सफरनामा

24 मई, 2011

एक सीनियर सहयात्री

अध्यापक और साहित्यकार। बहुत सांघातिक मेल है। बहुत कम ऐसे होते हैं जो इसके बावजूद संतुलित रह पाते हैं। वे ये दोनो होने के बावजूद बहुत निश्छल थे। मुझे साहित्य में उनके योगदान और उपलब्धियों से खास मतलब नहीं था। पाब्लो नेरूदा, ब्रेख्त, वाल्ट व्हिटमैन पर उनके काम से परिचय बाद में हुआ। उनकी सरलता के कारण उनके पास जाना अच्छा लगता था। बनारस के विवेकानंद नगर के उनके घर में दवाईयों की गंध होती थी, महुए के पत्ते में लिपटे पान के चौघड़ों से सूख कर झरता चूना और हर खाली जगह में ठुंसी किताबें। बीच में एक मसहरी के पास मुड़ी हुई तकियों की टेक जिसपर उनकी लंबी पीठ धनुषाकार छपी होती थी। मुंह पान होने के कारण या शायद साइनस के कारण बोलते समय उनकी गहरी सांस फंस कर निकलती महसूस होती थी। रिटायर हो जाने के बावजूद उन अंग्रेजी के पान घुलाते प्रोफेसर के पास एक बिल्कुल ताजी मुस्कान हुआ करती थी।

दिवराला का सती कांड हो चुका था। हम लोगों ने काशी विद्यापीठ के समाज विज्ञान संकाय में स्टुडेन्टस फेडरेशन की ओर एक विचार गोष्ठी रखी थी जिसका विषय नारी अबला कब तक या ऐसा ही कुछ था। पंद्रह-सत्रह श्रोता और वे मुख्य वक्ता। यह उस दौर का काशी विद्यापीठ था जहां लफंगे और लफूट किस्म के अध्यापक लड़कियों के बारे में ऐसे करते थे जैसे वे जानवरों से मुखातिब हों। ग्रेजुएशन की लड़कियां कलोर,मोटी लड़कियां गाभिन, रिसर्च छात्राएं बकेन और विवाहिताएं झनकही हुआ करती थीं। लड़कियां भी सिमट कर कोई ऐसा तरीका खोजती लगती थीं कि वे अदृश्य हो कर वहां पढ़ सकें। वहां इस गोष्ठी को सफल कहा जा सकता था। बाहर निकलते समय उन्होंने संकाय के बोर्ड पर लगे गोष्ठी के पोस्टर पर मेरा ध्यान दिलाया जहां अबला के नीचे किसी ने स्केच पेन से "तबला बजावा तबला" लिख दिया था। उन्होंने कहा कि यहां समांतर गोष्ठी चल रही थी। तबले का जवाब दिए बिना यहां कोई सार्थक बहस नहीं हो सकती।

वही चंद्रबली सिंह, जिन्होने अपनी सरलता से मुझ जैसों को विपरीत हवा में क्षण भर भी खडे रहने का साहस दिया था, चले गए। उनको नमन। आज पता चला मेरे जिले के थे, गाजीपुर के।

23 मई, 2011

मायामृग

चंद्रभूषण

हर किसी के पास अपनी--अपनी कहानियां थीं
सौंदर्य की, आकर्षण की, लगाव की, वासना की, स्खलन की
प्रणय की, संवाद की, टकराव की, संघर्ष की, युद्ध की
लेकिन तत्व उनका कमोबेश एक सा था

कान तक प्रत्यंचा ताने जब वे वन में घुसे
तो उनके सामने लहर सी डोलती एक सुनहरी छाया थी
और उनकी आंखें अपने तीर की नोक और लक्ष्य के बीच
बनने वाली निरंतर गतिशील रेखा पर थरथरा रही थीं

लक्ष्य चूकने का कोई भय नहीं था
वह तो जैसे खुद ही हजार सुरों में बोल रहा था-
मुझे मारो, मेरा संधान करो, वध करो मेरा
चाहे जैसे भी मुझे स्थिर करो, अपने घर ले जाओ वीर

उत्तेजना का दौर खत्म हुआ, वे सभी विजेता निकले
किसी ने व्हार्टन मारा, किसी ने कैंब्रिज का संधान किया
कोई जापान की तरफ निकला, मरीन बायलॉजिस्ट बनकर लौटा
तो कोई पुलिस कमिश्नर बना, वर्दी पर टांचे वही सुनहरापन

मृग के मरने की भी सबकी अलग--अलग कथाएं थीं
सभी का मानना था कि मरने से पहले वह कुछ बोला था
शायद ‘मां’, शायद ‘पापा’, शायद- 'अरे ओ मेरी प्रियतमा'
या शायद 'समथिंग ब्रोकेन, समथिंग रॉटेन'

शाम ढले दरबार उठा, विरुदावली पूरी हुई
तो कोई भी उनमें ऐसा न था
जिसके पास भीषण दुख की कोई कथा नहीं थी

एक अदद बंद कोठरी जो हमेशा बंद ही रह गई
और खुली भी तो ऐसे समय
जब उसकी अंतर्कथा जानने के लिए
पुरानी परिचित बंद कोठरियां ही सामने रह गई थीं

मायामृग की सुनहरी झाईं एक बार फिर उनके सामने थी
क्षितिज पर रात की सियाही उसे अपने घेरे में ले रही थी