सफरनामा

13 जून, 2008

sarnath की gajarwali

दिन, उस छोटी सी खबर और उससे भी ज्यादा साथ छपी फोटू ने गुदगुदाया। सारनाथ गई एक घुमक्क़ड़ विदेशी युवती ने सड़क की पटरी पर बैठी बुढ़िया से दो रूपए का गाजर खरीदा और स्कूली लड़कों जैसे खिलवाड़ भाव से बिना पैसा दिए जाने लगी। हो सकता है कि युवती को उसमें अपने बचपन की कोई रिगौनी आंटी नजर आ गई हो। लेकिन उस देहातिन को जैसे आग लग गई और वह दौड़कर उस युवती से जूझ गई। युवती को वाकई मजा आ गया, शायद एक गंवई हिन्दुस्तानिन से पहली बार अनायास वास्तविक संवाद स्थापित हो गया था। पुलिस के सिपाहियों और देसी लहकटों को वह रोज झेलती होगी लेकिन उसे बर्दाश्त नहीं था कि कोई ललमुंही विदेशिन उसे उल्लू बनाकर दांताखिलखिल करती हुई चली जाए।इसी बीच गाजर भारत-यूरोप के बीच पुल बन चुका था।फोटू में खड़े युवती के साथी का चेहरा कुछ ऐसा प्रफुल्ल था, जैसे सारनाथ के परदे पर कोई ओरियंटल फिल्म देख रहा हो। उसके आराम से खड़े होने के पीछे का आत्मविश्वास रहा होगा कि वह बुढिया, बैलेंस डाइट पर पली, दिन भर उसके साथ पैदल भारत नापने वाली उसकी छरहरी साथिन का क्या बिगाड़ पाएगी? बाई द वे यह निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि इस युगल को यह घटना जिंदगी भर याद रहेगी। इसमें हाऊ डू यू फील अबाउट बेनारस जैसी रस्मी बोरियत नहीं थी। तंत्र, मंत्र, योगा और होली गंगा का फंदा नहीं था। इसमें खांटी भारतपन था जिसे वे अपने देश जाकर लोगों को बताएंगे।तो अखबार में छपी फोटू में परमआधुनिक यूरोप के साथ एक भारतीय देहातिन भिड़ी हुई थी।कल्पना में न समाने वाला यह पैराडाक्स लोगों को गुदगुदा रहा था। लेकिन गाजर वाली के लिए यह झूमाझटकी कोई खिलवाड़ नहीं थी। ललमुंही विदेशिन के लिए दो रूपए का मतलब कुछ सेंट या पेंस होगा लेकिन गाजरवाली के लिए इसका मतलब है। कुप्पी में डाले गए दो रूपए के तेल से कई रात घर में रोशनी रहती है।दस-बीस के सिक्के चलन से बाहर हो गए हैं फिर भी गाजर का कुछ सेंटीमीटर का पुल पारकर आप उन लोगों की अर्थव्यवस्था में झांक सकते हैं जो हमारे बहुत करीब रहते हुए भी आमतौर पर हमें नजर नहीं आते। मिर्जापुर, सोनभद्र से लाकर महुए के पत्तों के बंडल पान की दुकानों पर बेचने वाले मुसहरों को पत्ता पीछे एक पैसे की आमदनी होती है। रेलवे स्टेशन पर नीम की दातुन बेचने वालों को एक छरका एक रूपए में पड़ता है और वे एक चार टुकड़े कर के आठ-आठ आने में बेचते हैं। चने का होरहा या मौसमी तरकारियां बेचने वालों को देर रात तक सड़कों पर ऐसे ग्राहकों का इंतजार रहता है जो दो रूपया कम ही देकर उनकी परात या खंचिया खाली कर दें। लोग चिप्स का पैकेट बिना दाम पूछे खरीद लेते हैं लेकिन उनसे इस अंदाज में मोल भाव करते हैं जैसे वे उन्हें ठगने के लिए ही आधीरात को सड़क पर घात लगाकर बैठे हों।चूरन, चनामुरमुरा, गुब्बारे, फिरकी और प्लािस्टक के फूल बेचने वाले दस बीस रूपए की आमदनी के लिए सारा दिन गलियों में पैदल चलते रहते हैं। बनारस में अब भी पियरवा मिट्टी के ढेले बिकते हैं, जिन्हें शहनाज हुसैन सबसे बेहतरीन हेयर कंडीशनर बताती हैं। इन्हें बेचने-खरीदने वाले दोनों के लिए दो रूपया रकम है।अभी मार्च के आखिरी हफ्ते में आयकर-रिटर्न भरने में सारा देश पसीना-पसीना हो रहा था। तरह-तरह के खानों वाले ठस सरकारी कागजों का अंबार था और कर विशेषग्यों की चौर्य-कला से विकसित देसी तिकड़में थी। जो चख-चख थी उसका सार यह था कि सरकार बड़ा अत्याचार कर रही है, यदि कोई ईमानदारी से इनकम-टैक्स भर तो भूखों मरेगा और उसके बच्चे भीख मांगेगे। लिहाजा बीमा के प्रीमियम, धर्माथ चंदे और मकान किराए की फर्जी रसीदों, एनएससी वगैरा के जुगाड़ं फिट किए गए ताकि अपना पैसा अपने पास रहे। .यहां कुछ हजार का सवाल था और सारनाथ की गाजरवाली के सामने अदद दो रुपयों का। क्या अब भी ललमुंही विदेशिन से गुत्थमगुत्था बुढ़िया पर अब भी हंसा जा सकता है। अगर आयकर विभाग को झांसा देकर कुछ हजार बचा लेने वाले बाबुओं और सड़क किनारे बैठी बुढ़िया के बीच खरीद-बेच के अलावा कोई और रिश्ता बचा हुआ है तो नहीं हंसा जाएगा।वाकई, क्या ऐसा कोई रिश्ता है?

3 टिप्‍पणियां:

  1. देर आए और दुरुस्त आए। हिंदी ब्लागिंग में आप जैसे लोगों की जरूरत है। पहला ही पीस चौका छक्का माफिक है।

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  2. सर, आपका पोस्‍ट पढ़कर वह फोटू देखने की इच्‍छा हो रही है। कृपया वह फोटू कहीं से भी जुगाड़कर इसमें डालें। पहले हम भी उस लालमुँही विदेशिन और गजरेवाली को देखना चाहते हैं, फिर डिसाइड करेंगे कि हँसना है या नहीं।

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  3. mujhe to hansi nahi aayi..
    sach kahoon to rona aaya.. khud par, logon par, apne desh par..
    kya vo videshi mahila apne desh me bhi aisaa hi karti hogi?? agar karti hogi to kya vahan bhi polish aise hi tamasha dekhti hogi??

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