सफरनामा

20 मार्च, 2010

हमारी दारू, मुर्गा हमारा, आंदोलन उनका

केएनवीएएनपी-14
जैसे फोटो अलबम में कोई पंप लगा था। हर फ्लैप पलटने के साथ प्रकाश की छाती में हवा भरती जा रही थी। ये सभी तो बदनाम बस्ती को हटाने के लिए आंदोलन चला रहे, कचहरी पर आमरण अनशन पर बैठे नेता थे। बस इनके छपने की देर थी कि उनके पाखंड को बारुद लग जाता और सारा आंदोलन कुछ घंटे में चिथड़े-चिथड़े हो जाता। अपनी उत्तेजना पर काबू पाने के बाद उसने अलबम हाथ में लेते हुए कहा, लेकिन ये लोग तो कह रहे हैं कि उनके बच्चों की शादियां नहीं हो पा रही हैं, बहू-बेटियों का जीना मुश्किल हो गया है।

लगा मधुमक्खियों की छत्ते पर ढेला पड़ गया। अलाव की आग से भी तेज जीभें लपलपाने लगीं, ये असली दल्ले हैं, अपनी बहू बेटियों का जीना खुद इन्होंने मुश्किल कर रखा है। इनके घर में कौन सी ऐसी शादी हुई है, जिसमें हम लोगों ने पचास हजार-लाख रूपया जमा करके न दिया हो और मुफ्त में गाना बजाना न किया हो। हमारे सामने तो आएं, जबान ही नहीं खुलेगी। हम लोग तो राजेश भारद्वाज की बारात में भी गई थीं, उसकी शादी यहीं की महामाया ने कराई है। जिस मकान में वह रहता है वह भी महामाया का ही है। उसके पास रजिस्ट्री के कागज हैं, चाहिए तो अभी ले जाइए। प्रपंची हैं, कुकर्मी हैं सामने पैसा देखकर बदल गए हैं कोढ़ फूटेगा सालों को।

इस कुहराम से अभिजीत हकबका गया। थोड़ी देर तक लाचार भाव से देखने के बाद उसने खड़े होकर पूरी ताकत से चिल्लाकर कहा, हल्ला करने से कोई फायदा नहीं महामाया को बोलने दिया जाए। वह सबको जानती हैं। ज्यादा अच्छी तरह बताएगी। भुनभुनाहट के बाद फिर थोड़ी के लिए खामोशी छा गई।
नेपालिन महामाया के बस्ती में तीन मकान थ। शायद सबसे मालदार और मानिंद वही थी। वह आग को खोदते हुए एक चमकीले शाल में लिपटी चुपचाप बैठी हुई थीं। सबके चुप होने के बाद उसने झुर्रियों में धंसी, काजल पुती, चमकीलीं आखें उठाईं, नशे से लरजती आवाज में वह ठहर-ठहर कर बोलनें लगी, देखिए कोई छठ आठ महीने पहले की बात है ये नेताजी लोग और भी कई शरीफ लोग बस्ती में रोज आते थे। हमारी दारू पीते थे हमारा मुर्गा तोड़ते थे और हमारे ही साथ सोते थे। हम लोग भी इनसे हर तरह का रिश्ता रखते थे। यह बात उनके बाल-बच्चों को भी पता है। लेकिन उनका लालच बढ़ता ही जा रहा था। ये लोग पुलिस के भी बाप निकले, आए दिन इतना पैसा मांगते थ कि देना हमारे बस में नहीं रहा। मास्टर साहब के कहने पर सब औरतों ने पंचायत करके तय किया कि बहुत हो गया। अब पैसा, दारू, मुर्गा बंद। हां, बोल-बात रहेगी, उनके प्रयोजन में पहले की तरह नाच-गाना भी रहेगा लेकिन पैसे की मदद किसी को नहीं की जाएगी। यही नाराजगी की वजह है। वरना, हम लोगों को तो इन्हीं लोगों ने और उनके बाप-दादों ने ही यहां बसाया था। बसाया भी अपने फायदे के लिए। बाजार से तीन गुने रेट पर भाड़ा लिया और पांच गुने रेट पर जमीन और मकान बेचे। अपनी सारी पूंजी लगाकर हम लोगों ने अपने ठीहे खड़े किए, अब रंडिया आंख दिखाएं, उन लोगों से यह बर्दाश्त नहीं हो रहा है। प्रकाश को बस्ती के भीतर एक नई बस्ती नजर आ रही थी।

महामाया ने ऊपर ताक कर कहा, ‘कागज लाओ... मकान ही नहीं बस्ती के भीतर जितनी दुकानें हैं, वे भी उन्हीं लोगों की हैं। घर-घर में झगड़ा हो रहा है कि उनकी जिद की वजह से पचासो परिवारों की रोजी-रोटी मारी जा रही है। उसने एक-एक दुकानदारों के नाम गिनाने शुरू किए तो उन्हीं के साझीदार, भाई, रिश्तेदार या नौकर-चाकर थे। कोई दुकान छूट जाए तो बच्चे बीच में उचककर याद दिला देते थे। आधे घंटे के भीतर प्रकाश के पास इक्कीस मकानों की रजिस्ट्री के स्टैंप लगे असली कागज जमा हो चुके थे। बीस-बाइस साल पहले वाकई शहर से बाहर की जलभराव वाली जमीन के मनमाने दाम लिए गए थे।

अब अभिजीत ने बोलना शुरू किया ‘असलियत वैसी इकहरी नहीं है, जैसा कि आप लोग सोचते हैं। दरअसल यह आंदोलन ये बुलडोजर वाले चलवा रहे हैं। जलभराव के अगल-बगल के खेत और परती दिल्ली की एक कंस्ट्रक्शन कंपनी ने खरीद लिए हैं। यहां के कई बड़े नेता, बिल्डर और माफिया कंपनी के फ्रेंचाइजी हैं। उन सबकी नजर इस बस्ती पर हैं, गांव और पड़ोस के मुहल्लों के चालाक लोग डीआईजी की शह पाकर आंदोलन इसलिए चला रहे हैं कि वेश्याएं अपने मकान औने-पौने में इन्हें बेचकर भाग जाएं फिर ये उनकी प्लाटिंग करके बिल्डरों की मदद से यहां अपार्टमेंट और मार्केटिंग काम्प्लेक्स बनवाएंगे और रातों-रात मालामाल हो जाएंगे। यकीन न हो तो इनमें से जिनके घर हैं, किसी से पूछ लीजिए दलाल और बिचौलिए मकानों की कीमत लगाने लगे हैं। उन्हें लगता है कि धंधा बंद होने के बाद वेश्याएं यहां ज्यादा दिन नहीं टिक पाएंगी। आप गौर से देखिए जो संस्थाएं आजकल डीआईजी का अभिनंदन करने में लगी हैं, उनका कोई न कोई पदाधिकारी कंस्ट्रक्शन कंपनी या फिर बिल्डरों से जुड़ा हुआ है।

प्रकाश के सीने में फिर से हवा भरने लगी। वह तुरंत उड़ जाना चाहता था। उसे तीस साल पहले इस इलाके की जमीनों के असल रेट और वेश्याओं को की गई रजिस्ट्री के रेट का तुलनात्मक व्यौरा, कंस्ट्रक्शन कंपनी के भू-उपयोग और ले-आउट प्लान का खाका, आंदोलन कर रहे नेताओं और डीआईजी की बिल्डरों से सौदेबाजी के सबूत और कुछ पुराने प्रापर्टी डीलरों और रीयल इस्टेट के धंधेबाजों के बयानों का इंतजाम करना था बस! यह कोई बड़ी बात नहीं थी। रजिस्ट्री दफ्तर, विकास प्राधिकरण और कंस्ट्रक्शन कंपनी के मार्केटिंग डिवीजन और पीआरओ से मिलकर ये सारे काम चुटकी बजाते हो सकते थे। एक सनसनीखेज स्टोरी सीरिज उसकी मुट्ठी में थी। उसने अभिजीत से कहा, ‘हमें एक बार फिर निकलने की कोशिश करनी चाहिए।’

‘अब ज्यादा खतरा है, सुबह से पहले निकलने की सोचिए भी मत, इस समय पुलिस वाले ट्रकों को रोककर वसूली कर रहे होंगे, बौखला जाएंगे।, अभिजीत ने कहा।


एक लड़की ने आकर बताया कि आज रात खाने का इंतजाम रोटी गली में है। ज्यादातर लोग खाकर जा चुके हैं, वे लोग भी पहुंचें, नहीं तो खाना खत्म हो जाएगा। प्रकाश हिचकिचाया तो एक अधेड़ औरत ने हाथ पकड़कर खींचते हुए कहा, ‘हम लोगों का कोठी, बंगला और गाड़ियां सब तो आपने देख ही लिया, अब चलकर खाना भी देख लीजिए। बड़े-बड़े लागों का खाना तो रोज ही खाते होंगे, एक दिन हमारा भी खाइए।

एक गली में पेट्रोमेक्स की रोशनी में वेश्याओं की पंगत बैठ रही थी। बच्चों को पहले ही खिला दिया गया था। यह शायद आखिरी पंगत थी। पत्तल पर जब खिचड़ी और अचार आया तो यास्मीन हंसी, पत्रकार जी आजकल हम लोग यही खा रहे हैं। जो कमाया था डेढ़ महीने में उड़ गया। अगर पैसा हो भी तो सामान लाने निकल नहीं सकते। चोरी-छिपे चावल लाकर यही इंतजाम किया गया है।

प्रकाश अचरज को दबाना चाहता था लेकिन मुंह से निकल गया, ‘तवायफें साधुओं की तरह खिचड़ी खा रही हैं और जहां यह बंट रही है, उस जगह का नाम रोटी ही गली है।’

अभिजीत ने सामने की पंगत में खा रही पत्थर जैसे भावहीन चेहरे वाली एक औरत से कहा, ‘ये पत्रकार है, इनको बताओ रोटी वाली गली को किसने बसाया।’

जल्दी-जल्दी चार-पांच कौर खाने के बाद वह बोलने लगी, असली रोटी गली यहां नहीं कानपुर में है। वहां भी एक पागल पुलिस अफसर आई थीं, नाम था उसका ममता विद्यार्थी, उसने धंधा बंद करा दिया और पीटकर सब आदमियों को भगा दिया। आसपास के लोग भी हमें हटाने के लिए धरना प्रदर्शन करने लगे। डेढ़ साल तक हम लोग बैठकर खाते रहे, सोचते थे कि धंधा फिर शुरू होगा लेकिन नहीं हुआ। सबकी हालत बहुत खराब हो गई तो भागना पड़ा। मेरा बच्चा डेढ़ साल का था और बूढ़ी मां थी। सावित्री, जानकी और रेशमा के भी बच्चे छोटे-छोटे थे। हम लोग किसी परिचित के साथ यहां आ गए। बाकी औरतें कहां-कहां गई पता नहीं। हम लोगों का नाम ही रोटी गली वाली पड़ गया है। प्रकाश जान गया, अगर ये यहां से गईं तो पता नहीं कितने गए मड़ुंवाडीह और आबाद होंगे।

खाना खाने के बाद दोनों बाकी रोटी-गली वालियों के घर गए जहां मोमबत्ती की मद्धिम रोशनी में लटकते चीथड़ों के बीच उने बच्चे बेसुध सो रहे थे। प्रकाश ने ऐसे सैकड़ों घर देखे थे जहां गरीबी, भूख और दीनता बच्चों की आंखों में आंसुओं की पतली परत की तरह जम जाती है और वे दुनिया को हमेशा भय के परदे से देखने के आदी हो जाते हैं। यहां उनकी आंखें बंद थीं। सोते बच्चों की तस्वीरें खींचने के बाद वे फिर अलाव के पास वापस आ गए। वहां एक लूली बुढ़िया, वही रोज वाला किस्सा सुना रही थी कि कैसे एक बारात में नाचते हुए उसने बंदूक की नाल पर रखे सौ रुपए के नोट को छुआ तभी बंदूक वाले ने घोड़ा दबा दिया। उसकी जो हथेली अब नहीं है, उसमें दर्द महसूस होता है। बच्चे उसे चुप कराने के लिए शोर मचा रहे थे।

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