सफरनामा
तकनीक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
तकनीक लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

16 दिसंबर, 2010

लड़कियों का मोबाइल


वे दिन पीछे गए जब लोग सब्जी बेचने वालों या घरों में काम करने वाली नौकरानियों को मोबाइल फोन पर बात करते देख चकित होकर तिर्यक मुस्काया करते थे। अब मोबाइल फोन कंप्यूटर में बदल चुका है, उससे फिल्में शूट हो रही हैं और निचले तबके के बहुत से लोगों की तो पहचान ही अंकों में समेट चुका है। घरों में इलेक्ट्रिशियन, प्लम्बर, गैस सप्लाई करने वाले अपने नंबरों से जाने जाते हैं। फुटपाथ पर सोने वाले दिहाड़ी मजदूर अपने ठीहे की दीवारों पर कोयले से अपने नंबर लिख देते हैं ताकि काम देने वाले उनसे संपर्क कर सकें। मोबाइल की इस व्यापकता का एक सबूत यह भी है कि वह हिन्दी फिल्मों के गानों और लोकगीतों में भी पैठ चुका है। युवा जिन चीजों के बारे सबसे अधिक पैशन से बात करते हैं उनमें मोबाइल के फीचर और कारनामें प्रमुख है। छोटा सा फोन उनके लिए समूची दुनिया की खिड़की खोलता है जिससे उनकी भावनाएं और आंकाक्षाएं झम्म से कूद कर मनचाही दिशा की ओर जा सकती हैं।

साथ ही बातों में खोए, टेढ़ी गरदनों वाले लोग सड़कों पर थोक के भाव स्वर्गवासी हो रहे हैं और मोबाइल फोन सामाजिक जिन्दगी में गंभीर उथल पुथल का जरिया बन रहा है। अखबार में अक्सर खबर पढ़ने को मिलती है कि एक महिला ने अपने बच्चों को जहर देने के बाद फांसी लगा ली। कारण का ब्यौरा सिर्फ लाइन में होता है कि मोबाइल पर बात करने को लेकर पति से उसका झगड़ा होता था। यानि मोबाइल ने कुछ ऐसा मुहैया करा दिया है जिस पर पहले पुरूषों का ही वर्चस्व था। अब बिना देहरी से बाहर पांव रखे मर्दों जैसी शक्तिशाली सोशल कनेक्टिविटी पाई जा सकती है और अपने मसले दुनिया के सामने रखे जा सकते हैं। मध्यम वर्गीय घरों में अब सबके पास अपना मोबाइल है। जिन घरों में लोग ज्यादातर वक्त फोन पर अपनी-अपनी दुनिया में खोए रहते हैं सारी कटुता और कलह का दोष मोबाइल पर मढ़ा जाता है और इसका खामियाजा उन बच्चों को भुगतना पड़ रहा है जिनके हाथ में अभी मोबाइल फोन नहीं आ पाया है। खुद लगातार बकबक करने वाले लोग भी चकित होते पाए जाते हैं कि आखिर मोबाइल पर इतने अधिक समय तक क्या बातें की जाती हैं।

इसी बीच जाटों की एक खाप का फरमान आया है कि लड़कियां मोबाइल फोन का इस्तेमाल न करें। खाप की समझ है कि यह छोटा सा फोन ही सगोत्रीय विवाहों और लड़कियों के घर से भाग जाने का कारण है। अगर यह मोबाइल न होता तो प्रेमी जोड़ों को फांसी देने या प्रताड़ना के अन्य तरीकों से उन्हें मारने की जरूरत न पड़ती। तकनीक हमेशा से संकीर्ण सोच वालों की कुंठा का निशाना बनती रही है। पहले पहल जब स्कूटर आया तब उसे चलाने वाली लड़कियां आमतौर पर बदचलन समझी जाती थीं। सिनेमा इसका बेहतरीन उदाहरण है जिसे अपने शुरूआती दिनों में लंबे समय तक महिला पात्रों का अभिनय कमनीय दिखने वाले पुरूषों से कराकर काम चलाना पड़ा था। आम पारंपरिक हिंदुस्तानी घरों में जो बंदिश और दमन का माहौल होता है उसमें मोबाइल लड़कियों के लिए ऐसा शांत, सुरक्षित द्वीप बन जाता है जहां अपनी तकलीफें और भविष्य के स्वप्न किसी से साझा किए जा सकते हैं। जहां स्वप्नों की साझेदारी होती है वहीं किसी भी दमन का प्रतिपक्ष भी रचा जाता है। मोबाइल को दोष देना बेकार है। अगर लड़कियों के पास वाकई कहने लायक कुछ है तो वे कोई और तकनीक खोज लेंगी।