30 नवंबर, 2010
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filhaal europe aur asia ke deshon ke kai yuva lekhkon ki sohbaat me sangam writers residency programme ke tahat nritygraam (karnatak) men hun. agli post 15 december ke baad.
21 नवंबर, 2010
राजनीति के दरिद्र दिनों में राहुल गांधी
राहुल गांधी का एडवेन्चर और कौतुक के प्रति विशेष आग्रह है। उन्हें सरकारों से लेकर आम आदमी तक को चौंकाना बहुत भाता है। मीडिया अब चौंकता नहीं बल्कि उनसे हर दिन नई लीला की आशा करता है। वे अपनी सुरक्षा की परवाह किए बिना कहीं भी, कभी भी पहुंच जाते हैं। ऐसा करते हुए वे उस कौतुक प्रिय बच्चे की उत्तेजना से भरे होते हैं जो दबे पांव पीछे से आकर आपकी आंखें बंद कर लेता है। पहचान के सारे अनुमान विफल होने के बाद जब आंखे खुलती हैं तो खेल में यह उसके लिए सफलता और आनंद का क्षण होता है। यह जाना-पहचाना अप्रत्याशित घटित करना ही राहुल गांधी की राजनीति का स्थायी भाव है। राहुल गांधी अमेठी से दो बार सांसद हो चुके और इसी बीच युवा से अधेड़ में बदल गए। यदि उनके नाम के आगे अब भी बाबा (बच्चा) का विशेषण मजबूती से चिपका हुआ है तो इसमें उनकी खिलवाड़ी राजनीति और ऊटपटांग बयानों की बड़ी भूमिका है।
राहुल बाबा पर बड़ा बोझ है। उनका जगप्रसिद्ध खानदान, खानदान की स्मृति और भंगिमाओं से चलती कांग्रेस पार्टी और तमाम लोग उन्हें भविष्य के प्रधानमंत्री के रूप में देखते हैं। अपने वंश के प्रधानमंत्रियों को छोड़ कर, वे अब तक हुए बाकी तमाम प्रधानमंत्रियों की तरह नहीं होना चाहते। वे वंश परंपरा में कुछ नया और विलक्षण जोड़ना चाहते हैं इसलिए प्रधानमंत्री बनने के पहले भारत और उसकी आत्मा (जो आम आदमी की आंखों में झिलमिलाती बताई जाती है) को अच्छी तरह समझ लेना चाहते हैं। पढाई पूरी करने के बाद राहुल गांधी मुंबई में एक टेक्नालाजी आउटसोर्सिंग की एजेंसी चलाना चाहते थे। तब उन्होंने धंधा जमाने के लिए अपने उपभोक्ताओं की आत्मा में झांकने के इतने व्याकुल और दुस्साहसिक प्रयास कभी नहीं किए। उन्हें पता था कि धंधे का अपना गणित है उसके नियमों का पालन करने से वह चल ही जाएगा लेकिन यहां देश चलाने की तैयारी है इसलिए कौतुक घटित हो रहे हैं। भारत की आत्मा कोई प्रोटोकाल नहीं मानती सो उसके निकट जाने में सुरक्षा का प्रोटोकाल टूट जाता है।
वे दलितों के घर जा रहे हैं, वे ट्रेन में सफर कर रहे हैं, उन्होंने रेस्टोरेन्ट में चिकेन रोल खाया, उन्होंने कुल्हड़ में चाय पी, हैन्डपम्प का पानी पिया...ये सब मीडिया की सुर्खियां हैं जिसकी पृष्ठभूमि में भकुआए साधारण लोग हैं जो राहुल बाबा को ताक रहे हैं...इतने बड़े राजनीतिक खानदान का वारिस और यहां। यह सब उस दौर में हो रहा है जब राजनीति में कामयाब होने वाला हर शख्स जनता के लिए दुर्लभ है। हर दिन कोई न कोई नेता जनता की भीड़ से निकल कर सत्ता के गलियारे में खो जाता है और यहां एक आदमी सत्ता के शीर्ष से जोखिम उठाकर जनता के बीच आ रहा है। वे कुछ करते नहीं बस जनता से मिल लेते हैं। उनके पास कहने और करने को कुछ खास है भी नहीं। राजनीति आम आदमी से दूर होकर बहुत दरिद्र हो गई है जहां नेता का जनता से मिलना घटना है, खबर है। यहां से देखें राहुल गांधी अपने खानदान से ज्यादा राजनीति की दरिद्रता की उपज हैं। जिन लोगों ने भविष्य के प्रधानमंत्री से हाथ मिलाए हैं वे अपने हाथों का क्या करें। वह सिर्फ एक स्पर्श है जिसमें हाथ मिलाने वाले की जिन्दगी और समाज बदलने के भरोसे की जगह ढेर सारा क्षणजीवी, अर्थहीन ग्लैमर है।
यह लोकतंत्र है जहां राजा रानी के पेट से नहीं बैलट बाक्स से पैदा होता है। एक मिनट के लिए यह सोचा जाए कि राहुल गांधी अगर प्रधानमंत्री नहीं बन पाते तो उन्हें भविष्य में किस तरह के राजनेता के रूप में याद किया जाएगा। शायद कुछ इस तरह- वे अधेड़ होने तक हर तरह के जोखिम उठाकर जनता को समझने का प्रयास करते रहे, काफी कुछ समझ भी गए थे लेकिन यह समझदारी किसी काम नहीं आ सकी क्योंकि वे राजनीति नहीं कर रहे थे राजनीति की दरिद्रता का आनंद ले रहे थे।
14 नवंबर, 2010
इतने किलोमीटर कागद कारे किए भला किसके लिए
रिटायर्ड आईपीएस शैलेन्द्र सागर और उनके कथाकार मित्रों को सराहा जाना चाहिए कि अठारह साल पहले उनके द्वारा शुरू किया गया साहित्यिक आयोजन कथाक्रम लखनऊ की तहजीब का हिस्सा बन चुका है। लेकिन इत्ते से सफर में उसकी देह कांतिहीन और आत्मा जर्जर हो चली है। एक रस्म रह गई है जिसे निभाने के लिए एक बार फिर हिंदी पट्टी के कथाकार, आलोचक और दांतों के बीच जीभ की तरह इक्का दुक्का विनम्र कवि जुटे हैं। यह लिक्खाड़ों के खापों की पंचायत है।
वे हर साल इसी तरह जुटते हैं, मंच पर मकई के दानों की तरह फूटते हैं और फिर लौट कर लिखने में जुत जाते हैं। वे साहित्य की बारीकियों यथा कलावाद, यथार्थवाद, दलितवाद, नारीवाद, शिल्प, बाजार, उत्तराधुनिकता वगैरा पर घनघोर बहस करते हैं। बौद्धिक मुर्गों की लड़ाई में तालियां बजाते वे हमेशा सुधबुध भूल जाते हैं और इस बुनियादी प्रश्न पर कभी बात नहीं करते कि उनका लिखा कोई पढ़ता क्यों नहीं है। जिन किताबों को हिन्दी साहित्य का बेस्टसेलर बता कर इतराया जाता है, उनकी कुल पांच सौ कापियां छपती हैं और वे भी बिक नहीं पाती, ऐसे समय में हिन्दी साहित्य के नाम पर होने वाली इस सालाना वाद-विवाद प्रतियोगिता क्या अर्थ है।
ऐसा नहीं है कि हिन्दी पट्टी के समाज ने अपनी भाषा में पढ़ना, सोचना और जीना बंद कर दिया है। इसी समय हिंदी के अखबारों, टेलीविजन सीरियलों, समाचार चैनलों और बाबाओं को नए पाठक, दर्शक और श्रोता मिल रहे हैं। बीड़ी जलाइले, मंहगाई डायन और मुन्नी बदनाम हुई जैसे भदेस हिन्दी गाने एशिया में धमाल मचा रहे हैं। अमेरिका के राष्ट्रपति को अपने जबड़े की यूरोपीय ऐंठन ढीली कर थैंक्यू की जगह धन्यवाद और जै हिन्द कहना पड़ रहा है। हिंदी का बाजार इतना बड़ा और संपन्न हो चला है कि मल्टीनेशनल कंपनियों के उत्पादों के विज्ञापन अब अनूदित नहीं होते मूल रुप से हिन्दी वाले की जरूरतों, रूचियों और परिवेश को ध्यान में रखकर डिजाइन किए जाने लगे हैं। ऐसे में हिन्दी के लेखक को लोग क्यों नहीं पूछ रहे उसी के साहित्य को निरंतर नकारा क्यों जा रहा है। मत भूलिए कि यह उलटबांसी उस समाज में घटित हो रही है जहां देवकीनंदन खत्री की चंद्रकांता संतति पढ़ने के लिए गैर हिन्दी भाषी हिन्दी सीखते थे और प्रेमचंद के उपन्यास लड़कियों को दहेज मे दिए जाते थे।
हिंदी साहित्य की वास्तविक चिन्ताएं इन औपचारिक गोष्ठियों में कभी प्रकट नहीं होती है। वे यदा-कदा अपनी नकारात्मक ताकत से उछल कर अखबारों के पन्नों और टीवी स्क्रीन पर चली आती हैं तब बीमारी का पता चलता है। यह नाटकीय लग सकता है लेकिन पूरी तरह सच है कि हाल में एक संपादक ने कहानियों का सुपर वेवफाई विशेषांक निकाला जिसमें एक पूर्व पुलिस अधिकारी, एक विश्वविद्यालय के वर्तमान कुलपति और लेखक का इंटरव्यू छपा। इन्टरव्यू में लेखक कम कुलपति ने हिन्दी की लेखिकाओं का छिनाल कहा और यह भी उनका लिखा पढ़कर पता चलता है कि वे किनके साथ सो चुकी हैं और किनके साथ सोना बाकी है। पूरा हिन्दी साहित्य दो खेमों में बंटकर एक महीने तक छिनाल आख्यान में डूबता उतराता रहा। कुलपति का कहा छप गया था इसलिए वे फंस गए वरना इन साहित्यिक मंचों के नेपथ्य में जो तरल सत्र चलता है उसमें यही विमर्श छलछलाता रहता है कि इतनी राशि का अमुक पुरस्कार किसे मिलने वाला है, किसके गिरोह में कौन-कौन है, लेखिकाओं के प्रति सबसे कुत्सित और मनोहारी जुमले किसके हैं। विश्विद्यालयों में हिन्दी के विभाग, अकादमियां, संस्थान, साहित्यिक पत्रिकाओं के दफ्तर ठीक राजनीतिक पार्टियों के मुख्यालयों की तरह हो गए हैं।
हिंदी का लेखक इस बुनियादी सवाल से भागता है और हिन्दी का समाज उसकी तरफ पीठ फेर लेता है।
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