सफरनामा

20 दिसंबर, 2010

राजनीति के आकाश में चंदा


मायावती मुख्यमंत्री हों और उनका जन्म दिन आए तो विपक्ष की बांछे खिलने लगती हैं। विपक्ष अपनी सारी कल्पनाशीलता इस बिंदु पर लगा देता है कि धनलिप्सा, चंदा वसूली के लिए किए जाने वाले भयादोहन और इस अपकर्म की अनैतिकता को प्रचारित करने के लिए कौन से हथकंडे अपनाए जाएं। ऐसा करते हुए विपक्षी राजनीतिक पार्टियों की मुद्रा ऐसी रहती है जैसे वे चंदा जैसी किसी चीज से अपरिचित हैं और उनका कारोबार सिर्फ सिद्धांतों के लेन-देन से चलता रहा है। मायावती ने विपक्ष की इन थोथी भंगिमाओं की परवाह कभी नहीं की क्योंकि आईना दिखाना उनकी राजनीति का बुनियादी स्वभाव है। लेकिन दो साल पहले औरैया में एक इंजीनियर की हत्या और पार्टी के एक विधायक के जेल जाने की घटना ने ऐसा मोड़ ले लिया जैसे सरकार ने चंदे के लिए नरबलि का रिवाज शुरू कर दिया है। इसके बाद मायावती सतर्क हो गईं। पिछले कई सालों की तरह इस बार भी उन्होंने पार्टी के नेताओं को सख्ती से कहा है कि उनके जन्मदिन पर चंदा वसूली न की जाए। नया तत्व यह है कि चंदा वसूली की शिकायत एसएमएस भेज कर करने के लिए कहा गया है। इससे इतना पता चलता है कि मायावती अपनी छवि को लेकर बेहद गंभीर हो गई हैं, विपक्ष को कोई मौका नहीं देना चाहतीं क्योंकि विधानसभा चुनाव बिल्कुल सिर पर आ गए हैं।

यहां बसपा के चंदाशास्त्र पर बात करने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि स्व. कांशीराम और मायावती जिस पृष्ठभूमि से आए नेता हैं, वे पानी की तरह कालाधन बहाने वाली चुनावी राजनीति में एक दिन भी बिना चंदे के नहीं टिक सकते थे। इससे कहीं अधिक महत्वपूर्ण चंदे को लेकर राजनीतिक पार्टियों का बदलता नजरिया है जो पाखंड की हास्यास्पद ऊंचाईयां छूने लगा है। अपने देश की राजनीति में चंदे को लेकर एक बड़ा पवित्र भाव रहा है क्योंकि वह किसी विचार के लिए जनता के असाधारण समर्थन और त्याग के रूप में देखा जाता था। देश की आजादी के आंदोलन की सबसे गर्वीली और आंखों में आंसू ला देने वाली छवियां वे हैं जिनमें महात्मा गांधी मंच से अपील करते है, कांग्रेस के वालंटियर चादर फैलाए भीड़ में जाते हैं और महिलाएं अपने गहने (जिनमें नाक की इकलौती कील से लेकर रानियों के हीरे के हार तक शामिल हैं) चादर पर फेंकती जाती हैं। इस चंदे की क्या कद्र थी इसे जानना हो तो फणीश्वरनाथ रेणु के महान उपन्यास मैला आंचल के वे पन्ने पढ़िए जिनपर कांग्रेस के वालंटियर कुबड़े वामनदास का रोजनामचा लिखा है। भूख से लड़कर हार जाने के बाद वामनदास जनता से चंदे में मिले एक पैसे की जलेबी खा लेता है। उसे आधा तन ढकने वाले गांधी याद आते हैं वह हलक में ऊंगली डालकर जलेबी की उल्टी करता है, कांग्रेस दफ्तर के कुत्ते के आगे रोकर अपना अपराध स्वीकार करता है और इसी जज्बे के कारण कांग्रेस नेताओं की मिलीभगत से कालाबाजारी करने वालों के हाथों बेमौत मारा जाता है। यह जज्बा इस देश की राजनीति में काफी दिन रहा फिर लुप्त हो गया।

अब कोई राजनीतिक दल सार्वजनिक तौर पर चंदा नहीं मांगता, यह काम अब बंद कमरे में किसी धतकरम की तरह होने लगा है। अब नेता किसी भी पार्टी का हो, दाता के अहंकार से यही कहता है कि जब उसकी सरकार बनेगी तो जनता को इतनी खैरात मिलेगी कि झोली फट जाएगी। लेकिन जब सरकार बनती है तो उसकी पार्टी अगले कई चुनाव लड़ने के लिए खर्च की चिंता मुक्त हो जाती है। जिस पैसे से चुनाव लड़े जाते हैं, वह जनता का ही होता है लेकिन अब उसे सीधे मांगने में नेताओं को शर्म आती है। उनका यह शर्माना राजनीति के पतन के नए रास्ते खोल रहा है।

16 दिसंबर, 2010

लड़कियों का मोबाइल


वे दिन पीछे गए जब लोग सब्जी बेचने वालों या घरों में काम करने वाली नौकरानियों को मोबाइल फोन पर बात करते देख चकित होकर तिर्यक मुस्काया करते थे। अब मोबाइल फोन कंप्यूटर में बदल चुका है, उससे फिल्में शूट हो रही हैं और निचले तबके के बहुत से लोगों की तो पहचान ही अंकों में समेट चुका है। घरों में इलेक्ट्रिशियन, प्लम्बर, गैस सप्लाई करने वाले अपने नंबरों से जाने जाते हैं। फुटपाथ पर सोने वाले दिहाड़ी मजदूर अपने ठीहे की दीवारों पर कोयले से अपने नंबर लिख देते हैं ताकि काम देने वाले उनसे संपर्क कर सकें। मोबाइल की इस व्यापकता का एक सबूत यह भी है कि वह हिन्दी फिल्मों के गानों और लोकगीतों में भी पैठ चुका है। युवा जिन चीजों के बारे सबसे अधिक पैशन से बात करते हैं उनमें मोबाइल के फीचर और कारनामें प्रमुख है। छोटा सा फोन उनके लिए समूची दुनिया की खिड़की खोलता है जिससे उनकी भावनाएं और आंकाक्षाएं झम्म से कूद कर मनचाही दिशा की ओर जा सकती हैं।

साथ ही बातों में खोए, टेढ़ी गरदनों वाले लोग सड़कों पर थोक के भाव स्वर्गवासी हो रहे हैं और मोबाइल फोन सामाजिक जिन्दगी में गंभीर उथल पुथल का जरिया बन रहा है। अखबार में अक्सर खबर पढ़ने को मिलती है कि एक महिला ने अपने बच्चों को जहर देने के बाद फांसी लगा ली। कारण का ब्यौरा सिर्फ लाइन में होता है कि मोबाइल पर बात करने को लेकर पति से उसका झगड़ा होता था। यानि मोबाइल ने कुछ ऐसा मुहैया करा दिया है जिस पर पहले पुरूषों का ही वर्चस्व था। अब बिना देहरी से बाहर पांव रखे मर्दों जैसी शक्तिशाली सोशल कनेक्टिविटी पाई जा सकती है और अपने मसले दुनिया के सामने रखे जा सकते हैं। मध्यम वर्गीय घरों में अब सबके पास अपना मोबाइल है। जिन घरों में लोग ज्यादातर वक्त फोन पर अपनी-अपनी दुनिया में खोए रहते हैं सारी कटुता और कलह का दोष मोबाइल पर मढ़ा जाता है और इसका खामियाजा उन बच्चों को भुगतना पड़ रहा है जिनके हाथ में अभी मोबाइल फोन नहीं आ पाया है। खुद लगातार बकबक करने वाले लोग भी चकित होते पाए जाते हैं कि आखिर मोबाइल पर इतने अधिक समय तक क्या बातें की जाती हैं।

इसी बीच जाटों की एक खाप का फरमान आया है कि लड़कियां मोबाइल फोन का इस्तेमाल न करें। खाप की समझ है कि यह छोटा सा फोन ही सगोत्रीय विवाहों और लड़कियों के घर से भाग जाने का कारण है। अगर यह मोबाइल न होता तो प्रेमी जोड़ों को फांसी देने या प्रताड़ना के अन्य तरीकों से उन्हें मारने की जरूरत न पड़ती। तकनीक हमेशा से संकीर्ण सोच वालों की कुंठा का निशाना बनती रही है। पहले पहल जब स्कूटर आया तब उसे चलाने वाली लड़कियां आमतौर पर बदचलन समझी जाती थीं। सिनेमा इसका बेहतरीन उदाहरण है जिसे अपने शुरूआती दिनों में लंबे समय तक महिला पात्रों का अभिनय कमनीय दिखने वाले पुरूषों से कराकर काम चलाना पड़ा था। आम पारंपरिक हिंदुस्तानी घरों में जो बंदिश और दमन का माहौल होता है उसमें मोबाइल लड़कियों के लिए ऐसा शांत, सुरक्षित द्वीप बन जाता है जहां अपनी तकलीफें और भविष्य के स्वप्न किसी से साझा किए जा सकते हैं। जहां स्वप्नों की साझेदारी होती है वहीं किसी भी दमन का प्रतिपक्ष भी रचा जाता है। मोबाइल को दोष देना बेकार है। अगर लड़कियों के पास वाकई कहने लायक कुछ है तो वे कोई और तकनीक खोज लेंगी।