सफरनामा

25 मई, 2010

पीएम, प्रेस-कांफ्रेंस और पत्रकारिता

सोमवार को हुई प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की दूसरी पारी की पहली प्रेस कांफ्रेंस से कुछ निकला हो या नहीं, इसने पत्रकारों और पत्रकारिता के तेजी से बदलते सरोकारों को बेपर्दा जरूर कर दिया। ये संयोग नहीं कि प्रधानमंत्री के लिखित वक्तव्य में तो सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा से जुड़े मुद्दों की कमी नहीं थी, लेकिन सवाल पूछने वाली पत्रकार बिरादरी में उनका जिक्र किसी अपवाद की तरह था।

हालांकि इस प्रेस कांफ्रेंस की शुरुआत महंगाई जैसे अहम सवाल से हुई। लेकिन प्रधानमंत्री ने जब इसके लिए राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों का जिक्र करते हुए दिसंबर तक हालात में सुधार का दावा किया, तो सब लोग संतुष्ट हो गए। जबकि ऐसे दावे अतीत में न जाने कितनी बार किए जा चुके हैं। यूपीए-2 की शुरूआत के साथ ही सौ दिन में महंगाई पर काबू पाने का दावा किया गया था। जाहिर है, इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री को घेरा जा सकता था, लेकिन ऐसा लगा कि एक औपचारिकता थी, जो पूरी हो गई है।

इसके बाद लगभग डेढ़ घंटे तक सवाल-जवाब हुए। लेकिन अफसोस, कुल 53 सवालों में गरीबी जैसा अहम मुद्दा कहीं नहीं था। अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी देश की 77 फीसदी आबादी को गरीबी रेखा के नीचे बता चुकी है। हाल ही में सरकार ने जिस तेंडुकलकर कमेटी का निष्कर्ष स्वीकार किया है, उसके मुताबिक भी देश में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की तादाद करीब दस फीसदी उछलकर 37.5 फीसदी हो गई है। यानी करीब 47 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे हैं। तो ये सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री जी, आखिर आपकी नीतियों में क्या गड़बड़ी है कि गरीबों की तादाद बढ़ती जा रही है। ऐसा नहीं है कि इससे मनमोहन सिंह की उपलब्धियां कम हो जातीं, लेकिन उन्हें ये जरूर समझ में आ जाता कि पत्रकार उनके काम काज पर कितनी बारीकी से निगाह रख रहे हैं। लेकिन या तो पत्रकारों में प्रधानमंत्री को असहज करने वाले सवाल पूछने की हिम्मत नहीं बची है, या फिर वे खुद गरीबी को बेकार का सवाल मान चुके हैं।

यही हाल नक्सलवाद से जुड़े सवालों को लेकर था। इस सिलसिले में जो भी सवाल पूछे गए वो सरकार की तैयारियों य़ा इस मुद्दे पर पार्टी और सरकार में मतभेद को लेकर थे। किसी ने ये सवाल नहीं पूछा कि आदिवासियों को उनकी जमीन से उजाड़े जाने पर प्रधानमंत्री का क्या विचार है। दिलचस्प बात ये है कि योजना आयोग की सदस्य और वर्तमान गृह सचिव जी.के पिल्लई की पत्नी सुधा पिल्लई साफतौर पर कह रही हैं कि आदिवासियों को लेकर सरकार औपनिवेशिक मिजाज से काम कर रही है। कानून बनने के 14 साल बाद भी पंचायत एक्सटेंशन टू शिड्यूल्ड एरियाज (PESA) अमल में नहीं लाया जा रहा है। वहीं दंतेवाड़ा में 76 जवानों के मारे जाने की घटना की जांच कर रहे बीएसएफ के पूर्व डीजी ई.एन.राममोहन ने ताजा साक्षात्कार में भूमिसुधार से कन्नी काटने और वनोपज पर आदिवासियों को अधिकार न देने को माओवादी समस्या की जड़ बताया है। पर जो बात नौकरशाह खुलकर कहने को तैयार हैं, वो कहना भी पत्रकारों के बूते की बात नहीं रह गई है। उलटे उनका सवाल था कि मानवाधिकार का सवाल उठाकर सुरक्षाबलों का मनोबल तोड़ने वालों के खिलाफ सरकार क्या कर रही है। देश ने वो दिन भी देखा कि प्रधानमंत्री ने पत्रकारों को मानवाधिकारों के महत्व का पाठ पढ़ाया।

यही रुख किसानों की आत्महत्या को लेकर भी रहा। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के मुताबिक 1997 से देश में अब तक दो लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं। 1997 से 2008 तक 12 सालों में महाराष्ट्र, आंध्रप्रदेश, कर्नाटक,मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में ही 1,22,823 किसानों ने खुदकुशी की। 2008 में ही 16,196 किसानों ने मौत को गले लगाया था। औसतन हर एक घंटे में दो किसान आत्महत्या कर रहे हैं। ये कृषि प्रधान कहे जाने वाले देश की खौफनाक तस्वीर है। लेकिन प्रधानमंत्री के सामने ये सवाल उठाने की हिम्मत किसी पत्रकार की नहीं हुई। शायद पत्रकारों ने मान लिया है कि भारत जिस आर्थिक राह पर है, वो सही है और उसमें किसानों के लिए खुदकुशी ही नियति है।

ये भी हो सकता है कि जो पत्रकार ऐसे सवाल पूछ सकते थे, उन्हें जानबूझकर मौका नहीं दिया गया। फिर भी 53 सवालों के जरिये जो तस्वीर सामने आई है वो बेहद निराशाजनक है। वैसे ज्यादातर पत्रकारों का जोर रसीली हेडलाइन पाने पर था और वे इसमें कामयाब रहे। प्रधानमंत्री ने कह दिया कि वे राहुल गांधी के लिए प्रधानमंत्री पद छोड़ने को तैयार हैं। सारे अखबारों और न्यूज चैनलों में यही हेडलाइन बनी। ये अलग बात है कि इस 'महान' जानकारी के लिए इतना समय और संसाधन बर्बाद करने की जरूरत नहीं थी। ये बात तो देश के किसी भी हिस्से में, चायखाने में बैठा शख्स छूटते ही बता सकता है। अगर मनमोहन सिंह, सपने में भी कोई दूसरा जवाब देने की स्थिति में होते, तो प्रधानमंत्री की कुर्सी पर कभी नहीं बैठाए जाते।

जाहिर है, प्रधानमंत्री की प्रेस कांफ्रेंस पत्रकारिता के तेजी से बदल रहे सरोकारों का सुबूत है। वरना, पत्रकार हमेशा गिलास को आधा भरा बताएगा ताकि इसे पूरा भरने का उपक्रम तेज हो सके। ये नकारात्मक सोच नहीं, जनपक्षधरता की कसौटी है। लेकिन प्रेस कांफ्रेंस से साफ था कि देश की बहुसंख्यक जनता पत्रकारों की चिंता से बाहर हो चुकी है। पत्रकारों की बड़ी जमात खुद 'इलीट' का हिस्सा बनने को बेकरार है और वैसे ही सोचने की आदत डाल रही है। ये अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारने जैसी बात है। पत्रकारों को भूलना नहीं चाहिए कि 47 करोड़ लोगों की परेशानी को वे आवाज नहीं देंगे, तो उनका लोकतंत्र पर भरोसा नहीं बचेगा। इतनी बड़ी आबादी का असंतोष भड़का तो लोकतंत्र भी नहीं बचेगा। और लोकतंत्र नहीं बचेगा तो पत्रकारिता भी नहीं बच पाएगी।

लेकिन इन पत्रकारों को कौन याद दिलाए कि पैर पर कुल्हाड़ी मारने वाले हमेशा कालिदास ही नहीं बनते, कई बार चलने-फिरने की ताकत भी खो देते हैं, हमेशा के लिए।

14 मई, 2010

बोली का जवाब गोली से देंगे मि.चिदंबरम!

गृह मंत्रालय ने उन बुद्धिजीवियों और स्वयंसेवी संगठनों को भुगतने की धमकी दी है जिनके बयानों या बातों से माओवादियों को 'बल' मिलता है। यानी माओवादियों के सशस्त्र विद्रोह का कोई माकूल तोड़ निकालने में अब तक नाकामयाब रही सरकार उन बुद्धिजीवियों का मुंह बंद कर देना चाहती है जो उसकी नीतियों में खामी गिनाने से हिचकते नहीं हैं। गृह मंत्रालय ने उनके खिलाफ यूएपीए एक्ट के तहत कार्रवाई करने की धमकी दी है। इसमें दस साल तक की सजा हो सकती है।

वैसे, सरकार के माओवाद विरोधी अभियान को तमाम राजनीतिक पार्टियों का ही नहीं, बौद्धिकों के एक बड़े तबके का भी समर्थन प्राप्त है। ये बौद्धिक 'लाल गलियारे' में थलसेना से लेकर वायुसेना तक के इस्तेमाल के हिमायती हैं। जाहिर है, इन बुद्धिजीवियों में न कोई आदिवासी समाज से आता है और न ही इन पिछड़े इलाकों से उनका नाता रिश्ता है। इसीलिए बमबारी से होने वाली भयानक तबाही भी उनके लिए को मुद्दा नहीं है। ऐसे बुद्दिजीवी सरकार के दुलारे हैं।

सरकार को समस्या उन बुद्धिजीवियों से है जो माओवादियों के खात्मे के नाम पर आदिवासियों को उजाड़े जाने के अभियान पर सवाल उठा रहे हैं। जो कह रहे हैं कि जल-जंगल-जमीन बचाने की आदिवासियों की लड़ाई तब से चल रही है जब माओ का जन्म भी नहीं हुआ था। इसलिए अगर माओवादी आदिवासियों का इस्तेमाल कर रहे हैं तो आदिवासी भी माओवादियों का इस्तेमाल कर रहे हैं।

समाजिक विकासक्रम के लिहाज से भारत के मूल निवासी आदिवासी ही हैं। कृषि अर्थव्यवस्था और राजतंत्रों के विकास के साथ ही आर्यों से उनका संघर्ष तेज हुआ। प्राचीन ग्रंथों में जिन्हें वेद विरोधी राक्षस कहा गया है दरअसल, वे आज के आदिवासियों के पुरखे थे। वे न वर्णव्यवस्था में विश्वास करते थे न आर्यों के देवमंडल को ही पूजते थे। उनके अपने ही देवता और रीत-रिवाज थे और जीवन संस्कृति पूरी तरह प्रकृति पर आधारित थी । पौराणिक कहानियां जो भी कहें, लेकिन इसमें शक नहीं कि वे पूरी तरह मनुष्य थे और समय-समय पर आर्यों से वैवाहिक संबंध में भी बंधते थे। आखिर राक्षस राज रावण आर्य ऋषि पुलस्त्य का नाती था। महाभारत में भीम के हिडिम्बा से विवाह का जिक्र है जिसका पुत्र घटोत्कच कर्ण को ब्रह्मास्त्र चलाने के लिए मजबूर करता है ताकि अर्जुन की रक्षा हो सके। जनमेजय के नागयज्ञ को रोकने वाले आस्तीक ऋषि भी जरत्कारु ऋषि और नागराज वासुकि की बहन के पुत्र थे। ऐसे संबंध तो मनुष्यों के बीच ही संभव हो सकते हैं।

साफ है कि आदिवासी हिंदू धर्म के विकास से पहले से भारत में निवास करते थे। उनके अपने साम्राज्य थे और देश में केंद्रीय सत्ता स्थापित करने वाले सम्राटों से उनका सतत संघर्ष चलता रहता था। वे अपनी आजादी और संस्कृति बचाने के लिए लगातार लड़ते रहे। अग्रेजों के जमाने में भी ये सिलसिला जारी रहा। 1855 का संथाल विद्रोह, 1890 में बिरसा मुंडा के नेतृत्व में हुए 'उलगुलान' और 1911 का बस्तर विद्रोह इसकी मिसाल है।

हजारों साल के दमन के खिलाफ विद्रोह की इस परंपरा को इस आशा से स्थगित किया गया था कि आदिवासियों को बेहतर जिंदगी नसीब होगी। भारतीय हॉकी टीम के कैप्टन और 1928 के एम्सटर्डम ओलंपिक में भारत को पहला स्वर्णपदक दिलाने वाले जयपाल सिंह बाद में बतौर आदिवासी नेता संविधान सभा के सदस्य बने थे। 13 सितंबर 1946 को संविधान सभा में उन्होंने कहा था- "अगर भारतीय जनता के किसी समूह के साथ सबसे बुरा व्यवहार हुआ है तो वो मेरे लोग (आदिवासी) हैं। पिछले छह हजार सालों से उनके साथ उपेक्षा और अमानवीय व्यवहार का ये सिलसिला जारी है। मैं जिस सिंधु घाटी सभ्यता की संतान हूं, उसका इतिहास बताता है कि बाहरी आक्रमणकारियों ने हमें जंगलों में रहने के लिए मजबूर किया। हमारा पूरा इतिहास बाहरियों के शोषण और कब्जे से भरा है जिसके खिलाफ हम लगातार विद्रोह करते रहे। बहरहाल, मैं पं.नेहरू और आप सब के इस वादे पर भरोसा करता हूं कि हम एक नया अध्याय शुरू कर रहे हैं। ऐसा भारत बनाने जा रहे हैं जहां सभी को अवसर की समानता होगी और किसी की भी उपेक्षा नहीं की जाएगी। "

हालात बताते हैं कि कैप्टन जयपाल सिंह की उम्मीदें गलत साबित हुईं । होना तो ये चाहिए था कि आदिवासियों की शिक्षा, दीक्षा और स्वास्थ्य के लिए विशेष योजनाएं बनतीं। लेकिन आदिवासी बहुल क्षेत्रों में विकास योजनाओं के नाम पर उन्हें उजाड़े जाने का अभियान शुरू किया गया। कभी बांध के नाम पर, कभी सड़कों के नाम पर तो कभी उद्योग के नाम पर, अब तक एक करोड़ से ज्यादा आदिवासी विस्थापित किए जा चुके हैं। जिन्होंने हजारों साल से जंगलों को बढ़ाया-संभाला, उन आदिवासियों को नए कानूनों के तहत जंगलों का दुश्मन करार दिया गया। उनकी जीवन स्थितियों को देखकर कोई भी कह सकता है कि वे सरकार की चिंता से पूरी तरह बाहर हैं।

लेकिन जो लोग यमुना की लाश पर कामनवेल्थ का उल्लासमंच सजा रहे हैं, और बोतलबंद पानी को सभ्य होने की निशानी मानते हैं, वे नहीं समझ सकते कि नदियों के मरने और जमीन से उजाड़े जाने का अर्थ क्या है। आदिवासियों के लिए जल, जंगल और जमीन का मसला जीवन-मरण से जुड़ा है। माओवादियों के अराजक सैन्यवादी अभियान के ताकतवर होने के पीछे इसी आदिवासी आक्रोश की गूंज है। वे इस लिहाज से सफल भी हैं कि मजाक में ही सही गरीबों का सवाल उठाने वालों को माओवादी कहने का चलन बढ़ रहा है। ये गंभीर मसला है कि जब गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की तादाद दस फीसदी बढ़कर 37.5 फीसदी हो गई हो, तो मुख्यधारा के राजनीतिक दलों से गरीबों का सवाल गायब है। आदिवासियों की समस्या तो दूर की बात है। देखा जाए तो आर्थिक मोर्चे पर विकल्प का स्वप्न भी गायब है। माओवादी मौका पाकर इसी शून्य को भरने में लगे हैं।

ऐसे में सरकार चाहती है कि बुद्धिजीवियों की सारी चिंता माओवादी हिंसा तक सीमित रहे। इसकी तह में जाना माओवाद को समर्थन करना होगा। सरकार भूल जाती है कि कुछ समय पहले रिटार्यर्ड जस्टिस पी.बी.सावंत ने आदिवासियों की बदहाली की तरफ ध्यान खींचने के लिए माओवादियों को धन्यवाद दिया था। हाल ही में संघ की पाठशाला में दीक्षित हुए गोविंदाचार्य से लेकर योगगुरु रामदेव तक ने माओवादियों को महज आतंकवादी मानने से इंकार किया है। और कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह भी कुछ इसी अंदाज में बोल रहे हैं। आखिर, चिदंबरम किस-किस पर यूएपीए लगवाएंगे।

वैसे, नीयत साफ हो तो माओवाद की समस्या से निपटना मुश्किल नहीं है। जिस संविधान को उखाड़ फेंकने की कोशिश का आरोप लगाते हुए चिदंबरम एंड टीम माओवादियों को देश के सामने सबसे बड़ा खतरा बता रही है, हल भी उसी संविधान में है। संविधान निर्माताओं ने एक समतामूलक समाज का आदर्श रखा था जहां सभी वंचितों को पूरा न्याय मिलेगा। तो संविधान का सम्मान करते हुए सरकार घोषित करे कि आदिवासियों को उनकी जमीन से उजाड़ा नहीं जाएगा। विकास का पहला पत्थर तभी लगेगा जब विस्थापित शख्स का घर बन जाएगा। ऐसा करके वो बड़ी आसानी से माओवादी प्रचार की हवा निकाल सकती है।

लेकिन सरकार और उसके सुर में सुर मिला रहे बुद्धिजीवियों को 43 करोड़ गरीबों की समस्या से कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए वे हिंसा के तर्क से मूल मुद्दे को दफनाना चाहते हैं। आखिर उनके सपनों का देश अमेरिका मूल निवासियों के रक्त के गारे से ही गढ़ा गया है। ऐसा लगता है कि कुछ हजार बंदूकों के दम पर बमुश्किल दो फीसदी गांवों को नियंत्रण में लेने में कामयाब माओवादियों को देश के सामने सबसे बड़ा खतरा बताना किसी षड़यंत्र का नतीजा है। माओवाद विरोधी अभियान के निशाने पर वे सारे हैं जो गरीबी बढ़ाने वाली नीतियों और देश की खनिज संपदा की लूट पर सवाल उठा रहे हैं।

काश 2 अक्टूबर को राजघाट पर फूल चढ़ाने के बाद पी.चिदंबरम वहीं सड़क की दूसरी ओर गांधी शांति प्रतिष्ठान पर लगे बोर्ड को पढ़ पाते। उस पर लिखा है-आर्थिक समता के बिना अहिंसक स्वराज एक असंभव कल्पना है। बताने की जरूरत नहीं कि ये विचार गांधी जी का है, माओ का नहीं।

(अभी-अभी पता चला है कि सोनिया गांधी ने 'कांग्रेस संदेश' के संपादकीय में मान है कि माओवाद की समस्या की जड़ देश के असमान विकास में है। पता नहीं, चिदंबरम महोदय, 'मैडम' को क्या जवाब देंगे। )