सफरनामा

02 फ़रवरी, 2010

जालों में झूलता एक शहर



नरेवी लवान्गड कुल सत्ताइस के होंगे, शायद बत्तीस के। नूरेमबर्ग में रहते हैं। खुद को काहिल कहने में उन्हें मजा आता है और अपनी कविताएं वे सिगरेट की डिब्बी के भीतर की चमकीली पन्नी के सफेद पेट पर लिखते हैं। फकत एक महिला की पुरानी कब्र को देखने अभी जर्मनी से लखनऊ के रेजीडेन्सी आए। लेकिन उन्हें ठेठ भारतीय शहर जैसा शहर लगा कानपुर, जहां की धूल, पूरे शहर पर छाई चमड़े की हीक और फुटपाथों पर रातों को ढहे बेशुमार लोग सवर्त्र निन्दित हैं। कानपुर पर नरेवी की हाल में लिखी एक कविता का अनुवाद पांच-सात दिनों की सामूहिक माथापच्ची के बाद किया गया है। कनपुरियों से विशेष आग्रह के साथ यह पोस्ट लगाई जा रही है कि वे जरा अपने शहर को इस रोशनी में भी देखें।

श्वेत पताकाएं

पूरे शहर पर जैसे पतली सी एक परत चढ़ी है धूल की।
लाल इमली, एल्गिन, म्योर, ऐलेन कूपर-
ये उन मिलों के नाम हैं
जिनकी चिमनियों ने आहें भरना भी बंद कर दिया है
इनसे निकले कोयले के कणों को
कभी बुहारना पड़ता था
गर्मियों की रात को
छतों पर छिड़काव के बाद बिस्तरे बिछाने से पहले।
इनकी मशीनों की धक-धक
इस शहर का अद्वितीय संगीत थी।
बाहर से आया आदमी
उसे सुनकर हक्का-बक्का हो जाता था।

फिर मकड़ियां आईं।
उन्होंने बुने सुघड़ जाले
पहले कुशल मजदूर नेताओं
और फिर चिमनियों की मुख गुहाओं पर।

फिर वे झूलीं
और फहराईं
फूटे हुए एसबस्टस के छप्परों पर
और छोड़ दी गईं सूनी मशीनों पर
अपनी सफेद रेशमी पताका जैसी।

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