित्सक सेना के डाक्टर कर्नल इलाहीबख्श पर भरोसा करें तो मौत के कुछ दिन पहले जिन्ना ने गहरी उदासी से कहा था-डाक्टर, पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल है। ( 1949 में प्रकाशित कर्नल इलाहीबख्श की किताब ‘कायदे आजम ड्यूरिंग हिज लास्ट डेज’, में इसका जिक्र है। बाद में 1978 मे जब कायदे आजम अकादमी, कराची ने इसे प्रकाशित किया तो ये अंश हटा दिया गया। तब तक ‘डिफेंस आफ आइडिया आफ पाकिस्तान एक्ट’ बन चुका था।)
जसवंत सिंह कहते हैं कि बंटवारे के लिए जिन्ना नहीं नेहरू और पटेल जिम्मेदार थे। इतिहासबोध कहता है कि कोई एक व्यक्ति न आजादी दिला सकता है, और न बंटवारा करा सकता है। जिन्ना को चाहे जितनी गाली दी जाए, पटेल, नेहरू यहां तक कि गांधी भी बंटवारे के लिए राजी हो गए थे। यानी सहमति सबकी थी। फिर जिन्ना अकले दोषी या निर्दोष कैसे हो सकते हैं। सच्चाई ये है कि भारतीय नेता डायरेक्ट एक्शन से होने वाले खून-खराबे से डर गए थे। वो ये नहीं भांप पाए कि विभाजन हुआ तो कहीं ज्यादा खून बहेगा। फिर एक हकीकत ये भी है कि अखंड भारत एक भावनात्मक विचार चाहे हो, अतीत का कोई कालखंड ऐसा नहीं था जब भारत का नक्शा इतना बड़ा रहा हो। कभी कोई राजा या बादशाह ताकतवर हुआ तो उसने बड़ा भूभाग जीत लिया लेकिन एक प्रशासनिक इकाई के तहत पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को अंग्रेज ही पहली बार लाए थे। इसलिए शायद जो मिल रहा था उसे लेकर ही हमारे नेताओं ने नया भारत बनाना बेहतर समझा। कोई ये भी कह सकता है कि उनमें कोई बिस्मार्क या लिंकन जैसे साहसी नहीं था जो एक विचार के लिए गृहयुद्ध के लिए तैयार हो जाता।
लेकिन दिलचस्प बात ये है कि विभाजन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार कारक को लेकर सबसे कम बात हो रही है। वो कारक है साम्राज्यवाद। जिसने दुनिया के सबसे समृद्ध देश की रग-रग को चूस लिया और जब अपने ही ओठ से खून निकलने लगा तो मुंह पोंछते हुए निकल गया। या कहिए उसने शक्ल बदल ली। साम्राज्यवाद नए-नए रूपों में भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं पूरे दक्षिण एशिया पर खूनी पंजे फैलाए हुए है। यही वजह है कि भूख और बेकारी से लड़ने के बजाय इस क्षेत्र के देश हर वक्त जंगी मुद्रा में रहते हैं। सरकारें उसकी चेरी हैं और जनता चारा।
इलाहाबाद विश्विविद्यालय से इतिहास का वो आखिरी सबक बार-बार याद आता है जो डी.फिल की डिग्री के साथ मिला था—'जो इतिहास से सबक नहीं लेते वो इतिहास दोहराने को अभिशप्त होते हैं।'
बहरहाल इलाहाबाद स्कूल आफ हिस्ट्री में कूट-कूट कर भरा गया कि इतिहास वही है जो दस्तावेजों या अन्य सुबूतों से प्रमाणित किया जा सके। बाकी गल्प। हुआ भी यही। जल्दी ही मन की दुनिया में नायकों की तरह इतराती तमाम हस्तियों के दामन दागदार नजर आने लगे और घोषित खलनायकों के अच्छे कामों की फेहरिश्त भी सामने थी। दीन-ए-इलाही वाला फरिश्ता जैसा अकबर राजपूताने में खून सनी तलवार लेकर विधर्मियों का नाश कर रहा था तो मंदिर विध्वंसक औरंगजेब चित्रकूट के बालाजी मंदिर और उज्जैन के महाकालेश्वर में 24 घंटे घी के दिए जलाने और भगवान को भोग लगाने के लिए जागीर देने का फरमान जारी कर रहा था। शिवाजी औरंगजेब से दक्षिण की सरदेशमुखी और चौथ वसूली के अधिकार पर समझौता वार्ता करने आगरा आए थे। उन्हें महल में रखा गया था जहां से, समझौता न हो पाने पर वे निकल भागे, न कि किले की काल कोठरी में कैद थे, जैसा कि प्रचार है।
शिवाजी के खिलाफ औरंगजेब का सबसे बड़ा हथियार थे मिर्जा राजा जयसिंह और शिवाजी के सेनानायक का नाम था दौलत खां। उनकी हिंदू पदपादशाही की स्थापना में बीजापुर के मुसलमान सैनिकों की भूमिका किसी से कम नहीं थी। जब शाहजहां के अंत समय उत्तराधिकार का युद्ध हुआ तो हिंदू हो जाने का आरोप झेल रहे दारा शिकोह के खिलाफ कट्टर मुसलमान औरंगजेब का साथ देने में धर्मप्राण राजा जसवंत सिंह और मिर्जा राजा जय सिंह जरा भी नहीं हिचके। यही नहीं, मुगलों के खिलाफ लंबी लड़ाई ल़ड़ने वाली सिख सेना औरंगजेब के बाद हुए उत्तराधिकार युद्ध में बहादुरशाह प्रथम के साथ थीं। यानी न कोई ‘पक्का हिंदू’ था और न कोई ‘पक्का’ मुसलमान।‘
वाकई दिमाग चकरा गया था। बाद में हैरान मन को राहत मिली जब निदा फाजली का ये शेर सुना-‘हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी, जिसको भी देखना कई बार देखना।‘ यकीन हो गया कि दुनिया सिर्फ काली-सफेद नहीं है। और सच्चाई का रंग अक्सर धूसर होता है। लेकिन हाल में जसवंत सिंह की जिन्ना पर लिखी किताब ने जो विवाद पैदा किया, उसने बताया कि ये सारा ज्ञान किताबी है। हकीकत की दुनिया में इतिहासबोध दूर की कौड़ी है। इतिहास का जाम किस्सों की सुराही से ही ढालना पसंद किया जाता है। यही वजह है कि पाकिस्तान में गांधी जी की भूमिका नकारात्मक बताई जाती है और भारत मे जिन्ना तो खैर खलनायकों के सिरमौर हैं हीं। स्वाद तो अर्धसत्य में है, फिर पूरे सच से मुंह कड़वा क्यों करें।
पहले आडवाणी और अब जसवंत सिंह को जिन्ना में जो धर्मनिरपेक्षता नजर आ रही है, वो भी अर्धसत्य ही है। जिन्ना का वाकई मजहब से कोई लेना-देना नहीं था। लेकिन राष्ट्रीय आंदोलन में किनारे कर दिए जाने से आहत होकर वे हिंदू-मुसलमान के दो कौम होने के सिद्धांत के साथ खड़े हो गए। इसे हिंदू महासभा के अध्यक्ष विनायक दामोदर सावरकर ने सबसे पहले सामने रखा था, जिसे गांधी जी के नेतृत्व वाले आंदोलन ने नकार दिया था। लेकिन जब जिन्ना ने इस सिद्धांत को पकड़ा तो आग भड़क गई। सीधी कार्रवाई के नाम पर बंगाल में जैसा खून बहा, वो कौन भूल सकता है। आखिरकार पाइप से धुंआं उगलते जिन्ना ने पाकिस्तान ले लिया। ये अलग बात है कि इसका भी उनके पास कोई स्पष्ट खाका नहीं था। अगर उनके निजी चिकित्सक सेना के डाक्टर कर्नल इलाहीबख्श पर भरोसा करें तो मौत के कुछ दिन पहले जिन्ना ने गहरी उदासी से कहा था-डाक्टर, पाकिस्तान मेरी जिंदगी की सबसे बड़ी भूल है। ( 1949 में प्रकाशित कर्नल इलाहीबख्श की किताब ‘कायदे आजम ड्यूरिंग हिज लास्ट डेज’, में इसका जिक्र है। बाद में 1978 मे जब कायदे आजम अकादमी, कराची ने इसे प्रकाशित किया तो ये अंश हटा दिया गया। तब तक ‘डिफेंस आफ आइडिया आफ पाकिस्तान एक्ट’ बन चुका था।)
जसवंत सिंह कहते हैं कि बंटवारे के लिए जिन्ना नहीं नेहरू और पटेल जिम्मेदार थे। इतिहासबोध कहता है कि कोई एक व्यक्ति न आजादी दिला सकता है, और न बंटवारा करा सकता है। जिन्ना को चाहे जितनी गाली दी जाए, पटेल, नेहरू यहां तक कि गांधी भी बंटवारे के लिए राजी हो गए थे। यानी सहमति सबकी थी। फिर जिन्ना अकले दोषी या निर्दोष कैसे हो सकते हैं। सच्चाई ये है कि भारतीय नेता डायरेक्ट एक्शन से होने वाले खून-खराबे से डर गए थे। वो ये नहीं भांप पाए कि विभाजन हुआ तो कहीं ज्यादा खून बहेगा। फिर एक हकीकत ये भी है कि अखंड भारत एक भावनात्मक विचार चाहे हो, अतीत का कोई कालखंड ऐसा नहीं था जब भारत का नक्शा इतना बड़ा रहा हो। कभी कोई राजा या बादशाह ताकतवर हुआ तो उसने बड़ा भूभाग जीत लिया लेकिन एक प्रशासनिक इकाई के तहत पूरे भारतीय उपमहाद्वीप को अंग्रेज ही पहली बार लाए थे। इसलिए शायद जो मिल रहा था उसे लेकर ही हमारे नेताओं ने नया भारत बनाना बेहतर समझा। कोई ये भी कह सकता है कि उनमें कोई बिस्मार्क या लिंकन जैसे साहसी नहीं था जो एक विचार के लिए गृहयुद्ध के लिए तैयार हो जाता।
लेकिन दिलचस्प बात ये है कि विभाजन के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार कारक को लेकर सबसे कम बात हो रही है। वो कारक है साम्राज्यवाद। जिसने दुनिया के सबसे समृद्ध देश की रग-रग को चूस लिया और जब अपने ही ओठ से खून निकलने लगा तो मुंह पोंछते हुए निकल गया। या कहिए उसने शक्ल बदल ली। साम्राज्यवाद नए-नए रूपों में भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं पूरे दक्षिण एशिया पर खूनी पंजे फैलाए हुए है। यही वजह है कि भूख और बेकारी से लड़ने के बजाय इस क्षेत्र के देश हर वक्त जंगी मुद्रा में रहते हैं। सरकारें उसकी चेरी हैं और जनता चारा।
इलाहाबाद विश्विविद्यालय से इतिहास का वो आखिरी सबक बार-बार याद आता है जो डी.फिल की डिग्री के साथ मिला था—'जो इतिहास से सबक नहीं लेते वो इतिहास दोहराने को अभिशप्त होते हैं।'
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